साइंटिफिक वर्ल्ड पर पिछले दिनों प्रकाशित लेख 'क्या ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है?' को लेकर काफी हलचल र...
साइंटिफिक वर्ल्ड पर पिछले दिनों प्रकाशित लेख 'क्या ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है?' को लेकर काफी हलचल रही। एक ओर जहां उस लेख के बहाने लेखेक ने विज्ञान के अनेक नियमों को चुनौती देने का साहस जुटाया, वहीं उनके तर्कों को लेकर थोड़ी-बहुत नोंक-झोंक भी देखने को मिली। और शायद इसी का यह परिणाम था कि चर्चित विज्ञान लेखक विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी ईश्वर की अवधारणा को विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में उतारने के प्रयास में यह मौलिक लेख लिखने के लिए उत्साहित हुए।
चतुर्वेदी जी विज्ञान के एक समर्पित लेखक हैं और समय-समय पर उनके विद्वतापूर्ण आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। किन्तु हो सकता है कि इस लेख को पढ़ते हुए कुछ लोगों को यह लगे कि उनका झुकाव वैज्ञानिक सिद्धांतों की तुलना में धार्मिक मान्यताओं की ओर अधिक प्रतीत होता है। बावजूद इसके यह आलेख विज्ञान की अनेक मान्यताओं और सिद्धांताें को कसौटियों पर कसता है और विचार के नए आयाम प्रस्तुत करता है।
आशा है श्रमपूर्वक तैयार किया गया यह आलेख अाप लोगों को पसंद आएगा और अपनी शालीन प्रतिक्रियाओं के द्वारा अपने विचारों से हमें अवगत कराएंगे। -सम्पादक
ईश्वर की अवधारणा
-विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी
विज्ञान द्वारा प्रस्तुत भौतिक उपलब्धियों द्वारा विश्व चमत्कृत है। इन उपलब्धियों के आधार पर अनुसन्धान से जुड़े वैज्ञानिक भौतिक विज्ञान में सभी समस्याओं का समाधान देखने लगे हैं जबकि विज्ञान द्वारा जुटाए संसाधनों का समुचित उपयोग करने के बावजूद मानव, पूर्व के किसी काल की तुलना में, आज अधिक भयभीत है। अनिष्चतता व अविश्वास का निरन्तर प्रसार हो रहा है। मानव सभ्यता विनाश के कगार के जितनी समीप आज है उतनी पहले कभी नहीं रही। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि ईश्वर की उपेक्षा कर, विज्ञान की भौतिक उपलब्धियों में सुख खोजने के कारण ही, यह स्थिति बनी है। विश्व के कई महान वैज्ञानिकों ने अपने क्षेत्र में किए अनुसंधान के दौरान अनुभव किया है कि सृष्टि के संचालन को मात्र भौतिक नियमों के बल पर नहीं समझा जा सकता। ईश्वर जैसी अदृश्य शक्ति की भूमिका को स्वीकार करके ही सृष्टि के निर्माण एवं इसके संचालन को ठीक तरह समझा जा सकता है।
वैज्ञानिक विश्लेषणों से ज्ञात हुआ है कि सभी जीवों के शरीर का 96 प्रतिशत भाग हाइड्रोजन, आक्सीजन, कार्बन तथा नाइट्रोजन, चार तत्वों से बने अणुओं का बना होता है। शेष 04 प्रतिशत खनिज होते हैं। इस तथ्य की खोज के आधार पर कहा जाने लगा कि अब तो जीवन प्रयोगशाला में रचा जा सकेगा। ऐसा कहना वैज्ञानिको का बड़बोलापन ही साबित हुआ है। जीवन कोई सरल भौतिक पदार्थ नहीं जिसे प्रयोगशाला में रचा जासके। चार्ल्स डार्विन द्वारा विकास की प्रक्रिया के प्रमाण खोजने पर यह माने जाना लगा कि नई जातियों को बनाना अब मानव के वश की बात होगी। प्रकृति में उपस्थित जीवों की अनुवांशिकता को तोड़ जोड़ कर नए जीव उत्पन्न करने का भ्रम उत्पन्न करने का प्रयास किया गया। नई जातियां बनी नहीं मगर नैतिकता के कई प्रश्न उत्पन्न हो गए हैं।
ईश्वर ही नियन्ता
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Prof Werner Arber |
स्पष्ट है कि जीवों के विकास को ईष्वरीय हस्तक्षेप के बिना नहीं समझाया जा सकता। बात को स्पष्ट करते हुए प्रोफेसर वर्नर अर्बर कहते हैं कि सरलतम कोशिका की रचना में कई सौ प्रकार के विशिष्ट सूक्ष्म जैविक-अणुओं का उपयोग होता है। ये जैविक-अणु अपने आप में भी जटिल संरचना वाले होते हैं। ऐसे में बड़ी संख्या में इनके एक साथ मिलकर कार्य करने के पीछे का रहस्य समझ से परे है।
उनका मानना है सृजनकर्ता के रूप में ईश्वर की कल्पना करके ही इसे समझा जासकता है। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटीन ने भी सृष्टि के सृजन में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है। अल्बर्ट आइन्सटीन ने कहा है कि गम्भीरता से अनुसंधान करने वाला हर वैज्ञानिक यह समझता है कि विश्व सजृन के नियमों का प्रतिपादन मानव से बहुत अधिक उत्कृष्ट किसी आत्मा(ईश्वर) द्वारा किया गया है।
सैद्धान्तिक भौतिक शास्त्री स्टेफेन अनविन (Stephen D. Unwin) ने अपनी गणना के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व की प्रायिकता 67 प्रतिशत बताई है। प्रायिकता किसी घटना के घटित होने का वैज्ञानिक अनुमान होती है। स्टेफेन अनविन ने अपनी पुस्तक दी प्रोबेबिलिटी ऑफ गॉड : सिम्पल केल्कुलेशन दैट प्रूव्स द अल्टीमेट ट्रुथ (The Probability of God: A Simple Calculation That Proves the Ultimate Truth) में यह बात कही है। अनविन ने ईश्वर के अस्तित्व के पक्ष विपक्ष में आकड़े जुटा कर ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत बताई है। ईश्वर में विश्वास करने वाले वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सृष्टि लगभग 100 अत्यन्त नाजुक संतुलनों पर आधारित है। ईश्वर ने ही इन सुन्तलनों को स्थापित किया है व साधे रखा है। अतः ईश्वर के बिना सृष्टि का अस्तित्व सम्भव नहीं है।
