Jagadish Chandra Bose Education, Inventions & Information in Hindi
डॉ0 जगदीश चन्द्र बोस की गिनती देश के उन वैज्ञानिकों (Scientists in Hindi) में होती है, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में रहकर विश्व में भारत का नाम रौशन किया। वे विश्व के ऐसे विलक्षण वैज्ञानिक के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने भौतिकी और वनस्पति दो क्षेत्रों में काम किया। वे कलाम की तरह ही पूरी दुनिया में लोकप्रिय हैं। उनकी खोजें (Jagdish Chandra Bose in Hindi) हमें आश्चर्य से भर देती हैं। हम उम्मीद करते हैं कि जगदीश चंद्र बोस की जीवनी (Jagadish Chandra Bose Biography) आपको पसंद आएगी।
जगदीश चंद्र बोस का जीवन परिचय Jagadish Chandra Bose Information
जन्म एवं शिक्षा Jagadish Chandra Bose Education
जगदीश चन्द्र बोस का जन्म 30 नवंबर 1858 को बंगाल के मैमनसिंह जिले के फरीदपुर गाँव (अब यह गाँव बांग्ला देश में है) में हुआ था। फरीदपुर उनका ननिहाल था, जबकि उनका खानदानी मकान ढ़ाका जिले के राढ़ीखाल गाँव में स्थित था। उनके पिता भगवान चन्द्र फरीदपुर के डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। वे एक बहादुर, राष्ट्रवादी और आदर्शवादी इंसान थे और अपनी भाषा तथा संस्कृति को प्यार करते थे। उन्होंने अंग्रेज सरकार में अफसर होने के बावजूद बोस का नाम गाँव के प्राइमरी विद्यालय में लिखवाया, जिससे वे अपनी मातृभाषा और संस्कृति से भलीभाँति परिचित हो सकें।
बोस की माँ सुन्दरी देवी एक धर्मवरायण महिला थीं। वे एक मृदुभाषी और विनम्र महिला के रूप में जानी जाती थीं। ग्रामीण परिवेश में प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा होने के कारण जगदीश चन्द्र बोस का बचपन खेतों और बगीचों के बीच गुजरा। इसीलिए उन्हें बचपन से ही प्रकृति से बेहद लगाव था। जंगलों के बीच घूमना, तरह-तरह के जीव-जन्तु पालना और खेतों में काम करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। इसके अतिरिक्त घुड़सवारी करना और छुट्टियों के दिनों में हिमालय की सैर करना, उनके बचपन के शौक थे। गाँव के मेलों के दौरान पौराणिक चरित्रों पर आधारित नाटक देखने के बाद बोस रामायण और महाभारत की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने उन पुस्तकों को पढ़कर उनसे प्रेरणा हासिल की। वे महाभारत के कर्ण नामक चरित्र से अत्यंत प्रभावित थे।
प्रारम्भिक शिक्षा (Jagadish Chandra Bose Education) पूरी होने के उपरान्त बोस ने कोलकाता के सेंट जेवियर कॉलेज में दाखिला लिया। वहाँ से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वे कॉलेज के अध्यापक फादर लाफाण्ट से बहुत प्रभावित हुए। उन्हीं की प्रेरणा से बोस की भौतिक विज्ञान में रूचि हुई, जिसने आगे चलकर उनके जीवन में बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
