Stress and Tension Relief Tips in Hindi.
आज के भागमभाग भरे जीवन में जिस चीज़ से लोग सबसे ज्यादा त्रस्त हैं, वह है तनाव। तनाव न सिर्फ शरीर के लिए कष्टकारी है, वरन तमाम रोगों का जनक भी माना जाता है। ऐसे में इससे बचने के तरह-तरह के तरीके भी प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। इसी क्रम में आज एम.एल. मुद्गल जी के विचार प्रस्तुत हैं। इन विचारों को आप पढ़ें और हो सके तो इस बारे में अपने विचारों से भी हमें अवगत करायें-
तनाव एवं प्रबन्धन
-एम.एल. मुद्गल
आज जिस विखण्डित समाज में मनुष्य अपने अस्तित्व सिद्ध हेतु प्रयत्नरत वहां विषमताओं से पराभूत अपने आप से प्रतिक्षण जूझ सा रहा है। ईश्वर से प्रदत्त उसके इस विलक्षण तन में छुपा मन थोड़ी देर की शान्ति पाने के लिए नित्य ही छटपटा रहा है। वैज्ञानिक उपलब्धियों से पराभूत समाज में व्याप्त कड़वाहट, अपने स्वार्थ के लिए अन्य का अहित, हिंसा, रागद्वेष और विशेषकर अभावों में से शरवोर परिवारों वैचारिक असन्तुलन मनुष्य जीवन को तनावग्रस्त कर रहा है। तो फिर समस्या इस तनाव को समझने की, विभिन्न श्रातों की जानकारी प्राप्त करने के तथा अन्ततः इसके समर्थ प्रबन्धन द्वारा इसके समूचे उन्मूलन की है।
(अ) प्रथम बशीर बद्र का यह शेयरः-
जिन्दगी ये तो नहीं कि मैंने तुम्हें संवारा ही ना हो।
और कुछ ना कुछ कर्ज़ तेरा हमने उतारा ही ना हो।
(ब) दूसरे स्थान पर मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि इस मानवीय शरीर को पंचकोषीय कहा गया है।
भौतिक शरीर के अंतर्गत = अन्नमय कोष और प्राणमय कोष
मानसिक देह = मनोमयकोष और आनन्दमयकोष आते है।
वैद्युत देह के अन्र्तगत = विज्ञानमय कोष आता है।
(स) तीसरे स्थान पर मैं गीता के बारहवें अध्याय का यह श्लोक आपके समाने रखता हूँ-
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांड़ क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रिय।।
3. प्रथम स्थान पर शायर अपने जीवन में व्याप्त समस्याओं के समाधान, अपनी क्षमता के परिसाधन से चिन्तित एवं तनावग्रस्त है। इसके समर्थन में हम यदि न्यूटन के इस कथन कि For every action, there is equal and opposite reaction को जोड़ दें तो तनाव को और अधिक अच्छी तरह से समझा जा सकता है। यह नियम इस बात को प्रतिपादित करता है कि हमारा यह शरीर किस प्रकार सदैव ही चुनौती भरी समस्याओं से निपटने के लिए प्रयासरत रहता है और इस संघर्ष के दौरान हमारा यह शरीर दो प्रकार के हारमोन Adrenalin और Cortisol उत्सर्जित करता है, जो हमें या तो संघर्ष करने या मैदान छोड़कर (Either to fight or flight) भाग जाने को तैयार करता है।
तनाव इसलिए हमारे शरीर की वह प्रक्रिया है जो उत्तेजनाएं पैदा करता है और इनसे संघर्ष करने के लिए चुनौतियां। लेकिन इन चुनौतियों का सामना करने में हमारा यह शरीर कुछ समय तक तो सक्षम है, लेकिन दीर्घकालीन ये तनाव जब चिरकालिक हो जाता है, तो यह तनाव हमारे शरीर और मस्तिष्क पर कुत्सित प्रभाव डालता है और शारीरिक अन्तर्निविष्ट हारमोनियल सन्तुलन को बिगाड़ता है।
इस सन्दर्भ में आपके सामने दो पंक्तियाँ प्रस्तुत करता हूँ
गंगा जली गरल से भरली गंगा जल बदनाम कर दिया।
जो कुछ किया नैनों ने काजल को बदनाम कर दिया।।
इस काव्यांश में गंगाजल की पवित्रता को कलुषित करने का सार्थक प्रयास है। ऐसे प्रयासों को हम शाश्वत भी कह दें तो कोई दुस्साहस नहीं होगा। ऐसे प्रयास व्यक्ति की अनवरत निश्चल सोच को दूषित कर समाज को तनावग्रस्त करते हैं।
4. द्वितीय स्थान पर मैंने भारतीय आयुर्विज्ञान पर आधारित शरीर विज्ञान पर थोड़ी सी दृष्टि डालने का प्रयास किया था। इसके अनुसार मनोगत भावना को तरंगमय होने से पूर्व विद्युत रूप से परिवर्तित होना पड़ता है और तरंगित होकर भौतिक देह में मूर्तरूप धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार तनाव ग्रस्त व्यक्ति का इम्यून सिस्टम दो प्रकार के natural killer cell and cytokines संकेत सैल्स उत्पन्न करता है। ये सेल्स मनुष्य के मस्तिष्क में एक कृत्रिम अलार्म उत्पन्न करता है, जिससे वह व्यक्ति एक बीमार व्यक्ति की तरह तमेचवदेम करता है। फिर शरीर बुखार, निंद्रालुता थकावट, भूख न लगना और सरदर्द जैसी उत्पीड़न महसूस करता है। बिगड़े हुए और करोनिक तनावग्रस्तो में oral ulcer, gastic ulcers, asthma irregular heart beat और irritable bowel syndrome आदि पैदा कर सकता है। Blood pressure, heart attack और आत्मघात जैसे वृति को पैदा कर सकता है।