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The Probability of God |
अनविन ने प्रारम्भिक तौर पर ईश्वर के होने या नहीं होने की प्रायिकता 50-50 प्रतिशत मानी। उसके बाद पक्ष विपक्ष में आंकड़े जुटाता चला गया।
हम जानते हैं कि विद्युत चुम्बकीय बल गुरुत्वाकर्षण बल का 1039 गुणा होता है। यदि विद्युत चुम्बकीय बल का मान इससे थोड़ा सा कम यानि 1033 होता तो आकाश में चमकते सितारे अपने वर्तमान भार के अरबवें भाग के बराबर ही भारी होते। उनके जलने की गति वर्तमान की तुलना में लाखों गुणा तेज होती। इसका प्रभाव यह होता कि मानव के अस्तित्व में आने के बहुत पूर्व ही सब कुछ नष्ट हो चुका होता। ईश्वर ने ही विद्युत चुम्बकीय बल को गुरुत्वाकर्षण बल की तुलना में 1039 गुणा निर्धारित कर इस सृष्टि का सृजन किया। परमाणुविक कणों प्रोटॉन व न्यूट्रान का भार ठीक उतना नहीं होता जितना अभी है तो पदार्थ का अस्तित्व संभव नहीं होता। बिना पदार्थ के सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती।
हम जानते हैं कि विद्युत चुम्बकीय बल गुरुत्वाकर्षण बल का 1039 गुणा होता है। यदि विद्युत चुम्बकीय बल का मान इससे थोड़ा सा कम यानि 1033 होता तो आकाश में चमकते सितारे अपने वर्तमान भार के अरबवें भाग के बराबर ही भारी होते। उनके जलने की गति वर्तमान की तुलना में लाखों गुणा तेज होती। इसका प्रभाव यह होता कि मानव के अस्तित्व में आने के बहुत पूर्व ही सब कुछ नष्ट हो चुका होता। ईश्वर ने ही विद्युत चुम्बकीय बल को गुरुत्वाकर्षण बल की तुलना में 1039 गुणा निर्धारित कर इस सृष्टि का सृजन किया। परमाणुविक कणों प्रोटॉन व न्यूट्रान का भार ठीक उतना नहीं होता जितना अभी है तो पदार्थ का अस्तित्व संभव नहीं होता। बिना पदार्थ के सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती।
इससे भी एक सरल परन्तु महत्वपूर्ण उदाहरण जल के असंगत प्रसार का है। जल को 4 डिग्री सेन्टीग्रेड पर, गर्म करो या ठण्डा, जल फैलता है। जल के इस एक गुण के कारण पृथ्वी का सम्पूर्ण पर्यावरण बदल गया है। इसी के कारण पृथ्वी जीवन के योग्य बन पाई है। यदि अन्य द्रवों की तरह जल भी 4 डिग्री सेन्टीग्रेड पर संकुचित होता तो पृथ्वी के समुद्र वर्ष भर जमे ही रहते। पृथ्वी का वातावरण अत्यधिक ठण्डा होता तो पृथ्वी जीवन योग्य स्थान नहीं होती। पानी में ऐसी असाधारण क्षमता का विकास करने का श्रेय ईश्वर जैसी शक्ति को ही दिया जा सकता है।
इस तरह के अनेकानेक उदाहरण विज्ञान की विभिन्न शाखाओं भौतिकी, रसायन, खगोलशास्त्र, जीवविज्ञान आदि से जुटाए जा सकते हैं। इन सब घटनाओं को मात्र संयोग नहीं माना जा सकता। वैज्ञानिक भी मानते है कि सृष्टि का प्रारम्भ अरबों वर्ष पूर्व महाविस्फोट के रूप में हुआ तथा धीरे धीरे सब कुछ सृजित होता चला गया। ईश्वर जैसी सत्ता के कारण ही सुव्यवस्था संभव हो पाई। ऐसे ही उदाहरणों को ईश्वर के अस्तित्व के पक्ष में मानते हुए अनविन ने इसकी प्रायिकता 67 प्रतिशत बताई है। उनका कहना है कि 67 से 100 के बीच का अन्तर आस्था के स्तर पर निर्भर करता है।
ईश्वर की कार्य प्रणाली
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Brian David Josephson |
विज्ञान प्रयोग द्वारा पुष्ट बात पर विश्वास करता है। ईश्वर की उपस्थिति को प्रयोग द्वारा अभी तक नहीं दिखाया जा सका है। जोसेफसन के अनुसार यह कमी विज्ञान की कार्य प्रणाली की है। वैज्ञानिक अपने अनुसंधान के क्षेत्र का चयन अपनी इच्छा से करता है। अभी तक वैज्ञानिक-अनुसंधान विज्ञान के मूलभूत सिद्वान्तों तक सीमित रहा है। कई ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें जटिलमान कर छोड़ दिया जाता है। कई समस्याओं के समाधान नहीं मिलने पर यह मान लिया जाता है कि भविष्य में इन समस्याओं को सुलझा लिया जाएगा। सृष्टि के सृजन एवं संचालन के कई प्रश्न हैं जिनका जवाब विज्ञान के ज्ञात नियमों के आधार पर नहीं दिया जा सकता। उदाहरण के लिए मनुष्य जैसे बुद्धिमान जीव की उत्पति को अभी तक ठीक से नहीं समझाया जा सका है।
सृष्टि का अध्ययन करने पर यह तथ्य स्पष्टता से सामने आता है कि सृष्टि बहुत ही बुद्धिमता से बनाई गई है तथा उसे उतनी ही बुद्धिमता से चलाया जा रहा है। उसके निर्माण व संचालन को आकस्मिक संयोग का परिणाम नहीं माना जासकता। सृष्टि को चलाने की बुद्धिमतापूर्ण योजना के निर्माता को विधाता के रूप में स्वीकारने पर सभी बातों को सम्पूर्णता में जाना जा सकता है। जोसेफसन कहते हैं कि वैज्ञानिकों को अपना दम्भ त्याग कर यह स्वीकार करना होगा कि विज्ञान के प्रचलित नियम ईश्वर के अस्तित्व की जाँच करने या उसके कार्यों की व्याख्या करने में सक्षम नहीं है। भौतिक पदार्थों पर लागू नियमों को मनुष्य के आध्यात्मिक अनुभवों पर लागू नहीं किया जा सकता।