सन् 1879 में बोस ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड जाना चाहते थे। लेकिन पिता का स्वास्थ्य खराब होने और घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इस कार्य में बाधा आ रही थी। इसके अलवा उनकी माँ अपने पुत्र को विदेश भेजने को लेकर भी चिंतित थीं। लेकिन अंत में बोस की इच्छा के आगे उन्होंने अपनी हार मान ली। पुत्र की शिक्षा के लिए उन्होंने अपने गहने बेच दिये, ताकि उसकी आगे की शिक्षा पूरी हो सके।
बोस ने इंग्लैण्ड में डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए लंदन के एक कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन ‘डिसेक्शन-कक्ष’ की तीखी गंध बोस को रास नहीं आई। नतीजतन उन्हें लगातार बुखार रहने लगा। काफी इलाज के बाद भी जब उनकी बीमारी ठीक नहीं हुई, तो डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने डॉक्टरी की पढ़ाई को अलविदा कह दिया और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के क्राइस्ट चर्च कॉलेज में बी.एस-सी. (भौतिकी, रसायन और वनस्पति विज्ञान समूह की) की कक्षा में प्रवेश लिया। सन 1884 में उन्होंने वह परीक्षा उत्तीर्ण की और 1885 में भारत लौट आए।
बोस की माँ सुन्दरी देवी एक धर्मवरायण महिला थीं। वे एक मृदुभाषी और विनम्र महिला के रूप में जानी जाती थीं। ग्रामीण परिवेश में प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा होने के कारण जगदीश चन्द्र बोस का बचपन खेतों और बगीचों के बीच गुजरा। इसीलिए उन्हें बचपन से ही प्रकृति से बेहद लगाव था। जंगलों के बीच घूमना, तरह-तरह के जीव-जन्तु पालना और खेतों में काम करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। इसके अतिरिक्त घुड़सवारी करना और छुट्टियों के दिनों में हिमालय की सैर करना, उनके बचपन के शौक थे। गाँव के मेलों के दौरान पौराणिक चरित्रों पर आधारित नाटक देखने के बाद बोस रामायण और महाभारत की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने उन पुस्तकों को पढ़कर उनसे प्रेरणा हासिल की। वे महाभारत के कर्ण नामक चरित्र से अत्यंत प्रभावित थे।
प्रारम्भिक शिक्षा (Jagadish Chandra Bose Education) पूरी होने के उपरान्त बोस ने कोलकाता के सेंट जेवियर कॉलेज में दाखिला लिया। वहाँ से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वे कॉलेज के अध्यापक फादर लाफाण्ट से बहुत प्रभावित हुए। उन्हीं की प्रेरणा से बोस की भौतिक विज्ञान में रूचि हुई, जिसने आगे चलकर उनके जीवन में बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
सन् 1879 में बोस ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड जाना चाहते थे। लेकिन पिता का स्वास्थ्य खराब होने और घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इस कार्य में बाधा आ रही थी। इसके अलवा उनकी माँ अपने पुत्र को विदेश भेजने को लेकर भी चिंतित थीं। लेकिन अंत में बोस की इच्छा के आगे उन्होंने अपनी हार मान ली। पुत्र की शिक्षा के लिए उन्होंने अपने गहने बेच दिये, ताकि उसकी आगे की शिक्षा पूरी हो सके।
