वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की जीवनी, उनकी खोजों, उनके सापेक्षता के सिद्धांत एवं उनकी पुस्तकों के बारे में विस्तृत जानकारी।
आइंस्टीन के जीवनीकार आबिद रिज़वी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि वे अंतरिक्ष रहस्य, ब्रह्माण्ड की सरंचना जैसे उत्कृष्ट विषयों के साथ-साथ कभी डार्विन तो कभी न्यूटन के सिद्धांतो पर सवाल कर बैठते थे। अध्यापक उनके द्वारा किये जाने वाले प्रश्नों में उलझ जाते थे। कुछ चिढ़ भी जाते थे। इसका कारण यह भी था कि वे आइंस्टीन के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते थे। इस प्रकार आइंस्टीन की जिज्ञासा, उत्तर न मिलने की वजह से और बढ़ जाती थी।
अल्बर्ट आइंस्टीन और उनका सापेक्षता का सिद्धांत
-प्रदीप कुमार
भूमिका:
अल्बर्ट आइंस्टीन को सापेक्षता के सिद्धांत को प्रतिपादित किये हुए सौ से अधिक वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। अब यह सिद्धांत भौतिकी का आधार स्तम्भ बन चुका है। बिना इस सिद्धांत के आधुनिक भौतिकी उसी तरह से असहाय है, जिस प्रकार बिना अणुओं-परमाणुओं की अवधारणाओं के। किन्तु दुःख की बात यह है कि सापेक्षता-सिद्धांत को वैज्ञानिकों को छोड़कर सामान्यजन अब भी पूर्णत: अपरिचित हैं। इसकी गणना उत्कृष्ट तथा जटिल सिद्धांतो में की जाती है। और यह बात भी पूरी तरह से सही है।
आइंस्टीन के सापेक्षता-सिद्धांत की गूढ़ता के बारे में एक घटना विख्यात है। इस सिद्धांत को मानने वाले शुरुआती व्यक्तियों में सर आर्थर एंडिग्टन (Sir Arthur Eddington) का नाम विशिष्ट है। उनके बारे में एक भौतिक-विज्ञानी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ''सर आर्थर! आप संसार के उन तीन महानतम व्यक्तियों में से एक हैं जो सापेक्षता सिद्धांत को समझते हैं।'' यह बात सुनकर सर आर्थर कुछ परेशान हो गये। तब उस भौतिक-विज्ञानी ने कहा- ''इतना संकोच करने की क्या आवश्यकता है सर?" इस पर सर आर्थर ने कहा था- ''संकोच की बात तो नही है किन्तु मैं स्वयं सोच रहा था कि तीसरा व्यक्ति कौन हो सकता है?
सर आर्थर की उपरोक्त टिप्पणी से आपने सापेक्षता-सिद्धांत की क्लिष्टता तथा उत्कृष्टता का अनुमान लगा ही लिया होगा। फिर हमारी यह मान्यता है कि सापेक्षता-सिद्धांत की मुख्य अवधारणाओं को सरल तथा सुलभ शैली में व्यक्त किया जा सकता है। आइंस्टीन ने स्वयं एक बार कहा था कि ''यदि कोई किसी वैज्ञानिक सिद्धांत को समझ सकता है, तो वह सरलता तथा सुलभता से समझा भी सकता है।"
मुझे आशा है कि इस लेख को पढ़ने के बाद पाठक फिर कभी यह नही सोचेंगे कि सापेक्षता-सिद्धांत का अर्थ बस इतना है कि समग्र विश्व में सबकुछ सापेक्ष है। इसके विपरीत पाठक यह सोचेंगे कि विज्ञान के किसी अन्य सिद्धांत की भांति यह भी सत्य को ही व्यक्त करता है।
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सापेक्षता-सिद्धांत की बदौलत हम ब्रह्माण्ड, अंतरिक्ष, समय, गति, द्रव्यमान इत्यादि की पुरानी अवधारणाओं को त्याग कर अब और उत्कृष्टता तथा गहराई से समझने लगे हैं। तो चलिये हम भी इस सिद्धांत की मुख्य अवधारणाओं को इस छोटे से लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश करते हैं।
