चाहे भूत-प्रेत की घटनाएँ हों अथवा चुड़ैल जैसे प्रसंग सभी जगह पर यह देखने में आया है कि अंधविश्वास की सबसे ज्यादा शिकार मलिलाएँ होती हैं,...
चाहे भूत-प्रेत की घटनाएँ हों अथवा चुड़ैल जैसे प्रसंग सभी जगह पर यह देखने में आया है कि अंधविश्वास की सबसे ज्यादा शिकार मलिलाएँ होती हैं, लेकिन इसके बावजूद वे अंधविश्वास पर चर्चा करने के लिए भी तैयार नहीं होतीं, क्यों?
“तस्लीम” द्वारा अंधविश्वास के विरूद्ध चलाए गये अभियान के दौरान यह देखने में आया है कि जब कभी यहाँ पर अंधविश्वास से सम्बंधित घटनाओं के भंडाफोड़ किये जाते हैं, तो महिला ब्लॉगर दुख अवश्य प्रकट करती हैं, लेकिन जब कभी अंधविश्वासों पर चोट करते हुए सवाल खड़े किये जाते हैं, तो ज्यादातर महिलाएँ कन्नी काट जाती हैं।
मुझे लगता है कि इस मामले में कुछ महिलाएँ रंजना जी से इत्तेफाक रखती हैं, जो इन बातों पर चर्चा करना पसंद नहीं करती, क्योंकि उन्हें लगता है कि दूसरों पर उंगली उठाना सही नहीं है। इसीलिए वे सलाह देते हुए कहती हैं-
“रजनीश जी, विनय पूर्वक अपनी आपत्ति दर्ज करना चाहूंगी... आपके पास जो ज्ञान है, आपके जो भी अनुभव रहे हैं और उसके आधार पर आपकी जो भी धारणाएं, विश्वास हैं, जिस प्रकार वे आपको अतिशय प्रिय हैं और आप उन्होंने अपने लेखों के माध्यम से विस्तार देना चाहते हैं, ऐसे ही संगीता जी या अन्य की भी अपनी अपनी धारणाये, विश्वास व आस्थाएं हैं,जो कि उनके अध्ययन और अनुभव पर आधारित हैं...इस प्रकार किसी एक पर उंगली उठा उसे गलत ठहराना मेरे हिसाब से असहिष्णुता भी है और अशिष्टता भी...”
जबकि कुछ महिलाएँ लवली जी की तरह हैं, जो इस सब से एक तरह से अप्रसन्न हैं और मौका मिलते ही कह देती हैं- “मेरे हिसाब से यह दुनिया की सबसे बड़ी बेवकूफी है की आस्था पर तर्क किए जाएँ .. चाहें वह आस्था विज्ञान को लेकर ही हो..”
वहीं इनसे इतर कुछ महिलाएँ रचना जी जैसी भी हैं, जिनके दिमाग में क्या चलता रहता है, ये समझना मुश्किल हो जाता है। इसीलिए वे कभी-कभी कन्फयूज़ होकर कह बैठती हैं- “कुछ चीजों पर ना चाहते हुआ भी टिपण्णी करना आवश्यक होता हैं क्युकी ब्लोगिंग अभिव्यक्ति का साधन हैं. ये बहुत अच्छा हैं की तस्लीम पर साइंस के जरिये आप रुढिवादी सोच को आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन ये क्या आप को महिला वालंटियर ही क्यूँ चाहिये ?"
जबकि ज्यादातर महिलाएँ वे हैं, जो ऐसे मुददों पर चुप रहना अथवा बिना टिप्पणी किये निकल जाना बेहतर समझती हैं, भले ही वे समाज में महिलाओं की स्थितियों के प्रति यत्र-तत्र चिंता व्यक्त करती रहती हों, उनको विषय बनाकर कविता और कहानियाँ लिखती रहती हों।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि-
क्या नारीवादी चिंताओं पर महिलाओं द्वारा दिखाई जाने वाली चिन्ताओं का वास्तव में कोई अर्थ है?
क्या महिलाएँ इस बात को समझने में अस्मर्थ हैं कि अंधविश्वास महिलाओं को पुरूषवादी बंधनों में बाँध कर रखने का एक कारगर अस्त्र है?
क्या अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद पूरी तरह से सफल हो सकता है?
क्या नारीवादियों के पास अंधविश्वास से जूझने का वास्तविक हौसला नहीं है?
क्या महिलाओं में धार्मिक भावनाएँ ज्यादा गहरी होती हैं और वे नारीवादी उददेश्यों की तुलना में अपने विश्वास/अंधविश्वास को ज्यादा महत्व देती हैं?
