Aryabhata Biography in Hindi
आज हम आपके लिए आर्यभट्ट का जीवन परिचय Aryabhatta Biography in Hindi लेकर आए हैं। आर्यभट की गितनी विश्व के महान खगोल वैज्ञानिकों (Greatest Mathematicians) में होती है। उन्होंने गणित और खगोल विज्ञान से सम्बंधित महत्वपूर्ण नियम प्रतिपादित किये, जिसे पढ़कर आज भी विश्व के श्रेष्ठ वैज्ञानिक चमत्कृत हो उठते हैं। हमें उम्मीद है कि आर्यभट्ट जीवन परिचय About Aryabhatta in Hindi आपको अवश्य पसंद आएगा।
आर्यभट्ट का जीवन परिचय Aryabhatta Biography in Hindi
आर्यभट (Aryabhatta) की गिनती भारत के महानतम वैज्ञानिकों (Mathematician Aryabhatta) में की जाती है। उन्होंने उस वक्त ब्रह्माण्ड के रहस्यों को दुनिया के सामने रखा, जब शेष संसार ठीक से गिनती गिनना भी नहीं सीख पाया था। यही कारण है कि जब भारत सरकार ने 19 अप्रैल 1975 को अपना पहला कृत्रिम उपग्रह छोड़ा, तो उसका नाम ‘आर्यभट’ (Aryabhatta Satellite) रखा।
कुछ लोग आर्यभट को ‘आर्यभट्ट’ भी लिखते हैं, किन्तु यह गलत है। उनका वास्तविक नाम ‘आर्यभट’ ही है। आर्यभट को ‘आर्यभट्ट’ लिखने के पीछे लोगों की धारणा यह है कि ब्राह्मण होने के कारण वे ‘भट्ट’ होने चाहिए। किन्तु उन्होंने तथा उनके पूर्ववर्ती भारतीय वैज्ञानिकों ने सभी जगह उनका नाम आर्यभट ही लिखा है। ‘भट’ शब्द का अर्थ होता है ‘योद्धा’। वास्तव में उन्होंने अपने समय में पुरातनपंथी धारणाओं से एक योद्धा की तरह ही लोहा लिया था
आर्यभट का जन्मः Aryabhatta Date of Birth
कुछ विद्वानों का मत है कि आर्यभट का जन्म कुसुमपुर में हुआ। कुसुमपुर को पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) का एक उपनगर माना जाता है। जबकि कुछ विद्वान पाटलिपुत्र को ही कुसुमपुर के रूप में मानते हैं। इस भ्रम का कारण यह है कि आर्यभट ने अपनी पुस्तक में अपने बारे में कोई जानकारी नहीं दी है। उन्होंने लिखा है, ‘कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 वर्ष है।’ भारतीय काल गणना के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 से माना जाता है। इस तरह से आर्यभटीय का रचना काल 499 ईस्वी ठहरता है। इस प्रकार हमें पता चलता है कि आर्यभट का जन्म 476 में हुआ था।
कुछ विद्वानो का मत है कि आर्यभट का जन्म नर्मदा और गोदावरी के बीच के किसी इलाके में हुआ था, जिसे संस्कृत साहित्य मे ‘अश्मकदेश’ के नाम से सम्बोधित किया गया है। आर्यभट के ग्रंथों को ‘अश्मक स्फुटतंत्रा’ भी कहा गया है। बौद्ध मत के अनुसार अश्मक अथवा अस्सक दक्षिणपथ में स्थित था। आधुनिक विद्वानों ने आर्यभट्ट को चाम्रवत्तम, केरल के निवासी के रूप में मान्यता दी है। इनके अनुसार अस्मका एक जैन प्रदेश था, जो श्रावान्बेल्गोला के चारों ओर फैला था। चाम्रवत्तम नामक स्थान इस जैन बस्ती का ही हिस्सा था।
ज्यादातर विद्वान आर्यभट का जन्म स्थान केरल मानते हैं। यह बात इसलिए ज्यादा प्रामाणिक लगती है क्योंकि आर्यभट द्वारा रचित ग्रंथ ‘आर्यभटीय’ के अधिकाँश भाष्य दक्षिण भारत और विशेषकर केरल में ही रचे गये। आर्यभटीय की मलयालम लिपि में लिखी हुई हस्तलिखित प्रतियाँ भी इस प्रदेश में प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त आर्यभट की विचारधारा के अधिकतर खगोल विज्ञानी भी दक्षिण भारत में ही पाए गये हैं। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आर्यभट का जन्म केरल में ही हुआ था।