वर्तमान विज्ञान की कार्यप्रणाली की कमी को स्पष्ट करते हुए जोसेफसन कहते हैं कि मानो पृथ्वी पर दीवार चुनते किसी व्यक्ति का अवलोकन मंगल ग्रह पर बैठा कोई व्यक्ति शक्तिशाली दूरदर्शक यन्त्र की सहायता से कर रहा है। वह जो देखता है उसे विज्ञान के नियमों के अनुरूप समझाने का प्रयास करे तो वह कहेगा कि मानव मस्तिष्क से प्राप्त संवेग के कारण मांसपेशी संकुचित होती है। मांसपेशी के संकुचन के कारण हाथ द्वारा ईंटे यथास्थान रखी जाती है। वह इस क्रिया में लगने वाले विभिन्न बलों के मान की गणना भी कर लेगा। ईंट से बनने वाली दीवार को देखेगा मगर दीवार बनाने वाले व्यक्ति की बुद्धि एवं अनुभव को नहीं जान पाएगा। आज का विज्ञान इसी प्रकार सृष्टि की कार्य प्रणाली की व्याख्या करता रहा है। सृष्टि के संचालन की विज्ञान द्वारा की गई यह व्याख्या अपूर्ण है इसी कारण ईश्वर की भूमिका नजर नहीं आती।
जोसेफसन का यह भी मानना है कि वैज्ञानिक मापन के प्रचलित उपकरण जैसे सूक्ष्मदर्शी धारामापी, कण-खोजी आदि ईश्वरीय संवेदनाओं को मापने में हमारी मदद नहीं कर सकते। इनका कार्य क्षेत्र भौतिक है। सृष्टि को रचने तथा उसके संचालन में ईश्वर की भूमिका बतलाते हुए जोसेफसन कहते हैं कि सृष्टि का विकास तो विज्ञान के मूलभूत नियमों के अनुसार ही हुआ मगर विकास के हर चरण में उपलब्ध कई विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव सृष्टि के बनने के पहले से उपस्थित ईश्वर द्वारा किया गया। इसी कारण सृष्टि का निर्माण सुव्यवस्थित ढंग से होता चला गया। जोसेफसन ध्यान के माध्यम से प्राप्त चमत्कारिक अनुभवों को आत्म विकास की कुंजी मानते है। इस कुंजी के माध्यम से ही बाह्य जगत में होने वाली घटनाओं को जाना जा सकता है। इसी माध्यम से धर्म व विज्ञान के संश्लेषण को ठोस आधार प्रदान किया जा सकता है।
जोसेफसन का कहना है कि ध्यान को वैज्ञानिक अवलोकन विधि के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। धार्मिक पुस्तकों तथा सिद्धी सम्पन्न व्यक्तियों के सहयोग से स्वयं के तन्त्रिका तंत्र के माध्यम से ही ईश्वर के विषय में जाना जासकता है। क्वाटंम सिद्धान्त सृष्टि के विरोधाभासों को समझा पाने में असफल रहा है।
वैज्ञानिक डेविड बोहम (David Bohm) ने क्वाटंम सिद्धान्त की कमी को एक अव्यक्त चर राशि के उपयोग द्वारा दूर करने का प्रयास किया है। जोसेफसन का मानना है कि बोहम की समीकरण में अव्यक्त चर राशि ही अत्यन्त बुद्धिपरक है। ‘‘कैसे हो विज्ञान व धर्म का संश्लेषण’’ नामक आलेख में जोसेफसन यह समझाते है कि भौतिकशास्त्र हमारे संवेदनात्मक अनुभवों की व्याख्या करने में समर्थ है। स्वर्गिक अनुभवों को क्वान्टम भौतिकी के आधार पर समझा जा सकता है। जबकि ध्यान से प्राप्त सर्वातिरिक्त अनूभवों की व्याख्या के लिए हमें अज्ञात शक्ति का सहारा लेना होगा। वेद जैसे ग्रन्थ हमें यह सीखाते है कि हमारे भीतर जो बुद्धि है वह पूर्णतः हमारी नहीं है। बाह्य जगत से मिलने वाली ईश्वरीय प्रेरणा का इसमें बहुत योगदान होता है।
जोसेफसन कहते है कि बोहम की समीकरण में अव्यक्त को ईश्वर के रूप में देखना जोसेफसन का अपना विचार है। बहुत संभव है कि बोहम उनके विचार से सहमत नहीं हो। जोसेफसन को विश्वास है कि कुछ ही वर्षों में कोई न कोई ऐसा गणितीय सूत्र खोज लिया जाएगा जिसके कारण ईश्वर व धर्म विज्ञान के केन्द्र में होंगे।
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David Bohm |
जोसेफसन कहते है कि बोहम की समीकरण में अव्यक्त को ईश्वर के रूप में देखना जोसेफसन का अपना विचार है। बहुत संभव है कि बोहम उनके विचार से सहमत नहीं हो। जोसेफसन को विश्वास है कि कुछ ही वर्षों में कोई न कोई ऐसा गणितीय सूत्र खोज लिया जाएगा जिसके कारण ईश्वर व धर्म विज्ञान के केन्द्र में होंगे।
आस्था और विज्ञान
आस्था को नकारने वाला विज्ञान अब उसे स्वीकारने लगा है। वैज्ञानिक कहने लगे है कि आस्था के बिना कार्य नहीं चल सकता। किसी बस में बैठते हुए या किसी वैज्ञानिक योजना को प्रारम्भ करते हुए ड्राइवर या योजना की विधि में आस्था होती है। इलेक्ट्रान को किसी ने नहीं देखा मगर वैज्ञानिक अनुसंधान में आस्था के कारण ही सब उसके अस्तित्व को स्वीकारते हैं। विज्ञान के मूल नियमों की जाँच किए बिना ही हम यह स्वीकारते है कि वे सभी जगह कार्य करते होंगे। विज्ञान व्यक्ति के स्वयं के अवलोकन पर जोर देता है लेकिन अवलोकन में जो दिखाई देता है यह सदैव सत्य हो जरूरी नहीं है। रेल की समानान्तर पटरियों को दूर तक देखने पर वे एक दूसरे के समीप आती प्रतीत होती है। पानी में डूबी सीधी छड़ भी टेडी दिखाई पड़ती है। आँखों पर लाल चश्मा पहन लेने पर श्वेत वस्तु भी लाल दिखाई देने लगती है।
नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर टोवनेस कहते है कि वैज्ञानिक यह नहीं जानता कि उसके द्वारा दिया गया कोई तर्क सही ही है। वह ऐसा विश्वास करता है कि उसका तर्क सही है। दुनिया हमें जैसी दिखाई देती है यह विश्वास पर ही निर्भर है। हम किसी प्रकार सिद्ध नहीं कर सकते कि दुनिया वैसी ही है जैसी दिखाई देती है। अतः यह कहना उचित नहीं है कि धर्म आस्था पर तथा विज्ञान ज्ञान पर आधारित है। विज्ञान भी विश्वास के बिना नहीं चल सकता।
विज्ञान मस्तिष्क से भिन्न मन की सत्ता को नकारता रहा है मगर तन्त्रिका वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों के माध्यम से यह जाना है कि मस्तिष्क से अलग मन की सत्ता होती है। फिजियोलाजी व मेडीसिन में 1967 का नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले वैज्ञानिक जोर्ज वाल्ड ने आँखों के द्वारा देखता कौन है? जैसे प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास किया तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मस्तिष्क के अतिरिक्त कोई और (चेतना) है जो देखता है। देखने का कार्य मात्र यांत्रिक नहीं है। यान्त्रिक रूप से कार्य करने वाला कम्प्यूटर शतरंज में मनुष्य को हरा तो सकता है मगर अपनी जीत पर खुशी नहीं मना सकता। जीत पर खुशी चेतना द्वारा ही सम्भव है। चेतना ही सजीव को र्निजीव से अलग करती है।
भारतीय सोच
भारत की वैदिक परम्परा में ब्रह्य को समस्त ब्रह्याण्ड का रचयिता माना गया है। सबको रच कर भी ब्रह्य सबसे अलग बना रहता है। प्रत्येक प्राणीमात्र में जो चेतना है ब्रह्य के कारण ही है। गीता में कहा गया है कि -
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनाहम्।।
हे अर्जुन तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ। जो सदा से हो तथा कभी नष्ट नहीं हो उसे सनातन कहा गया। भारत में सनातन धर्म को स्वीकार किया है। प्रकृति के सनातन नियमों का पालन करना ही प्रत्येक का धर्म है। पूजा, उपासना कर्मकाण्ड आदि को व्यक्तिगत आस्था मानते हुए उनको धर्म से अलग माना गया है। सभी में ब्रह्य का वास मानने पर सभी एक दूसरे से सम्बधिंत हो जाते है। ब्रह्याण्ड में उपस्थित प्रत्येक वस्तु से जुड़ाव अनुभव करना ही आध्यात्मिकता है। आज हमारा संकट आध्यात्मिकता से दूर एकाकीपन का है। एकाकी सोच के कारण ही समस्याएं पैदा हो रही है। प्रदूषण की समस्या हो या जलवायु परिवर्तन की, सभी एकाकी सोच का परिणाम है।
प्राचीन भारत में विज्ञान व धर्म में अन्तर नहीं था। ऋषिगण ही विज्ञान व धर्म दोनो को देखते थे। प्रयोग आधारित विज्ञान का प्रचलन भी भारत में था। गीता में ज्ञान व विज्ञान शब्दों का साथ साथ प्रयोग हुआ है। गीता में विज्ञान का शब्द प्रयोग द्वारा प्राप्त ज्ञान के सन्दर्भ में ही हुआ है। यह ब्रह्याण्ड किससे बना है कैसे कार्य करता है इन प्रश्नों का हल जानने का प्रयास प्राचीनकाल से ही किया जाता रहा है। चिन्तन द्वारा यह भी जान लिया की सृजन ही सृष्टि का दर्शन है। उन्होंने सृष्टि के उद्देश्य को स्पष्ट करने हेतु - सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः तथा कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन जैसे सूत्रों का आविष्कार किया।
भारतीय ऋषियों ने वैज्ञानिक चिन्तन द्वारा यह जान लिया था कि खुशी भौतिक साधनों के समानुपाती तथा इच्छाओं के विलोमानुपाती होती है। उन्होंने भौतिक साधन बढ़ाने की तुलना में इच्छाओं को कम कर खुशी बढ़ाने के मार्ग को चुना। आज की आवश्यकता यह है कि सभी वैज्ञानिक आध्यामित्क दर्शन को स्वीकार कर ऋषियों की तरह कार्य करें। ऐसा होने पर ही वे व्यापक दृष्टिकोण के साथ सम्पूर्ण सृष्टि के हित में कार्य सकेंगे।
उपरोक्त आलेख सिक्के का एक पहलू है। इसके दूसरे पहले को जानने के लिए यह लेख अवश्य पढ़ें: ईश्वर एक अवैज्ञानिक अवधारणा! |
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अच्छा लेख. ईश्वर को किसी भी तर्क द्वारा नकारा नहीं जा सकता।
जवाब देंहटाएं(h)
जवाब देंहटाएं'महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटीन ने भी सृष्टि के सृजन में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है'' मैं लेखक के इस कथन से सहमत नही हूँ ! आइन्सटीन ईश्वर की सत्ता पर विश्वास न करके विज्ञान को ही ईश्वर मानते थे ! आइन्सटीन को ईश्वर की सत्ता को नकारने के बात को सबसे अधिक गंभीरता से ईसाई समुदाय ने लिया था ! इस पर आइन्सटीन की बहुत आलोचनाओं का सामना करना पड़ा ! उन्होंने कहा कि ईश्वर व्यक्तिगत आस्था का विषय हैं ! आइन्सटीन ने ईश्वर की सत्ता को न तो नाकारा और न ही स्वीकारा ! अत: मैं उपरलिखित आइन्सटीन से समन्धित विषय को मिथक मानता हूँ ! यदि मैं गलत हूँ ,तो बतायें !