ठहरिये, यदि मैं सापेक्षता-सिद्धांत की मुख्य अवधारणाओं को सरल तथा सुलभ शैली में अभिव्यक्त कर दूँ, तो क्या इस सिद्धांत को समझने में कोई और भी कठिनाई शेष रह जाती है? हाँ, तो भी दो बड़ी कठिनाईयां हैं। पहली कठिनाई तो यह है कि इसके लिये गणित तथा भौतिकी के पर्याप्त ज्ञान की अवश्यकता है। दूसरी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि सापेक्षता-सिद्धांत मानव के विश्व से समन्धित ज्ञान को खण्डित करती है। जिसे हम 'सामान्य बुद्धि' या 'Common Sense' कहते हैं।
सोलहवीं शताब्दी में यदि मैं यह जाकर कहता कि पृथ्वी एक गोलाकार (पूरी तरह से नहीं) पिंड है तथा पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ परिक्रमा करती है, तो यकीनन वे मेरे कथन को वे स्वीकृत नहीं करते क्योंकि उनके ज्ञान (कॉमन-सेन्स) के अनुसार पृथ्वी सपाट तथा स्थिर थी। तो हम इस लेख में इन दोनों समस्यायों को भी कम करने की कोशिश करेंगे।
अल्बर्ट आइंस्टीन और उनका परिचय:
अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्म जन्म 14 मार्च, 1879 को जर्मनी के उल्म नामक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम हरमन आइंस्टीन (Hermann Einstein) तथा माता का नाम पौलिन (Pauline Einstein) था। बालक आइंस्टीन में अपूर्व बुद्धि का कोई संकेत नहीं था। आइंस्टीन ने बहुत देर से बोलना सीखा। बचपन में आइंस्टीन के चाचा ने आइंस्टीन की रूचि गणित में पैदा कर दी। आइंस्टीन ने बहुत देर से बोलना सीखा। जब आइंस्टीन दस साल के थे, उन्हें एलेमेंट्री-स्कूल में पढने के लिये भेजा गया। वे कभी-कभी तो अध्यापकों से ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे, जो पाठ्यक्रम से बिलकुल अलग होते थे।
आइंस्टीन के जीवनीकार आबिद रिज़वी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि वे अंतरिक्ष रहस्य, ब्रह्माण्ड की सरंचना जैसे उत्कृष्ट विषयों के साथ-साथ कभी डार्विन तो कभी न्यूटन के सिद्धांतो पर सवाल कर बैठते थे। अध्यापक उनके द्वारा किये जाने वाले प्रश्नों में उलझ जाते थे। कुछ चिढ़ भी जाते थे। इसका कारण यह भी था कि वे आइंस्टीन के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते थे। इस प्रकार आइंस्टीन की जिज्ञासा, उत्तर न मिलने की वजह से और बढ़ जाती थी।
आइंस्टीन के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएं:
आइंस्टीन को अपने जीवन की दो घटनाएँ सदैव याद रहीं। पहली घटना थी जब उनके पिता ने पाँच वर्ष की आयु में उन्हें एक कम्पास (दिक्-सूचक) भेंट किया था। दूसरी विशिष्ट घटना थी यूक्लिड की ज्यामिति से प्रथम परिचय। अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद आइंस्टीन ने अध्यापन कार्य करने का फैसला किया, परन्तु उन्हें अध्यापक की नौकरी नहीं मिली। कुछ ही दिनों बाद उन्हें स्विस पेटेंट ऑफिस में नौकरी मिल गयी। आइंस्टीन मिलिवा मैरी (Mileva Marić) नामक एक सर्बियन लड़की से प्रेम करते थे। एक लेखक ने लिखा हैं कि 'वे दोनों अक्सर पुस्तकालय में फिजिक्स की किताबें एक साथ पढ़ते देखे जाते थे।''
