आंडस्टीन के विशेष सापेक्षता सिद्धांत के प्रमुख प्रभावों एवम् निष्कर्षों की सरल प्रस्तुति।
पिछली कड़ी में आपने अल्बर्ट आइंस्टीन और उनके सापेक्षता सिद्धांत के बारे में विस्तार से जाना। इस क्रम में आपने जाना कि यदि आप एक अंतरिक्ष-यात्री हैं और आप पृथ्वी की घड़ियों के अनुसार पचास साल की अंतरिक्ष यात्रा पर जायें और इतनी तेज़ गति से यात्रा करें कि अंतरिक्ष-यान की घड़ियों के अनुसार केवल एक ही महीना लगे तो पृथ्वी पर लौटने के बाद आप पृथ्वी के लोगों से एक महीना ही अधिक बड़े लगेंगे परन्तु, पृथ्वी के लोग आप से पचास साल अधिक बड़े हो जायेंगे। यदि आप अंतरिक्ष-यात्रा पर जाते समय 30 साल के हों और आप 1 साल का एक बच्चा छोड़कर जायें तो आपके पृथ्वी के लौटने के बाद आपका पुत्र आपसे 20 साल बड़ा होगा।
इस अंक में पढ़ें कि उनका यह विशेष सापेक्षता सिद्धांत क्या है और क्या वह परीक्षण की कसौटी पर खरा साबित हो सकता है।
इस अंक में पढ़ें कि उनका यह विशेष सापेक्षता सिद्धांत क्या है और क्या वह परीक्षण की कसौटी पर खरा साबित हो सकता है।
विशेष-सापेक्षता सिद्धांत के प्रभाव एवं निष्कर्ष
-प्रदीप कुमार
विशेष सापेक्षता सिद्धांत के प्रमुख प्रभावों एवम् निष्कर्षों का वर्णन नीचे किया गया है।
समय-विस्तारण (Time Dilation):-
आइंस्टीन ने विशेष सापेक्षता सिद्धांत की सहायता से निरपेक्ष समय की अवधारणा को भी अस्वीकृत कर दिया। हमारे कॉमन-सेन्स के अनुसार समय निरपेक्ष है क्योंकि यदि हम 'अब' कहते हैं तो सम्पूर्ण विश्व के लिये 'अब' ही है, तो फिर समय सापेक्ष कैसे हुआ? आइंस्टीन का तर्क था कि प्रत्येक प्रेक्षक का अपना 'अब' होता है और समक्षणिकता केवल स्थानीय निर्देश-प्रणाली में ही हो सकती है। समय व्यक्तिगत है, जिस समय प्रेक्षक 'अब' कहता है वह समग्र ब्रह्माण्ड के लिये लागू नहीं हो सकता है। एक ही ग्रह पर स्थित दो प्रेक्षक संकेत अथवा घड़ी के माध्यम से अपनी निर्देश-प्रणाली (पद्धति) में समक्षणिकता ला सकते हैं, परन्तु यह तथ्य उनके सापेक्ष एक गतिशील प्रेक्षक के विषय में लागू नहीं हो सकती है।
अत: सापेक्षता के विशेष सिद्धांत के अनुसार हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि, 'अब' समय की सत्ता समग्र ब्रह्माण्ड में कहीं भी स्थित तथा गतिशील प्रेक्षक के लिये एकसमान या सर्वात्रिक (युनिवर्सल) नही हैं। ये सब तो ठीक है लेकिन समय क्यों सापेक्ष हैं? क्योंकि इसका प्रवाह एक-दूसरे के सापेक्ष दो गतिशील निर्देश-प्रणालिओं के लिये एक-समान नहीं होता। अत: समय सापेक्ष है और इसके लिये उस स्थान का निर्देशन देना आवश्यक है जहाँ से प्रेक्षण किया जाता है। क्या समय की गति स्थिर प्रेक्षक और गतिशील प्रेक्षक के लिये एक समान होती है? सामान्य-बुद्धि के अनुसार हाँ क्यों नहीं?
