Tea History and Types of Tea in Hindi.
एक प्याला - सेहत से भरा
-डॉ. विनीता सिंघल
अगर सुबह की शुरुआत एक कप गर्म चाय Tea से हो तो बात ही क्या है! सच तो यह है कि बिना चाय के अखबार पढ़ने में भी कोई मजा नहीं। गरमागरम खबरें, गरमागरम चाय के साथ ही पढ़ने में अच्छी लगती हैं। थकन भरे दिन के बाद जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, वह है एक चाय का प्याला! कहीं भी जाइए - ढाबे से लेकर पांच सितारा होटल तक चाय हर जगह मौजूद होती है और आप सबसे पहली फरमाइश चाय की ही करते हैं। कोई भी समारोह चाय के बिना संपन्न नहीं होता। चीन में इसे ‘वैलकम ड्रिंक’ माना जाता है तो जापान में अतिथियों के स्वागत में ‘टी सेरेमनी’ होती है। वास्तव में मनुष्य का चाय से प्रथम परिचय इसके स्फूर्तिदायक गुणों के कारण ही हुआ था।
चाय का इतिहास :
कहते हैं कि एक चीनी भिक्षु ने अपनी तपस्या के दौरान थकावट महसूस होने पर जब गर्म पानी पिया तो उसे एकाएक स्फूर्ति का अहसास हुआ। बाद में देखा गया कि जिस बर्तन में पानी गर्म हो रहा था, उसमें साथ लगे पेड़ की पत्तियां गिर गई थीं और यह पेड़ चाय का था।
कहते हैं कि छठी शताब्दी में चाय पीने की परंपरा चीन से जापान पहुंची। एक बौद्ध भिक्षु द्वारा चीन से जापान लाई गई चाय जापान में शाही दरबार और बौद्ध मठों से लेकर जापानी समाज में बहुत तेजी से फैली। धीरे धीरे इसकी खबर यूरोप तक पहुंची। चीन से चाय का व्यापार करने का पहला अधिकार पुर्तगाल को मिला। इंग्लैंड में चाय के नमूने 1652 और 1654 में पहुंचे। एशिया महाद्वीप में चाय का आगमन 19वीं शताब्दी में हुआ था जब ब्रिटिश शासकों ने सीलोन और ताइवान (तब फार्मोसा) में चाय की खेती शुरू की।
भारत चाय का न केवल सबसे बड़ा उत्पादक देश है, बल्कि भारत चाय का सबसे बड़ा निर्यातक देश भी है। यही कारण है कि भारत की अर्थव्यवस्था में चाय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत के अलावा चीन, जापान, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका और रूस चाय उत्पादक देश रहे हैं। ब्रिटिश शासकों द्वारा ही 20वीं शताब्दी में केन्या, यूगाण्डा और तन्ज़ानिया जैसे अफ्रीकी देशों में चाय की खेती का चलन प्रारम्भ किया गया। इन क्षेत्रों की चाय की गुणवत्ता यद्यपि उच्च स्तर की नहीं थी परन्तु मशीनीकरण के कारण विश्व बाज़ार में इसकी उल्लेखनीय भागीदारी बन चुकी है।
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चाय के फायदे :
चाय के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर बहुत सी बातें कही जाती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों से इसके जैवरासायनिक और फार्मालॉजिकल गुणों पर हुए अनुसंधान से इसके अनेक स्वास्थ्यकारी प्रभावों का पता चला है। चाय पोटैशियम सहित अनेक खनिज पदार्थों का स्रोत तो है ही, इसमें थायमिन नामक एक अमीनो अम्ल होता है जिसका एकमात्र स्रोत चाय है। इसके अतिरिक्त चाय में उपलब्ध कैटेचिन, पॉलीफिनॉल और एंटीऑक्सीडेंट इसे एक स्वास्थ्यवर्धक पेय बनाते हैं।