अंततः उन्होंने मैरी से विवाह कर लिया। आइंस्टीन ने अपने जीवन में अधिकांश कार्य अन्य लोगों तथा धर्मिक मान्यताओं से हटकर किया, जिसके कारण लोगों ने उनको 'एब्सेंट माइण्ड जिनीयस' (Absent minded genius) जैसी उपाधियों से अलंकृत किया ।
पेटेंट ऑफिस में कार्य करते हुए आइंस्टीन ने सैधांतिक भौतिकी के जितने व्यापक सिद्धांत पर कार्य किया, उसे देख कर अचरज होता है। सन् 1901 से आइंस्टीन ने प्रत्येक वर्ष अपने कार्यों को जर्मन पत्रिका ‘ईयर बुक ऑफ़ फिजिक्स’ में प्रकाशित करवाया। रोचक तथ्य यह कि आइंस्टीन को उस समय समकालीन विज्ञान-सहित्य का ज्यादा ज्ञान भी नही था। सन् 1905 में आइंस्टीन जब केवल 26 साल के थे, उन्होंने चार शोध पत्र प्रकाशित करवाये। ये वही शोध पत्र थे जिसने सैद्धांतिक भौतिकी को झकझोरकर रख दिया। उनमें से एक शोध-पत्र बहुत लम्बा था। उस शोध-पत्र का नाम था- 'ऑन दी इलेक्ट्रो-डायनोमिक्स ऑफ़ मूविंग बॉडीज' (On the electrodynamics of moving bodies)।
यही वह शोध पत्र है, जिसने मानव की संकल्पना ही बदल दी। वास्तव में यह सापेक्षता के विशेष सिद्धांत ( Theory of Special Relativity ) का ही विवरण था । फिर भी आइंस्टीन के सिद्धांतो को भौतिक-विज्ञान में मान्यता 1909 में मिली। आइंस्टीन 1915 में सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत ( Theory of General Relativity ) को प्रस्तुत कर एक बार फिर भौतिकी की नींव हिला दी। आगे चलकर सापेक्षता सिद्धांत की प्रमुख अभिधारणाओं पर प्रकाश डाला जायेगा (हम अब आइंस्टीन के जीवन के बारे में ज्यादा चर्चा नही करेंगे और आइंस्टीन के जीवन के बारे में उतना ही बतायेंगे जिससे काम चल जाये, अन्यथा हम लेख के मूल विषय से दूर हो जायेंगे)।
1922 में आइंस्टीन को नोबल-पुरस्कार मिला, लेकिन मजेदार बात यह है कि नोबेल पुरस्कार उन्हें सापेक्षता सिद्धांत के लिये नहीं मिला था बल्कि 'फोटो-इलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट' (Photoelectric effect) की खोज के लिये मिला था। 1952 में आइंस्टीन को इसराइल का राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव मिला, जिसको उन्होंने अस्वीकृत कर दिया। जीवन के आखिरी दिनों में भी वे 'महाएकीकृत क्षेत्रवाद सिद्धांत' (Grand Unified field theory) पर कार्य करते रहे। 18 अप्रैल 1955 में सर्वकालीन महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का निधन हो गया।
आइंस्टीन को न्यूटन की श्रेणी का भौतिकविद माना जाता है। सापेक्षता-सिद्धांत को समझने के लिए न्यूटन, हाइगेन्स, जेम्स क्लार्क मैक्सवेल इत्यादि के प्रकाश से सम्बंधित विचारों की ओर पुनः अतीत में लौटते हैं।
प्रकाश : तरंग या कण?
सन् 1673 में आइजक न्यूटन (Isaac Newton) ने लन्दन की 'रॉयल सोसाइटी' में एक शोध पत्र प्रकाशित करवाया। उनके शोध-पत्र का शीर्षक था- ‘रंगों तथा प्रकाश के बारे में नया सिद्धांत’। ये वही शोध-पत्र था जिसमें यह पहली बार वर्णन किया गया था कि सफेद प्रकाश वर्णक्रम के विभिन्न रंगो का मिश्रण होता है। इस शोध में न्यूटन ने प्रकाश से सम्बंधित सिद्धांत भी दिया था, जिसे कारपसकुलर सिद्धांत (Corpuscular theory of Light) के नाम से जाना है। इस सिद्धांत के अनुसार प्रकाश छोटे-छोटे कणों से बना होता है। इन छोटे-छोटे प्रकाशीय-कणों को न्यूटन ने कारपसकुलर नाम दिया।
