Bhaskaracharya Biography in Hindi
आज हम आपके लिए भास्कराचार्य का जीवन परिचय Bhaskaracharya Biography in Hindi लेकर आए हैं। इसे आप भास्कराचार्य द्वितीय की जीवनी Bhaskaracharya in Hindi भी कह सकते हैं। सम्पूर्ण विश्व में उनकी गिनती महान गणितज्ञ Greatest Mathematicians के रूप में होती है। उन्होंने गणित, ग्रहों और ज्योतिष सम्बंधी महत्वपूर्ण स्थापनाएं दी हैं। हमें उम्मीद है कि भास्कराचार्य का जीवन परिचय Bhaskaracharya Biography in Hindi आपको पसंद आएगा।
भास्कराचार्य द्वितीय की जीवनी - Bhaskaracharya in Hindi
भारतीय इतिहास में भास्कराचार्य नामक दो विद्वानों की चर्चा मिलती है, जिन्हें भास्कराचार्य प्रथम (Bhāskara i ) एवं भास्कराचार्य द्वितीय ( Bhāskara ii ) के नाम से जाना जाता है। जहाँ तक भास्कराचार्य प्रथम की बात है वे दर्शन तथा वेदान्त के ज्ञाता थे। उनका जन्म ईसा बाद 9वीं शताब्दी में हुआ था। जबकि भास्कराचार्य द्वितीय एक गणितज्ञ एवं खगोल शास्त्र के विद्वान थे। जबकि भास्कराचार्य द्वितीय एक भारतीय गणितज्ञ Indian Mathematician एवं खगोल शास्त्र के विद्वान थे। यहाँ पर भास्कराचार्य द्वितीय की जीवनी Bhaskaracharya in Hindi के बारे में विस्तार से चर्चा की गयी है।
भास्कराचार्य का जन्म Bhaskaracharya Date of Birth
प्राचीन भारत के अन्य विद्वानों की तरह गणितज्ञ भास्कराचार्य ( Bhaskaracharya mathematician ) के बारे में भी ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। उन्होंने अपने प्रमुख ग्रन्थ ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ में अपने बारे में लिखा है कि उनका जन्म शक-संवत 1036 में हुआ था और उन्होंने 36 वर्ष की आयु में इस ग्रन्थ की रचना की है। शक-संवत ईसवी सन से 78 वर्ष प्राचीन है। इस प्रकार 1036 में 78 वर्ष जोड़ने पर उनका जन्म वर्ष 1114 ईसवी ठहरता है। भास्कराचार्य ने अपने जन्म स्थान के बारे में लिखा है कि उनका जन्म सह्याद्रि पर्वत-प्रदेश में स्थित विज्जडविड नामक गाँव में हुआ था। सह्याद्रि पर्वत महाराष्ट्र में स्थित है, किन्तु उनका गाँव विज्जडविड महाराष्ट्र के किस जिले में स्थित है, यह ज्ञात नहीं हो सका है।
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भास्कराचार्य के पिता महेश्वराचार्य एक उच्च कोटि के गणितज्ञ ( Great Mathematician of India ) थे। उनके प्रभाव से ही भास्कराचार्य की गणित में रूचि जागृत हुई। प्राप्त जानकारी के अनुसार भास्कराचार्य का कार्य क्षेत्र उज्जैन माना जाता है। मध्य प्रदेश स्थित इस स्थान पर उन्होंने विद्या का अध्ययन किया और वहीं पर रहकर अपने ग्रन्थों की रचना की। कुछ विद्वानों का मत है कि भास्कराचार्य उज्जैन स्थित ज्योतिषीय वेधशाला के प्रधान थे और वहीं पर रहकर उन्होंने अपने ग्रन्थों का प्रणयन किया।
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आमतौर से यह देखने में आता रहा है कि प्राचीनकाल के विद्वान किसी राज-दरबार के संरक्षण में रहकर अपना रचनाकर्म किया करते थे। इस कारण वे अपनी कृतियों में अपने संरक्षकों की मुक्त कंठ से प्रशंसा भी किया करते थे। किन्तु भास्कराचार्य के ग्रन्थों में इस तरह का कोई वर्णन नहीं मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि भास्कराचार्य स्वतंत्र प्रकृति के विद्वान थे और बिना किसी राजा की सहायता के अपना अनुसंधान कार्य करने में रूचि रखते थे।
भास्कराचार्य की कृतियाँ Bhāskara ii Books
