Salim Ali - Biography, Facts and Books in Hindi
जहाँ कहीं भी पक्षियों के अध्ययन और अवलोकन की बात चले और डॉ0 सालिम अली का जिक्र न हो, यह असंभव है। डॉ. सालिम अली हमारे देश के ही नहीं वरन् संसार भर के पक्षी वैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्ध हुए। एक साधारण से बया पक्षी ने बालक सालिम को एक महान् वैज्ञानिक बना दिया। पढिए सालिम अली की जीवनी (Salim Ali Biography in Hindi)-
परिंदों के पुरोधा डॉ0 सालिम अली
-राहुल रोहिताश्व
जहाँ कहीं भी पक्षियों के अध्ययन और अवलोकन की बात चले और डॉ0 सालिम अली का जिक्र न हो, यह असंभव है। डॉ0 सालिम अली हमारे देश के ही नहीं वरन् संसार भर के पक्षी वैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्ध हुए। एक साधारण से बया पक्षी ने बालक सालिम को एक महान् वैज्ञानिक बना दिया।
डॉ0 सालिम अली ने पक्षी अवलोकन की कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। यह तो उनका एक शौक था जो बचपन में ही अनायास पैदा हो गया था। आयु बढ़ने के साथ-साथ उनका यह शौक बढ़ता ही गया और आज उनके प्रयत्नों से पक्षी अध्ययन तथा पक्षी अवलोकन_Bird watching अपने आप में एक अद्भुत एवं संपूर्ण विज्ञान बन गया है।
सालिम अली की जीवनी Salim Ali Biography in Hindi
डॉ0 सालिम अली के जीवन में एक घटना घटी थी, जब वे मात्र दस-ग्यारह वर्ष के थे। थी तो एक साधारण-सी घटना पर इस घटना ने बालक सालिम के जीवनधारा में ही परिवर्तन ला दिया। एक बार उनकी बन्दूक का एक छर्रा एक गौरैया जैसी पक्षी बया (Weaver bird) को लगा और वह नीचे गिर पड़ी। उन्होंने पास जाकर देखा तो वह उन्हें आम गौरैया से कुछ अलग महसूस हुई। उसकी गर्दन पर पीले रंग का एक ऐसा धब्बा था जो सामान्यतया गौरैया की गर्दन पर नहीं होता है। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया तो वह उसे अपने मामा अमीरूद्दीन तैयब जी, जो बहुत बड़े शिकारी थे तथा दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी वाइल्ड लाइफ सोसाइटी अर्थात् बाम्बे नेचूरल हिस्ट्री सोसाईटी (BNHS) के प्रथम भारतीय सदस्य भी थे, के पास ले गये और उसके बारे में पूछा।
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पर संयोग से उनके मामा भी इसका उत्तर नहीं दे पाए। बस उसी दिन से बालक सालिम के मन में पक्षियों के प्रति रूचि जागृत हो गयी। वे पक्षियों के बारे में अधिक से अधिक बातें जानने के लिए उत्सुक हो गए। उनके मामा ने जब सालिम के अंदीर इतना चाव देखा तो उसे प्रोत्साहित करने के लिए वे उसे लेकर मुंबई स्थित बाम्बे नेचूरल हिस्ट्री सोसाईटी के कार्यालय में गए, जो अपोलो स्ट्रीट की विशाल बिल्डिंग के छोटे से कमरे में था। उन्होंने उस बालक को सोसाईटी के ऑनरेरी सचिव डब्लू.एस. मिलॉर्ड_W.S. Millard से मिलवाया। सालिम से मिलकर मिलॉर्ड काफी खुश हुए। वे बया के प्रति सालिम की जिज्ञासा देखकर काफी प्रभावित हुए।