न्यूटन का मानना था कि प्रकाश सरल रेखा में गति करता है क्योंकि कण ही सरल रेखा में गति कर सकता है। उधर जब न्यूटन प्रकाश उत्सर्जन से समन्धित कार्य कर रहे थे उसी समय हाइगेन्स भी प्रकाश के उत्सर्जन से समन्धित सिद्धांत पर कार्य कर रहे थे। हाइगेन्स के सिद्धांत के अनुसार प्रकाश तरंग का बना होता है। हाइगेन्स के अनुसार प्रकाश का प्रसरणशील गोला इस तरह व्यवहार करता है मानो तरंगाग्र का प्रत्येक बिंदु एक समान आवृत्ति युक्त विकिरण का नया स्रोत हो। इसे 'हाइगेन्स सिद्धांत' (Huygen's Wave Theory of Light) के नाम से जाना जाता है।
परन्तु विज्ञान-जगत में उस समय न्यूटन का बहुत दबदबा था इसलिए हाइगेंस के सिद्धांत को उचित महत्व नहीं मिल पाया। एक ब्रिटिश वैज्ञानिक थामस यंग (Thomas Young) ने अपने प्रयोगों के द्वारा हाइगेन्स के तरंग सिद्धांत को प्रयोगिक रूप में सत्यापित किया, किन्तु फिरभी उस सिद्धांत को भौतिक जगत में उतना महत्व नहीं मिल पाया।
स्थिति काफी बेतुकी हो चुकी है, इन दोनों सिद्धांतो में से कौन सा सही हैं? आज हम यह जानते हैं कि अपनी-अपनी प्रयोगात्मक स्थितियों के कारण दोनों ही सिद्धांत सही हैं। परन्तु, जिस प्रकार ध्वनि-तरंगें वायु (हवा) की सहायता से गमन करती हैं उसी प्रकार प्रकाश-तरंगो के लियें भी किसी माध्यम की आवश्यकता है? क्योंकि प्रकाश दूर स्थित तारों तक पहुँचने के लिए शून्य से होकर गुजरता है? ऐसे में यह सवाल उभरता है कि आखिर, वो माध्यम कौन-सा था?
ईथर की परिकल्पना
उस समय वैज्ञानिकों ने प्रकाश के गमन के लिये एक विचित्र माध्यम की कल्पना की, जो सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त था। इस माध्यम को 'ईथर' नाम दिया गया। यह माध्यम 'एक तारे से लेकर दूसरे तारों तक’ सभी स्थानों (अंतरिक्ष) को भर देता था। यह सिद्धांत तब सत्यापित प्रतीत हुआ जब जेम्स क्लार्क मैक्सवेल (James Clerk Maxwell) ने प्रकाशीय-तरंगो को विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के रूप में ज्ञात किया। मैक्सवेल के समीकरणों से यह निष्कर्ष निकला कि विद्युत-चुम्बकीय तरंगे, प्रकाश के बराबर वेग रखती हैं, जिससे प्रकाश के वेग की सटीक गणना भी हो गयी।
ईथर नामक माध्यम की कल्पना करने वाले वैज्ञानिको ने यह भी कहा कि 'ईथर में गतिमान पिंड कभी ऐसे नही खींचता' मतलब जैसे जल में तैरता हुआ लकड़ी का पिंजड़ा (टुकड़ा) अपने साथ जल (पानी) को नही खींचता। ईथर सिद्धांत देने वाले वैज्ञानिकों का यह भी मानना था कि ईथर विश्वव्याप्त तथा स्थिर है और प्रकाश का प्रसरण भी भिन्न दिशाओं में भिन्न होगा। कल्पना कीजिये कि हमारे पास एक ऐसी गाड़ी है, जो ईथर के सापेक्ष स्थिर है, तो प्रकाश का प्रसरण अलग दिशाओं में अलग होगा। यदि ईथर का अस्तित्व है, तो क्या इसके अस्तित्व को प्रमाणित भी किया जा सकता है?
ईथर का अस्तित्व है? या नहीं?