भास्कराचार्य द्वितीय की जीवनी Bhaskaracharya Biography in Hindi में उनकी कृति ‘सिद्धाँत शिरोमणि’ (Siddhanta shiromani) का विशेष महत्व है। ‘सिद्धाँत शिरोमणि’ में भास्कराचार्य ने गणित और खगोल विज्ञान के सिद्धाँतों की चर्चा है। इस ग्रन्थ की रचना उन्होंने 36 वर्ष की आयु में वर्ष 1150 ई0 में की थी। यह ग्रन्थ पद्य में है और संस्कृत भाषा में रचा गया है। उस समय तक देश में प्रांतीय भाषाओं का जन्म हो चुका था और संस्कृत सिर्फ विद्वत समाज में ही प्रयोग में लाई जाती थी। लेकिन इसके बावजूद भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ की रचना संस्कृत में की। संस्कृत में होने के कारण यह पुस्तक इतनी गूढ़ मानी जाती थी कि हर किसी के लिए उसे समझना टेढ़ी खीर था। इसी कारण उनके समय में कुछ विद्वान यह कहने लगे थे कि ‘सिद्धाँत शिरोमणि’ को या तो स्वयं भास्कराचार्य समझ सकते हैं या फिर सरस्वती। भास्कराचार्य को भी जब इस बात का एहसास हुआ, तो उन्होंने स्वयं अपने ग्रन्थ की एक आसान टीका तैयार की और उसका नाम दिया ‘वासना भाष्य’।
सिद्धाँत शिरोमणि (Siddhanta Shiromani Book)
गणितज्ञ भास्कराचार्य ( Bhaskara mathematician ) द्वारा रचित सिद्धाँत शिरोमणि (Siddhānta shiromani) एक वृहद ग्रन्थ है, जिसे चार पुस्तकों में बाँटा गया है। इन पुस्तकों के नाम हैं: पाटीगणित या लीलावती, बीजगणित, गोलाध्याय और ग्रहगणित। पाटीगणित में भास्कराचार्य ने संख्या प्रणाली, शून्य, भिन्न, क्षेत्रमिति आदि विषयों पर प्रकाश डाला है। ये सूत्र हाई स्कूल की कक्षाओं में पढ़ाए जाते हैं। पाटीगणित पुस्तक ‘लीलावती’ ( Lilavati book of mathematics ) के नाम से भी जानी जाती है। यह पुस्तक लीलावती नामक स्त्री को सम्बोधित है।
‘सिद्धाँत शिरोमणि’ के दूसरे खण्ड का नाम बीज गणित है। भास्कराचार्य ने बीजगणित को ‘अव्यक्त गणित’ के रूप में सम्बोधित किया है। चूँकि बीजगणित की गणना अज्ञात अथवा अव्यक्त राशियों के द्वारा की जाती है, इसीलिए प्राचीन काल में इसे अव्यक्त गणित कहा जाता था। हम जानते हैं कि बीजगणित में इन अज्ञात राशियों के लिए क्ष, य जैसे अक्षरों का प्रयोग होता है। प्राचीन काल में इन्हें ‘यावत्-तावत्’ कहकर सम्बोधित किया जाता था तथा लेखन में इनके लिए ‘या’ का प्रयोग होता था। भास्कराचार्य ने अपनी इस पुस्तक में धनात्मक तथा ऋणात्मक राशियों की चर्चा की है। उन्होंने सर्वप्रथम यह बताया कि दो ऋणात्मक संख्याओं के गुणनफल का मान धनात्मक होता है। उन्होंने कहा कि किसी एक ऋणात्मक संख्या में दूसरी ऋणात्मक संख्या से भाग देने पर जो भागफल प्राप्त होगा, वह धनात्मक होगा। उन्होंने बताया कि धनात्मक संख्या में ऋणात्मक संख्या से गुणा करने पर गुणनफल का मान ऋणात्मक होगा तथा धनात्मक संख्या में ऋणात्मक संख्या से भाग देने पर भागफल का मान ऋणात्मक होगा।
भास्कराचार्य ने इसी खण्ड में शून्य एवं अनन्त के बारे में चर्चा मिलती है। उनके अनुसार किसी संख्या में शून्य से भाग देने पर भागफल का मान अनन्त होगा। उन्होंने अनन्त की चर्चा करते हुए उसे ‘ख-हर’ नाम दिया। यहाँ पर ‘ख’ का तात्पर्य शून्य से है। उन्होंने बताया कि जिस संख्या के हर स्थान में शून्य हो, वह संख्या अनन्त अर्थात ‘ख-हर’ होगी।
गोलाध्याय नामक खण्ड में भास्कराचार्य ने ग्रहों की गतियों तथा ज्योतिष सम्बन्धी यन्त्रों की कार्य प्रणाली की चर्चा की है। उन्होंने इस अध्याय में उन यन्त्रों का भी वर्णन किया है, जिनके द्वारा वे खगोलीय पर्यवेक्षणों को सम्पन्न करते थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने इस खण्ड में खगोल विज्ञान से सम्बंधित अनेक नियमों का भी प्रतिपादन किया है।