जवाब देंहटाएंआइंस्टीन ने ही कहा था कि-
हटाएंविज्ञान के बिना धर्म अंधा है और धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है ।।
अर्थात परोक्षरूप से आइंस्टीन ने भी ईश्वर को माना है
:)
जवाब देंहटाएंसत्य को असत्य व भ्रम से अलग करने के लिये अब तक आविष्कृत तरीकों में वैज्ञानिक विधि सर्वश्रेष्ठ है। संक्षेप में वैज्ञानिक विधि निम्न प्रकार से कार्य करती है:
जवाब देंहटाएं(१) ब्रह्माण्ड के किसी घटक या घटना का निरीक्षण करिए,
(२) एक संभावित परिकल्पना (hypothesis) सुझाइए जो प्राप्त आकडों से मेल खाती हो,
(३) इस परिकल्पना के आधार पर कुछ भविष्यवाणी (prediction) करिये,
(४) अब प्रयोग करके भी देखिये कि उक्त भविष्यवाणियां प्रयोग से प्राप्त आंकडों से सत्य सिद्ध होती हैं या नहीं। यदि आकडे और प्राक्कथन में कुछ असहमति (discrepancy) दिखती है तो परिकल्पना को तदनुसार परिवर्तित करिये,
(५) उपरोक्त चरण (३) व (४) को तब तक दोहराइये जब तक सिद्धान्त और प्रयोग से प्राप्त आंकडों में पूरी सहमति (consistency) न हो जाय।
किसी वैज्ञानिक सिद्धान्त या परिकल्पना की सबसे बडी विशेषता यह है कि उसे असत्य सिद्ध करने की गुंजाइश (scope) होनी चाहिये। जबकी ईश्वर की मान्यताएं ऐसी होतीं हैं जिन्हे असत्य सिद्ध करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। उदाहरण के लिये 'ईश्वर का अस्तित्व है' - इसकी सत्यता की जांच नहीं की जा सकती।
आइन्स्टीन ने वास्तव में पर्सनल ईश्वर के अस्तित्व से इनकार किया है. उसके शब्दों में "मैं किसी ऐसे पर्सनल गाड का तसव्वुर नहीं कर पाता जो किसी इंसान की जिंदगी और उसके रोज़मर्रा के कामकाज को निर्देशित करता है। या फिर वो जो सुप्रीम जज की तरह किसी सोने की गददी पर विराजमान हो और अपने ही हाथों रचे गये प्राणियों के बारे में फैसला लेता हो। मैं ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जिसके मकसद में हम अपनी ख्वाहिशों के अक्स तलाशते हैं।..... मेरे विचार में इस दुनिया को रचने वाले कुदरती उसूलों के लिये लोगों में सम्मान की भावना पैदा करना और इसे आने वाली पीढि़यों तक फैलाना ही कला और विज्ञान की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। मैं एक पैटर्न देखता हूं तो उसकी खूबसूरती में खो जाता हूं। मैं उस पैटर्न के रचयिता की तस्वीर की कल्पना नहीं कर सकता। इसी तरह रोज़ ये जानने के लिये अपनी घड़ी देखता हूं कि इस वक्त क्या बजा है। लेकिन रोज़ ऐसा करने के दौरान एक बार भी मेरे ख्यालों में उस घड़ीसाज़ की तस्वीर नहीं उभरती जिसने फैक्ट्री में मेरी घड़ी बनायी होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि मानव मस्तिष्क फोर डाईमेंशन्स को एक साथ समझने में सक्षम नहीं है, इसलिए वो ईश्वर का अनुभव कैसे कर सकता है, जिसके समक्ष हज़ारों साल और हज़ारों डाईमेंशन्स एक में सिमट जाते हैं....।"
जवाब देंहटाएंज़ाहिर है कि आइन्स्टीन का ज्ञान ऐसे ईश्वर के अस्तित्व से इंकार करता है जो दुनिया के किसी प्राणी से समतुल्य हो। उसके ज्ञान उसे ईश्वर की उन गलत कल्पनाओं से दूर कर दिया था जो आमतौर पर दुनिया में फैले हुए हैं। मसलन ईश्वर हाथ पैरों वाला है या कण कण में भगवान है। या ईश्वर एनर्जी या पावर की कोई शक्ल है। ऐसी कल्पनाओं को इस महान वैज्ञानिक ने जब अपने ज्ञान की कसौटी पर परखा तो उसे ये सब सही नहीं लगीं।
वो सब छोड़िये। सब से पहले आपके अनुवाद के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। क्या गज़ब का अनुवाद किया है। लगता ही नहीं की कि अनुवाद पढ़ा है। काश उनकी किताबों का कोई इतना ही बढ़िया हिंदी अनुवाद कर देता। मैं तो धन्य हो जाता। The World as I see it और Ideas and Opinions पढ़नी तो हैं मगर हिंदी में न होने के कारण अभी तक नहीं पढ़ी। काश...। कोई तो होगा।
हटाएंऔर इस वाद पर मेरी टिप्पणी-
संभवतः आइंस्टीन नें यह भी कहा था, कि यदि कोई ईश्वर सचमुच में है, तो भी हम उसके बारे में कुछ नहीं जानते।
और क्या मैं आइंस्टीन के इस उद्धरण का सन्दर्भ जान सकता हूँ? मुझे पूरी बात पढ़ने की इच्छा हो रही अब।
हटाएं:) अल्बर्ट आइंस्टीन ने ईश्वर से समन्धित अपने विचार बहुत कम ही रखे हैं The World as I see it में भी अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने विचार खुलकर नही रखे हैं ! यहाँ यह बताना उचित होगा कि हमारे समकालीन वैज्ञानिक स्टेफन हाकिंग ने अपनी पुस्तक 'द ग्रैंड डिजाईन ''में नही ईश्वरीय-अस्तित्व को नाकारा हैं !
