विज्ञान कथा : एक कहानी (लेखक- ज़ाकिर अली `रजनीश´)

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Ek Kahani : Hindi Science Fiction by Zakir Ali Rajnish

Ek Kahani - Hindi Science Fiction by Zakir Ali rajnish

विज्ञान कथा : एक कहानी 

लेखक- ज़ाकिर अली `रजनीश´

काफी देर तक मैं बिस्तर पर आंखें बंद किये पड़ा रहा। हालांकि सवेरा होने वाला था, पर शरीर का रोम-रोम दर्द से टूट रहा था। इसलिए मैं उठने की हिम्मत न जुटा सका और मस्त घोड़े की तरह चारपाई पर लोटता रहा।

सहसा मुझे कुछ याद आया और मैंने जल्दी से अपनी जेब को टटोला। जेब भारी थी। लेकिन जेब के भारी होने का कारण गवर्नर के ऑटोग्राफयुक्त कोई सरकारी कागज नहीं, बल्कि एक पत्र था। वह पत्र न तो किसी प्रशंसक का था और न ही किसी प्रेमिका का, जिसके लिए मैं इतना बेकरार था। दरअसल वह पत्र केंद्रीय हिंदी संस्थान से आया था और उसके अनुसार मुझसे एक अदद विज्ञान कथा मंगायी गयी थी। संस्थान को अपनी पत्रिका का 'विज्ञान कथा विशेषांक' प्रकाशित करना था। मानदेय के साथ-साथ तीन श्रेष्ठ रचनाओं को पुरस्कृत भी किया जाना था। रात से ही मस्तिष्क में घूम रहा उलटा-पुलटा सा प्लॉट जब नालियों में फंसी गंदगी की तरह बजबजाने लगा, तो कॉपी पेन निकालने के लिए आंखें बंद किये-किये ही मैंने तकिये के नीचे हाथ मारा
पर वहां कॉपी कलम तो दूर, तकिया भी अपनी जगह से नदारद था।

तभी किसी की हंसी सुनाई पड़ी। उस गुस्ताख की सूरत देखने के लिए मैंने नवाबी अंदाज में अपनी आंखें खोली। पर अगले ही क्षण वे डर के कारण अपने आप बंद हो गयीं
कारण यह था कि मेरे सामने एक अजीब किस्म का जीव खड़ा हुआ था। मैंने पुनः हिम्मत जुटायी और 'भूत-भूत' चिल्लाने से पहले पलकों की दराजों से धीरे से झांका। …और सब कुछ समझ कर मुझे स्वयं पर हंसी आ गयी। सामने और कोई नहीं, बल्कि एक रोबोट खड़ा हुआ था। पर मेरी कहानियों से निकल कर वह मुआ हकीकत में कैसे आ गया? इसका जवाब मेरा डेढ़ किलो वजनी दिमाग नहीं दे पा रहा था।

हालांकि मैं अंदर से घबरा रहा था, पर मैंने चेहरे के भावों से उसे प्रकट नहीं होने दिया। मैंने अपनी आंखें खोलीं कर हिम्मत करके बिस्तर पर बैठ गया। पर अगले ही क्षण यह देख कर कि मैं हवा में बैठा हूं, बिस्तर से एक फिट ऊपर उछल गया।। इससे पहले कि आश्चर्य से मेरी आंखें फटतीं या मैं हड़बड़ा कर खड़बड़ाते हुए जमीन पर गिरता, उस तथाकथित चारपाई से कूद कर अलग आ गया। लेकिन कुल मिला कर सामने खड़े रोबोट को एक बार फिर मुझ पर हंसने का मौका तो मिल ही गया था।

अपनी झुंझलाहट को छिपाने के लिए मैं उस पर गरज पड़ा, "अपने दांत दिखा कर क्यों एनर्जी वेस्ट कर रहे हो? जानता हूं, हंड्रेड परसेंट नकली हैं।"

मेरे इस व्यंग्यबाण को वह झेल नहीं पाया और वहां से छूमंतर हो गया। 
 
जब मैंने अपना ध्यान अपनी परिस्थितियों पर केंद्रित किया, तो एक बार फिर चौका। ‘‘मैं कहां हूं? ये कौन सी जगह है? मैं यहां कैसे आया?’‘ जैसे अनेकानेक प्रश्न मेरे दिमाग को मथने लगे। किसी तरह मैंने इन सब बातों से अपना ध्यान हटाया और अपने चारों ओर नजरें दौड़ायी। लेकिन चारों ओर मोटर गाड़ियों, पेड़-पौधों के सिवा कुछ दिखाई पड़ा।