मिलॉर्ड ने उसे अपना संग्रहालय दिखाया जहाँ तरह-तरह की अनेकों चिड़ियाँ रखी हुई थीं। वे सभी जीवित नहीं थी बल्कि भूसा भरकर संरक्षित (स्टफींग) की गयी थीं। यह पहला अवसर था जब बालक सालिम ने इतने नाना प्रकार के पक्षी देखे। अच्छी तरह जाँच परख करके मिलॉर्ड ने उनमें से एक गोरैया निकाली और बालक की लाई हुई गोरैया के सामने रखी दी। अरे! ये दोनों तो बिल्कुल एक जैसी हैं। दोनों का गला भी पीले रंग का है। हतप्रभ सा बालक सालिम सहसा बोल पड़ा- ‘अंकल मिलॉर्ड! मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि प्रकृति में इतनी तरह की रंग-बिरंगी चिड़िया होती हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं भी इन चिड़ियों के बारे में जानूं और सीखूं।’
मिलॉर्ड साहब ने किसी बड़े व्यक्ति में भी इतनी जिज्ञासा नहीं देखी थी, जितना की इस भारतीय बालक में देखा। बालक के जिज्ञासु प्रवृत्ति ने उन्हें काफी प्रभावित किया और उन्होंने उसे हर संभव सहायता करने की स्वीकृति दे दी। मिलॉर्ड ने बालक सालिम को एक किताब ‘बर्ड्स ऑफ बाम्बे’ Birds of Bombay भी पढ़ने को दी। पता नहीं इस किताब को बालक सालिम ने न जाने कितनी बार पढ़ा होगा? इस घटना के बाद सालिम मिलॉर्ड के कार्यालय में प्रायः रोज ही आने लगे और जल्दी ही मिलॉर्ड से चिड़ियों को पहचानने तथा उन्हें भूसा भर कर संरक्षित रखने की कला भी सीख गया।
यह सालिम अली की जीवनी Salim Ali Biography in Hindi की महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने उनका जीवन बदल कर रख दिया। और वह साधारण सा दिखने वाला बालक और कोई नहीं बल्कि सालिम मोयजुद्दीन अब्दूल अली था, जो आगे चलकर विश्वविख्यात पक्षी वैज्ञानिक डॉ0 सालिम अली के नाम से परिंदों के मसीहा के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुए। मरते दम तक वह भाँति-भाँति के पक्षियों के ऊपर अनुसंधान करते रहे।
पक्षी विज्ञान में जन्मजात रूचि रखने वाले बालक सालिम अली का जन्म 12 नवम्बर, 1896 को खेतवाड़ी मुंबई में हुआ थ। उनके पिता मोहजुद्दीन और माता जीनत-उन-निशा बेगम थी। उनके पांच भाई और चार बहनें थीं। जब सालिम केवल तीन वर्ष के थे तभी इनके माता-पिता का देहान्त हो चुका था। इसलिए उनका लालन-पालन मुम्बई शहर की बाहरी आबादी में अपने मामा अमीरूद्दीन तैयब जी के घर हुआ। उनका स्वयं का परिवार काफी बड़ा था और वह कट्टर धार्मिक पद्धति के व्यक्ति थे। पर सालिम अली पर उनका कोई अंकुश नहीं था।
बचपन में सालिम अली बहुत कुशाग्र नहीं थे और न ही उन्हें पुस्तकों से विशेष लगाव था। वे तो स्वतंत्र प्रवृत्ति के बालक थे। प्राकृतिक वातावरण में स्वच्छंद विचरण, उनको बहुत भाता था। उनके मामा ने उनके लिए एक हवाई बन्दूक (Air Gun) ला दी थी। वह उन्हें बहुत प्रिय थी। अपनी प्रिय बन्दूक को हाथ में उठाये वे घर के आस-पास के पक्षियों पर निशाना लगाते रहते थे।