इस बात के काफी प्रमाण मिलते हैं कि आर्यभट उच्च शिक्षा के लिये कुसुमपुर गये और वहाँ पर काफी समय बिताया। भास्कर प्रथम (629 ई.) ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। उस समय इसके राज्य का नाम मगध था और इसकी राजधानी थी पाटलिपुत्र। उस समय पाटलिपुत्र में नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। यह अध्ययन का एक विश्वविख्यात केन्द्र था। आर्यभट ने इस विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की और यहीं पर आर्यभटीय की रचना की, जो कालान्तर में बहुत प्रसिद्ध हुई।
आर्यभट की कृतियाँ : Aryabhatta Books
आर्यभट्ट का जीवन परिचय Aryabhatta Biography in Hindi पढ़ते हुए यह पता चलता है कि संस्कृत भाषा में तीन ग्रंथों की रचना की। इनके नाम हैं- दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। कुछ विद्वान इनके ग्रंथों की संख्या 4 बताते हैं। उनके अनुसार उन्होंने ‘आर्यभट सिद्धाँत’ नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना की थी। वर्तमान में इस ग्रंथ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। आर्यभट के मुख्य ग्रंथ का नाम ‘आर्यभटीय’ (कुछ लोग इसे ‘आर्यभटीयम’ भी कहते हैं) है। यह ग्रंथ ज्योतिष पर केन्द्रित है। इसमें वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही साथ इसमें खगोल-विज्ञान के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का भी वर्णन किया गया है।
आर्यभटीय प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण संरक्षित कृति है। आर्यभट ने इसे पद्यबद्ध संस्कृत के श्लोकों के रूप में लिखा है। संस्कृत भाषा में रचित इस पुस्तक में गणित एवं खगोल विज्ञान से सम्बंधित क्रान्तिकारी सूत्र दिये। पुस्तक में कुल 121 श्लोक या बंध हैं। इनको चार पाद (खण्डों) में बाँटा गया है। इन खण्डों के नाम हैं: गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद एवं गोलपाद।
1. गीतिकापाद Gitikapada
आर्यभटीय के चारों खंडों में यह सबसे छोटा भाग है। इसमें कुल 13 श्लोक हैं। इस खण्ड का पहला श्लोक मंगलाचरण है। यह (तथा इस खण्ड के 9 अन्य श्लोक) गीतिका छंद में है। इसीलिए इस खण्ड को गीतिकापाद कहा गया है। इस खण्ड में ज्योतिष के महत्वपूर्ण सिद्धाँतों की जानकारी दी गयी है। इस खण्ड में संस्कृत अक्षरों के द्वारा संख्याएँ लिखने की एक ‘अक्षराँक पद्धति’ के बारे में भी जानकारी दी गयी है।
अक्षराँक पद्धति अक्षरों के द्वारा बड़ी संख्याओं को लिखने की एक असान तकनीक है। इस पद्धति में आर्यभट ने अ से लेकर ओ तक के अक्षरों को 1 से लेकर 1,00,00,00,00,00,00,00 तक शतगुणोत्तर मान, क से म तक के सभी अक्षरों को 1 से लेकर 25 संख्याओं के मान तथा य से लेकर ह तक के व्यंजनों को 30, 40, 50 के क्रम में 100 तक के मान दिये। इस प्रकार उन्होंने छोटे शब्दों के द्वारा बड़ी संख्याओं को लिखने का एक आसान तरीका विकसित किया।
2. गणितपाद Ganitapada
इस खण्ड में गणित की चर्चा की गयी है। इसमें कुल 33 श्लोक हैं। यह खण्ड अंकगणित, बीजगणित एवं रेखागणित से सम्बंधित है, जिसके अन्तर्गत वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, वृत्त का क्षेत्रफल, विषम चतुर्भुज का क्षेत्रफल, प्रिज्म का आयतन, गोले का आयतन, वृत्त की परिधि, एक समकोण त्रिभुज का बाहु, कोटि आदि की चर्चा की गयी है।