चाहे हम यात्रा कार में करें या फिर पैदल समय तो एक-साथ ही बीतेगा और अरस्तु तथा न्यूटन का भी तो यही मानना था कि (जैसा कि स्टेफन हाकिंग ने 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम' में लिखा है) दो घटनाओं के बीच के काल-अंतराल मापा जा सकता है, और अनुमानित काल एक ही जैसा होगा चाहे कोई भी (स्थिर अथवा गतिशील) इसका मापन करे बशर्ते एक अच्छी घड़ी का प्रयोग करें। उन दोनों के अनुसार काल दिक् से पूर्णतया मुक्त तथा अलग था। परन्तु इन सब के विपरीत आइंस्टीन का सिद्धांत यह बताता है कि समय की गति दो प्रेक्षकों के लिए एक समान नहीं हो सकती है (हमने ऊपर भी यही निष्कर्ष दिया है)।
आइंस्टीन ने यह भी बताया कि मनुष्य का हृदय भी एक घड़ी की तरह ही है और हृदय की धड़कन भी वैसे ही गति द्वारा कम हो जाती है, जैसे श्वास तथा अन्य क्रियात्मक प्रक्रियाओं की गति कम हो जाती है, लेकिन इस कमी का आभास गतिशील व्यक्ति को नहीं होता है क्योंकि उसकी घड़ी भी धीमी हो जाएगी इसलिए उसके अपनी नब्ज़ की धड़कन 'सामान्य' महसूस होती है। लेकिन भविष्य के तेज़ गति से गतिशील अंतरिक्ष-यानों में यह कमी बहुत अधिक होगी।
यदि आप एक अंतरिक्ष-यात्री हैं और आप पृथ्वी की घड़ियों के अनुसार पचास साल की अंतरिक्ष यात्रा पर जायें और इतनी तेज़ गति से यात्रा करें कि अंतरिक्ष-यान की घड़ियों के अनुसार केवल एक ही महीना लगे तो पृथ्वी पर लौटने के बाद आप पृथ्वी के लोगों से एक महीना ही अधिक बड़े लगेंगे परन्तु, पृथ्वी के लोग आप से पचास साल अधिक बड़े हो जायेंगे। यदि आप अंतरिक्ष-यात्रा पर जाते समय 30 साल के हों और आप 1 साल का एक बच्चा छोड़कर जायें तो आपके पृथ्वी के लौटने के बाद आपका पुत्र आपसे 20 साल बड़ा होगा।
क्या बेतुकी बाते हैं! इन-सब का कोई प्रमाण भी है? वैसे तो अब तक ऐसे परिवर्तनों को मापने के लिये पर्याप्त गति से चलने वाले अंतरिक्ष-यानों (मापक-दण्डों) का निर्माण नहीं हुआ है लेकिन आइंस्टीन के समय-विस्तारण से समन्धित तर्को का सत्यापन दो प्रयोगों द्वारा किया जा चुका है जो निम्न हैं-
पहला प्रयोग:- आइंस्टीन ने सन् 1920 में यह सुझाव दिया कि हाइड्रोजन अणुओं से प्रयोग करने पर उनके तर्क को सत्यापित किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि एक विकिरण-युक्त हाइड्रोजन अणु को घड़ी समझा जा सकता हैं क्योंकि उसमें से सुनिश्चित आवृत्ति की चुम्बकीय तरंगें निकलती हैं और इन तरंगो को स्पेक्ट्रमदर्शक यंत्र स्पेक्ट्रोस्कोप (Spectroscope) की सहायता से मापा जा सकता है। इस प्रयोग को सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एच० आइव्स ने सन् 1926 में किया था। एच० आइव्स ने स्थिर अणुओं से निकली आवृत्तियों की तुलना गतिशील अणुओं से निकली आवृत्तियों से की। इस प्रयोग से यह स्पष्टीकरण मिल गया कि आइंस्टीन की यह अवधारणा बिलकुल सत्य है। फिर भी कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण इस प्रयोग ज्यादा मान्यता नहीं प्राप्त कर सका।