सालिम अली का ध्यान पढ़ाई-लिखाई में कम ही था फिर भी किसी तरह से सन् 1913 में उन्होंने बाम्बे विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने फिर कॉलेज में प्रवेश भी लिया पर कमजोर होने के कारण पढ़ाई छोड़ दी। यद्यपि उन्होंने कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन आश्चर्य की बात है कि उनके पास विश्वविद्यालय की कोई भी डिग्री न थी क्योंकि गणित में रूचि न होने के कारण वे अपना अध्ययन जारी न रख सके।
इन्हीं दिनों वे अपने बड़े भाई की वालफ्रेम माइनिंग (Walframe Mining) के व्यापार में भाई की सहायता करने के लिए वर्मा (अब म्यांमार) चले गए। परंतु वहां व्यापार में उनका मन जरा सा भी नहीं लगा, वे वहाँ व्यापार को तिलांजलि देकर जंगल-जंगल पक्षी ही निहारा करते थे। अतः व्यापार में असफल होने के बाद वे पुनः वापस मुंबई लौट आए जहाँ उन्होंने सेंट जेवियर कॉलेज में सन् 1917 में जन्तु विज्ञान में बी०एस०सी० की परीक्षा उत्तीर्ण की। तभी 22 वर्ष की आयु (1918) में उनका विवाह बेगम तहमीना से हो गया और उन्होंने बॉम्बे नेचूरल हिस्ट्री सोसाईटी के म्यूजियम में गाइड की नौकरी मिल गयी।
गाइड के रूप में सालिम अली मरे हुए सुरक्षित पक्षियों को दर्शकों को दिखाते और उनके विषय में बताते थे। इस कार्य के दौरान उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि पक्षियों के विषय में पूरी जानकारी तभी प्राप्त की जा सकती है जबकि उनके रहन-सहन को नजदीक से देखा जाए। इसी दौरान उन्हें एक सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ जब वे पक्षियों की खाल उतारने और उनमें भूसा भरने की आधुनिक तकनीक के प्रशिक्षण के लिए जर्मनी भेजे गए और विश्वविख्यात पक्षी विज्ञानी डॉ0 इरविन स्ट्रासमेन के संपर्क में आए जिन्होंने इनकी पक्षी विज्ञान में ज्ञान की परिधि को बढ़ाने में भरसक मदद की।
एक वर्ष के प्रशिक्षण के बाद जब सालिम अली जर्मनी से भारत वापस लौटे तो वे बेरोजगार हो गए। सोसाइटी में धनाभाव के कारण उनके गाइड का पद समाप्त हो चुका था। ऐसी स्थिति में विवाहित होने के कारण उन्हें अत्यधिक आर्थिक कष्ट झेलना पड़ा। सालिम अली एक शादीशुदा व्यक्ति थे, अतः उन्हें नौकरी की बहुत अधिक आवश्यकता थी। उन्हें अधिक से अधिक एक क्लर्क की नौकरी मिल सकती थी और क्लर्क की नौकरी में से पक्षियों के प्रति रूचि दिखाने के लिए समय मिलना लगभग असंभव ही था।
सौभाग्यवश उनकी पत्नी पढ़ी लिखी थी। उन्होंने सालिम अली को काफी भावनात्मक सहारा दिया। शीघ्र ही वे माहिम में एक छोटे से मकान में आ गए जो एक सुनसान जगह पर पेड़ों के झुरमुटों के बीच स्थित था। अब वे स्वच्छंद होकर पक्षियों का अवलोकन कर सकते थे। वे सुबह-सुबह निकल जाते और शाम तक घूमते रहते। उनकी नजरें आकाश और पेड़ों की चोटियों में कुछ तलाशती रहती थीं।