इन सवालों को उठाने का मेरा उददेश्य इस मुददे पर खुलकर बात करना है। जिन भद्र महिलाओं के उदाहरण यहाँ पर दिये गये हैं(आशा है वे इसे अन्यथा नहीं लेंगी), जो महिलाएँ “तस्लीम” से लम्बे समय से जुड़ी रही हैं और जो महिलाएँ चलते फिरते कभी-कभी इधर से गुजर जाती हैं, उन सबसे और इसके अतिरिक्त अन्य तमाम पुरूष पाठकों से भी मेरा निवेदन है कि कृपया इस गम्भीर मुददे पर खुले मन से अपने विचार रखें। कृपया यह बताने का कष्ट करें कि क्या मेरी आशंकाएँ सही हैं? अथवा उनका कोई मतलब है भी अथवा नहीं? आपकी नज़र में जवाब जो भी हो, उसे खुले मन से रखें। आपके तार्किक विचार जानकार हमें वास्तव में प्रसन्नता होगी।
good topic
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है धार्मिक अंधविश्वास ही महिला अधिकारों की राह में सबसे बड़े रोड़े हैं। इनसे जूझे नारी की आजादी असम्भव है।
जवाब देंहटाएं"वे जिस कारण से और जिस मुद्दे पर भी चुप हैं ये हर्ष का विषय है"
जवाब देंहटाएंपोस्ट सीरियस है पर टिप्पणी लिखने बैठा तो एक मित्र आ गए आलेख उन्होंने पढ़ा और जो कुछ कहा वही लिख रहा हूँ ! मतलब ये की यहाँ मैं "हाज़िर हूँ जनाब" से ज्यादा कुछ भी नहीं हूँ ! हालाँकि मैं मित्र की टिप्पणी से सहमत नहीं हूँ , पर चिंतन का विषय ये भी है की समाज में स्त्रियों की छवि फिजूलीयात में लिप्त सतत बातूनी होने से जोड़ कर क्यों देखी जाती है ?
अरे, अंधविश्वास तो बाद की बात, अगर नारी को मुक्त होना है तो सबसे पहले तो धर्म से जुझना पड़ेगा। अपने ब्लाग के सदस्यों को एक बोल्ड विषय के सामने लाकर अच्छा साहस किया है आपने। एक संगठन के भीतर ऐसा ही लोकतांत्रिक माहौल होना चाहिए कि हर कोई खुलकर अपनी बात कह सके, खासकर एक विज्ञान को समर्पित ब्लाग में। ‘हवाई जहाज कैसे बना’ या ‘बल्ब क्यों फ्यूज़ हो जाते हैं‘ जैसी पोस्ट कभी-कभी तो ठीक हैं, पर यह एक वैज्ञानिक चेतना के प्रसार का दावा का करने वाले ब्लाग के लिए ठीक नहीं है। इस शुरुआत के लिए मैं आपको एक बार फिर से धन्यवाद देता हूं।
जवाब देंहटाएंधार्मिक अंधविश्वास हो या फ़िर अन्य अंधविश्वास लेकिन आप किसी खास आदमी या नारी का नाम ले कर लिखो गे तो गलत है,
जवाब देंहटाएंबढ़िया टॉपिक लिया ज़ाकिर.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सहमत हूं
जवाब देंहटाएंधर्म वैसे भी नारी की ग़ुलामी के सबसे प्राचीन दस्तावेज़ हैं। अंबेडकर का लेख स्त्री और प्रतिक्रांति इस संबंध में आंखे खोलने वाला है।
मेरा स्पष्ट मत है कि धर्म से मुक्ति स्त्री मुक्ति की पूर्वपीठिका है। हां और मुझे तो धर्म पर विश्वास और अंधविश्वास में कोई फ़र्क नहीं लगता। जहां विश्वास का आधार इकतरफ़ा श्रद्धा है वहां यह अंध ही हो सकता है।
sorry due to work i missed out on this post and i hv no objection to may name being there
जवाब देंहटाएंi simply believe that dharm is like a personal choice and we all want to have a faith to be able to look up to when in problems
education can eradicate all problems that you are saying because education opens up new vistas and we can understand what i good and bad in the system that we are following so we can chose accordingly
woman have to learn to "chose" and say openly that i like this and i dont like this
thanks
@@रचना जी की उक्त टिप्पणी का अविकल अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है -
जवाब देंहटाएंखेद है , व्यस्तता के कारण मैं इस पोस्ट को अब तक पढ़ नहीं सकी थी ;मुझे अपना नाम होने पर कोई आपत्ति नहीं है !