हटाएंआइन्स्टीन के धार्मिक विचारों के बारे में कुछ मैटर यहां है :
हटाएंhttp://en.wikipedia.org/wiki/Religious_views_of_Albert_Einstein
बहुत सी जगहों पर ये लिखा मिलता है कि आइंस्टीन बरूच स्पईनोज़ा के पैन्थीस्टिक (pantheistic) ईश्वर को मानता था।
पैन्थीस्टिक (pantheistic) ईश्वर का कान्सेप्ट ये है कि वह अकेला स्वयं अस्तित्व रखने वाला (singular self-subsistent) है यानि उसका अस्तित्व वक्त और जगह (space-time) से जुड़ा या उसपर निर्भर नहीं करता। और इस ईश्वर के लिये व्यक्तित्व और विचार अलग अलग अस्तित्व में नहीं होते बल्कि एकीकृत होते हैं। स्पईनोज़ा हेनरी ओल्डेनबर्ग को लिखे खत में कहता है, 'कुछ लोगों के मुताबिक मैं ईश्वर को नेचर के साथ पहचानता हूं यानि उसे द्रव्यमान या पदार्थ के किसी प्रकार के रूप में लेता हूं। ऐसे लोग गलती पर हैं। स्पईनोज़ा के लिये हमारा यूनिवर्स एक ऐसा सिस्टम है जो विचार व विस्तार के अन्तर्गत है। ईश्वर के अनन्त ऐसे गुण हैं जो हमारी दुनिया में मौजूद नहीं। जर्मन फिलास्फर कार्ल जैस्पर्स के मुताबिक स्पईनोज़ा के फिलास्फिकल सिस्टम में कहा गया है कि ईश्वर या प्रकृति (God or Nature) तो इसका ये मतलब नहीं कि ईश्वर या प्रकृति पर्यायवाची हैं, बल्कि ईश्वर का उत्कर्ष अनन्त गुणों द्वारा अभिप्रमाणित होता है, और उनमें से दो गुण विचार और विस्तार जिनका मनुष्य को ज्ञान है वे ईश्वर के प्रभुत्व की पुष्टि करते हैं। लेकिन ईश्वर को अपनी दुनिया में उपरोक्त गुणों यानि विचार व विस्तार द्वारा पहचाना नहीं जा सकता। यह दुनिया विभाज्य है यानि इसे गिनती में लिया जा सकता है। स्पईनोज़ा कहता है कि किसी वस्तु का कोई गुण तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि वह विभाज्य न हो। और वह चीज़ जो कि परम अनन्त है, वह अविभाज्य होगी। पैंथीस्ट फार्मूला 'एक और सब’ में 'एक' यूनीक के तौर पर होता है जबकि 'सब’ दुनिया की तमाम सीमित वस्तुओं के कुल से अलग और ज़्यादा को कहेंगे। तो इस मायने में ईश्वर ''एक और सब” है।
तथ्य यही है की ईश्वर के व्यक्तित्व के बारे में हम कोई भी कल्पना नहीं कर सकते उसके लिये 'कैसा' या 'कहाँ' शब्द अर्थहीन है.
अब जहां तक स्टीफन हॉकिंग की बात है तो उसे केवल मीडिया ने महान घोषित किया है. उसकी और आइंस्टीन की कोई बराबरी नहीं। आइंस्टीन की जहां लगभग सभी थ्योरीज़ सही सिद्ध हो चुकी हैं वहीं हॉकिंग की शायद ही कोई थ्योरी सही सिद्ध हो पाई है.
सहमत। एक तो उनकी और आइंस्टीन की कोई बराबरी नहीं, दूसरी यह भी नहीं कहा जा सकता कि आइंस्टीन के बाद से या वर्तमान समय का उनसे बड़ा कोई वैज्ञानिक नहीं है। वे ही आज के युग के सबसे बड़े वैज्ञानिक हैं, यह मिथक संभवतः डिस्कवरी चैनल के उनके शो से ही चालू हुआ। दूसरा उनका अपाहिज होना मीडिया के लिए ज्यादा दिलचस्प चीज रहा। इसीलिए उनका ज्यादा प्रचार हो गया बजाय दूसरे वैज्ञानिकों के। बाकि वो भी महान हैं, इसमें कोई संदेह नहीं, मगर सबसे महान हैं, इसमें ढ़ेरों संदेह हैं।
हटाएंमान लिया आइंस्टाइन ईश्वर को मानते थे तो क्या सिद्ध होता है इससे ?
हटाएंविज्ञान मे सबसे महान कोई नही होता है, आइंस्टाइन के सभी सिद्धांत सही है ऐसा भी नही है। आइंस्टाइन का 1925 के पश्चात विज्ञान मे योगदान क्या है? निल्स बोह्र और आइंस्टाइन का विवाद सर्व ज्ञात है.. कास्मोलाजीकल स्थिरांक भी सर्व ज्ञात है...
आइंस्टाइन विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, उनका योगदान बहुत बड़ा है, मेरा उद्देश्य उन्हे छोटा दिखाना नही है, बस यह कहना चाहता हूं कि उनका कहा पत्थर की लकीर नही है, विशेषतः विज्ञान से बाहर , दर्शनशास्त्र या ईश्वर के अस्तित्व पर
गजब लिखा हैं।
हटाएंजो होता हैं वो दीखता नही
और जो दीखता हैं वो होता नही।
ईश्वर है या नहीं, यह प्रश्न अधिक पुराना नहीं है। जितना अधिक तथाकथित मानव ‘सभ्यता का विकास’ होता गया, उसकी चेतना का प्रवाह भी उसी गति से बहिर्मुख होता गया। स्थिति आज यहाँ तक आ पहुँची है कि अधिकांश पढ़ा-लिखा व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व को नकारने में अपनी शान समझता है। जबकि ईश्वर को भौतिक इन्द्रियों, उससे भी सूक्ष्म मन तथा बौद्धिक चिंतन के माध्यम से कदापि नहीं जाना जा सकता क्योंकि वह इनसे भी अधिक सूक्ष्म है।
जवाब देंहटाएंआधुनिक मनुष्य धर्म के मामले में अधिक पाखंडी होने के कारण ही विभिन्न धर्म प्रवर्तकों को ईश्वरीय प्रतिनिधि अथवा अवतारी महापुरुष तो मान लेता है किन्तु उनकी शिक्षाओं तथा अनुभवों से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं होता। यदि ऐसा न होता तो असंख्य लोग श्री कृष्ण को योगेश्वर मानते हुए भी भगवद्गीता में व्यक्त किये गये उनके विचारों को अपनाने को तैयार क्यों नहीं होते? उन्होंने जब स्पष्ट कहा है--‘‘न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।। (11/8) अर्थात्--तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते। अतः मैं तुम्हें दिव्य नेत्र देता हूँ, अब (इससे तुम) मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो।’’
ऐसे अनेक उदाहरणों से वैदिक साहित्य भरा पड़ा है जिनसे पता चलता है कि ईश्वर अणु-परमाणुओं से भी अत्यंत सूक्ष्म तथा महत् से भी महत्तर है। ‘अणोरऽणीयान महतो महीयान’ (कठोपनिषद--1/2-20 तथा श्वेताश्वतरोपनिषद--3/20)। वैदिक काल के तत्ववेत्ता ऋषि-महर्षियों ने अपने आत्मानुभव के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि ईश्वर का प्रत्यक्षीकरण हृदय गुहा में भावपूर्वक बहुत गहरे उतर कर ही संभव है। उसके लिए ‘प्रत्यक्षं किं प्रमाणं’ तक कहा गया। इतना स्पष्ट लिखा होने के बावजूद यदि मनुष्य इसको हृदयंगम कर अपनाने की बजाय उसे तर्क-कुतर्क अथवा वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर सत्यापित करने का व्यर्थ श्रम करे तो इसे किसी भी तरह समझदारी नहीं कहा जायेगा।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता होती है। क्योकि मनुष्य के अनुभव सदैव वास्तविक नहीं होते।
हटाएं"मनुष्य में अनुभव दो प्रकार के होते हैं, वास्तविक अनुभव और भ्रमात्मक अनुभव!
