Jatropha Benefits and Drawbacks in Hindi
मात्र आर्थिक लाभ हेतु रतनजोत का वृहद पैमाने पर रोपण एक आत्मघाती क्रिया है क्योंकि भविष्य में यह वनस्पति खरपतवार का रूप धारण कर जैव-विविधता को भारी क्षति पहुंचा सकती है।
भारत में रतनजोत वनस्पति का अंधाधुन्ध रोपण पारिस्थितिक दृष्टिकोण से अदूरदर्शी कदम
-डॉ. अरविन्द सिंह
देश में विदेशी मूल की वनस्पति रतनजोत का अन्धाधुंध रोपण भविष्य में गंभीर पारिस्थितिक समस्यायें खड़ी कर सकता है। देश में पहले से ही विदेशी मूल की अनेक वनस्पतियां पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण के लिए समस्या बनी हुई हैं ऐसे में रतनजोत का अंधाधुंध रोपण कोढ़ में खाज वाली स्थिति पैदा कर सकता है। जैव-विविधता क्षरण, पोषक चक्र की धीमी दर, उपजाऊ भूमि का बेकार भूमि में परिवर्तन, भूमिगत जल का शोषण आदि कुछ ऐसी समस्यायें हैं जो भारत में विदेशी मूल के पौधो द्वारा पैदा की गयी हैं। अपने हानिकारक स्वभाव के कारण विदेशी मूल की वनस्पतियों को ‘जैविक प्रदूषक’ की संज्ञा दी गयी है।
ज्ञात हो कि वर्तमान में केन्द्र एवं राज्य सरकारें किसानों एवं गैर सरकारी संगठनों को निजी एवं सरकारी भूमि (जिसमें बंजर भूमि भी शामिल है) को रतनजोत की खेती के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित कर रही हैं। परिणामस्वरूप इसे विदेशी मूल की वनस्पति का वृहद पैमाने पर रोपण किया जा रहा है। अपने कठोर स्वभाव, तीव्र वृद्धि दर एवं कम मृत्यु दर के कारण रतनजोत देश में वन विभाग का भी चहेता पौधा बन चुका है। देश के विभिन्न राज्यों में वन विभाग द्वारा भी इस पौधे का अंधाधुन्ध रोपण किया जा रहा है।
क्या है रतनजोत?
रतनजोत एक वनस्पति की प्रजाति है जो मैक्सिको एवं दक्षिण अमेरिका की मूल निवासी है। इसे ‘वन रेड़’ और ‘सफेद अरण्ड’ नामों से भी जाना जाता है। रतनजोत का वैज्ञानिक नाम जेट्रोफा करकस (Jatropha curcas) है जो कि उष्णकटिबंधीय सदाबहार मुलायम काष्ठ वाला झाड़ीनुमा वनस्पति है। यह पुष्पीय पौधो के यूफोर्बियेसी कुल का सदस्य है।
स्वस्थ्य पौधें की ऊँचाई करीब 3 से 4 मीटर होती है। इसकी पत्तियाँ हृदयाकार होती हैं। वर्ष के सितम्बर-अक्टूबर माह में पुष्प प्रकट होते हैं। यह कीट परागित (insect pollinated) वनस्पति है। इसके फल हरे होते हैं, जो पकने के पश्चात काले हो जाते हैं। प्रत्येक फल में 3-4 बीज होते हैं।
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क्या है रतनजोत के आर्थिक लाभ?
रतनजोत मुख्यतः अपने अखाद्य बीज तेल (40%) के लिए जाना जाता है जिसमें औषधीय गुण पाये जाते हैं जिससे त्वचा बिमारियाँ, गठिया एवं लकवा का उपचार होता है। इसका तेल जलाने के साथ-साथ साबुन एवं मोमबत्ती के निर्माण में भी काम आता है। इसके अतिरिक्त, बीज के तेल को परिसंस्करण के पश्चात डीजल के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। अतः पौधे को भविष्य में बायो-डीजल के स्रोत के रूप में देखा जा रहा है। इसलिए रतनजोत को ‘बायो-डीजल’ वनस्पति नाम से भी जाना जाता है।
रतनजोत की खली का इस्तेमाल प्राकृतिक खाद के अलावा जैवगैस संयंत्र में भी होता है। रतनजोत पौधे का ताजा दूग्ध रक्त स्राव रोकने में सहायक होता है। दूग्ध का इस्तेमाल आमतौर से रक्त स्रावित घाव के उपचार में होता है। इसके अतिरिक्त दूग्ध का स्थानीय इस्तेमाल बवासीर, दाद, खाज, खुजली आदि बिमारीयों के उपचार में भी होता है। पत्तियों का काढ़ा बुखार कम करने में सहायक होता है। भूने बीज का इस्तेमाल जुलाब के रूप में कब्ज आदि बिमारियों के उपचार में सहायक होता है।
वे कौन से गुण हैं जो रतनजोत को आक्रमकता प्रदान करते हैं?