पक्षी अवलोकन का शौक सालिम अली को ऐसे स्थानों पर ले गया जहाँ सामान्यतः मनुष्य को पहुँच पाना बहुत कठिन होता है। इसके लिए वे बीहड़ वनों में गए, पर्वतों पर चढ़े और रेगिस्तान में भटके। उन्होंने घोड़े, ऊँट, बैलगाड़ियों में सफर किया और जहाँ कोई वाहन नहीं मिला वहाँ पैदल ही निकल पड़े। उस समय उनकी आँखें आसमन पर उड़ते हुए या पेड़ों पर बैठे हुए पक्षियों पर होती। ऐसा करते समय कितनी ही बार वे जंगली झाड़ियों में फंस जाते, गड्ढों में गिर पड़ते और पेड़ों से टकरा जाते। पर पक्की धुन और लगन के कारण वे कभी पीछे नहीं हटे। ऐसे ही एक बार घूमते हुए उन्होंने जंगल में झाड़ियों और वृक्षों पर लटके हुए बया (Weaver Bird) के आधे-अधूरे घोंसले देखे। वे सोचते रहते कि आखिर बया इतने घोंसले क्यों बनाती है? जब एक ही घोंसले से काम चल सकता है।
उसी वर्ष बरसात का मौसम शुरू होने के पहले उन्होंने अपने घर के पास के एक पेड़ पर बया के घोंसले देखे। सालिम अली को बया के अध्ययन के लिए एक स्वर्णिम अवसर मिला और वे अपने कार्य में जुट गए। तीन चार महीने तक वे लगातार बया के क्रियाकलापों को देखते रहे। इसके लिए वे घंटों उनकी कॉलोनी को निहारा करते। उनके इस तपस्या एवं खोज का परिणाम 1930 में एक शोध निबंध के रूप में प्रकाशित हुआ। इसके लिए उन्हें पक्षी विज्ञान के क्षेत्र में काफी लोकप्रियता एवं प्रसिद्धि मिली।
बया पक्षी से सालिम अली को विशेष लगाव था। उनका अध्ययन करके उन्होंने न केवल बया के अधबने घोंसलों का रहस्य प्रकट किया वरन् उनके (बया) विचित्र स्वयंवर की प्रथा के बारे में लोगों को बताया। जो घोंसला मादा बया को पसंद आ जाता है उसमें वह जोड़ा बनाती है, अण्डे देती है, उन्हें सेती है और उस समय तक रहती है जब तक बच्चे बड़े नहीं हो जाते। बड़े होकर बच्चे घोंसला छोड़कर उड़ जाते हैं और मादा बया भी उसे छोड़कर चली जाती है। पुनः समय आने पर शुरू होता है नर द्वारा नये घोसले का निर्माण और मादा द्वारा उनका चुनाव। यह रहस्य है अधबने बया के घोंसलों का। इसी अध्ययन से उन्हें इस बात का भी ज्ञान प्राप्त हुआ कि आदमी को किसी भी पक्षी के विषय में स्वयं ही निरीक्षण करने चाहिए। किसी दूसरे व्यक्ति के कथनों को आँख मीचकर नहीं मान लेना चाहिए। अब चाहे वह कितना ही प्रसिद्ध व्यक्ति क्यों न हो।
बचपन में चिड़ियों की पहचान व्यवहार आदि जानने के लिए सालिम अली को किताबों का अभाव खलता था, फिर जो किताबें उनके पास थीं, उनमें न ही पर्याप्त चित्र थे और न ही स्पष्ट एवं पूर्ण जानकारियाँ। इस कमी को पूरा करनेके लिए उन्होंने जी तोड़ प्रयत्न किया, जिससे खास करके युवा लोगों में पक्षियों के बारे में जानने की जिज्ञासा पैदा हो। सन् 1941 में उनकी पहली पुस्तक ‘द बुक ऑफ इंडियन बर्डस’ (The Book of Indian Birds) प्रकाशित हुई जिसमें आकर्षक रंगीन चित्रों सहित चिड़ियों की अनेक किस्मों का रोचक वर्णन तथा साथ ही साथ अनेक नई जानकारियाँ प्रस्तुत की गई थीं। यह पुस्तक बहुत पसंद की गयी। तबसे अबतक इस पुस्तक के अनेकों संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। तथा ऐसा अनुमान है कि इस पुस्तक की अब तक एक लाख से भी अधिक प्रतियाँ सम्पूर्ण विश्व में बिक चुकी हैं।