बोस ने इंग्लैण्ड में डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए लंदन के एक कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन ‘डिसेक्शन-कक्ष’ की तीखी गंध बोस को रास नहीं आई। नतीजतन उन्हें लगातार बुखार रहने लगा। काफी इलाज के बाद भी जब उनकी बीमारी ठीक नहीं हुई, तो डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने डॉक्टरी की पढ़ाई को अलविदा कह दिया और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के क्राइस्ट चर्च कॉलेज में बी.एस-सी. (भौतिकी, रसायन और वनस्पति विज्ञान समूह की) की कक्षा में प्रवेश लिया। सन 1884 में उन्होंने वह परीक्षा उत्तीर्ण की और 1885 में भारत लौट आए।
अध्यापन और संघर्ष Jagadish Chandra Bose Teaching
भारत लौटने पर बोस को कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में अस्थायी नौकरी मिल गयी। वे उस कॉलेज में इस पद पर नियुक्त होने वाले पहले भारतीय थे। लेकिन भारतीय होने के कारण उन्हें अंग्रेजी भेदभाव का शिकार होना पड़ा। कॉलेज प्रबंधन ने उन्हें अंग्रेज अध्यापकों के मुकाबले एक तिहाई वेतन देना स्वीकार किया। यह देखकर बोस का स्वाभिमान जागृत हो उठा। उन्होंने एक तिहाई वेतन लेने से इनकार कर दिया और निश्चय किया कि जब तक उन्हें पूरा वेतन नहीं मिलता, वे बिना वेतन के ही पढ़ाते रहेंगे।
डॉ0 बोस तीन साल तक लगातार उस कॉलेज में बिना वेतन के पढ़ाते रहे। अंतत: कॉलेज प्रबंधन को झुकना पड़ा। उन्होंने डॉ0 बोस को पूरा वेतन देने का निश्चय किया और उनकी नियुक्ति भी स्थायी कर दी। कॉलेज से चलने वाले इस विवाद के दौरान ही सन 1887 में बोस का विवाह दुर्गा मोहन दास की पुत्री अबला दास से हो गया। उनकी पत्नी एक समझदार और धैर्यवान स्त्री थीं। उन्होंने आर्थिक तंगी के उन दिनों में अपने पति के उत्साह को लगातार बढ़ाती रहीं। यही नहीं उन्होंने बोस के पिता की बीमारी के कारण उनके ऊपर चढ़ गये कर्ज को चुकता करने में अपने पिता द्वारा मिले ‘सत्री धन’ को देकर भी काफी सहयोग दिया।
डॉ0 बोस तीन साल तक लगातार उस कॉलेज में बिना वेतन के पढ़ाते रहे। अंतत: कॉलेज प्रबंधन को झुकना पड़ा। उन्होंने डॉ0 बोस को पूरा वेतन देने का निश्चय किया और उनकी नियुक्ति भी स्थायी कर दी। कॉलेज से चलने वाले इस विवाद के दौरान ही सन 1887 में बोस का विवाह दुर्गा मोहन दास की पुत्री अबला दास से हो गया। उनकी पत्नी एक समझदार और धैर्यवान स्त्री थीं। उन्होंने आर्थिक तंगी के उन दिनों में अपने पति के उत्साह को लगातार बढ़ाती रहीं। यही नहीं उन्होंने बोस के पिता की बीमारी के कारण उनके ऊपर चढ़ गये कर्ज को चुकता करने में अपने पिता द्वारा मिले ‘सत्री धन’ को देकर भी काफी सहयोग दिया।
जगदीश चंद्र बोस के शोध कार्य Jagadish Chandra Bos Inventions
विद्युत तरंगों पर शोध कार्य: अपनी पारिवारिक एवं आर्थिक समस्याओं से उबरने के उपरांत बोस ने शोध कार्यों JC Bose invention) पर अपना ध्यान लगाया। उन्होंने कॉलेज के एक छोटे से कमरे में अपने खर्च से प्रयोगशाला का निर्माण कराया और ‘विद्युत तरंगों’ पर शोध कार्य करने लगे। उस समय तक जर्मनी के हेनरिक हर्टज नामक वैज्ञानिक ने इस दिशा में कुछ कार्य किया था। इसके अलावा इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक मैक्सवेल ने भी इन तरंगों के बारे में कुछ सिद्धातों की स्थापना की थी। लेकिन व्यवहारिक रूप में किसी भी वैज्ञानिक ने इन तरंगों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने में सफलता प्राप्त नहीं की थी।