उस वक्त मुझे कम-से-कम एक आदमजाद की जरूरत थी, जो मुझे यह बता सकता कि यह कौन सा लोक है। इसलिए मैंने वहां पर खड़े रहना उचित नहीं समझा और तेजी से आगे बढ़ा।

लेकिन अभी मैं गिनती के चार कदम ही चल पाया था कि किसी अदृश्य चीज से जा टकराया। ठोकर लगने के बाद स्वाभाविक रूप से मुझे कुछ अक्ल आयी और मैंने उसे छूने का प्रयत्न किया। वह और कुछ नहीं, कमरे की अदृश्य दीवार थी। सबसे गजब की बात यह थी कि उसके बाहर की प्रत्येक वस्तु स्पष्ट रूप से नजर आ रही थी।

अब कुछ-कुछ मेरी समझ में आने लगा था। अवश्य ही मुझे 'टाइम मशीन' के द्वारा बीसवीं सदी से निकाल कर चालीसवीं या पचासवीं सदी में ला पटका गया था। या अगर इसे यों कहें कि मैं अपने वंशजों की कैद में था, तो शायद ज्यादा उपयुक्त रहेगा। मैं पुनः सोचने पर मजबूर हो गया कि मेरी किस कहानी में इन महामहिमों की शान में क्या गुस्ताखी हो गयी, जो इन्होंने मुझे इस पिंजरे में ला पटका?

मैंने काफी दिमाग खपाया, पर कुछ समझ में नहीं आया। ठीक उसी समय एक रोबोट मेरे बगल में प्रकट हुआ। गुस्सा तो मुझे पहले से ही आ रहा था, इसलिए बिना सोचे-समझे और अपने सींक से शरीर का खयाल किये हुए मैं उस पर टूट पड़ा और उसकी इस्पाती गर्दन दबाने को उद्यत हो उठा।

लेकिन मेरे इस अप्रत्याशित हमले से रोबोट भी एक बार के लिए घबरा गया। उसकी आंखों में लगे बल्ब 'लप्प-लप्प' जलने-बुझने लगे। शायद उसका 'कंट्रोलिंग स्विच' गर्दन के पास ही था। जिससे न तो उसने पैरों से मुझे फुटबाल समझ कर किक लगायी और न ही अपने फौलादी हाथों से मुझे दारा सिंह स्टाइल में उठा पटका। और सच पूछो तो मैं उसकी इस अकल्पनीय दशा पर हैरान हुए बिना न रह सका।

पर ज्यादा देर तक यह स्थिति न रही। कुछ ही सेकेंडों में रोबोट की आपातकालीन सुरक्षा व्यवस्था सक्रिय हो उठी और मुझे एक जबरदस्त बिजली का झटका लगा। मैं उसे सहन न कर सका और देखते ही देखते जमीन पर आ पड़ा। 
 
इसके बाद मुझे अपनी स्थिति और रोबोट की शक्ति का अंदाजा हुआ। कहीं यह रोबोट नाराज होकर अपनी शक्ति से मुझे नष्ट न कर दे। यह सोच कर मेरा शरीर एकदम कांप उठा। बचाव का और कोई रास्ता था नहीं, इसलिए मैंने अपने दोनों हाथ रोबोट के आगे जोड़ दिये।

पर रोबोट पर मेरी प्रार्थना का कोई असर न हुआ। उसने अपना दाहिना हाथ मेरी ओर उठाया, जिसमें से सुनहरी किरणें निकल कर मेरी ओर तेजी से लपकीं। मुझे विश्वास हो गया कि अब मेरी खैर नहीं। जरूर ये किरणें मुझे जला कर राख कर देंगी। यह ख्याल आते ही मेरा बदन भय से सिहर गया और मैंने घबरा कर अपनी आंखें बंद कर ली। लेकिन आश्चर्य कि शरीर में एक अजीब सी सनसनी के सिवा और कुछ भी महसूस न हुआ।

"आंखें खोलिए आफताब जी। आपको अपने मेजबानों के सामने इस तरह से घबराना शोभा नहीं देता।" कुछ ही पलों में एक सुरीली सी आवाज मेरे कानों में टकरायी। लगा जैसे किसी ने कानों में ग्लूकोज घोल दिया हो। 
 