भाष्कराचार्य ने इसी भाग में गुरुत्वाकर्षण की चर्चा है। लीलावती उनसे पूछती है: ‘यह पृथ्वी, जिस पर हम निवास करते हैं, किस पर टिकी हुई है?’ लीलावती के इस प्रश्न के जवाब में भास्कराचार्य ने कहा, ‘बाले, कुछ लोग यह कहते हैं कि यह पृथ्वी शेषनाग, कछुआ, हाथी या अन्य किसी वस्तु पर टिकी है। वे लोग गलत कहते हैं। क्योंकि यदि यह मान लिया जाए कि पृथ्वी किसी वस्तु पर टिकी हुई है तो यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि वह वस्तु किसपर टिकी हुई है? इस प्रकार कारण का कारण और फिर उसका कारण... यह क्रम कभी समाप्त नहीं होगा।
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यह सुनकर लीलावती बोली- ‘लेकिन फिर भी यह प्रश्न बना रहता है कि पृथ्वी किस चीज पर टिकी है?’ इसपर भास्कराचार्य ने कहा, ‘हम यह क्यों नहीं मान सकते कि पृथ्वी किसी भी वस्तु पर नहीं टिकी है? ...यदि हम यह कहें कि पृथ्वी स्वयं के बल से टिकी है और इसे धारणात्मिका शक्ति कह दें तो इसमें क्या दोष है? अपनी इस बात के समर्थन में भास्कराचार्य ने वस्तुओं की शक्ति की विवेचना की है:
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो, विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
(सिद्धाँत शिरोमणि गोलाध्याय-भुवनकोश-5)
(सिद्धाँत शिरोमणि गोलाध्याय-भुवनकोश-5)
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं, गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति, समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
(सिद्धाँत शिरोमणि गोलाध्याय-भुवनकोश-6)
आकृष्यते तत्पततीव भाति, समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
(सिद्धाँत शिरोमणि गोलाध्याय-भुवनकोश-6)
(अर्थात् पृथ्वी में स्वयं की आकर्षण शक्ति है। वह अपनी आकर्षण शक्ति से पदार्थों को अपनी ओर खींचती है। इसी आकर्षण के कारण वह धरती पर गिरते हैं। पर जब आकाश में (विभिन्न ग्रहों के द्वारा) समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि आकश में स्थित सभी ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ आपस में संतुलन बनाए रखती हैं।)
इससे स्पष्ट है कि भास्कराचार्य ने न्यूटन से 550 वर्ष पूर्व गुरूत्वाकर्षण के बारे में बता दिया था। यदि उनके इस सिद्धाँत की ठीक ढ़ंग से व्याख्या की जाती और उसका प्रचार-प्रसार होता, तो यह सिद्धाँत भास्कराचार्य के नाम से जाना जाता।
सिद्धान्त शिरोमणि के ग्रहगणित नामक खण्ड में भास्कराचार्य ने ग्रहों के बीच की सापेक्षिक गति तथा ग्रहों की निरपेक्ष गति की चर्चा है। इसके साथ ही साथ उन्होंने इस पुस्तक में काल, दिशा तथा स्थान सम्बन्धी बिन्दुओं पर भी प्रकाश डाला है। इसके अतिरिक्त उन्होंने सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण इत्यादि विषयों की भी चर्चा की है।
भास्कराचार्य और लीलावती Bhaskaracharya Lilavati
भास्कराचार्य की पाटीगणित पुस्तक ‘लीलावती’ ( Lilavati book of mathematics ) के नाम से भी जानी जाती है। यह पुस्तक लीलावती नामक स्त्री को सम्बोधित है। भास्कराचार्य ने अपनी पुस्तक में कहीं पर लीलावती को ‘सखी’ कहकर सम्बोधित करते हैं, कहीं ‘प्रिये’ तो कहीं ‘बाले’। इससे कहीं भी यह पता नहीं चलता है कि लीलावती से उनका क्या सम्बंध था?