इसी दौरान शिक्षा विभाग द्वारा डॉ0 बोस को प्रतिनियुक्ति पर लंदन जाने का मौका मिला। वहाँ पर उन्होंने लिवरपूल में आयोजित ब्रिटिश ‘एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइंस’ की बैठक में अपने शोध कार्यों (Jagadish Chandra Bose Invention) के बारे में व्याख्यान दिया और अपने प्रयोगों को करके दिखाया। वहाँ पर उपस्थित जे.जे. थॉमसन, ओलवर लॉज और लार्ड केल्विन जैसे वैज्ञानिक डॉ0 बोस के कार्यों से काफी प्रभावित हुए। उसके बाद डॉ0 बोस ने रॉयल इंस्टीट्यूशन की शुक्रवारी परिचर्चा में भी अपना व्याख्यान दिया, जिसे रॉयल सोसाइटी की कार्यवाइयों के विवरण में भी प्रकाशित किया गया।
डॉ0 बोस के इस महत्वपूर्ण कार्य से प्रभावित होकर लंदन विश्वविद्यलाय ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की। उनकी इस महत्वपूर्ण खोज का लाभ उठाने के लिए कुछ व्यावसायिक कंपनियाँ उनके पीछे ही पड़ गयीं। उनके एक मित्र ने उनके कुछ कागज भी चुरा लिये और बाद में अपने नाम से उसका पेटेंट करवा लिया। इससे डॉ0 बोस बहुत खिन्न हो गये और इस कार्य से उनका मोहभंग हो गया। संयोग से इसके कुछ समय बाद ही इटली के वैज्ञानिक मार्कोनी ने भी रेडियो तरंगों पर आधारित अपनी खोज को सार्वजनिक किया। दुराग्रहों से ग्रस्त पाश्चात्य समाज ने उनकी खोज को हाथों-हाथ लिया और उन्हें बेतार के तार के आविष्कार के रूप में प्रतिष्ठित किया।
पौधों में जीवन की खोज: विद्युत तरंगों की अपनी खोज के दौरान डॉ0 बोस ने महसूस किया कि काफी समय तक प्रयोग में लाए जाने के बाद धातुओं में भी ‘थकान’ के चिन्ह प्रदर्शित होते हैं। इससे उनका ध्यान पौधों की ओर गया। उन्होंने देखा कि पौधों में धातुओं की तुलना में अधिक प्रतिक्रिया होती है। इससे उत्साहित होकर उन्होंने इस दिशा में अपने शोध (Jagadish Chandra Bose Invention) को आगे बढ़ाया। उन्होंने सन 1900 में जब पेरिस में आयोजित भौतिक विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय काँग्रेस में ‘अकार्बनिक और जीवित पदार्थों की प्रतिक्रियाओं में समानता’ विषय पर अपने विचार रखे, तो सारे विश्व के वैज्ञानिक हतप्रभ रह गये।
अपने शोधकार्यों को आगे बढ़ाते हुए जब डॉ0 बोस ने उसके निष्कर्षों को 10 मई 1901 में रॉयल इंस्टीट्यूशन की शुक्रवारी सभा में रखा, तो वहाँ कई लोगों ने उनकी सख्त आलोचना की। डॉ0 बोस ने इसकी परवाह न करते हुए अपनी खोजों को आगे बढ़ाया और पौधों के व्यवहार को दर्शाने वाले ‘क्रेस्कोग्राफ’ नामक महत्वपूर्ण यंत्र का आविष्कार कर दिखाया, जिसके द्वारा प्रति सेकेंड इंच के लाखवें हिस्से तक की पौधों की वृद्धि को मापा जा सकता था।