मैंने डरते-डरते अपनी पलकों के पर्दे हटये, तो सामने एक नवयवना को खड़ी पाया। देखने में वह जन्नत की हूर से किसी भी मायने में कम नहीं थी। खूबसूरती ऐसी कि अगर स्वयं खुदा भी देख ले, तो गश खा जाये। मैं तो उसे बस देखता ही रह गया। मुझे इस बात का भी होश न रहा कि मैं जमीन पर पड़ा हुआ हूं।

"मुझे आपके बैठने का यह अंदाज बहुत पसंद आया।" तभी उस सौंदर्य की देवी के होंठ हिले, "लेकिन अगर आप इस कुर्सी पर तशरीफ लायें तो मुझे ज्यादा खुशी होगी।"

उसकी बातें सुनकर मुझे अपनी स्थिति का भान हुआ। मैं वाकई झेंप गया। फिर
मैं धीरे से उठा और शर्माते हुए उसके पास जा पहुंचा। कुर्सी पर बैठने के साथ ही मैंने इधर-उधर नजरें दौड़ायीं। वह एक प्रयोगशाला जैसी जगह थी, जिसमें चारों ओर कंप्यूटर जड़े हुए थे। लेकिन वहां की दीवारें स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रही थीं।

"आप ...आपका?'' मैंने उसका नाम पूछना चाहा, पर जबान ने साथ छोड़ दिया।

"मेरा नाम ज़ील है।'' वह बोली, "और मैं हिंदुस्तान…"

"ये हिंदुस्तान है?' मैं बीच में ही कूद पड़ा।

"जी हां, यह आपका हिंदुस्तान है। पर बीसवीं सदी का नहीं, बल्कि पचासवीं सदी का।'' उसने मुस्कराते हुए जवाब दिया।

मैंने पुनः हैरत से एक बार उसकी ओर और फिर चारों ओर देखा
विश्वास तो नहीं हो रहा था, लेकिन मानना पड़ा। और कोई होता, तो शायद मैं उससे उलझ भी जाता पर ज़ील के आगे अपना इंप्रेशन नहीं खराब करना चाहता था, इसलिए चुप रहा। किंतु फिर भी ज्यादा देर तक चुप न रह सका और जाहिलों की तरह उससे पूछ ही बैठा, "आपको मेरा नाम कैसे मालूम हुआ?"

वह धीरे से मुस्करायी, जिससे उसका चेहरा और ज्यादा खूबसूरत नजर आने लगा। वह कह रही थी, "हिंदुस्तान की बीसवीं सदी के आप मशहूर विज्ञान कथा लेखक हैं। सिर्फ आपका नाम ही आफताब नहीं, बल्कि…"

आगे की बात मैंने सुनी ही नहीं, क्योंकि अपनी प्रशंसा सुन कर मैं इतना गद्गद हुआ जा रहा था कि मुझे गुदगुदी सी महसूस होने लगी थी। गर्व से मेरा सीना इतना चौड़ा हो गया था कि यदि कोई इंचीटेप ले कर उसे नापता, तो निश्चित ही वह छोटा पड़ जाता। 
 
मैंने अपनी प्रसन्नता पर लाख प्रतिबंध लगाना चाहा, पर वह सरकारी कानूनों की तरह उसे तोड़ती हुई होठों तक आ ही पहुंची और पूरे जोशो-खरोश के साथ भांगड़ा करने लगी।

"वह तो ठीक है, पर आपने मुझे विज्ञान कहानियों से निकाल कर वास्तविकता में क्यों बुलवा लिया?" प्रसन्नता का ज्वार थमने पर मैंने पुनः एक सवाल उछाला।

ज़ील के होंठ हिले, "हम एक कहानी लेखन यंत्र बनाना चाहते हैं। इसमें हमें आपकी मदद…"

"मेरी मदद ?" मैं फिर चौका।

"जी हां, हम आप पर एक प्रयोग करके यह देखना चाहते हैं कि कहानियां लिखते समय व्यक्ति के मस्तिष्क में किस प्रकार की प्रक्रियाएं संपन्न होती हैं, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति एक कहानी को जन्म दे पाता है।"

“वाह, यह तो बड़ी ऊंची कल्पना है
कब होगा यह प्रयोग?"