आपकी उम्र चाहे कुछ भी हो, चाय सभी पर कार्डिएक सुरक्षा, एंटीकार्सिनोजेनिक, एंटी इनफ्लामेटरी, एंटीएलर्जिक, एंटी बैक्टीरियल, एंटीसेप्टिक, एंटीम्यूटाजेनिक और एंटी डायबेटिक जैसे स्वास्थ्यकारी प्रभाव दिखाती है। यह शरीर में तरल पदार्थ की कमी को पूरा करने के साथ साथ दांतों के लिए भी अच्छी होती है। अस्वस्थ पाचन तंत्र के लिए तो यह सदैव एक घरेलू औषधि रही है। प्राचीन समय में तो इसे दीर्घजीवी बनाने वाली माना जाता था और फोक मेडिसिन में इसे उद्दीपक (स्टीम्यूलेंट), स्तंभक (एस्ट्रिन्जेंट), मूत्रल (डाइयूरेटिक) के रूप में प्रयोग किया जाता था।
चाय की पैदावार :
भारत में विभिन्न क्षेत्रों में चाय की अनेक किस्मों की बड़े पैमाने पर खेती की जाती है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में उगाए जाने के कारण इसकी विभिन्न किस्मों के गुणों में भी अंतर होता है। उत्तर भारत में कांगड़ा एवं कोसानी, दक्षिण भारत में ट्रेवनकोर और नीलगिरि के पठारी क्षेत्रों में, उत्तर-पूर्व में दार्जिलिंग और असम में चाय की खेती होती है। दक्षिण भारत में चाय की गुणवत्ता श्रीलंका में उगने वाली चाय के समान होती है, जबकि दार्जिलिंग एवं तराई के क्षेत्रों में उगने वाली चाय विश्व भर में श्रेष्ठ मानी जाती है।
चाय वास्तव में पानी और चाय के पौधे की पत्तियों को उबाल कर बनाया गया काढ़ा होता है। चाय की सभी प्रमुख किस्में - श्वेत, काली, हरी और उलॉन्ग - एक ही पौधे कैमिलिया साइनेन्सिस या थिया साइनेन्सिस से बनाई जाती हैं। यह तो चाय की प्रोसेसिंग की विधि होती है जो अंतिम उत्पाद को विशेष अभिलक्षण प्रदान कर चाय के विभिन्न वर्गों का उत्पादन करती है। चाय के गुण चाय के पौधों में ही निहित होते हैं। कृषि एवं मौसम की परिस्थितियों के अनुसार पौधों में अनेक जैव-रासायनिक परिवर्तन होते रहते हैं। चाय की गुणवत्ता पत्तियों को तोड़ने के समय जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के साथ साथ इस पर भी निर्भर करती है कि पत्तियों को कितनी कुशलता से तोड़ा गया है और इसी के आधार पर ग्रीन, उलॉन्ग या ब्लैक टी बनाए जाने का निर्धारण होता है।
गुणवत्ता की दृष्टि से असम की चाय दूसरे स्थान पर है। तैयार चाय की प्रायः कली एवं पहली और दूसरी पत्तियों को तोड़ा जाता है जबकि बड़ी और खुरदरी पत्तियों को झाड़ी पर ही छोड़ दिया जाता है। चाय के पौधे की आयु लगभग 100 वर्ष तक होती है। अगर चाय के पौधे को काटा न जाए तो यह नीम के पेड़ के समान विशाल हो सकता है। इसकी जडें इतनी मज़बूत होती हैं कि चाय के पौधे को उखाड़ना आसान नहीं होता। बागानों में खेती और पत्तियों को तोड़ने से लेकर हम तक पहुंचने से पहले चाय को अनेक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। विश्व भर में चाय की विभिन्न किस्में बनाई जाती हैं। चाय की पत्तियों को चाय के अन्य उत्पाद तैयार करने के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है।
विश्व के अधिकांश भागों में ब्लैक टी का प्रचलन है। यूनाइटेड किंगडम, आयरलैंड और कनाडा में ब्लैक टी को दूध और चीनी मिला कर पिया जाता है। बहुत से देशों में ब्लैक टी को चीनी या नीबू के साथ पिया जाता है। आज कल लोगों में ग्रीन टी का प्रचलन भी बढ़ गया है। जापान, चीन, इंडोनेशिया जैसे दक्षिण-एशिया उपमहाद्वीप के देशों में हरी चाय बहुत लोकप्रिय है जबकि भारत और पड़ोसी देशों में प्रायः काली चाय का प्रचलन है। सफेद और उलॉन्ग चाय की मांग काफी सीमित है।
