Lymphatic Filariasis: Symptoms, Prevention and Treatment in Hindi
कृमि प्रभावित क्षेत्रों से लोगों का रोजगार की तलाश में बाहर जाना, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, अज्ञानता, आवासीय सुविधाओं की कमी एवं स्वच्छता की अपर्याप्त स्थिति से फाइलेरिया का संक्रमण फैलता है। फाइलेरिया का संक्रमण सामान्य शारीरिक कमजोरी, सिरदर्द, मिचली, हल्के बुखार और बार-बार खुजली के रूप में प्रकट होता है।
फाइलेरियाः शरीर को विकृत करने वाली एक संक्रामक बीमारी
-डॉ. अरविन्द सिंह
फाइलेरिया (Lymphatic Filariasis) एक परजीवीजन्य संक्रामक बीमारी है जो धागे जैसे कृमियों से होती है। वैश्विक स्तर पर इसे एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी (Neglected Tropical Disease) माना जाता है। फाइलेरिया दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों में एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है। जिसमें भारत भी शामिल है। विश्व में लगभग 1.3 अरब लोगों को इस बीमारी के संक्रमण का खतरा है और लगभग 12 करोड़ लोग इससे वर्तमान में संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से लगभग 4 करोड़ लोग इस बीमारी की वजह से किसी विकृति का शिकार हो गए हैं या अक्षम हो चुके हैं।
फाइलेरिया के कौन से कारक जीव हैं?
फाइलेरिया, फाइलेरियोडिडिया (Filariodidea) कुल के नेमैटोडों (गोलकृमि) के संक्रमण से होता है। तीन प्रकार के कृमि इस बीमारी को जन्म देते हैं। ये हैं वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई (Wuchereria bancrofti), ब्रुजिया मलाई (Brugia malayi) और ब्रुजिया टिमोरीई (Brugia timori)। वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई इस बीमारी का सबसे सामान्य कारक है जो पूरे विश्व में पाया जाता है। ब्रुजिया मलाई दक्षिण-पश्चिम भारत, चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, दक्षिण कोरिया, फिलिपींस और वियतनाम में पाया जाता है जबकि ब्रुजिया टिमोराई सिर्फ इंडोनेशिया तक ही सीमित है। वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई में नर कृमि 40 मिलीमीटर लंबा होता है जबकि मादा की लंबाई लगभग 50-100 मिलीमीटर होती है।
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भारत में फाइलेरिया:
फाइलेरिया भारत में एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। यह संक्रामक बीमारी देश के राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, गुजरात, केरल एवं केन्द्र शासित प्रदेशों लक्षद्वीप और अंडमान निकोबार में स्थाई रूप से उभरती रहती है। भारत में मुख्य तौर पर फाइलेरिया के दो प्रकार के संक्रमण होते हैं, एक वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई से और दूसरा ब्रुजिया मलाई से। वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई के संक्रमण से होने वाला बैंक्रोफ्टियन फाइलेरिया (Bancroftian filaria) भारत में फाइलेरिया के कुल मामलों का लगभग 98 प्रतिशत होता है।
कैसे फैलता है फाइलेरिया?
फाइलेरिया मच्छरों से फैलता है जो परजीवी कृमियों के लिए रोगवाहक का काम करते हैं। इस परजीवी के लिए मनुष्य मुख्य पोषक है जबकि मच्छर इसके वाहक और मध्यस्थ पोषक हैं। कृमि प्रभावित क्षेत्रों से लोगों का रोजगार की तलाश में बाहर जाना, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, अज्ञानता, आवासीय सुविधाओं की कमी और स्वच्छता की अपर्याप्त स्थिति से यह संक्रमण फैलता है। संक्रमण के बाद कृमि के लार्वा संक्रमित व्यक्ति की रक्तधारा में बहते रहते हैं जबकि वयस्क कृमि मानव लसीका तंत्र में जगह बना लेता है। एक वयस्क कृमि की आयु सात वर्ष तक हो सकती है।
क्या हैं फाइलेरिया के लक्षण?