"लगभग एक घंटे बाद! तब तक आप चाहें, तो पचासवीं सदी के हिंदुस्तान की सैर कर सकते हैं।" कहते हुए ज़ील ने
मुझे एक रिमोट जैसा यंत्र दिया और बोली, "यह एक कंट्रोलर है। आप जो भी करना चाहेंगे, यह उसमें आपकी मदद करेगा। मुझे विश्वास है कि इसकी मदद से आपकी सैर आनंददायक बन सकेगी।''

कंट्रोलर में ढेरों बटन बने हुए थे और प्रत्येक बटन पर कुछ न कुछ लिखा हुआ था। मैं अभी उसे समझने की कोशिश ही कर रहा था कि तभी ज़ील ने अपनी कुर्सी के हत्थे पर लगा हुआ एक बटन दबा दिया।

अगले ही पल मैंने पुनः स्वयं को उसी तथाकथित कमरे में पाया, जहां पर मेरी आंख खुली थी। सब कुछ खाली-खाली! अदृश्य दीवारें और अदृश्य सी वह कुर्सी, जिस पर मैं बैठा हुआ था। और जैसे ही मस्तिष्क के घोड़ों ने दौड़ना बंद किया, पेट के चूहों ने चालू कर दिया। मेरा ध्यान उस कंट्रोलर पर गया और मैंने उसका 'फूड' वाला बटन दबा दिया।

अगले ही पल एक अचंभा हुआ। मेरे सामने की जमीन कड़कड़ायी और इधर-उधर खिसकने लगी, जैसे मुझे अपने भीतर समा लेना चाहती हो। लेकिन ऐसा कुछ भी न हुआ। उस दराज से एक मेज निकली और मेरे सामने अवस्थित हो गयी। इसके साथ ही ऊपर न जाने कहां से उस पर प्लेटें उतरने लगीं। उन प्लेटों का उद्गम स्थल जानने के लिए जैसे ही मैंने अपना मुंह ऊपर की ओर उठाया, एक टोकरी मेरे मुंह पर लगते-लगते बची। चंद पलों में मेज पर तरह-तरह के व्यंजन आ विराजे, जिनकी वजह से मुंह में बाढ़ की सी स्थिति होने लगी। अतः देर करना मैंने उचित नहीं समझा और बड़ी बेदर्दी से उन सबको अपने मुंह के हवाले करने लगा।

मेज का मैदान साफ करने के बाद मैं उठ खड़ा हुआ और पुनः कंट्रोलर की शरण में जा पहुंचा। 'जर्नी' वाला बटन दबाते ही सामने एक कारनुमा गाड़ी आ खड़ी हुई, जिसका आकार स्कूटर से बड़ा न था। मैं फौरन उसमें प्रविष्ट हो गया और इससे पहले कि उसके 'की बोर्ड' पर अपनी मर्जी थोपूं, वह ऊपर उठने लगी। उसकी गति इतनी तेज थी कि मुझे लगा यह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को पार कर मुझे अंतरिक्ष की किसी कक्षा में स्थापित करा देगी।

लगभग पांच सौ फिट की ऊंचाई पर पहुंच कर कार का ऊपर उठना रुक गया और वह तेजी से आगे बढ़ने लगी। कार की पारदर्शी दीवारों से बाहर उड़ती हुई वैसी ही अन्य तमाम कारें मुझे स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रही थीं। बीच में न कोई चौराहा, न कोई यातायात नियंत्रक
फिर भला ये आपस में टकराये बिना आराम से कैसे चल रही हैं? अचानक मस्तिष्क में प्रश्न कौंधा। तभी मुझे ध्यान आया कि हो सकता है अंतरिक्ष में स्थापित उपग्रहों के द्वारा इनका नियंत्रण किया जाता हो। तभी ये बिना किसी दुर्घटना के ये दौड़ी जा रही हैं।

मैंने अपनी दृष्टि नीचे फेंकी। वहां मुझे बस दो ही चीजें नजर आयीं। ‘सीयर्स टावर’ जितनी ऊंची-ऊंची इमारतें और आसमान को छूने के प्रयास में लहराते पेड़, यह मुझे संसार का सबसे 'पावरफुल' आश्चर्य लगा। हमारी बीसवीं सदी में जहां पेड़ पौधे देखने को भी नहीं मिलते, वहीं यहां पचासवीं सदी में आसमान तोड़
पेड़। ये हाहाकारी तथ्य जब मेरे हृदय पर हथौड़े की तरह चोट करने लगा, तो मैं नीचे उतरने को बेताब हो गया।