लीलावती रिश्ते में उनकी पुत्री थी अथवा प्रेमिका? इस सम्बंध में संस्कृत के अन्य प्राचीन ग्रन्थ भी चुप हैं। लेकिन देखने में यह आया है कि बाद के विद्वानों ने लीलावती को भास्कराचार्य की पुत्री के रूप में चित्रित किया है। भास्कराचार्य का जीवन परिचय Bhaskaracharya Biography in Hindi पढते समय पता चलता है कि अकबर के दरबारी कवि फैजी ने जब ‘लीलावती’ का फारसी में अनुवाद किया, तो उन्होंने लीलावती को उनकी पुत्री बताया। यही नहीं उन्होंने लीलावती का एक रोचक किस्सा भी अपने ग्रन्थ में जोड़ दिया। वह किस्सा कुछ इस प्रकार है:
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लीलावती के जन्म के समय भास्कराचार्य को पता चला कि उसका वैवाहिक जीवन कष्टप्रद होगा। इससे वे चिंतित हो गये। उन्होंने अपनी गणनाओं से यह निष्कर्ष निकाला कि यदि लालावती की शादी एक खास मुहुर्त पर की जाए, तो इस स्थिति को बदला जा सकता है। उस शुभ मुहुर्त को याद रखने के लिए उन्होंने एक जलघड़ी बनाई। उसमें एक निश्चित मात्रा में पानी भरने के बाद उसे एक सुरक्षित स्थान पर रख दिया। बीच में अचानक भास्कराचार्य को कहीं जाना पड़ा। लीलावती जिज्ञासावश उस जलघड़ी को देखने लगी। उसी दौरान उसके हाथ से फिसलकर एक मणि जलघड़ी में गिर गयी। इससे जलघड़ी में बना पानी टपकने वाला छिद्र बंद हो गया और भास्कराचार्य द्वारा निकाले गये मुहुर्त में लीलावती की शादी नहीं हो सकी। इससे भास्कराचार्य बहुत दु:खी हुए। उसी क्षण उन्होंने यह निश्चय किया कि वह अपनी पुत्री को ग्रह-नक्षत्र की गतियों को समझने वाली विद्या सिखाएँगे। तत्पश्चात उन्होंने लीलावती को उस गूढ़ विद्या का ज्ञान दिया और उन सारी बातों को संकलित करके ‘लीलावती ग्रन्थ' ( Lilavati book ) की रचना की।
फैजी के लिखने के बाद यह किस्सा इतना लोकप्रिय हो गया कि लीलावती को उनकी पुत्री के रूप में जाना जाने लगा। जबकि भास्कराचार्य की पुस्तक में इस बात का कोई जिक्र नहीं मिलता है। इससे पता चलता है कि यह किस्सा पूरी तरह कपोल कल्पित है और इसका वास्तविकता से कोई सम्बंध नहीं है।
महाभास्करीय (Mahabhaskariya Book)
भास्कराचार्य Bhaskaracharya Biography in Hindi की एक अन्य प्रमुख कृति है महाभास्करीय, जिसमें उन्होंने आर्यभटीय के खगोलविद्या सम्बंधी अध्यायों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। एस.एन. सेन द्वारा रचित पुस्तक ‘ए कंसाइज हिस्ट्री ऑफ साइंस इन इंडिया’ के अनुसार इस पुस्तक में कुल आठ अध्याय हैं। भास्कराचार्य ने इस पुस्तक में मुख्य रूप से निम्न विषयों पर चर्चा की गई हैः
1. ग्रहों के मध्य के रेखाँश एवं अनिर्धार्य विश्लेषण।
2. रेखाँश संशोधन।