रतनजोत अत्यन्त कठोर प्रवृत्ति का पौधा है जो किसी भी प्रकार की मिट्टी में सफलतापूर्वक उगने की क्षमता रखता है। इसकी वृद्धि दर बहुत तीव्र होती है। रतनजोत में प्रचुर प्रजनन क्षमता होती है। यह वनस्पति कायिक प्रजनन (vegetative reproduction) द्वारा भी अपने को विस्तारित करने की क्षमता रखता है। भारत में इसका कोई प्राकृतिक शत्रु नही है और शाकभक्षी पशु भी इस पौधे का तिरस्कार करते हैं।
रतनजोत जिस स्थान पर उगता है या उगाया जाता है, वहाँ अपना एकाधिकार स्थापित कर लेता है। उपर्युक्त गुण पौधे को आक्रमकता प्रदान करते है जिसके फलस्वरूप भविष्य में यह पौधा देश में खतरनाक खर-पतवार का रूप धारण कर स्थलीय पारितंत्र को भारी क्षति पहुँचा सकता है।
देश के लिए अभिशाप साबित होती विदेशी मूल की वनस्पतियां:
देश में जानबूझकर या अनजाने में लाये गये बहुत से विदेशी मूल के पौधे आज पारिस्थितिकी के लिए हानिकारक साबित हो रहे हैं। आट्रेलियाई मूल का वृक्ष यूकिलिप्टस जिसे कभी 'हरा सोना' की संज्ञा दी गयी थी को आज उसके दुष्प्रभावों के कारण ‘पारिस्थितिक आतंकवादी' घोषित कर दिया गया है।
1870 में अंग्रेजों ने दलदल सुखाने के लिए इसका प्रयोग शुरू किया था। देश में सफेदा के नाम से लोकप्रिय इस विदेशी मूल के वृक्ष को आर्थिक लाभ के लिए सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत बड़े पैमाने पर रोपण किया गया। लेकिन इसके पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों के चलते आज इसके रोपण पर पुरी तरह से रोक लगा दिया गया है। सफेदा देश में जैव-विविधता क्षय एवं भूजल स्तर के गिरावट का एक प्रमुख कारण रहा है।
तेज वृद्धि वाला फैबेसी कुल का सदाबहार वृक्ष सूबाबूल (ल्यूसिना ल्यूकोसिफैला) आज देश में जैव-विविधता के लिए खतरा बना हुआ है। इस वनस्पति प्रजाति को जहाँ उगाया जाता है उस आवास में अपना एकाधिकार स्थापित कर लेता है। इस वृक्ष के स्वयं उगने वाले बड़ी संख्या में बीजू पौधे अपने आस-पास स्थानीय प्रजातियों के पौधों को नहीं पनपने देते हैं। यह मध्य अमेरिकी मूल का वृक्ष है जिसका भारत में रोपण आमतौर से लकड़ी एवं चारे के प्राप्ति हेतु किया जाता है। पौधे का उपयोग हरी खाद के रूप में भी होता है। यह विदेशी वृक्ष की प्रजाति देश के 21 राज्य और 2 केन्द्र शासित प्रदेशों में फैल चुकी है।
मध्य अमेरिकी मूल का ही एक अन्य छोटा झाड़ीनुमा कांटेदार वृक्ष काबूली कीकर (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) भारत के शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों जैसे गुजरात, राजस्थान, हरियाणा सहित राज्यों और दो केन्द्र शासित प्रदेशों में अपनी जड़े जमा कर देसी पौधों की प्रजातियों को विस्थापित कर जैव-विविधता को क्षति पहुँचा रहा है। विशेषकर गुजरात में काबुली कीकर ने खर-पतवार का रूप धारण कर लिया है। कच्छ का वानी क्षेत्र जो दुनिया के विशालतम घास के मैदानों में से एक रहा है आज इस विदेशी मूल के पौधे द्वारा पूर्णतः नष्ट कर दिया गया है। काबुली कीकर गुजरात राज्य में भारतीय जंगली गधों (Indian Wild Asses) की जनसंख्या में गिरावट का एक प्रमुख कारण रहा है। इसकी गहरायी तक जाने वाली जड़े इन क्षेत्रों में भू-जलस्तर को कम कर रही है।
सन् 1800 की शुरूआत में आस्ट्रेलिया से आया बबूल (अकेसिया नाइलोटिका) आज देश के कई राज्यों की 20 हजार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर काबिज हो चुका है। अपने कठोर प्रवृत्ति के चलते यह तेजी के साथ अपनी कालोनी तैयार करता है। उच्च प्रतिस्पर्धी क्षमता के चलते देसी प्रजातियाँ दम तोड़ देती हैं।
मध्य एवं दक्षिणी अमेरिकी मूल के पौधे दो अन्य पौधे जलकुम्भी (आइकार्निया क्रैसपिज) एवं कुर्री (लैन्टाना कमरा) जिन्हें उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेज शासन के दौरान सजावटी पौधे के रूप में भारत में लाया गया था आज खर-पतवार के रूप में देश के लिए समस्या बने हुए है। जलकुम्भी जिसे ‘बंगाल का आतंक’ और ‘नीला शैतान’ के नाम से भी जाना जाता है, ने मीठे जल जैसे स्रोतों नदियों, झीलों, तालाबों, नहरों आदि में अपने आपको स्थापित कर रखा है जिससे नौकायन, मछली पकड़ने एवं सिंचाई आदि कार्यो में बाधा उत्पन्न होती है।