सन् 1948 में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त पक्षी वैज्ञानिक एस. डिलान रिप्ले S. Dillon Ripley के साथ मिलकर एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट आरंभ किया जिसके अंतर्गत दस भागों में भारत और पाकिस्तानी पक्षियों के विषय में जानकारी लिखनी थी। उन्होंने ‘हैन्डबुक ऑफ दी बर्डस ऑफ इंडिया एण्ड पाकिस्तान’ Handbook of the Birds of India and Pakistan नामक पुस्तक के दस अंक प्रकाशित किये। इस पुस्तक में उन्होंने इस उपमहाद्वीप में पायी जानेवाली चिड़ियों की प्रवृत्ति, प्राकृतिक वास, प्रजनन, प्रवास आदि सभी बातों पर जानकारी उपलब्ध कराई है।
इसके अलावा पक्षियों के ऊपर उन्होंने और भी कई पुस्तकें लिखी हैं। ‘द फॉल ऑफ ए स्पेरो’ The Fall of a Sparrow में उन्होंने अपने जीवन की अंतरंग झाँकियां प्रस्तुत की है। इस प्रक्रिया में उन्होंने अपने जीवन के कुछ ऐसे अछूते व अनजाने पहलू भी छूए हैं जो कहीं अत्यंत रोचक होने के कारण पाठक का मनोरंजन करते हैं तो कहीं इतने करूणाजनक है कि पाठकों की आँखें बरबस गीली हो जाती है।
पक्षियों के बारे में अधिक जानने की उनकी जिज्ञासाओं ने उन्हें कभी स्थिर नहीं होने दिया। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि शायद ही देश का कोई ऐसा कोना बचा होगा जिसमें सालिम अली के रबर के गमबूटों के निशान न बने हों।
पक्षी विज्ञान में अपने उत्कृष्ट कार्यों के लिए डॉ0 सलिम अली को अनेकों पुरस्कार एवं पदकों से सम्मानित किया गया। इनमें से कुछ प्रमुख हैं- एशियाटिक सोसाईटी का जय गोविन्द लॉ मेडल (1953), ब्रिटिश पक्षी वैज्ञानिक यूनियन का स्वर्णपदक (1967), आई.यू.सी.एन. का जॉन सी फिलिप्स मेमोरियम मेडल (1969), इन्सा का सुन्दरलाल होरा स्मृति पदक (1973), पùविभूषण (1976), पक्षी विज्ञान में राष्ट्रीय अनुसंधान प्रोफेसर (1982), वन्य जीवन संरक्षण के लिए भारत सरकार का राष्ट्रीय पुरस्कार (1983), इनके अतिरिक्त कई अन्य पुरस्कार भी मिले। उन्हें अलीगढ़, दिल्ली और आन्ध्र विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1985 में उन्हें राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया गया।
डॉ0 सालिम अली ने पक्षियों का अध्ययन ही नहीं किया, उनके बारे में आम लोगों में रूचि भी पैदा कर दी। उनसे प्रेरणा लेकर आज हजारों लोग पक्षियों का अवलोकन (बर्ड वॉचिंग) करते हैं। कितने ही शौकीन लोग दूर देशों से, ठंड के मौसम में हमारे देश में आनेवाले पक्षियों का अवलोकन करने देश के प्रसिद्ध केवलादेव (घाना) पक्षी राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर, राजस्थान जाते हैं। वैसे हमारे देश में घाना के अतिरिक्त और भी कई पक्षी आश्रयणियाँ हैं जिनमें प्रमुख है बिहार का कॉवर झील, पश्चिम बंगाल का कुलिक झील, उड़ीसा का चिलका लेक कश्मीर का वुलर लेक गुजराज का नल सरोवर आदि।