3. कालक्रियापाद Kalkriyapada
कालक्रियापाद का अर्थ है काल गणना। इस खण्ड में 25 श्लोक हैं। यह खण्ड खगोल विज्ञान पर केन्द्रित है। इसमें काल एवं वृत्त का विभाजन, सौर वर्ष, चंद्र मास, नक्षत्र दिवस, अंतर्वेशी मास, ग्रहीय प्रणालियाँ एवं गतियों का वर्णन है।
4. गोलपाद Golpada
यह आर्यभटीय का सबसे वृहद एवं महत्वपूर्ण खण्ड है। इस खण्ड में कुल 50 श्लोक हैं। इस खण्ड के अन्तर्गत एक खगोलीय गोले में ग्रहीय गतियों के निरूपण की विधि समझाई गयी है। आर्यभट की खगोल विज्ञान सम्बंधी सभी प्रमुख धारणाओं का वर्णन भी इसी खण्ड में मिलता है।
आर्यभट जोर देकर कहते हैं कि पृथ्वी ब्रह्माँड का केंद्र है और अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। वस्तुतः आर्यभट पहले भारतीय खगोल विज्ञानी थे जिन्होंने स्थिर तारों की दैनिक आभासी गति की व्याख्या करने के लिए पृथ्वी की घूर्णी गति का विचार सामने रखा। परंतु उनके इस विचार को न तो उनके समकालीनों ने मान्यता प्रदान की न ही उनके बाद के खगोल विज्ञानियों ने। यह अनपेक्षित भी नहीं था, क्योंकि उन दिनों आम मान्यता यह थी कि पृथ्वी ब्रह्माँड के केंद्र में है और यह स्थिर भी रहती है।
आर्यभट के गणितीय सिद्धाँत Aryabhatta Contribution to Mathematics
आर्यभट्ट का जीवन परिचय Aryabhatta Biography in Hindi पढ़ने वाले लोग यह जानते हैं कि ‘आर्यभटीय’ (Aryabhatiya) उनका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें उन्होंने बहुत सी गणितीय अवधारणाएँ प्रस्तुत की हैं, जिनमें पाई (pai) का मान प्रमुख है। हम जानते हैं कि किसी वृत्त (Circle) की त्रिज्या (Radius) और परिधि (circumference) के बीच में एक खास सम्बंध होता है। यदि वृत्त के व्यास की लम्बाई को 22/7 अर्थात 3.1416 से गुणा किया जाए, तो उस वृत्त की परिधि की लम्बाई पता चल जाती है। इस बात को आर्यभट ने आज से डेढ़ हजार साल पहले बता दिया था:
चतुर्-अधिकम् शतम् अष्ट-गुणम् द्वाषष्टिस् तथा सहस्राणाम्।
अयुत-द्वय-विष्कम्भस्य आसन्नस् वृत्त-परिणाहस्।।
100 में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर 62000 जोड़ें। इस नियम से 20000 परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है। इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात (4+100)×8+62000)/20000 = 3.1416 होता है, जोकि पाँच अंकों तक शुद्ध मान है। जबकि π = 3.14159265 (8 अंकों तक शुद्ध मान) होता है।
आर्यभट से पूर्व के गणितज्ञों को पाई का ज्ञान नहीं था। इससे यह स्पष्ट है आर्यभट ने स्वयं इस अनुपात को खोजा। आर्यभट्ट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला शब्द, की व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। बाद में इस बात को लैम्बर्ट ने 1761 में सिद्ध किया।
आर्यभट त्रिकोणमिति के सिद्धाँतों के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। आर्यभट ने त्रिकोणमिति (trigonometry) में एक नई पद्धति जिसे ‘ज्या’ (Sine) अथवा ‘भुजज्या’ कहा जाता है, का आविष्कार किया। यह सिद्धाँत अरबों के द्वारा यूरोप तक पहुँचा और ‘साइन’ (sine) के नाम से प्रचलित हुआ। आर्यभट ने अपने ग्रन्थ में sine को अर्ध्-ज्या कहा है, जो बाद में ज्या (jya) के नाम से प्रचलित हुआ।