यह पौधा जलीय जैव-विविधता ह्रास के लिए भी उत्तरदायी है। जलकुम्भी जलमग्न धान के खेत में विस्तारित कर धान की खेती में बाधा और पैदावार को भी प्रभावित करता है। असम, बंगाल, बिहार एवं आन्ध्र प्रदेश में यह विदेशी मूल का पौधा जलीय पारितन्त्र के लिए खतरा बना हुआ है।
कुर्री उत्तराखण्ड एवं हिमाचल प्रदेश राज्यों में वन पारितन्त्र के लिए जबरदस्त खतरा बना हुआ है। यह झाड़ीनुमा पौधा वनों में अपने अत्यधिक विस्तार के कारण देसी प्रजातियों के पौधों के प्राकृतिक पुर्नजनन को रोकता है जिससे जैव-विविधता का लगातार ह्रास हो रहा है। कुर्री विन्ध्य क्षेत्र के उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वनों के लिए खतरा बनता जा रहा है।
मध्य अमेरिकी मूल के शाकीय पौधे यूपेटोरियम की दो प्रजातियाँ (यूपेटोरियम एडिनोफोरम एवं यूपेटोरियम राइपेरियम) मेघालय की पहाड़ियों पर जैव-विविधता के लिए लगातार खतरा बनी हुयी हैं। यूपेटोरियम की इन दोनों प्रजातियों के अत्यधिक विस्तार के कारण देसी पौधों की बहुत सी प्रजातियाँ या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुकी हैं।
मध्य अमेरिकी मूल का ही शाकीय पौधा गाजर घास (पार्थिनियम हिस्ट्रोफोरस) देश के मैदानी क्षेत्रों में जैव-विविधता के विलुप्ति का एक प्रमुख कारण बना हुआ है। इस पौधे को ‘मैदानी क्षेत्रों का आतंक’ की संज्ञा दी जा सकती है। यह कठोर पौधा आवास में एकाधिकार स्थापित कर देसी प्रजाति के पौधों को विस्थापित कर देता है। मैदानी क्षेत्रों में इस पौधे ने प्रजातीय मिश्रण को बदल कर रख दिया है। धीरे-धीरे यह विदेशी मूल का घातक पौधा उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में उपजाऊ कृषि भूमि में विस्तारित कर उन्हें बेकार भूमि में परिवर्तित कर रहा है। यह पौधा मनुष्य एवं पालतू पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक साबित हो रहा है। भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसको पुरी तरह से नष्ट करना एक चुनौती बना हुआ है।
उपर्युक्त सभी पारिस्थितिक समस्या पैदा करने वाले विदेशी मूल के पौधे (सफेदा एवं बबूल को छोड़कर) मध्य अमेरिका एवं दक्षिण अमेरिका के मूल निवासी हैं जो रतनजोत की भी जन्मस्थली है।
अतः इन अनुभवों के आधार पर रतनजोत का अन्धाधुन्ध रोपण आत्मघाती कदम है क्योंकि भविष्य में कठोर प्रवृत्ति का यह पौधा घातक खर-पतवार का रूप धारण कर जैव-विविधता को भारी क्षति पहुँचा सकता है।
रतनजोत का देसी विकल्प:
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करंज, रतनजोज का बेहतर विकल्प |
करंज क्षरित भूमि के पुनरूत्थान में सहायक होता है। यह फैबेसी कुल का वृक्ष लवणीय एवं क्षारीय भूमि के पुनरूत्थान में अत्यन्त ही कारगर है। करंज की पत्तियों में लगभग 4 से 5% नाइट्रोजन की मात्रा होती है जिससे इसकी पत्तियों को हरी खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसकी पत्तियाँ पालतू पशुओं के लिए हरे चारे के रूप में इस्तेमाल की जाती है। लकड़ी को ईधन के रूप में भी काम में लाया
जाता है।
निष्कर्ष:
पूर्व एवं वर्तमान में विदेशी मूल की वनस्पतियों के पारिस्थितिकी पर हानिकारक प्रभावों को देखते हुए यह समय की आवश्यकता है कि हम भारत जैसे विराट जैव-विविधता वाले देश में विदेशी वनस्पतियों का विकल्प देसी वनस्पतियों में ही खोजे ताकि विदेशी पौधों के पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों से बचा जा सकें।
लेखक परिचय:


sahi kah rahe hai.
जवाब देंहटाएंsahi hai..aaj bahut si jagah pr ratanjot ka plantation kiya jaa rha hai..mujhe yah nhi pta tha aapka dhnyvaad
जवाब देंहटाएंvery nice information Dr. Arvind. Thanks for such wonderful information.
जवाब देंहटाएंAnoop Bajpai gurgaon
Rtnjot
जवाब देंहटाएंko kis kis oil Mila skte?