ईथर जैसे माध्यम को बीच में लाने से अनेक ऐसे प्रश्न उठते हैं, जिनका उत्तर हमें नही मिल सकता। जैसे हम वायु (ध्वनि के प्रसरण का माध्यम) के गुणों का अध्ययन हम उसमें केवल ध्वनि-प्रसरण के प्रेक्षण से ही नही करते, बल्कि भौतिकीय और रासायनिक शोध-विधिओं से भी करते हैं। परन्तु ईथर अधिकांश भौतिक तथा रसायनिक गतिविधिओं में भाग नही लेता है। हम वायु के दाब को माप सकते हैं, परन्तु ईथर का दाब नहीं माप सकते हैं। साथ-ही-साथ हम वायु के घनत्व को भी माप सकते हैं, किन्तु ईथर के घनत्व के बारे में जान पाने की सारी कोशिशें निष्फल रही हैं ।
ईथर के अस्तित्व को प्रयोगिक रूप से सत्यापित करने के लिये अमेरिकन भौतिकविद् ए० ए० माइकलसन (Albert Abraham Michelson) ने विश्व-प्रसिद्ध प्रयोग 1881 में किया। उनके प्रयोग का मुख्य उद्देश्य था ईथर सिद्धांत को प्रमाणित करना। माइकलसन ने सोचा यदि विश्वव्याप्त ईथर स्थिर है तो ईथर नामक माध्यम से गुजरने के कारण पृथ्वी को प्रतिरोध का सामना करना चाहिये था और ईथर में एक झोंके जैसी धारा प्रवाहित होनी चाहिये।
पाठक यह मानकर चल सकते हैं कि माइकलसन ने अपने प्रयोग के द्वारा ईथर से पृथ्वी की सापेक्षिक गति मालूम करने का प्रयास किया। पाठक यह भी मानकर चल सकते हैं कि माइकलसन ने यह जानने की कोशिश की, कि प्रेक्षक की अपेक्षा प्रकाश-स्रोत की गति का प्रभाव प्रकाश के वेग पर पड़ता है या नहीं?
अपने प्रयोग के लिये माइकलसन ने सन् 1881 मे 'इन्टरफेरोमीटर' (Interferometer) नामक एक यंत्र का निर्माण किया जिसकी सहायता से प्रकाश को मापक-दंड (पैमाना) मानकर यह प्रयोग किया जा सकता था। उस प्रयोग के परिणाम अदभुत थे; जिसके मुताबिक पृथ्वी की ईथर से प्रतीयमान गति शून्य थी। इसका अर्थ यह था कि या तो पृथ्वी गतिहीन थी या ईथर सिद्धांत गलत था। माइकलसन ने अपने सहयोगी मोर्ले के साथ यह प्रयोग बार-बार दुहराया परन्तु वे ईथर की खोज नही कर सके। लेकिन उनका प्रयोग बार-बार असफल होने के बावजूद विश्व-प्रसिद्ध हो गया। नीचे हम उस प्रयोग का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं।
माइकलसन और मोर्ले का प्रयोग
माइकलसन-मोर्ले प्रयोग (Michelson–Morley experimen) में, स्रोत S से निकलकर प्रकाश एक आधे पालिश किये हुए दर्पण A पर 45 डिग्री के कोण पर टकराता है (सलंग्न चित्र में देखें)। प्रकाश का कुछ अंश दर्पण B तक जाता है और परावर्तित होकर पुनः A पर आता हैं। प्रकाश का शेष अंश A से परावर्तित होकर दर्पण C तक पहुँचता है और वहाँ से फिर वापिस A पर आता है। दोनों प्रकाश की किरणें (Beams of light) A पर मिलती हैं, जहाँ वे 'व्यतिकरण धारियाँ' (Interference fringes) उत्पन्न करती हैं। इन 'व्यतिकरण धारियों' को दूरबीन से देखा जा सकता था। यंत्र को एक अत्यंत मजबूत प्लेटफार्म पर रखा गया था। उस यंत्र को तल के लम्बवत अक्ष पर घुमाया जा सकता था।