5. तनाव जब इतना घातक है तो इसके उन्मूलन अथवा इसके प्रबन्धन की ओर भी ध्यान होना भी अति आवश्यक है। मैंने अपने इस कथन के प्रारम्भ में गीता के 12वें अध्याय के एक श्लोक का हवाला दिया था। इस श्लोक के अनुसार जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, ना शोक करता है, ना कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है वह भक्तियुक्त पुरूष मुझे प्रिय है। हम अपने आधुनिक रहन-सहन को एक परखनली में डालकर देखें तो इसकी तलहटी में रागद्वेष, इर्षा, द्वन्द्व, अपने को आगे बढ़ने की दौड़ में दूसरों के पीछे छोड़ने इच्छा, दूराचार, इसके अतिरिक्त कुछ मिलेगा ही नहीं। तो आवश्यकता हमें अपनी आधुनिक जीवन शैली में आमूल परिवर्तन लाने की है।
क्योंकिः-
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्ण सुख दुःखेषु तथा मानापमानयो।।
अर्थात सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तकरण की वृतियाँ भली-भान्ति शान्त है, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरूष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित है। अर्थात स्वाधीनता परमानन्द का एक श्रोत साधन बन सकती है और जहां परमानन्द की स्थिति है वहाँ तनाव का गुजारा सम्भव नहीं है। परन्तु ऐसी स्वाधीनता के लिए निर्भयता की भी आवश्यकता है। गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘श्री रामचरित मानस’ के सुन्दरकाण्ड के इस दोहे की ओर ध्यान दीजिएः-
सचिव वैद गुरू तीन जो प्रिय बोले भय आसा।
राजधर्म तन तीनकर बेगंहि होवहि नाशा।।
अर्थात आपके मन में जो है उसे नि:सन्देह खुलकर बोलिये अन्यथा आप घुटन महसूस करेगें
ध्यान और योगाभ्यास तनाव का भंयकर शत्रु सिद्ध हुआ है। अतः जीवन शैली में सुधार लाने के लिए ध्यान करने या लगाने का अभ्यास नित्य ही किया जा सकता है। सर अरविन्द अाश्रम की एक छोटी सी किताब है ‘पवित्र’ उसमें लिखा है कि हमारा ये मस्तिष्क पब्लिक पार्क की तरह है जिसमें विचार आते और जाते हैं। उनमें से किसी पर आपका ध्यान जाता है और बहुतों पर नहीं। अपने को उनके सम्पर्क में लाये बगैर उनका खेल देखिये। आप पायेंगे कि आपकी चेतना आपका मस्तिष्क स्वयं है और एक शान्त साक्षी की तरह अलग है। इस प्रकार के सतत् प्रयास से विचारों की हलचल में कमी आयेगी और धीरे-धीरे कमजोर पड़ जायेगी। ये ध्यान लगाने की अनेक प्रक्रियाओं में से एक हो सकती है। ध्यान के संदर्भ में गीता का छटा अध्याय बहुत कुछ कहता है। इस अध्याय से इस श्लोक की ओर मै आपका ध्यान अवश्य चाहूँगा-
यदा विनियत चित्तमात्मन्थेवावतिष्टते।
निःस्पृहः सर्व कामेभ्योयुक्त इत्युच्यते तदा।।
अर्थात अत्यन्त वश में किया हुआ चित जिस काल में परमात्मा में ही भली-भान्ति स्थित हो जाता है उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरूष योग युक्त है। अतः ध्यान हमेशा दैवीय शक्ति में निहित एवं समर्पित होके करना चाहिए क्योंकि हमारा यह भौतिक शरीर और इस समस्त सृष्टि में ईश्वरीय शक्ति उसकी विभूति और आनन्द के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। लेकिन जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही है। जिस समय यह मन, मैं और मेरापन के होने के कारण होने वाले काम लोभ विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है उस समय वह सुख दुःख से छुटकर सम अवस्था में आ जाता है और यह अवस्था ध्यान के बिना सम्भव नहीं है।
III. ध्यान के अतिरिक्त तनाव उन्मूलन में अपने मित्रों एवं पैट्स के साथ लम्बे घूमने जाना, धुम्रपान एवं मदिरापान से दूर रहना, चीनी, चाय, काफी के सेवन को कम करना, उच्च कैलोरीयुक्त भोजन का परित्याग और अच्छा संगीत सुनना भी लाभप्रद हो सकता है।
IV. अत्यधिक व्यस्त शैली में बहुत देर तक काम करने से मनुष्य ने अपने आपको अकेला कर लिया है और अकेलापन तनाव की वृद्धि करता है। अतः लोगों से सम्पर्क बढ़ायें, उत्सवों में अपनी उपस्थिति दर्ज करायें तथा लोगों से बातचीत करें और अन्त में डाक्टर के पास जाना ना भूलें और आप स्वयं अपने मन की सुध लें।
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आधुनिक जीवन शैली के साथ तनाव एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में उभरा है ... स्ट्रेस मेनेजमेंट जरूरी हो गया है ,उपयोगी आलेख
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेखन
जवाब देंहटाएंस्ट्रेस का मूल भय है जो सृष्टि के आरम्भ से व्याप्त है । सर्व प्रथम मनुष्य जंगली जीवों से भयभीत हुआ उसने आग बनाई ततपश्चात समूह परिवार ( समाज)