आर्यभटीय का अरबी में अनुवाद करते समय अनुवादकर्ताओं ने ‘ज्या’ को ‘जिबा’ (jiba) लिखा। धीरे-धीरे यह जिबा से ‘जब’ में परिवर्तित हो गया। जब अरबी के ग्रन्थों का लैटिन में अनुवाद हुआ तो उन्होंने इसे गलती से ‘जेब’ पढ़ा। जेब का अर्थ होता है ‘खीसा’ या ‘छाती’। इसीलिए लैटिन में इस शब्द के लिए ‘सिनुस्’ (sinus) का प्रयोग हुआ, जिसका अर्थ भी छाती था। इस सुनेस् से ही अंग्रेजी का शब्द ‘साइन’ (sin) बना। इसके अतिरिक्त आर्यभट ने बीजगणित तथा अंक गणित के बहुत से महत्वपूर्ण सूत्र दिये, जो गणित की प्रारम्भिक एवं उच्च कक्षाओं में पढ़ाए जाते हैं।
आर्यभट एवं खगोल विज्ञान Aryabhatta Contribution to Astronomy
आर्यभट एक विलक्षण वैज्ञानिक थे। उन्होंने बिना दूरबीन आदि के आकाश का अध्ययन करके खगोल विज्ञान के ऐसे महत्वपूर्ण सूत्र बताए, जिसे बाकी संसार के वैज्ञानिक शताब्दियों बाद समझ पाए। उनके खगोल सिद्धान्त को औदायक सिद्धान्त कहा गया है। इस सिद्धाँत में उन्होंने दिनों को, लंका के नीचे, भूमध्य रेखा के पास, उनके उदय के अनुसार लिया है। हालाँकि उनके कुछ कार्यों मे प्रदर्शित एक दूसरा सिद्धान्त, अर्द्धरात्रिक भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में खगोल विज्ञान सम्बंधी निम्न धारणाएँ प्रस्तुत की हैं:
1. पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है:
उस समय यह मान्यता प्रचलित थी कि पृथ्वी स्थिर है और समस्त खगोल इसकी परिक्रमा करता है। आर्यभट ने अपने अध्ययन से पाया कि यह सिद्धान्त गलत है। उन्होंने कहा कि पृथ्वी गोल है, वह अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है, इसी वजह से हमें खगोल घूमता हुआ दिखाई देता है। उन्होंने आर्यभटीय के 4.9वें श्लोक में लिखा है:
अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्।
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लङ्कायाम्।।
(जैसे चलती हुई नाव में बैठे व्यक्ति को नदी का स्थिर किनारा और अन्य वस्तुएँ गतिमान दिखाई पड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार लंका (भूमध्य रेखा) के मनुष्यों को स्थिर तारे गतिमान दिखाई पड़ते हैं।)
आर्यभट्ट ने पृथ्वी केन्द्रित सौर मण्डल का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि आर्यभट ने ग्रहों की कक्षीय अथवा दीर्घवृत्तीय गति का बिलकुल भी उल्लेख नहीं किया है। साथ ही उन्होंने यह भी नहीं कहा कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।
2. सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण:
प्राचीनकाल में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण को दैत्यों से जोड़ कर देखा जाता था। लोगों का मानना था कि राहु और केतु नामक दैत्य जब सूर्य को खा लेते हैं, तो ग्रहण पड़ता है। आर्यभट ने अपने अध्ययन के द्वारा बताया कि पृथ्वी की छाया जब चंद्रमा पर पड़ती है, तो चंद्रग्रहण होता है। इसी प्रकार चाँद की छाया जब पृथ्वी पर पड़ती है, तो सूर्यग्रहण होता है। उन्होंने आर्यभटीय के चौथे अध्याय के प्रारम्भिक श्लोकों में अपने इस सिद्धाँत को प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने 37वें श्लोक में चंद्रग्रहण का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है:
चन्द्रस् जलम् अर्कस् अग्निस् मृद्-भू-छाया अपि या तमस् तत् हि।
छादयति शशी सूर्यम् शशिनम् महती च भू-छाया।।
3. आकाशीय पिण्डों का घूर्णन काल:
आर्यभट्ट ने अपने अनुभव से स्थिर तारों के सापेक्ष पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूर्णन काल बता दिया था। उन्होंने बताया कि पृथ्वी 23 घण्टे 56 मिनट और 4.1 सेकेण्ड में अपना एक चक्कर लगाती है। जबकि पृथ्वी का वास्तविक घूर्णनकाल 23 घण्टे 56 मिनट और 4.091 सेकेण्ड है। यह समय आर्यभट द्वारा निकाले गये मान के लगभग बराबर ही है। इसी प्रकार आर्यभट ने बताया कि 1 वर्ष 365 दिन, 6 घण्टे, 12 मिनट और 30 सेकेण्ड का होता है। यह गणना भी वास्तविक मान से केवल 3 मिनट 20 सेकेण्ड अधिक है। हमें ध्यान में रखना होगा कि आर्यभट ने ये गणनाएँ आज से डेढ़ हजार साल पहले की थीं। जबकि आज की गणनाएँ बड़ी-बड़ी दूरबीनों आदि की सहायता से की जाती हैं। इस प्रकार की गणनाएँ प्राचीन काल में अन्य खगोल शास्त्रियो ने भी की थीं, किन्तु उनमें आर्यभट्ट के आकलन ही शुद्धता के ज्यादा करीब थे।
आर्यभट की विरासत:
आर्यभट की उनके समकालीन तथा परावर्ती खगोलज्ञों ने तीव्र आलोचना की। आर्यभट द्वारा पृथ्वी की घूर्णन गति को निकालने के लिए युग को चार बराबर भागों में विभाजित करने के कारण खगोल वैज्ञानिक ब्रह्मगुप्त ने उनकी तीखी आलोचना की। किन्तु उन्होंने यह माना कि चंद्रमा एवं पृथ्वी की छायाओं के कारण ही ग्रहण होते हैं। अरबी वैज्ञानिक अल-बरूनी ने ब्रह्मगुप्त द्वारा की गयी आलोचना को अवांछित करार किया और उसने उनके विचारों को खूब सराहा।
आर्यभट के प्रमुख शिष्यों में पाण्डुरंगस्वामी, लाटदेव, प्रभाकर एवं निःशंकु के नाम शामिल हैं। लेकिन अगर किसी ने उनके सिद्धाँतों को व्याख्या के द्वारा जनता तक पहुंचाने का सर्वाधिक कार्य किया, तो वे थे भास्कराचार्य। वास्तव में उनके भाष्यों के बिना आर्यभट के सिद्धाँतों को जानना एवं समझना बहुत दूभर कार्य था।
आर्यभट और उनके सिद्धाँतों के आधार पर उनके अनुयायियों द्वारा बनाया गया तिथि गणना पंचाँग भारत में काफी लोकप्रिय रहा है। उनकी गणनाओं के आधार पर सन 1073 में मशहूर अरब वैज्ञानिक उमर खय्याम एवं अन्य खगोलशास्त्रियों ने ‘जलाली’ तिथि पत्र तैयार किया, जोकि आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेण्डर के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।
आर्यभट के गणितीय एवं खगोलीय योगदान को दृष्टिगत रखते हुए भारत के प्रथम उपग्रह को उनका नाम दिया गया। यही नहीं चंद्रमा पर एक खड्ड का नामकरण तथा इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा 2009 में खोजे गये एक बैक्टीरिया (Bacillus aryabhattai) का नामकरण भी उनके नाम पर किया गया है। उनके सम्मान में नैनीताल (उत्तराखण्ड) के निकट आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (Aryabhatta Research Institute of Observational Sciences. ARIES) तथा पटना में आर्यभट नॉलेज यूनिवर्सिटी Aryabhatta Knowledge University की स्थापना की गयी है। इससे उनके कार्यों की महत्ता स्वयंसिद्ध हो जाती है। (भारत के महान वैज्ञानिक (Famous Scientists of India) पुस्तक के अंश, अन्यत्र उपयोग पूर्णत: प्रतिबंधित)
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