मान लीजिये उपरोक्त यन्त्र को ऐसी स्थिति में लगाया गया था कि भुजा AB उस समय आकाश में पृथ्वी के वेग V के समानांतर है। यह भी मान लीजिये कि ईथर में प्रकाश का वेग C है। न्यूटन के सिद्धांत या प्राचीन सिद्धांत के अनुसार, AB के साथ-साथ और यंत्र के सापेक्ष प्रकाश का वेग आगे की ओर C-V हैं और परावर्तन के बाद C+V हैं। AC के साथ-साथ प्रकाश का वेग (रूट में) C का स्क्वायर-V का स्क्वायर है। अगर AB और AC की लम्बाई एक समान हो तो प्रकाश-किरणावली को A से B तक जाने में लगने वाला समय तथा A से C तक जाने और वापस A तक आने में लगने वाला समय अलग-अलग होंगे।
प्रयोग में इन्टरफेरोमीटर इस तरह रखा गया था कि AB पृथ्वी के वेग के समानांतर थी और दूरबीन से व्यतिकरण धारियों की स्थितियों को नोट कर लिया गया था। तब यंत्र को 90 डिग्री के कोण पर घुमा दिया था, इससे AC पृथ्वी के वेग के समानांतर हो गया और AB उसके लम्बवत। हम जानते हैं कि दोनों प्रकाश-किरणावलियों की यात्रा में लगने वाला समय अलग-अलग था, इसलिए व्यतिकरण धारियों के स्थानों में अंतर होना चाहिये। फिर भी बार-बार प्रयोग करने के बावजूद स्थानान्तर नहीं पाया गया। अलग-अलग स्थानों तथा अलग-अलग मौसमों में इस प्रयोग को किया गया फिर भी स्थानान्तर नहीं पाया गया। इसलिये ईथर से होकर गुजरने पर किसी भी प्रकार की गति, विचलन, स्पंदन इत्यादि का कोई भी प्रमाण नहीं मिल सका।
इस प्रयोग से यह निष्कर्ष निकलता था कि या तो पृथ्वी गतिहीन है? या फिर ईथर सिद्धांत गलत? और उस समय यह पूरी तरह से सिद्ध किया जा चुका था कि पृथ्वी गतिशील है। तो पृथ्वी को गतिहीन मानना अतर्कसंगत था। साथ-ही-साथ यह भी साफ़ हो गया था कि ईथर में मापे जाने लायक कोई भी गुणधर्म नहीं थे। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि ईथर से समन्धित वैज्ञानिकों का विचार भ्रांतिपूर्ण था। परन्तु, यदि यह सत्य है कि ईथर प्रकाश के गमन का माध्यम नही है और प्रकाश एक तरंग है तो प्रकाश समग्र ब्रह्माण्ड में किस माध्यम के द्वारा प्रसरण करता है?
माइकलसन-मोर्ले के अनुसार इसका उत्तर था कि प्रकाश एक ऐसा तरंग था जो बिना किसी माध्यम के यात्रा करता है। इस प्रयोग से यह भी पता चला कि प्रकाश की गति प्रकाश के स्रोत या उद्गम की गति पर निर्भर नहीं करता और प्रकाश का वेग हर स्थान पर एक-समान है। इस प्रयोग से यह भी पता चल सका कि न्यूटन के सापेक्षता का सिद्धांत प्रकाश जैसी वस्तुओं पर नहीं लागू होता है। इस सिद्धांत के अनुसार प्रेक्षक की स्थिति न्यूटनी सापेक्षता के सिद्धांत किसी वस्तु की रफ्तार बदल सकती है।
कल्पना कीजिए कि दो भाई हैं। एक का नाम प्रदीप तथा दूसरे का नाम संदीप है। प्रदीप 10 किलोमीटर/घंटा के रफ्तार से दौड़ रहा है तथा संदीप 05 किलोमीटर/घंटा के रफ्तार से दौड़ रहा है। संदीप के अनुसार उसका भाई प्रदीप 05 किलोमीटर/घंटा की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है। तो फिर प्रकाश के मामले में कोई अंतर क्यों होना चाहिए? इसका उत्तर है कि प्रकाश सभी गतियों की तुलना में अलग ढंग से व्यवहार करता है।