बहिर्मुखी अनुभव सत्य व वास्तविक होते हैं! तर्क व प्रयोगों द्वारा इनकी पड़ताल करके इनकी वास्तविकता का पता लगाया जा सकता है! जैसे दूरबीन या नंगी आखों से तारे देखना, इलेक्ट्रान का होना! अंतर्मुखी अनुभव सत्य तो हो सकते हैं, मगर आवश्यक नहीं कि वह वास्तविक भी हों! कई परिस्थितियों में तर्क व प्रयोगों द्वारा इनकी पड़ताल भी नहीं की जा सकती! (यहाँ सत्य का अर्थ है कि कहने वाला अपनी पूरी जानकारी और समझ से सत्य बोल रहा है जबकि वास्तविक का अर्थ है उसके द्वारा बताई जा रही घटना वास्तव में घटित हुई है!)
उदाहरणतः एक छोटे बच्चे को नींद में बिस्तर पर मूत्र करने की बीमारी है! उसकी नासमझ माँ इस बात के लिए उसे रोज दण्डित करती हैं! इस घटना की वास्तविकता क्या है? यही कि जब लड़के का मूत्राशय भर जाता है तो उसके मस्तिष्क में इसकी सूचना पहुँचती है! यह सूचना बच्चे में एक सपना उत्पन्न करती है! बच्चा सपने में बिस्तर से उठकर मूत्रालय जाता है और वहां मूत्र त्यागता है! मगर असल में वह बिस्तर पर ही मूत्र त्याग देता है! यदि प्रातःकाल उठकर बच्चे के जागने से पूर्व ही उसका गीला बिस्तर बदलकर उसे सूखे बिस्तर पर सुला दिया जाये, तो जागने पर वह अपने बिस्तर को सूखा देखकर प्रसन्न हो जायेगा और अपनी माँ से उत्सुकतापूर्वक जाकर कहेगा, “माँ, आज रात में मैंने बिस्तर पर मूत्र नहीं किया, बाहर जाकर मूत्रालय में किया था!” बच्चा बिलकुल सत्य बोल रहा है, मगर यह वास्तविकता नहीं है! यह सत्य इसलिए है क्योंकि यह बच्चे का कल्पित अनुभव है! मगर जांच करने पर यह पता चल जायेगा कि उसने बिस्तर पर ही मूत्र त्यागा था!"
- पराविज्ञान से
इस भ्रमात्मक अनुभव पर पूरा लेख यहाँ से पढ़ सकते हैं। http://paravigyan.wordpress.com/2014/05/04/hallucination/
ईश्वर के सम्बन्ध में मेरा मत यही है कि हम उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते। वो है तो भी नहीं और नहीं है तो भी नहीं। कुछ स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए हमारे पास पर्याप्त कारण होने चाहिए। मगर हमारे पास उसके होने के प्रमाण भी नहीं हैं और न होने के प्रमाण भी नहीं हैं। ईश्वर की कल्पना हमारी समझ से परे है। हम या उसे कण कण में मान सकते हैं या उसे कोई आकार दे सकते हैं। आकर की कल्पना से बचने के लिए उसे निराकार मान सकते हैं। मगर है तो यह भी कल्पना ही। सत्य यही है कि हम उसके बारे में कुछ भी रत्ती मात्र भी नहीं जानते।
जवाब देंहटाएंहाँ, The world as I see it में केवल 16 बार जबकि Ideas And Opinions में 27 बार ईश्वर का नाम आया है। :p
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लेख अच्छा है, पढ़ने में भी अच्छा लगता है, पर विज्ञान प्रसार को बनी साईट के पाठक के लिये काम का इसमें कुछ भी नहीं... :-(
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100% सहमती ! (h)
हटाएंलेख पर इतनी प्रतििक्रयाएं देख कर प्रसऩ्नता हुई। मैंने लेख में वैज्ञानिकों के विचारों का संकलन ही किया है। फिर भी चर्चा अच्छी चल रही है। विज्ञान और धर्म अलग नहीं है। केवल भौतिक विज्ञानों को ही विज्ञान मानना उचित नहीं है।
जवाब देंहटाएंलेखक श्री विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी जी से सहमती ! हम यह नही जानते कि ब्रह्माण्ड के निर्माण में कौन-सी सक्ति का हाथ हैं ? हमारा भौतिक-विज्ञान दो बिन्दुओं तक ही रुक गया हैं मूलभूत-कण तथा ब्रह्माण्ड की विशालता और व्यापकता पर ! जहाँ तक मेरा ख्याल हैं कि लेखक ने उपरलिखित लेख में उचित प्रमाण उपलब्ध कराया हैं और लेखक के ज्यादातर कथन सत्य भी हैं ! महान समकालीन वैज्ञानिक बताते हैं कि महाविस्फोट का सिधांत ही बता सकता हैं कि दुनिया के निर्माण से समन्धित ईश्वर की क्या परिकल्पना थी ! आइंस्टाइन ने स्वयं एक जगह यह कथन दिया था कि प्रकति के बिना विज्ञान अधूरा हैं तथा धर्म बिना आध्यात्मिक-सक्रियता अधूरी हैं ! और मैं प्रक्रति को ही विज्ञान मानता हूँ तथा विज्ञान को धर्म ( ईश्वर ) मानता हूँ !