डॉ0 बोस ने अपने शोध के द्वारा यह प्रमाणित किया कि पौधे भी आदमी की ही तरह बाहर की परिस्थितियों का अनुभव करते हैं और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। इससे सारे संसार में उनकी ख्याति बढ़ गयी। वे अपने इस प्रयोग के प्रदर्शन के लिए कई बार यूरोप की यात्राओं पर भी गये, जहाँ उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। उनकी इस महत्वपूर्ण खोज Jagadish Chandra Bose Inventions के कारण इंग्लैण्ड की रॉयल सोसाइटी ने उन्हें अपना सदस्य बना कर सम्मानित किया और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की।
पौधों में जीवन की खोज: विद्युत तरंगों की अपनी खोज के दौरान डॉ0 बोस ने महसूस किया कि काफी समय तक प्रयोग में लाए जाने के बाद धातुओं में भी ‘थकान’ के चिन्ह प्रदर्शित होते हैं। इससे उनका ध्यान पौधों की ओर गया। उन्होंने देखा कि पौधों में धातुओं की तुलना में अधिक प्रतिक्रिया होती है। इससे उत्साहित होकर उन्होंने इस दिशा में अपने शोध (Jagadish Chandra Bose Invention) को आगे बढ़ाया। उन्होंने सन 1900 में जब पेरिस में आयोजित भौतिक विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय काँग्रेस में ‘अकार्बनिक और जीवित पदार्थों की प्रतिक्रियाओं में समानता’ विषय पर अपने विचार रखे, तो सारे विश्व के वैज्ञानिक हतप्रभ रह गये।
अपने शोधकार्यों को आगे बढ़ाते हुए जब डॉ0 बोस ने उसके निष्कर्षों को 10 मई 1901 में रॉयल इंस्टीट्यूशन की शुक्रवारी सभा में रखा, तो वहाँ कई लोगों ने उनकी सख्त आलोचना की। डॉ0 बोस ने इसकी परवाह न करते हुए अपनी खोजों को आगे बढ़ाया और पौधों के व्यवहार को दर्शाने वाले ‘क्रेस्कोग्राफ’ नामक महत्वपूर्ण यंत्र का आविष्कार कर दिखाया, जिसके द्वारा प्रति सेकेंड इंच के लाखवें हिस्से तक की पौधों की वृद्धि को मापा जा सकता था।
डॉ0 बोस ने अपने शोध के द्वारा यह प्रमाणित किया कि पौधे भी आदमी की ही तरह बाहर की परिस्थितियों का अनुभव करते हैं और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। इससे सारे संसार में उनकी ख्याति बढ़ गयी। वे अपने इस प्रयोग के प्रदर्शन के लिए कई बार यूरोप की यात्राओं पर भी गये, जहाँ उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। उनकी इस महत्वपूर्ण खोज Jagadish Chandra Bose Inventions के कारण इंग्लैण्ड की रॉयल सोसाइटी ने उन्हें अपना सदस्य बना कर सम्मानित किया और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की।
शोध केन्द्र की स्थापना Bose Institute
डॉ0 बोस भारत में शोधकार्यों को बढ़ावा देने के लिए एक विशाल शोध केन्द्र की स्थापना करना चाहते थे। इसके लिए धन एकत्रित करने के उद्देश्य से उन्होंने देशभर का दौरा किया। उनके इस कार्य को अपार जन-समर्थन मिला। लोगों ने उनका भाषण सुनने के लिए टिकट खरीदे और यथा-सामर्थ्य खुले हाथों से दान भी दिया।
अपने अथक प्रयासों तथा अपने जीवन भर की कमाई को मिलाकर डॉ बोस ने शोध केन्द्र के लिए 15 लाख रूपया एकत्रित करने में सफलता पाई। उस पैसे से उन्होंने सन 1917 में अपने सपने को हकीकत में बदला। उन्होंने उस शोध केन्द्र का उद्घाटन करते हुए कहा कि यह केवल प्रयोगशाला नहीं, बल्कि एक मंदिर है। और इस संस्थान का उद्देश्य विज्ञान की उन्नति के साथ ही ज्ञान का प्रचार-प्रसार भी है।