क्या प्रकाश के वेग को बदला जा सकता हैं? ऊपर-वर्णित प्रयोग के अनुसार संक्षिप्त उत्तर है-नहीं। प्रकाश का वेग पूर्णतया अपरिवर्तनीय है। किसी भी पिंड का वेग कृत्रिम तौर पर घटाया या बढ़ाया जा सकता है, प्रकाश तथा ध्वनि के वेग को छोड़कर। जानकारी के लिये बता दें कि प्रकाश का वेग हमारी पृथ्वी के घूर्णन वेग (लगभग 32 किलोमीटर/से०) से भी ज्यादा तीव्र होता है। इसका वेग लगभग 300000 किलोमीटर/से०।
सापेक्षता का विशेष सिद्धांत
ज्यूरिख में आइंस्टीन को भौतिकशास्त्र में जो कुछ पढ़ाया गया था वह न्यूटन के पुराने नियमों तथा सिद्धांतों पर आधारित था। आइंस्टीन जब लगभग 16 बर्ष के थे, उन्होंने यह अनुभव किया कि कुछ घटनाएँ न्यूटनीय नियमों के अनुकूल नहीं होतीं किन्तु फिर भी उन्होंने उस समय सैद्धांतिक तौर पर उसका विरोध नहीं किया। परन्तु सन् 1905 के शोध-पत्र में उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया। उस महत्वपूर्ण शोध पत्र का नाम था -'ऑन दी इलेक्ट्रो-डायनोमिक्स ऑफ़ मूविंग बॉडीज' (On the electrodynamics of moving bodies explained
सापेक्षता का विशेष सिद्धांत दो उपधारणाओं (Postulates) पर आधारित है। पहली उपधारणा: हमारे दैनंदिन अनुभव हमें दिखाते हैं कि सीधी तथा एकसमान वेग से चलने वाली गाड़ी में वस्तुओं की गति रुकी हुई गाड़ी में वस्तुओं की गति से जरा भी अलग नहीं होती। यदि मैं किसी स्थिर गाड़ी में एक गेंद को ऊपर फेंकता हूँ तो गेंद सीधे मेरे हाथों में आ गिरेगा और गतिशील गाड़ी में भी ऊपर फेंका गया गेंद भी वापस मेरे हाथों में आ गिरेगा। यदि हम तकनीकी हिचकलों पर ध्यान न दें तो एकसमान वेग से चलती गाड़ी में सबकुछ वैसा ही होता हैं जैसे स्थिर गाड़ी में।
इस प्रकार हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि एक-दूसरे से सापेक्ष सीधी और समरूप गति से चलने वाली सभी प्रयोगशालाओं में पिंड की गति भौतिकी के समान नियमों का पालन करती हैं। इसे गति की सापेक्षता भी कहते हैं। परन्तु रोचक तथ्य यह हैं कि विशेष सापेक्षता की प्रथम उपधारणा की खोज आइंस्टीन ने नहीं बल्कि गैलिलिओ गैलीली (Galileo Galilei) ने की थी ।
दूसरी उपधारणा: इस उपधारणा के अंतर्गत आइंस्टीन ने यह माना कि प्रकाश का वेग हमेशा स्थिर रहता है तथा स्रोत अथवा प्रेक्षण की गति का उस पर कोई प्रभाव नही पड़ता। जैसाकि पहली उपधारणा का स्पष्ट निष्कर्ष है कि एक दूसरे के सापेक्ष गतिमान विभिन्न प्रयोगशालाओं के लिये वेगों के मान भिन्न होने चाहिये। परन्तु दूसरी तरफ प्रकाश का वेग विभिन्न प्रयोगशालाओं के लिये एक-समान रहता है। इसलिए यह सापेक्ष नही है, बल्कि निरपेक्ष सिद्ध होता है। इस उपधारणा को भी माइकसन-मोर्ले के प्रयोगों के बाद भौतिकी में मान्यता तो मिल ही चुकी थी। तो आइंस्टीन ने इन पुराने उपधारणाओं में नया क्या दिया था? दरअसल आइंस्टीन ने इन उपधारणाओं को संयुक्त रूप में प्रस्तुत किया था, नाकि भौतिकी के अलग-अलग नियम के रूप में।
नोट:- लेख के अगले भाग में पढ़ें विशेष-सापेक्षता सिद्धांत तथा सामान्य सापेक्षता-सिद्धांत के बारे में!