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंScience is based upon objectification .Spirituality is based upon loving devotion and belief towards the almighty wherein the creator ,the created and the material are the same .Bliss is the name of God .Even an atheist wants bliss .so he believes in God .We can not know the God who controls material energy (Maya ),Marginal energy or Jeev shakti and divine energy or Yogmaya ,simultaneously .All the three energies are conserved and are eternal .All the souls the deities included are manifestations of the Marginal energy of the personality of God ,The Supreme personality ,The God Head .The God is one with them and also within them and without ..Just as fire is different from the heat and light it produces and also one with them .The material energy (all our physical instruments)can not prove or disprove the presence and or absence of God .We the souls are equipped with limited energy god is the everlasting source of energy .
जवाब देंहटाएंएक नहीं ऐसे (गोचर सृष्टि ,दृश्य जगत )अनंत कोटि ब्रह्माण्ड हैं। जिसे हम सृष्टि कहते हैं वह पदार्थ -ऊर्जा (मटेरियल एनर्जी और मॉस -एनर्जी )का प्रगट रूप है.अध्यात्म की भाषा में इसे ही माया कहा जाता है। यह ईश्वरीय ऊर्जा का मात्र एक चौथाई है। शेष तीन चौथाई ऊर्जा में भगवान (Supreme personality of God head )का वैकुण्ठ लोक /गोलोक /कृष्ण लोक /साकेत …… हैं। यह कृष्ण लोक और ऐसे अनंत कृष्ण लोक हैं जो योगमाया यानी डिवाइन एनर्जी से निर्मित हैं। इसे सुपीरियर एनर्जी या परा शक्ति भी कहा जाता है। जबकि माया यानी मैटीरीअल एनर्जी को अपरा शक्ति या जीव शक्ति भी कहा जाता है। कृष्ण दी पर्सनेलिटी आफ गॉड हेड एक साथ इन सब लोकों में अपने पूरे मंत्रिमंडल (देवताओं संगी साथियों )के साथ हो सकते हैं। तमाम देवियाँ इसी योग माया का विस्तार हैं। भगवान का दिव्य शरीर जेण्डर से परे है। नर रूप में वह नारायण है नारी रूप में नव -देवियाँ हैं।
जवाब देंहटाएंभगवान भौतिक ऊर्जा (material energy ),जीवऊर्जा/परा शक्ति (marginal energy )तथा दिव्य ऊर्जा का स्वामी एवं नियंता है। ये गोचर -अगोचर जगत (दृश्य जगत तथा डार्क एनर्जी डार्क मेटर से बना परिकल्पित जगत जो अभी विज्ञान की पहुँच से बाहर है केवल अवधारणा के स्तर पर है )भगवान की कुल ऊर्जा का मात्र एक चौथाई अंश है। शेष तीन चौथाई में दिव्य ऊर्जा (भगवान की योगमाया शक्ति/परा शक्ति )से निर्मित अनंत वैकुण्ठ लोक हैं। भगवान की कुल शक्तियों को तो भगवान भी नहीं जानता फिर माया यानी मैटीरीअल एनर्जी से बना हमारा शरीर और तमाम वैज्ञानिक साधन ,उपकरण भला उसकी टोह कैसे ले सकते हैं।
अनुमान मात्र है की गोचर सृष्टि में टैन टू दी पावर ८२ प्रोटोन हैं इतने ही न्यूट्रॉन हैं तथा दस की घात ७९ न्यूट्रिनो हैं। लेकिनक्या इनमे से किसी भी कण को किसी भी विज्ञानी या यंत्र से देखा जा सका है। लेकिन ऐसा समझा जाता है और बाकायदा समझा जाता है।
समझा यह भी जाता है की गोचर जगत में दस की घात ५३ किलोग्राम पदार्थ है। लेकिन क्या किसी ने देखा है ऐसे ही ईश्वर को अगर किसी ने नहीं देखा है तो इसका मतलब यह नहीं है वह नहीं है। और उसे देखा गया है बाकायदा देखा गया है संतों द्वारा। सूर, तुलसी और उनसे पहले वेदव्यास (कृष्ण द्वै -पायन व्यास /बादरायण ),नारद आदि मुनियों द्वारा।
विज्ञान भी उसे लविंग डिवोशन की मार्फ़त देख सकता है भौतिक उपकरण (मैटीरीअल एनर्जी )उसकी टोह नहीं ले सकती क्योंकि वह असीमित एनर्जी का अक्षय स्रोत है दिव्य है।
"गागर में सागर" अति सुन्दर व्याख्या, साथ ही प्रबुद्धजनों की ज्ञान - पूर्ण टिप्पणी (आहूति) सराहनीय ... साधुवाद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ।।।।
जवाब देंहटाएंManushya ka heart bina ruke jeevan bhar kaam karta he kyonki ye eshvar ki rachna h
जवाब देंहटाएंGeeta ka adhayan kar le phir aap ko vigyan brmhand or apne aap ka bhi gyan ho jayega
जवाब देंहटाएंअपनी दुकानदारी चलाने के लिए कुछ लोग ऐसी मनगढ़ंत कहानियां लिखते रहते हैं । यदि किसी ईश्वर भगवान ने सृष्टि की रचना की है , तो वे लोग विधि बताएं । धूल में लट्ठ मारने से कोई बात सिद्ध नही होती है । यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है , तो विज्ञान की तरह साबित कीजिये । मैं भी कह सकता हूँ कि मेरे दादा जी ने सृष्टि की रचना की है । तो क्या तुम ऐसी बातों पर यकीन कर लेंगे । यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है , तो साबित करें । ये भी साबित करें कि तुम्हें कैसे पता कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की । तुम जिन पाखंडी ग्रंथों का हवाला देते हो , उन ग्रंथों में जो लिखा है , उसको तुम स्वयं ही नही मानते हैं । चलो उनमें लिखा है । हम मान लेते हैं । लेकिन उन ग्रंथों में ईश्वर द्वारा यदि सृष्टि की रचना की है , तो उसकी कोई भी विधि नही लिखी है । यदि ईश्वर ने तुम्हें विधि बताई है , तो तुम अपनी ही तरफ से लिख दो ।
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