दूसरा प्रयोग:- मिशिगन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने बीसवीं सदी के सातवें दशक में परमाणु-घड़ियों का निर्माण किया। उन घडि़यों की सरंचना तो जटिल थी लेकिन मापन बहुत सटीकता से करती थी। विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने समय-विस्तारण की परिघटना को प्रयोगिक रूप से सत्यापित करने के लिये उन परमाणु-घड़ियों की सहायता ली। वैज्ञानिको ने उनमें से एक घड़ी के समूह को जमीन (पृथ्वी) पर रखा तथा दूसरे समूह को भ्रमणशील हवाई-जहाजों पर रख दिया अर्थात्, पृथ्वी पर उपस्थित घडि़यां स्थिर थीं और हवाई-जहाज पर जो घडि़यां रखी गयीं थीं वह गतिशील! जब गतिशील घड़ियों के समूह को पृथ्वी पर उतारा गया तब उसके समय की तुलना पृथ्वी पर रखी गईं घडि़यों (स्थिर) के समूहों से की गई। देखा गया कि गतिशील घड़ियो के समूहों ने स्थिर घड़ियों की तुलना में कम समय दर्शाया था।
अत: हमारे समय से भी समन्धित अवधारणाओं में भी परिवर्तन हो जाता है। और हम निष्कर्ष निकालते हैं कि यदि एक ही तरह की दो घडि़यां हों और किसी प्रेक्षक के सापेक्ष एक घड़ी स्थिर हो एवम् दूसरी घड़ी एकसमान-वेग से गतिशील हो तो गतिशील घड़ी, स्थिर घड़ी की तुलना में धीरे चलेगी! वैसे वास्तविकता यह है कि समय-विस्तारण की खोज का मूल श्रेय जे० लार्मोर तथा लॉरेंस को दिया जाना चाहिये। परन्तु कुछ लोग इस प्रभाव के अविष्कार का श्रेय आइंस्टीन को देते हैं।
लम्बाई का संकुचन (Length-contraction):-
मान लीजिये कि हमारे पास एक दंड AB की लम्बाई एक ऐसा प्रेक्षक मापता है जो दंड के सापेक्ष स्थिर हो और हमें लम्बाई L० पता चलती है। अब मान लीजिये उस दंड की लम्बाई एक ऐसा प्रेक्षक मापता है जो दंड के लम्बाई के सापेक्ष V वेग से गतिशील हो। इस लम्बाई को हम L कहेंगे। विशिष्ट-सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार दोनों परिणामों की तुलना करने के बाद हमें यह पता चलता है कि L से L० अधिक है। दोनों प्रयोगकर्ताओं द्वारा मापी गई दोनों लम्बाइयों के सम्बंध को इस समीकरण द्वारा व्यक्त किया जा सकता है-
L=L० (2-V² /C² ) 1/2 ...........................................(1)
उपर्युक्त समीकरण में C² का तात्पर्य प्रकाश के वेग से है।
कुछ इस प्रकार की अवधारणा का पूर्वाभास जी० एफ० फिट्जेरोल्ड तथा एच० लारेंस को भी हुआ था। उन्होंने यह सुझाया कि एक गतिशील यंत्र में लगा एक मापक-दंड गति की दिशा में संकुचित होता है। जैसाकि हम इस तथ्य से पूरी तरह से अवगत हो चुके हैं कि किसी गतिमान यंत्र में लगी हुई घड़ी स्थिर अवस्था की अपेक्षा धीरे चलती है (समय-विस्तारण)। गति जितनी ज्यादा होगी मापक-दंड उतना ही अधिक संकुचित होगा और घड़ी उतनी ही धीरे चलेगी। यदि कोई भी गतिमान यंत्र प्रकाश की गति से चले तो मापक-दंड इतना अधिक संकुचित होगा कि घड़ी बंद ही हो जायेगी! इसका मतलब यह है कि किसी यंत्र की गति जितनी ज्यादा बढ़ती है और किसी स्थिर प्रेक्षक को उसका आकार गति की दिशा में उतना ही संकुचित (सिकुड़ता) होता नज़र आता है।
वेग के साथ-साथ द्रव्यमान का परिवर्तन:-
सापेक्षता-सिद्धांत के प्रतिपादन से पूर्व ऐसा माना जाता था कि किसी भी वस्तु का द्रव्यमान उसका विशिष्ट गुणधर्म है, जो हमेशा स्थिर रहता है तथा वस्तु की गति से पूर्णतया मुक्त (अप्रभावित) रहता है। परन्तु अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता-सिद्धांत के शोध-पत्र में द्रव्यमान तथा गति से समन्धित इन पुरानी मान्यताओं को अस्वीकृत कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि यदि किसी प्रेक्षक के सापेक्ष स्थिर किसी वस्तु का द्रव्यमान m० हो तथा जब वही वस्तु प्रेक्षणकर्त्ता के सापेक्ष एक वेग v से गतिशील हो जाये तो उसका द्रव्यमान m होने पर द्रव्यमान तथा गति के परस्पर सम्बंध को निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त किया जा सकता है-