स्रोत:
1. Great discovers in modern science by Petrick Pringle
2. What is relativity? by Landau and Rumer
3. All motion is relative by V.B. Kamble
4. परमाणु-युगीन भौतिकी
लेखक परिचय: श्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी दिल्ली के जी.बी.एस.एस. स्कूल में दसवीं के विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ 'विज्ञान के अद्भुत चमत्कार' नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त आप 'साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन' के भी सक्रिय सदस्य के रूप में जाने जाते हैं।
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यह एक भ्रामक प्रचार था कि आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त को बहुत कम लोग समझते हैं। 1 अप्रैल 1921 को जब आइंस्टीन न्यूयार्क पहुँचे तो ऐसे ही एक पत्रकार ने भी यही सवाल दाग दिया, "क्या यह सच है कि दुनिया के केवल 12 व्यक्ति ही सापेक्षता सिद्धांत को समझते हैं?" आइंस्टीन का उत्तर था यह सच नहीं है। वस्तुतः यह बात फ्रांसीसी वैज्ञानिक पॉल लांगेविंन नें कही थी। आइंस्टीन का मत था कि कोई भी भौतिकवेत्ता इस सिद्धांत को पढ़ेगा तो वह इसे सहजता से समझ जायेगा और बर्लिन के उनके सभी विद्यार्थी इसे समझते ही थे। लंगेविन के परिचय में बस इतना कहूँगा कि इनके सम्बन्ध में आइंस्टीन ने लिखा है कि यदि वह स्वयं विशिष्ट आपेक्षिकता की खोज नहीं कर पाते तो लांगेविन देर सवेर अवश्य कर लेते।
जवाब देंहटाएंअनमोल ,मैं आपके बात से पूरी तरह से सहमत हूँ ! वास्तविकता में यह मिथक ही हैं ,कि सापेक्षता-सिद्धांत को बहुत कम लोग ही समझते हैं ! सापेक्षता-सिद्धांत की ही बदौलत लगभग 11 से अधिक लोगों को नोबल-पुरस्कार प्राप्त हो चुका हैं ! यह भी सत्य हैं कि यदि आइंस्टीन और लंगेविन भी नही सापेक्षता सिद्धांत की खोज नही कर पातें तो भी अब-तक सापेक्षता -सिद्धांत की खोज हो चुकी होती ! :)
जवाब देंहटाएंbecause physics is my very very intrested subject
हटाएंVery Nice
जवाब देंहटाएंThanks, Ajay Sharma :)
हटाएंमेरे विचार में भौतिक विज्ञान के कठिन नियम में सापेक्षिकता का सिद्धांत सर्वोपरि है। और शायद यही कारण है कि इसे पढ़ने के बाद बड़े-बड़ों का दिमाग चकरा जाता है।
जवाब देंहटाएंआपने निश्चय ही बहुत सरलता से इसे व्याख्यायित किया है। मैं आपकी मेधा को सलाम करती हूं।
अगली कड़ी की भी प्रतीक्षा रहेगी।
धन्यवाद् आर्शिया अली जी ,आपका कथन सत्य हैं ,सापेक्षता के सिद्धांत को सर्वकालिक महान बौद्धिक उपलब्धि माना जाता हैं ! लेकिन यह ज्यादा कठिन भी नही हैं ,मैं सच कहूँ तो मेरा गणित ( मैथ ) इतना सही नही हैं या फिर मैंने इतना उत्कृष्ट गणित अभी तक नही पढ़ा !
हटाएंलेखक प्रदीप जी और प्रस्तुतकर्ता डॉ.ज़ाकिर अली रजनीश दोनों बधाई के पात्र हैं सहज और सरल भाषा में सापेक्षिकता के सिद्धांत को सामान्य और विशिष्ट जनों तक पहुचाने के लिए
जवाब देंहटाएंधन्यवाद्,अज़ीज़ जौनपुरी जी :) मैं भी प्रस्तुतकर्ता डॉ ० जाकिर अली रजनीश जी के प्रति आभार प्रकट करता हूँ !
हटाएंबहुत अचछे प्रदीप, लगे रहो.. (h) (h)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ,आशीष श्रीवास्तवजी :)
जवाब देंहटाएंआगे के लेख का इंतज़ार है।
जवाब देंहटाएंआधारभूत ब्रह्माण्ड जी ,आगे का लेख मैं अगले महीने तक प्रकाशित करवाऊंगा क्योंकि कल से मेरा SA-1 का पेपर शुरु होगा इसलिए आपको ,कुछ दिनों तक इंतज़ार करना पड़ेगा ! :>) :-s
हटाएंWAH
जवाब देंहटाएंPradeep kumar g
जवाब देंहटाएंSabse pahle main aapko dhanyavaad dena chahunga
Kyunki mai bahot dino se albert einstin k baare me janne ki kosis kr rha tha
बहुत सुंदर और ज्ञान वर्धक लेख |
जवाब देंहटाएंNice
जवाब देंहटाएंसापेक्षता शब्द का अर्थ ही सिध्दांत को बता देता है ... मेरे हिसाब से
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