Mechanism of Monsoon in India in Hindi
शायरों और कवियों की लेखनी को ऊर्जा देने वाले और भारतीय खेती में मुख्य भूमिका निभाने वाले मानूसन को समझना किसी रहस्मय तिलिस्म से कम नहीं। यही कारण है कि मानसून विभाग अपने बेशुमार सुपर कम्प्यूटरों और उपग्रही आंकणाें के बाद भी मानसून की सटीक भविष्यवाणी करने में समर्थ नहीं हो पाता है। मानसून का यह गणित इतना टेढ़ा क्यों होता है और इसके पीछे कौन-कौन से कारक जिम्मेवार होते हैं, पढिए इस रोचक लेख में:
मानसून की कहानी
-नवनीत कुमार गुप्ता
हमारे देश में सामान्यतयाः सर्दी (Winter), गर्मी (Summer) और बारिश (Monsoon) तीन मुख्य मौसम हैं। लेकिन बारिश का मौसम विशेष है। बारिश यानी मानसून का आगमन जिससे गरजते-बरसते बादल बरस कर ग्रीष्म ऋतु की भीषण गर्मी से राहत दिलाते हैं। कृषि प्रधान देश होने के कारण मानसून की रिमझिम वर्षा देश भर में अच्छी पैदावर की नई आशा जगा देती है। ग्रीष्म मानसून का आगमन हमारे देश में दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर से होता है। इसलिए यह ‘दक्षिण-पश्चिम मानसून’ (South West monsoon) कहलाता है।
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मानसून के स्वागत में एक खुशनुमा चेहरा |
‘मानसून’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले भारत में ही किया गया। यह अरबी भाषा के ‘मौसिम’ (Mausim) शब्द से बना है जिसका अर्थ है- ऋतु (Season)। इसके नामकरण का भी रोचक किस्सा है। अरब सागर के दक्षिण-पश्चिमी भाग से मध्य एशिया की ओर जो हवाएं चलती थीं, उन्हें अरब सौदागर ‘मौसिम’ कहते थे। उन्हीं हवाओं के साथ वे अपने पालदार जहाजों में यात्रा के लिए निकलते थे। इस प्रकार वर्षा लाने वाली उन्हीं हवाओं को ‘मानसून’ कहा जाने लगा।
मानसून जल-कणों से भरी वे हवाएं हैं जो गर्मियों में किसी महाद्वीप के विस्तृत भू-भाग के खूब तप जाने के कारण बने कम वायुमंडलीय दाब को भरने के लिए हिंदमहासागर की ओर से चली आती हैं। सर्दियों में देश का उत्तरी भू-भाग ठंडा पड़ जाता है, जबकि सागर की सतह का पानी अपेक्षाकृत गर्म रहता है। इसलिए उत्तरी भू-भाग से ठंडी हवाएं सागर की ओर बहने लगती हैं। ‘दक्षिण-एशियाई मानसून’ (South Asian monsoon) प्रणाली भारतीय उपमहाद्वीप के लिए बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह मानसून भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में वर्षा के लिए जिम्मेदार है।
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Monsoon System in South Asia |
दक्षिण-एशिया में मानसून प्रायः जून से सितंबर तक सक्रिय रहता है। देश के उत्तरी और मध्य भाग के अथाह गर्मी से तप जाने के कारण वायुमंडलीय दाब बहुत कम हो जाता है। इसलिए उस खाली स्थान को भरने के लिए हिंद महासागर से जल-कणों से भरी नम हवाएं तेजी से भारतीय उपमहाद्वीप की ओर बहने लगती हैं। ये हवाएं उत्तर में हिमालय की ओर खिंची चली जाती हैं।
वहां दीवार की तरह खड़ा हिमालय उन नम हवाओं को मध्य एशिया की ओर जाने से रोक देता है। जिससे वे नम हवाएं ऊपर उठती हैं। ऊपरी वायुमंडल में तापमान कम होने के कारण उनमें वर्षा की बूंदें बनने लगती हैं। और फिर, उन बूंदों से लदे बादल बरस पड़ते हैं। इस प्रकार वर्षा की झड़ी लग जाती है, जो प्रकृति के कण-कण में नई उमंग का संचार करती है।
हमारे देश में साल भर में कुल जितनी वर्षा होती है, उसका 80 प्रतिशत से भी अधिक मानसून की ही देन है। हमारे देश की अधिकांश खेती इसी वर्षा पर निर्भर करती है। धान, मक्का, कपास, मोटे अनाजों, दलहनों और तिलहनों की कई फसलें ‘खरीफ’ यानी मानसून के ही मौसम में उगाई जाती हैं। इनका उत्पादन मानसून से प्रभावित होता है। अगर मानसून कमजोर हुआ तो सूखा पड़ सकता है। और यदि, मानसून जम कर बरसता है तो अति वृष्टि के कारण बाढ़ तबाही मचा देती है।
असल में मानसून का हमारे देश की अर्थव्यवस्था से सीधा संबंध है। सितंबर माह के आसपास मानसून तेजी से वापस लौटने लगता है। ये लौटती हुई ठंडी, सूखी हवाएं बंगाल की खाड़ी से नमी लेकर दक्षिण भारत में बरसती हैं। इसे उत्तर-पूर्वी मानसून कहा जाता है। तमिलनाडु में साल भर जितनी वर्षा होती है, उसका 50-60 प्रतिशत हिस्सा इसी लौटते हुए मानसून की देन होता है। दक्षिण भारत में अक्टूबर से दिसंबर का समय इसी उत्तर-पूर्वी मानसून का समय होता है। दक्षिण भारत में उस समय होने वाली बारिश काफी लाभदायक होती है।
मानसून की महत्ता को देखते हुए इसके पुर्वानुमान का महत्व बढ़ जाता है। हमारे देश के अनेक कहानी एवं कथाओं में प्राचीन समय में मौसम पुर्वानुमान के लिए उपयोग किए जाने वाले तरीके मिल जाएंगे। इस समय मानसूनी वर्षा के पूर्वानुमान के लिए 16 पैरामीटरों के मॉडल का उपयोग किया जाता है। सन् 1988 से मानसून के दीर्घ अवधि के पूर्वानुमानों के लिए इसी मॉडल का उपयोग किया जा रहा है।
आजकल मौसम विभाग अनेक सुपर कम्प्यूटरों (Super computers) की मदद से मौसम का पुर्वानुमान लगाता है। आज नए वैज्ञानिक उपकरणों और उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों तथा तस्वीरों से मौसम वैज्ञानिकों को मानसून का पूर्वानुमान लगाने में काफी मदद मिल रही है। वे कई बार लगभग सटीक पूर्वानुमान भी लगा रहे हैं लेकिन मानसून की रहस्यमय परिघटना का अभी भी पूरी तरह पता नहीं लगा है।
वैज्ञानिक इसकी गुत्थी सुलझाने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। असल में मानसून की परिघटना इतनी रहस्यमय है कि हर साल इसकी एकदम सटीक भविष्यवाणी करना संभव नहीं हो पाता।
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नवनीत कुमार गुप्ता पिछले दस वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन आदि जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पर्यावरण संरक्षण जागरूकता के लिए प्रयासरत हैं। आपकी विज्ञान संचार विषयक लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा इन पर गृह मंत्रालय के ‘राजीव गांधी ज्ञान विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार' सहित अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आप विज्ञान संचार के क्षेत्र में कार्यरत संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ से सम्बंद्ध हैं। आपसे निम्न मेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है:

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