m= m०/√1-V²/ C² .......................................................(2)
यहाँ पर भी C² का तात्पर्य प्रकाश के वेग से है।
इस समीकरण से एक मजेदार निष्कर्ष यह निकलता है कि मान लीजिये हमारे पास कोई भी पदार्थ या फिर कण हो जिसका द्रव्यमान m हो तो उसका वेग यानि v किसी भी हाल में प्रकाश के वेग अर्थात् c से अधिक नहीं हो सकता है। लेकिन यदि m का वेग c से अधिक या फिर बराबर हो गया तो क्या होगा? सापेक्षता-सिद्धांत के अनुसार इस प्रश्न का साफ़ तथा स्पष्ट उत्तर यह है कि जब v=c हो जाये तब √1-V²/ C² का मान 0 (शून्य) हो जाएगा तथा द्रव्यमान अर्थात् m अनंत हो जायेगा। अत: जितनी ही अधिक गति से वस्तु चलेगी उतना ही अधिक उसका द्रव्यमान बढ़ता चला जायेगा और यदि वस्तु की गति प्रकाश के वेग से चलने लगे तो उसका द्रव्यमान अनंत हो जायेगा।
तो इस प्रभाव का अनुभव हम अपने दैनिक जीवन में क्यों नही करते? दरअसल बात यह है कि बड़ी वस्तुओं के साथ प्रयोगों में प्रकाश के वेग का रत्ती भर भी अंश नहीं होता है। अर्थात् m=m० हो जाता है। इस विषय में स्टेफन हाकिंग 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम' में लिखते हैं- "यह प्रभाव केवल प्रकाश के वेग के आसपास किसी वेग पर गतिमान वस्तुओं के लिये ही अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उदहारणत: प्रकाश के वेग के 10 % वेग पर किसी वस्तु का द्रव्यमान उसके साधारण द्रव्यमान से मात्र 0.5 % ही अधिक वृद्धि होता है, परन्तु प्रकाश के 90 % पर यह उसके साधारण द्रव्यमान के दो गुने से भी अधिक होगा। इसी कारण से, प्रकाश-वेग की अपेक्षा कम गति पर चलने से कोई भी साधारण वस्तु सापेक्षता द्वारा हमेशा परिसीमित रहती है। सिर्फ प्रकाश, कण (इलेक्ट्रान, प्रोटोन आदि) या फिर दूसरी तरंगें, जिनका वास्तविकता में कोई द्रव्यमान नहीं होता है, वह अत्यंत विराट (तीव्र) वेग से चल सकती हैं, लगभग प्रकाश या प्रकाश के वेग से अधिक।"
सापेक्षता-सिद्धांत के अनेक प्रभावों की भांति इस प्रभाव की भी पुष्टि प्रयोगिक रूप से सन् 1908 में बचरर नामक वैज्ञानिक द्वारा की गयी थी तथा सन् 1939 में तीन वैज्ञानिकों- एफ० टी० राज़र्स, एम० एम० राज़र्स और ए० मैक्रेनाल्ड्स ने इस अभिधारणा को पुनः प्रयोगिक रूप से सिद्ध किया। 1939 का प्रयोग बचरर के प्रयोग से कहीं अधिक सटीक था, क्योंकि उस प्रयोग में केवल एक प्रतिशत ही अशुद्धि की गुंजाइश थी।
ऊर्जा और द्रव्यमान की तुल्यता:-
आइंस्टीन ने सापेक्षता-सिद्धांत के शोध-पत्र में एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिणाम प्रस्तुत किया, जिसके बारे में हम इस अनुच्छेद में चर्चा करेंगे। शायद सभी लोग रसायन-भौतिकी विज्ञान के कुछ प्रसिद्ध नियमों से परिचित होंगे जिसे सरंक्षण के नियम अथवा अविनाशिता के नियम के नाम से जाना जाता है। इन नियमों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं-संवेग सरंक्षण का नियम, विद्युत-आवेश सरंक्षण का नियम तथा ऊर्जा सरंक्षण का नियम। तो यहाँ पर हम केवल ऊर्जा सरंक्षण के नियम के बारे में चर्चा करेंगे।
ऊर्जा सरंक्षण के नियम के अनुसार, किसी भी वस्तु का द्रव्यमान किसी भी भौतिक अवस्थाओं तथा रसायनिक परिवर्तनों के बावजूद स्थिर रहता है। यह नियम उस सापेक्षता-सिद्धांत के अनुरूप नहीं था, आइंस्टीन ने एक छोटे से फ़ॉर्मूले की सहायता से इस कठिनाई को भी दूर कर दिया। आइंस्टीन ने यह मान लिया कि द्रव्यमान ऊर्जा का ही एक रूप है द्रव्यमान m ऊर्जा की एक मात्र E के तुलनीय हैं। उन्होंने E और m के परस्पर समंध को निम्न सूत्र की सहायता से मालूम किया-