डॉ0 सालिम अली के पक्षी प्रेम ने राजा महाराजाओं को भी प्रभावित किया था। देश की आजादी से पहले देशी रियासतों के राजा अक्सर ही उन्हें अपने राज्यों में पक्षियों के विवरण तैयार करने के लिए बुलाते रहते थे। कच्छ के राजा के आमंत्रण पर सालिम अली ने उस प्रदेश के फ्लेमिंगो (राजहंस) पक्षी के जो विवरण तैयार किये वे आज भी अद्वितीय हैं।
उन्होंने देश में ऐसे अनेक पक्षियों का भी पता लगाया है, जिनके बारे में यह समझा जाता था कि वे भारत में नहीं मिलते। उन्होंने पक्षियों के बारे में जानने के लिए हैदराबाद, बिहार के वेटलैंड्स, नीलगिरी की पहाड़ियों, देहरादून, बहावलपुर, अफगानिस्तान, कैलाश मानसरोवर, कच्छ, असम और भरतपुर में वृहत सर्वेक्षण किया।
सालिम अली ने पक्षियों के सर्वेक्षण के लिए 65 वर्ष से भी अधिक समय तक समस्त भारतीय उपमहाद्वीप का भ्रमण किया। उन्होंने अपने जीवन के लगभग 60 वर्ष भारतीय पक्षियों के साथ बिताए। परिंदों के विषय में उनका ज्ञान इतना अधिक था कि लोग उन्हें परिंदों का चलता-फिरता विश्वकोश (The Walking Dictionary of Birds) कहने लगे थे। उन्होंने न सिर्फ पक्षियों का अध्ययन किया अपितु पक्षियों के अध्ययनों को एक विज्ञान (Ornithology) के रूप में मान्यता भी दिलवाई। इस परिपेक्ष्य में हम यह कह सकते हैं कि उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन इसके पुष्पन एवं पल्लवन हेतु लगा दिया तथा अपने अदम्य साहस, निष्ठा, खोजी प्रवृत्ति, लक्ष्य-संघात की एकाग्रता, जुझारूपन तथा सत्य को प्राप्त करने की ललक जैसे अपने विलक्षण गुणों के द्वारा इसे हमेशा संपोषित किया।
मित्रों, यहाँ एक बात और गौर करने वाली है कि 12 नवम्बर को जिस दिन डॉ0 सालिम अली का जन्म हुआ था उस दिन हम उनकी याद में हर साल World Bird Watching Day (पक्षी अवलोकन दिवस) के रूप में मनाते हैं। इस अवसर पर देशभर के तमाम पक्षी प्रेमी विभिन्न आयोजन कर उन्हें याद करते हैं।
ज्ञात हो कि सालिम अली का बिहार से विशेष लगाव था। उन्होंने अपने जीवन के कई महत्वपूर्ण वर्ष बिहार के जंगलों तथा प्रसिद्ध वेट लैंड्स जिनमें प्रमुख हैं बेगूसराय जिले में अवस्थित विश्व प्रसिद्ध कॉवर झील तथा वैशाली जिले में स्थित बरैला पक्षी अभयारण्य। इन महत्वपूर्ण वेट लैंड्स में उन्होंने खासकर प्रवासी पक्षियों का अध्ययन किया। उन्होंने न सिर्फ इन परींदों का अध्ययन किया वरन् आम लोगों को भी हमारे इन मेहमानों के संरक्षण में गहरी दिलचस्पी भी जगाई जो मील का पत्थर साबित हुई और जिसकी अनुगूंज की अनुभूति हम आज भी कर सकते हैं।