मैंने कार के कंप्यूटर 'की-बोर्ड' को बड़े ध्यान से देखा। पर मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। ऐसे में मैंने कीबोर्ड से एल.ए.एन.डी. बटन दबा दिये। तुरंत ही कार नीचे की ओर सरकने लगी और देखते ही देखते पृथ्वी की सतह से जा लगी। मैं उछल कर कार से बाहर आया और एक पेड़ के पास जा पहुंचा। ध्यान से देखने पर पता चला कि वह किसी नयी प्रजाति का पौधा है, उसकी पत्तियों की बनावट अद्भुत थी।

मैंने पेड़ को छूने के लिए हाथ बढ़ाए। तभी उसके तने पर 'डेंजर' शब्द उभर आया। किंतु 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' वाला मेरा भी हाल हुआ। मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उल्टे जोर-जोर से पेड़ को हिलाने लगा। ऐसा करते ही मुझे एक जोरदार झटका लगा और मैं जमीन पर आ पड़ा।

स्वयं को जग-हंसाई का केंद्र बिंदु बनने से बचाने के लिए मैंने उठने का प्रयत्न किया, पर मुझमें इतनी भी शक्ति न बची थी कि अपने हाथ को भी हिला पाता। धीरे-धीरे मुझ पर बेहोशी छाने लगी। डूबती आंखों से मैंने देखा, कि दो रोबोट मेरी ओर चले आ रहे हैं
पर जब तक वे मेरे करीब आते, मैं पूरी तरह से बेहोश हो चुका था।

होश में आने पर मैंने अपने-आप को एक अजीबोगरीब स्थान पर पाया। मैं एक प्रयोगशाला में एक पलंग पर लेटा हुआ था। पास ही ज़ील व अन्य दो ठिगने व्यक्ति खडे हुए थे। उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी, शायद मुझे जीवित देख कर?

तुरंत ही मुझे पूर्व की घटना याद आ गयी। फिर सब कुछ मेरी समझ में आता चला गया। बेहोश होने पर मुझे वे दोनों रोबोट यहां ले आये होंगे और फिर…।

ज़ील ने बताया कि इस समय मैं हिंद महासागर की 200 फिट गहराई में बनी एक अत्याधुनिक कॉलोनी में लेटा हुआ हूं। साथ-ही-साथ उसने यह भी बताया कि यहां के सभी पेड़-पौधे कृत्रिम हैं, जो विद्युत के द्वारा संचालित होते हैं। पेड़ में प्रवाहित हो रही विद्युत धारा से मुझे करारा झटका लगा था और मैं मरते-मरते बचा था। शक्तिशाली एवं अद्भुत यंत्रों की सहायता से ज़ील ने मेरे शरीर के सूख चुके रक्त के स्थान पर कृत्रिम रक्त प्रवाहित करके मेरी जान बचायी थी।

विज्ञान के उस महान चमत्कार को परखने के लिए मैं अगले ही क्षण चारपाई से उछल पड़ा, और यह देख कर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा कि मैं पहले से भी ज्यादा चुस्त-दुरुस्त हो गया था। एक क्षण के लिए तो मुझे अपनी परिस्थिति का ध्यान ही न रहा और मैं खुशी से नाचने लगा।

तभी ज़ील ने मुझे टोक कर बताया कि प्रयोग के लिए निर्धारित समय करीब आ गया है। यह सुन कर मैं उत्साह और रोमांच से भर उठा। तभी यंत्रों से सुसज्जित एक कुर्सी मेरे सामने लायी गयी और मुझे उस पर बैठने के लिए कहा गया। उस पर बैठते ही मेरी गर्दन गर्व से अकड़ गयी और त्वचा के रोएं 'एलर्ट' हो गये। रक्तवाहिनियों में रक्त दूने वेग से दौड़ने लगा और उसी अनुपात में हृदय और सासों की रफ्तार भी बढ़ गयी। मन में एक अनोखी अनुभूति हुई, जिसे चाह कर भी व्यक्त नहीं किया जा सकता था।