मुझे यह सहज विश्वास है की धर्म एक निजी मामला है और हम सभी को कोई न कोई आस्था चाहिए कभी कभार के संकटों से उबरने के लिए
शिक्षा आप द्वारा इंगित सभी समस्याओं का निर्मूलन कर सकती है क्योंकि शिक्षा नयी राहें दिखाती है और हमें सक्षम बनाती है की हम खुद जिस व्यवस्था का अनुसरण कर रहे हैं उसके दोषों -अच्छाईयों या बुराईयों की समझ विकसित कर सकें और तदनुसार अपने फैसले ले सकें
औरतों में इन फैसलों को खुद लेने की समझ लानी होगी और उन्हें स्पष्ट रूप से अपनी पसंद और नापसंद का इजहार करना होगा !
शुक्रिया !
देखिये ये बात बिल्कुल सही है कि अंधविश्वास पुरुषों द्वारा औरतों को अपने वश में रखने का एक माध्यम है. पर इसमें दोष औरतों का नहीं है. वे तो "विक्टिम" हैं. इसका कारण है कि औरतें पराश्रित और अशिक्षित रही हैं. शिक्षा के प्रचार-प्रसार द्वारा यह यह बुराई दूर की जा सकती है. आप अपने तरह से इसका प्रयास कर रहे हैं, इसके लिये तस्लीम बधाई का पात्र है. ब्लॉगजगत में सभी अपनी-अपनी राय व्यक्त करने के लिये स्वतन्त्र हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि वे अन्धविश्वास के समर्थक हैं.
जवाब देंहटाएंkisi bhi dharm ka andhvishvas se koi nata nahin hai ,main abhi gyan ke prakash ko chhoo bhi nahin payi hoon,parantu itna kahna chahoongi ke dharm vishvas hai aur agyan andhvishvas,aur jab tak nari andhvishvas par vijay nahin prapt kar leti tab tak saphalta us se door hi rahegi .gyanarjan hi is ka hal hai .
जवाब देंहटाएंमैंरंजना रचना और लवली कुमारी से बिलकुल सहमत हूँ । धर्म और विग्यान दोनो एक दूसरे के पूरक हैं जहाँ विग्यान काम नहीं आता वहाँ आस्था काम आती है फिर धर्म ही हमे सिखाता है कि विग्यान की विनाशकारी विकृितोयौ से कैसे बचा जाये। धर्म का नारीवाद से कुछ लेना देना नहीं । जैसे आपकी आस्था है कि विग्यान ही सब कुछ है ऐसे किसी दूसरे की आस्था है कि विग्यान से परे भी कुछ है जो हमे बल देता है जीनी की राह बताता है एक बात और स्पश्ट कर दूँ अगर औरत धर्म को मानती है तभी ये समाज चल रहा है आप इसे विग्यान का सहारा ले कर क्यों नषट करने पर आमदा हैं क्यों न हम अपनी अपनी आस्था से समाज को सुन्दर बनाने और जोडने का काम करें। जब कभी आपकी विग्यान की दुहाई देना किसी के कुछ काम नहीं आता तब संगीता जी जैसे लोग उनके काम आते हैं । फिर बहुत से साईस दान ऐसे हुये हैं जो भगवान पर पूरी आस्था रखते हैं नारी वाद का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। बहस तो वहाँ करने का फायदा है जहाँ कोई दूसरा भी उनकी आस्था क सम्मान करे । आपका एक तरफा फैसला होता है उस पर कोई क्या प्रतिक्रिया करे। आस्था और समाज मे फैली हुयी धर्म के नाम पर कुरितियाँ पहले इन के फर्क को समझें धर्म और ये जादू टोने आदि अलग अलग चीज़ें हैं जब आप इसे समझ लेंगे तब बहस का भी आधार होगा शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनारीवाद का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है!
जवाब देंहटाएंकृपया बतायें कि यह आप किस नारीवादी सिद्धांतकार के हवाले से कह रही हैं।
हां विज्ञान का विद्यार्थी होना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण दो अलग-अलग चीज़ें हैं। हर धर्म के प्रमुख ग्रंथ स्त्री को दोयम दर्ज़े का बताते हैं तो उनका पालन करते हुए आप बराबरी की बात कैसे कर सकतीं हैं?
आस्था का क्षेत्र जहाँ समाप्त होता है ज्ञान का क्षेत्र वहाँ से प्रारम्भ होता है ।धर्म ने कभी किसी स्त्री का भला नहीं किया ।
जवाब देंहटाएंyah sach hai ki mahilaon me purushon ki apeksha jyada hi andhvishvas hota hai. jisame andhvishvas nahihoto hai unki ginti kam hai.
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