लगातार श्रम के कारण सन 1936 में डॉ0 बोस का स्वास्थ्य खराब हो गया। डॉक्टर की सलाह को मानते हुए उन्होंने स्वास्थ्य लाभ के लिए गिरिडीह की ओर प्रस्थान किया। बदले हुए मौसम और उचित दवाओं के बावजूद डॉ0 बोस का स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया और वहीं पर 26 नवम्बर 1936 को डॉ बोस का निधन (Jagadish Chandra Bose Death) हो गया।
डॉ0 बोस बंगला के महान कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर के घनिष्ठ मित्र थे। यह शायद टैगोर का ही प्रभाव था कि उन्होंने बंगला में कविताएँ भी लिखीं। इसके अलावा उन्होंने अपने जीवन में जो शोधकार्य किये, उन्हें भी विभिन्न पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करवाया। उनके द्वारा लिखी गयी वे पुस्तकें हैं: ‘रिस्पांस इन द लिविंग एंड नॉन लिविंग’ (Response in the Living and Nonliving, 1902), ‘प्लाँट रिसपाँस ऐज़ ए मींस ऑफ फिजिओलॉजिकल इनवेस्टीगेशंस’ (Plant Response as a Means of Physiological Investigations, 1906), ‘कम्परेटिव इलेक्ट्रो-फिजिओलॉजी’ (Comparative Electro-Physiology, 1907), ‘रिसर्चेज़ ऑन इर्रिटेबिलिटी ऑफ प्लाँट्स’ (Reserches on Irritability of Plants, 1913), ‘कलेक्टेड फिजिकल पेपर्स’ (Collected Physical Papers, 1920), ‘प्लाँट ऑटोग्राफ्स एंड देयर रिविलेशन’ (Plant Autographs and Their Revelations, 1927) एवँ ‘फिजिओलॉजी ऑफ एसेंट ऑफ सैप’ (Physiology of Ascent of Sap, 1923)। डॉ0 बोस द्वारा रवीन्द्र नाथ टैगोर को लिखे गये उनके पत्रों का संकलन भी डी. सेन के संपादन में ‘लेटर्स टू रविन्द्रनाथ टैगोर’ (Letters to Rabindranath Tagore, 1994) के नाम से प्रकाशित हुआ है। साथ ही ‘अव्यक्त’ (Abyakta, 1921) नामक उनकी एक पुस्तक बंगला में भी प्रकाशित हुई है।
अगर गहराई से देखा जाए तो डॉ0 जगदीश चंद्र बोस ने अपने शोध कार्यों के द्वारा भारत में जो ज्योति जलाई, वह आगे चलकर भी रौशन होती रही। यह शायद उन्हीं की प्रेरणा का प्रताप था कि आगे चलकर भारत ने पुन: अपना खोया हुआ वैज्ञानिक गौरव (Jagdish Chandra Bose in Hindi) हासिल किया और विश्व-पटल पर प्रमुख रूप से सामने आने में समर्थ हो सका।
अगर आपको सर जगदीश चंद्र बोस की जीवन परिचय Jagadish Chandra Bose Information आपको पसंद आए, तो इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें, जिससे वे भी जगदीश चंद्र बोस की जीवनी Jagadish Chandra Bose Biography से लाभान्वित हो सकें।
अपने अथक प्रयासों तथा अपने जीवन भर की कमाई को मिलाकर डॉ बोस ने शोध केन्द्र के लिए 15 लाख रूपया एकत्रित करने में सफलता पाई। उस पैसे से उन्होंने सन 1917 में अपने सपने को हकीकत में बदला। उन्होंने उस शोध केन्द्र का उद्घाटन करते हुए कहा कि यह केवल प्रयोगशाला नहीं, बल्कि एक मंदिर है। और इस संस्थान का उद्देश्य विज्ञान की उन्नति के साथ ही ज्ञान का प्रचार-प्रसार भी है।
लगातार श्रम के कारण सन 1936 में डॉ0 बोस का स्वास्थ्य खराब हो गया। डॉक्टर की सलाह को मानते हुए उन्होंने स्वास्थ्य लाभ के लिए गिरिडीह की ओर प्रस्थान किया। बदले हुए मौसम और उचित दवाओं के बावजूद डॉ0 बोस का स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया और वहीं पर 26 नवम्बर 1936 को डॉ बोस का निधन (Jagadish Chandra Bose Death) हो गया।