कुछ क्षणों के अंतराल पर एक बड़ा सा हेलमेट, जोकि विभिन्न कंप्यूटरों और उपकरणों से संबद्ध था, मेरे सर पर रखा गया। फिर सामने एक बड़ी सी मेज लायी गयी, जिस पर एक कॉपी व कलम रखे हुए थे। ज़ील बोली, ''प्लीज, अब आप कहानी लिखिए।"

इधर मैंने अपनी कलम उठायी, उधर संपूर्ण उपकरण चालू हो गये। वहां पर हुए तमाम अनुभवों को मैं कहानी की शक्ल में सजाने लगा। सामने के कंप्यूटर स्क्रीन पर लगातार आड़ी-तिरछी लकीरें और न जाने क्या-क्या आता-जाता रहा, जोकि मेरी समझ से परे था।

मैंने उसपर एक बार नजर डाली तो जरूर, पर फिर दुबारा उधर देखा तक नहीं। मेरी कलम चलती रही, तेज और तेज
न जाने मुझमें कहां से इतनी शक्ति आ गयी थी! कलम जैसे अपने आप भागी चली जा रही थी। ज़ील और उसके साथी कभी मुझको, कभी उस स्क्रीन को और कभी तूफानी वेग से भागती मेरी कलम को निहार रहे थे। पर मैं उन सबसे बेगाना, लिखे जा रहा था, बस लिखे जा रहा था।

मात्र आधे घंटे में ही मैंने फुलस्केप साइज के पांच कागज रंग डाले। वह मेरी सबसे कम समय में लिखी गयी कहानी थी। यदि मैं उस समय किसी लेखन प्रतियोगिता में भाग ले रहा होता, तो शायद मेरी प्रतिभा देख कर स्वर्ण के साथ-साथ रजत व कांस्य पदक भी मुझ पर निसार कर दिये जाते। मेरी इस अफलातूनी लेखन शैली पर कुर्बान होती हुई ज़ील बोली, "आफताब जी, आप तो कमाल के लेखक हैं। लिखते हैं तो लगता है कि जेट इंजन चल पड़ा हो। हकीकत में आपने मेरे मस्तिष्क में ‘लविंग रिएक्शन' (प्रेम से पूर्व मस्तिष्क में होनेवाली जैव रासायनिक अभिक्रिया) चालू कर दिया है।"

ये मेरी प्रशंसा में कही गयी बातों में सबसे रोमांचक और धड़कनों को धड़ाधड़ा देनेवाले मिसाइली वाक्य थे
उन्हें सुन कर मेरा मन समुद्र की गहराई से निकल कर अंतरिक्ष में जा पहुंचा और प्रकाश की गति से धरती के चक्कर लगाने लगा। शरीर में ग्लूकॉन सी की तुलना में एक हजार गुनी शक्ति आ गयी और मन में आया कि मैं अपने इस हसीन फैन को होठों को चूम लूं। पर वहां खड़े अन्य मुस्टंडों के कारण मुझे यह कार्य सपनों तक के लिए स्थगित करना पड़ा।

इधर मेरे विचारों का हिरन कुलांचे मार रहा था, तो उधर कंप्यूटर पिछले तीस मिनटों में एकत्रित निष्कर्षों को एक निश्चित रूप देना प्रारंभ कर चुका था। ज़ील और उसके साथियों की नजरें पूरी तरह से स्वचालित कंप्यूटर स्क्रीन पर जमी हुई थीं। पर बीच-बीच में अनायास ही ज़ील की उंगलियां 'की-बोर्ड' पर दौड़ने लगतीं और कंप्यूटर उसके हिसाब से नाचने पर मजबूर हो जाता।

कुछ ही पलों में कप्यूटर ने कहानी लेखन यंत्र से संबंधित तमाम जानकारी स्क्रीन पर उकेर दी। उसे देखकर सभी के चेहरों पर प्रसन्नता रूपी बल्ब जगमगा उठे। मैं तो पहले से ही गद्गद था, दिखाने के लिए खींसें भी निपोरने लगा।

"बहुत-बहुत धन्यवाद आफताब जी! आपकी वजह से हमारा कार्य पूरा हो गया। अब अगले चंद घंटों में कहानी लेखन यंत्र तैयार हो जायेगा।" कहते हुए ज़ील ने मेरे सिर से सर्वश्रेष्ठ विज्ञान कथा लेखक का प्रतीक वह हेलमेट उतार लिया।