इस परिपेक्ष्य में पिछले 20 सालों से पर्यावरण एवं वन्य जीवों के लिए समर्पित भागलपुर बिहार की चर्चित संस्था ‘मंदार नेचर क्लब’ छात्रों एवं जनसाधारण में पक्षियों के प्रति संरक्षण तथा संवर्द्धन हेतु प्रयासरत हैं। हर साल Bird Watching Day के अवसर पर मंदार नेचर क्लब के द्वारा आम जनों, स्कूल-कॉलेजों के विद्यार्थियों तथा शोध छात्रों को पर्यावरण तथा पक्षियों के संरक्षण हेतु प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जिनमें प्रमुख है Bird Watching trip, गंगा नदी में Boat Trip, Nature Camp, Nature Quiz आदि।
20 जून सन् 1987 सालिम अली की जीवनी Salim Ali Biography in Hindi का अंतिम अध्याय साबित हुआ। इस दिन वे 91 साल की उम्र में अल्लाह को प्यारे हो गये। आज ऐसा लगता है कि परिंदों के इस मसीहा के चले जाने से परिंदे जैसे बेसहारे से हो गए हैं। आने वाली सदियां इस महान वैज्ञानिक को कभी नहीं भुला पाएगी।
वर्तमान समय में भारत में कुछ वैज्ञानिक ऐसे हैं जो डॉ0 सालिम अली के द्वारा पक्षीविज्ञान के क्षेत्र में किए गए उत्कृष्ट कार्यों को प्रोत्साहन तथा बढ़ावा दे रहे हैं, तथा पक्षियों के शोध एवं सर्वेक्षण कार्य से जुड़े हुए हैं। इनमें प्रमुख हैं डॉ0 ए0 आर0 रहमानी, डॉ0 हिमायु अब्दूल अली, डॉ0 जे0सी0 डेनियल, राजु कसाम्बे, आशीष पिटी (आ0प0), श्री गोपी सुन्दर, श्री अरूनयन शर्मा (बंगाल), डॉ0 अनवारूद्दीन चौधरी (असम), श्री विक्रम ग्रेवाल आदि। बिहार में भी कुछ युवा वैज्ञानिक हैं जो पक्षी विज्ञान के क्षेत्र में सराहनीय ययोगदान दे रहे हैं। उनमें प्रमुख हैं श्री अरविन्द मिश्रा, प्रो0 डी0एन0 चौधरी, डॉ0 गोपाल शर्मा एवं श्री राहुल रोहिताश्व। इनमें से कुछ लोग तो डॉ0 अली के मार्गदर्शन के काम भी कर चुके हैं।
इनमें प्रमुख हैं डॉ0 जे0सी0 डेनियल जो BNHS के सम्मानित सचिव थे जिनका निधन वर्ष (2012) में हो गया। वर्तमान पर्यावरणविद् सह पक्षी वैज्ञानिक डॉ0 ए0आर0 रहमानी जो पर्यावरण एवं वन्य जीवों के लिए समर्पित भारत की सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था बॉम्बे नेचूरल हिस्ट्री सोसाइटी (BHHS) के भूतपूर्व डायरेक्टर हैं। इन्हें डॉ0 सालिम अली का सान्निध्य प्राप्त था तथा उनके मार्गदर्शन में काम भी कर चुके हैं। पक्षी विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान तथा कई पुस्तकों तथा सैकड़ों शोध पत्रों को सम्पादित करने वाले डॉ0 ए0आर0 रहमानी एक पक्षी वैज्ञानिक होने के साथ-साथ एक नेक दिल इन्सान भी है। डॉ0 सालिम अली के बाद डॉ0 रहमानी को ही वर्तमान में Bird Man of India के नाम से जाना जाता है।
हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर इन्हें स्वस्थ रखे तथा लम्बी आयु दे ताकि पक्षी विज्ञान तथा पक्षी वैज्ञानिकों को इनका असीम स्नेह, सहयोग एवं आशीर्वाद मिलता रहे और शिक्षा जगत को नई-नई जानकारियाँ मिलती रहे।
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