पुरस्कार/सम्मान Jagadish Chandra Bose Awards
अपने शोध कार्यों के कारण डॉ0 बोस सारे संसार में सराहे गये तथा विभिन्न संस्थाओं ने उन्हें पुरस्कारों/सम्मानों से विभूषित भी किया। उनकी खोजों से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें समय-समय पर अनेक सम्मान प्रदान किये, जिनमें सन 1903 में प्रदत्त ‘कमाण्डर ऑफ द आर्डर ऑफ इंडियन एम्पायर’ (सी.आई.ई.) की उपाधि, सन 1912 में दिया गया ‘कमाण्डर ऑफ द स्टार आफ इंडिया’ (सी.एस.आई.) सम्मान तथा सन 1916 में प्रदान की जाने वाली ‘सर’ की उपाधि मुख्य हैं। डॉ0 बोस को सन 1928 में रॉयल सोसाइटी ने अपना फेलो नियुक्त किया तथा लंदन विश्वविद्यलाय एवं कोलकाता विश्वविद्यालय ने डॉक्टर की उपाधियाँ प्रदान कीं।डॉ0 बोस बंगला के महान कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर के घनिष्ठ मित्र थे। यह शायद टैगोर का ही प्रभाव था कि उन्होंने बंगला में कविताएँ भी लिखीं। इसके अलावा उन्होंने अपने जीवन में जो शोधकार्य किये, उन्हें भी विभिन्न पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करवाया। उनके द्वारा लिखी गयी वे पुस्तकें हैं: ‘रिस्पांस इन द लिविंग एंड नॉन लिविंग’ (Response in the Living and Nonliving, 1902), ‘प्लाँट रिसपाँस ऐज़ ए मींस ऑफ फिजिओलॉजिकल इनवेस्टीगेशंस’ (Plant Response as a Means of Physiological Investigations, 1906), ‘कम्परेटिव इलेक्ट्रो-फिजिओलॉजी’ (Comparative Electro-Physiology, 1907), ‘रिसर्चेज़ ऑन इर्रिटेबिलिटी ऑफ प्लाँट्स’ (Reserches on Irritability of Plants, 1913), ‘कलेक्टेड फिजिकल पेपर्स’ (Collected Physical Papers, 1920), ‘प्लाँट ऑटोग्राफ्स एंड देयर रिविलेशन’ (Plant Autographs and Their Revelations, 1927) एवँ ‘फिजिओलॉजी ऑफ एसेंट ऑफ सैप’ (Physiology of Ascent of Sap, 1923)। डॉ0 बोस द्वारा रवीन्द्र नाथ टैगोर को लिखे गये उनके पत्रों का संकलन भी डी. सेन के संपादन में ‘लेटर्स टू रविन्द्रनाथ टैगोर’ (Letters to Rabindranath Tagore, 1994) के नाम से प्रकाशित हुआ है। साथ ही ‘अव्यक्त’ (Abyakta, 1921) नामक उनकी एक पुस्तक बंगला में भी प्रकाशित हुई है।
अगर गहराई से देखा जाए तो डॉ0 जगदीश चंद्र बोस ने अपने शोध कार्यों के द्वारा भारत में जो ज्योति जलाई, वह आगे चलकर भी रौशन होती रही। यह शायद उन्हीं की प्रेरणा का प्रताप था कि आगे चलकर भारत ने पुन: अपना खोया हुआ वैज्ञानिक गौरव (Jagdish Chandra Bose in Hindi) हासिल किया और विश्व-पटल पर प्रमुख रूप से सामने आने में समर्थ हो सका।
अगर आपको सर जगदीश चंद्र बोस की जीवन परिचय Jagadish Chandra Bose Information आपको पसंद आए, तो इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें, जिससे वे भी जगदीश चंद्र बोस की जीवनी Jagadish Chandra Bose Biography से लाभान्वित हो सकें।
यू-ट्यूब पर देखें जगदीश चंद्र बोस की जीवनी:
COMMENTS