मैं हसरत भरी निगाह से उसे देखने के अतिरिक्त और कुछ न कर सका। हालांकि दिल के अरमान आसमान छू रहे थे, उमंगों के पुतले जवान हो रहे थे और सबसे बड़ी बात यह कि किस्मत के सितारे मेहरबान हो रहे थे। पर फिर भी, लोकलाज के डर से मुझे अपनी सभी गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना पड़ा।

उसके बाद मैं प्रयोगशाला के बगल में स्थित एक कमरे में ट्रांसमिट कर दिया गया। इधर मैं अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाता रहा और उधर प्रयोगशाला में कहानी लेखन यंत्र का निर्माण चालू रहा। काफी देर तक कमरे में चक्कर लगाने के बाद मैंने सोचा कि क्यों न यहां की सैर की जाये। तुरंत ही जेब में हाथ डाला और ‘कंट्रोलर’ को निकाल कर उसके डब्लू.ए.वाई. बटन दबा दिये।

बिना किसी आवाज के मेरे सामने की दीवार एक ओर सरकने लगी और उसमें से मेरे निकलने लायक रास्ता बन गया। मैं बिना हिचक उसमें प्रविष्ट हो गया। बगल में भी एक कमरा था और उस कमरे के बीचोबीच एक सतरंगा ग्लोब-सा हवा में तैर रहा था। मैं उसके पास जा पहुंचा और उसे ध्यान से देखने लगा। अचानक एक सिरे पर उसमें रास्ता-सा बन गया और मैं उसमें प्रविष्ट हो गया। उसके अंदर तमाम कंप्यूटर जड़े हुए थे। तभी मेरी दृष्टि उसमें लगे एक इलेक्ट्रॉनिक कैलेंडर पर पड़ी। मुझे यह समझते देर न लगी कि यह समययान ही है और इसी के द्वारा मुझे यहां लाया गया है।

मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। लेकिन इसके साथ ही साथ मेरे दिमाग में एक नयी खिचड़ी भी पकने लगी। इससे पहले कि किसी को कुछ पता चले, मैं यान के बाहर आ गया और पुनः अपने कमरे में जा पहंचा। कंट्रोलर के द्वारा मैंने कुछ किताबें मंगवायी और उनमें खो गया।

लगभग तीन घंटे के अंतराल के बाद मेरे कमरे में ज़ील प्रकट हुई, “आफताब जी, कहानी लेखन यंत्र तैयार हो गया है। आप यहां आ कर अपने कर-कमलों से इसका प्रथम परीक्षण करें।"

इतनी जल्दी बन गया कहानी लेखनयंत्र? जैसे यंत्र न हुआ गाजर का हलवा हो गया। खैर, फिर भी मैं उठा और उसके साथ एक दूसरे कमरे में जा पहुंचा। वह सामने मेज पर रखे यंत्र की ओर इशारा करती हुई बोली, “यह रहा आपका यंत्र!"

ज़ील की उंगली का पीछा करते हुए मेरी निगाहें एक टीवी जितने यंत्र पर जा पहुंचीं। यंत्र के बीचोबीच एक छोटी-सी स्क्रीन बनी हुई थी
उसके दायीं ओर कुछ बटन लगे हुए थे तथा स्क्रीन के नीचे कंप्यूटर की तरह एक की-बोर्ड भी लगा हआ था। ज़ील समझाते हुए बोली, “ये स्क्रीन के दायीं और लगे हुए बटन कहानी के निर्माण से संबंधित हैं। पहला बटन कहानी के पात्रों की संख्या, दूसरा पात्रों की प्रकृति, तीसरा कहानी की शैली, चौथा कहानी के प्रकार, पांचवां कहानी के समय-काल, छठा कहानी के निष्कर्ष, सातवां कहानी के शीर्षक और आठवां शब्द सीमा को नियंत्रित करता है। इसके अलावा नीचे बना हुआ 'की-बोर्ड' विशेष निर्देश के लिए है। कृपया अब आप अपने हाथों से इस कहानी लेखन यंत्र का शुभारंभ करें।"