3. समय, स्थान, दिशा, गोलीय त्रिकोणमिति, शर एवं चंद्र ग्रहण।
4. ग्रहों के वास्तविक रेखाँश।
5. सूर्य एवं चंद्रग्रहण।
6. ग्रहों का उदय-अस्त एवं युति।
7. खगोलीय नियताँक।
8. तिथि एवं विविध उदाहरण।
आर्यभट (Aryabhatt) ने जहाँ खगोल विज्ञान से सम्बंधित अनिर्धार्य विश्लेषण के नियमों का निर्धारण किया, वहीं भास्कराचार्य ने उन्हें विस्तृत रूप देते हुए खगोलिकीय अनुप्रयोगों के लिए लागू भी किया। भास्कर ने अपनी प्रमुख कृतियों का एक संक्षिप्त संस्करण भी तैयार किया, जो ‘लघुभास्करीय’ के नाम से प्रसिद्ध है।
करण-कुतूहल (Karan Kutuhal Book)
भास्कराचार्य के सिद्धाँत शिरोमणि में फलित ज्योतिष की कोई चर्चा नहीं है (फिरभी बहुत से लोग उनके नाम से प्रचलित भास्कर हारोस्कोप bhaskar horoscope का उपयोग करते पाए जाते हैं।)। अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव में उन्होंने 68 वर्ष की आयु में ‘करण-कुतुहल’ नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में उन्होंने पंचाँग बनाने के तरीके समझाए थे। इसे ‘कारण ग्रन्थ’ भी कहा जाता है। चूँकि पंचाँग के साथ ही फलित ज्योतिष भी जुड़ा हुआ है, इसीलिए ज्योतिष के क्षेत्र में भी उन्हें इस पुस्तक के कारण सम्मानपूर्वक याद किया जाता है।
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भास्कराचार्य अपनी स्थापनाओं और सिद्धाँतों के कारण सारे विश्व में सराहे गये। उनकी रचनाओं का सबसे पहला अनुवाद अकबर के दरबारी फैजी ने किया था। उन्होंने 1587 में ‘लीलावती’ का फारसी में अनुवाद किया। लालावती के अनुवाद को पढ़कर मुगल बादशाह शाहजहाँ बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने दरबारी अताउल्लाह रसीदी से 1634 में भास्कराचार्य के ‘बीजगणित’ का फारसी में अनुवाद कराया। ईस्ट इण्डिया कंपनी के एक अधिकारी एडवर्ड स्ट्रैची को कहीं से ‘बीजगणित’ के फारसी अनुवाद की जब प्रति मिली, तो वह उससे बहुत प्रभावित हुआ और उसने उस पुस्तक का 1816 में अंग्रेजी में अनुवाद किया। बाद में हेनरी थॉमस कोलब्रुक नामक एक अन्य अंग्रेज ने 1817 में ‘लीलावती’ तथा ‘बीजगणित’ का सीधा संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद किया।
भास्कराचार्य के पुत्र लक्ष्मीधर भी अपने पिता की तरह गणित एवं खगोल शास्त्र के विद्वान थे। लेकिन वे अपने पिता की तरह न तो इतनी महत्वूपूर्ण स्थापनाएँ दे पाए और न ही उनका इतना नाम ही हुआ। वास्तव में उस कालखण्ड में फिर भारत की धरती पर भास्कराचार्य जैसा कोई विद्वान उत्पन्न नहीं हुआ। यही कारण है कि वे प्राचीन भारत के अन्तिम वैज्ञानिक के रूप में याद किये जाते हैं।
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