E=mc ² .................................................(3)
अत: ऊर्जा का परिमाण किसी वस्तु के द्रव्यमान और प्रकाश के वेग के गुणनफल के तुलनीय होता है। तथा द्रव्यमान का मात्रक (किग्रा) और ऊर्जा का मात्रक (जूल) के बीच परस्पर परिवर्तन का कारक c² है। मान लीजिये आपके पास एक ग्राम यूरेनियम (परमाणु-बम के निर्माण में उपयोग किया जाने वाला एक पदार्थ) है और यदि आप ऊर्जा-द्रव्यमान सूत्र की सहायता से पदार्थ की कुल ऊर्जा का कलन करेंगे तो वह लगभग 900000000000000000 जूल होगी!
E=mc² सूत्र की सहायता से ऊर्जा सरंक्षण के नियम का विस्तार करके द्रव्यमान को ऊर्जा का ही एक रूप मानकर शामिल कर लिया गया। यह सूत्र तारों तथा सूर्य (तारा) कों शक्ति प्रदान करने वाली ताप-नाभिकीय-प्रक्रिया और परमाणु बमों की विस्फोटक क्षमता की व्याख्या करता है। एक बार आइंस्टीन से एक पत्रकार नें यह पूछा कि छोटे -छोटे कणों में छिपी इस महान ऊर्जा की ओर किसी अन्य वैज्ञानिक का ध्यान क्यों नही गया? उन्होंने जवाब दिया, ''इसका उत्तर बहुत आसान है। ऊर्जा का पता तब तक नहीं लग सकता, जब-तक वह बाहर नहीं आ जाती''। उन्होंने मजाकिया लहजे में यह भी कहा कि, ''अगर कोई धनवान व्यक्ति अपना धन खर्च ही न करे तो लोगों को उसकी सम्पत्ति का पता कैसे चल सकता है?''
आइंस्टीन के इस सूत्र के बारे में एक प्रचलित भ्रान्ति मशहूर है कि उनके इस सूत्र ने परमाणु बम के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ लोगों के नज़रों में आइंस्टीन को अभी भी परमाणु बम के निर्माण का जनक माना जाता है। किन्तु वास्तविकता यह है कि परमाणु बम के निर्माण में आइंस्टीन का योगदान सीमित HI था।
आइंस्टीन का यह (E=mc²) सूत्र (दुनिया के दो प्रसिद्ध सर्वकालिक सूत्रों में से एक है (दूसरा प्रसिद्ध सूत्र पाइथागोरस प्रमेय है)।
अगली कड़ी में में जारी.....
स्रोत:-
1- Great discovers in modern science by Petrick Pringle
2- What is relativity? by Landau and Rumer
3- All motion is relative by V.B. Kamble
4- ATOMIC ERA Physics
5- ABC Of Relativity 4th. reviseded. - B. Russell
6- Space Time and Gravitation
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लेखक परिचय: श्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी दिल्ली के जी.बी.एस.एस. स्कूल में दसवीं के विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ 'विज्ञान के अद्भुत चमत्कार' नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त आप 'साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन' के भी सक्रिय सदस्य के रूप में जाने जाते हैं।
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बेहतरीन विश्लेषण..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद् ! :)
हटाएंबड़ा विद्वतापूर्ण लेख है। बहुत कुछ जानने को मिला इससे।
जवाब देंहटाएंBahut goodh gyan hai, apne to palle nahi para,
जवाब देंहटाएंVibhore Sharma, Bhopal
bahut acha lekh hai
जवाब देंहटाएंbahut badia bitwa aise hi likhte rakho
जवाब देंहटाएंअद्भुत व्यख्या
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