मैंने एक बार ज़ील को देखा और फिर डरते हुए उन बटनों के साथ छेड़छाड़ करने लगा। इस कार्य में मुझे लगभग पंद्रह मिनट लग गये। ...और जैसे ही मेरे हाथ रुके, यंत्र के ऊपरी सिरे से एक कागज बाहर निकल पड़ा। यंत्र की इस तत्परता को देख कर मैं चौंक पड़ा और फिर कागज को लेकर वह कहानी पढ़ने लगा। कमरे में खड़े सभी लोग मेरी प्रतिक्रिया का निरीक्षण कर रहे थे और मैं व्यस्त था कहानी लेखन यंत्र की कार्यकुशलता जांचने में।

तभी प्रयोगशाला के विशेष सूचना संबंधी अलार्म बज उठे- "खाड़ी संकट को देखते हुए तृतीय विश्व युद्ध की संभावना प्रबल हो गयी है। इसलिए राष्ट्रपति महोदय ने आपतकालीन बैठक हेतु सभी वैज्ञानिकों को तत्काल आमंत्रित किया है।"

संदेश के समाप्त होते ही ज़ील व उसके साथियों ने एक पल भी व्यर्थ नहीं गंवाया और वे सभी लोग बिना कुछ कहे वहां से ट्रांसमिट हो गये। सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि मैं कुछ कर ही न सका। अब मैं वहां अकेला था। मेरे हाथों में यंत्रनिर्मित कहानी थी, जिसे मैं मुश्किल से आधी पढ़ पाया था।

अगले ही क्षण मेरे खुराफाती दिमाग में विचार कौंधा कि यदि मैं यह यंत्र ले कर समययान द्वारा यहां से फूट लूं तो...? और फिर मैंने बिना देर लगाये उस यंत्र को उठाया और कंट्रोलर से रास्ता बनाता हुआ समययान वाले कक्ष में जा पहुंचा।

पर उसी समय एक रोबोट वहां आ धमका। उसके हाथ में एक बड़ी-सी गन थी। वह मुझे चेताते हुए बोला, "अगर एक कदम भी आगे बढ़ाया, तो तुम्हें राख में बदल दूंगा।"

समययान और मेरे बीच सिर्फ एक कदम का फासला था। अतः मैंने रोबोट की परवाह नहीं की और समययान की ओर छलांग मार दी। रोबोट इस स्थिति के लिए पहले से तैयार था। उसने तत्काल गन के ट्रिगर को दबा दिया। यदि मैं एक पल की भी देरी करता, तो गन से निकली किरणें मुझे मुझे राख में में बदल देतीं। लेकिन मेरे नीचे झुक जाने के कारण वे किरणें कमरे की दीवार से जा टकरायी। इससे कमरे में एक छेद हो गया और समुद्र का पानी तूफानी वेग से कमरे में घुसने लगा।

मुझे पानी में तैरना नहीं आता था। इसलिए मैं थोड़ी ही देर में पानी में डूबने-उतराने लगा। और तभी न जाने कैसे मेरे मुंह से निकल गया, "ज़ील!"

चीख की आवृत्ति इतनी अधिक थी कि अगले ही पल मेरी आंखें खुल गयीं। अरे, मैं तो चारपाई पर लेटा हुआ था। मेरे सामने मेरा दोस्त महेंद्र खड़ा था, जो शायद अभी-अभी आया था। वह बोला, "क्या हुआ यार? सपने में भी कहानी लिख रहे थे क्या?"

"कहानी?" मैं चौंका और झट से उठ बैठा। मैंने तकिये के नीचे से कॉपी-कलम निकाली और सपने की कहानी को हकीकत में उतारने लगा।


नोट: कहानी के अन्यत्र उपयोग हेतु लेखक की अनुमति आवश्यक है।
संपर्क सूत्र: zakirlko AT gmail DOT com
 
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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. ज़ाकिर जी बहुत शानदार व रोचक कहानी।

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  2. बेनामी7/12/2022 9:48 am

    जाकिर भाई, आप सचमुच गजब के विज्ञान कथा लेखक है। बहुत सुंदर कहानी।

    जवाब देंहटाएं
वैज्ञानिक चेतना को समर्पित इस यज्ञ में आपकी आहुति (टिप्पणी) के लिए अग्रिम धन्यवाद। आशा है आपका यह स्नेहभाव सदैव बना रहेगा।

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Scientific World: विज्ञान कथा : एक कहानी (लेखक- ज़ाकिर अली `रजनीश´)
विज्ञान कथा : एक कहानी (लेखक- ज़ाकिर अली `रजनीश´)
Ek Kahani : Hindi Science Fiction by Zakir Ali Rajnish
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