चाय का उत्पादन :
चाय की ताजी तोड़ी हुई पत्तियों में 75-80 प्रतिशत आर्द्रता और 20-25 प्रतिषत जल में विलेय और अविलेय ठोस पदार्थ होते हैं। चाय की पत्तियों में कैरोटीन, विटामिन ई, क्लोरोफिल और सैल्यूलोस होते हैं। जल विलेय पदार्थों में अनेक रासायनिक यौगिक जैसे अमीनो अम्ल, कैफीन, पॉलीसैकेराइड, खनिज तत्व, पेक्टिन, विटामिन बी कम्प्लेक्स, विटामिन सी, सैपोनिन और पॉलीफिनालिक यौगिकों सहित फ्लेवोनॉल तथा उनके ग्लाइकोसाइड, ल्यूकोएन्थोसायनिन और फीनॉलिक अम्ल होते हैं। फ्लेवोनॉल चाय का मुख्य घटक होता है। इन फ्लेवोनॉल में से अधिकांश, यौगिकों के कैटेचिन वर्ग के अंतर्गत आते हैं।
चाय के पौधे से ताजी पत्तियों को चुन कर, ऊंचे तापक्रम पर सुखा कर चाय बनाने के लिए संसाधित किया जाता है। इसके बाद किण्वन की प्रक्रिया शुरू होती है। यह प्रक्रिया बर्तन में अथवा ज़मीन पर पत्तियों को बिछाकर की जाती है। इस प्रक्रिया में चाय की पत्तियों का हरा रंग बदल कर तांबई-भूरा होने लगता है। किण्वन की प्रक्रिया का उद्देश्य बेहतर स्वाद के लिए चाय की पत्तियों में आवश्यकतानुसार उपयुक्त जैव-रसायन उत्पन्न कराना है। इसके बाद पत्तियों को ड्रायर में सुखाया जाता है ताकि किण्वण की बढ़ती हुई प्रक्रिया को रोका जा सके। यहां आकर पत्तियों का रंग काला अथवा भूरा हो जाता है और यह छोटे, काले रंग के अथवा मोटे और लंबे दाने के आकार में आ जाती है।
इसके पश्चात् विभिन्न छलनियों द्वारा इसकी ग्रेडिंग की जाती है। अलग-अलग ग्रेड की चाय छान कर इसे नमी रहित बैग अथवा गत्ते के डिब्बों में वजन के हिसाब से भरा जाता है। अब यह चाय बाज़ारों में बड़े विक्रेताओं के माध्यम से हम तक पहुंचती है। ग्रीन, उलॉन्ग और ब्लैक टी में केवल ऑक्सीकरण के स्तर में अंतर होता है। ब्लैक टी पूरी तरह किण्वित, उलॉन्ग आंशिक रूप से किण्वित होती है और ग्रीन टी में ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं होती। ग्रीन टी बनाते समय यह ध्यान रखा जाता है कि चाय की पत्तियों में मौजूद पॉलीफिनॉलिक यौगिकों का ऑक्सीकरण या बहुलकीकरण न होने पाए।
अगली कड़ी में पढ़ें- तरह-तरह की चाय और उनके लाभ
-लेखक परिचय-
डॉ. विनीता सिंघल देश की प्रतिष्ठित विज्ञान संचारक हैं। आपकी विभिन्न विषयों पर 35 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। साथ ही आपने 20 से अधिक पुस्तकों का सम्पादन व इतनी ही पुस्तकों को अनुवाद भी किया है। आप पूर्व में 'विज्ञान प्रगति' एवं 'साइंस रिपोर्टर' जैसी पत्रिकाओं की सह सम्पादक रह चुकी हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं आकाशवाणी से आपके 700 से अधिक लेख प्रकाशित/प्रसारित हो चुके हैं। विज्ञान संचार के क्षेत्र में उल्लेखनीय योागदान के लिए आपको 'आत्माराम पुरस्कार' सहित देश के अनेक प्रतिष्ठित सम्मान/पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
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