इस तथ्य का अभी तक सटीक आकलन नहीं किया जा सका है कि संक्रमण के बाद फाइलेरिया के लक्षण प्रकट होने में कितना समय लगता है। हालांकि मच्छर के काटने के 16-18 महीनों के पश्चात बीमारी के लक्षण प्रकट होते हैं। फाइलेरिया के ज्यादातार लक्षण और संकेत वयस्क कृमि के लसीका तंत्र में प्रवेश के कारण पैदा होते हैं। कृमि द्वारा ऊतकों को नुकसान पहुंचाने से लसीका द्रव का बहाव बाधित होता है जिससे सूजन, घाव और संक्रमण पैदा होते हैं। पैर और पेड़ू सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले अंग हैं। फाइलेरिया का संक्रमण सामान्य शारीरिक कमजोरी, सिरदर्द, मिचली, हल्के बुखार और बार-बार खुजली के रूप में प्रकट होता है।
फाइलेरिया कभी-कभार ही जानलेवा साबित होता है, हालांकि इससे बार-बार संक्रमण, बुखार, लसीका तंत्र में गंभीर सूजन और फेफड़ों की बीमारी ‘ट्रॉपिकल पल्मोनरी इओसिनोफीलिया (Tropical Pulmonary Eosinophilia) हो जाती है। ट्रॉपिकल पल्मोनरी इओसिनोफीलिया के लक्षणों में खांसी, सांस लेने में परेशानी और सांस लेने में घरघराहट की आवाज होती है। लगभग 5 प्रतिशत मामलों में पैरों में सूजन आ जाती है जिसे फ़ीलपांव अथवा हाथीपांव कहते हैं। फाइलेरिया से गंभीर विकृति, चलने-फिरने में परेशानी और लंबी अवधि की विकलांगता हो सकती है।
फाइलेरिया के कारण हाइड्रोसील (Hydrocoele) भी हो सकता है। मरीज के वृषणकोष (Scrotum) में सूजन भी आ सकती है जिसे ‘फाइलेरियल स्क्रोटम’ (Filarial scrotum) कहा जाता है। कुछ मरीजों में मूत्र का रंग दूधिया हो जाता है। महिलाओं में वक्ष या बाह्य जननांग भी प्रभावित होते हैं। कुछ मामलों में पेरिकार्डियल स्पेस (हृदय और उसके झिल्लीदार आवरण के बीच की जगह) में भी द्रव जमा हो जाता है।
कैसे फाइलेरिया का पता लगाया जाता है?
फाइलेरिया परजीवी के माइक्रोफाइलेरि (Microfiliariae) रक्त में सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जा सकते हैं। माइक्रोफाइलेरि मध्यरात्रि के समय लिए गए रक्त के नमूनों में देखे जा सकते हैं क्योंकि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में इन परजीवियों में ‘निशाचरी आवधिकता’ (Nocturnal Periodicity) देखी जाती है जिससे रक्त में इनकी उपस्थिति मध्य रात्रि के आसपास के कुछ घंटों तक ही सीमित रहती है। यह भी देखा गया है कि रक्त में इस परजीवी की उपस्थिति मरीज के सोने की आदतों पर भी निर्भर करती है।
फाइलेरिया की पहचान में सीरम संबंधी तकनीकें माइक्रोस्कोपिक पहचान का विकल्प हैं। सक्रिय फाइलेरिया संक्रमण के मरीजों के रक्त में फाइलेरियारोधी आईजी जी 4 (Immunoglobulin G 4) का स्तर बढ़ा हुआ रहता है जिसका सामान्य तरीकों से पता लगाया जा सकता है।
क्या हैं फाइलेरिया के रोकथाम एवं नियंत्रण के उपाय?
फाइलेरिया की मौजूदगी और फैलाव गंभीर चिंता का विषय है जिस पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। लेकिन, चूंकि यह बीमारी जानलेवा नहीं है, इसलिए इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। अगर फाइलेरिया का इलाज शुरूआती दौर में नहीं किया गया तो इससे गंभीर विकलांगता पैदा हो सकती है। बाद के दौर में प्रभावित अंग को काटकर अलग करना ही एकमात्र उपचार रह जाता है। लंबी अवधि तक प्रभावित होने और बार-बार के संक्रमण से लसीका तंत्र बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो सकता है और पैर में गैंगरीन जैसी गंभीर जटिलता पैदा हो सकती है।
हाथीपांव रोग आमतौर पर नंगे पैर चलने वालों को होता है। इसलिए चप्पल या जूते पहनने से संक्रमण के जोखिम को कम किया जा सकता है। फाइलेरिय संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए डाईएथाइलकार्बामैज़ीन साइट्रेट (Diethylcarbamazine citrate) सबसे प्रचलित औषधि है। यह औषधि फाइलेरिया के कृमियों को अशक्त (paralyse) कर देती है जिसके बाद रक्त की सफेद कोशिकायें उन्हें नष्ट कर देती हैं।
फाइलेरिया ग्रस्त इलाकों में डाईएथाइलकार्बामेजीन साइट्रेट-युक्त नमक का रोजाना उपयोग नए संक्रमणों से बचा सकता है। डाईएथाइलकार्बामेजीन साइट्रेट के अलावा, एलबेंडाज़ोल (Albendazole) ओर आईवरमेक्टिन (Ivermectin) दो अन्य फाइलेरियारोधी औषधियां हैं जिनका उपयोग इस बीमारी के बचाव के लिए किया जा सकता है।
फाइलेरिया ग्रस्त इलाकों में डाईएथाइलकार्बामेजीन साइट्रेट-युक्त नमक का रोजाना उपयोग नए संक्रमणों से बचा सकता है। डाईएथाइलकार्बामेजीन साइट्रेट के अलावा, एलबेंडाज़ोल (Albendazole) ओर आईवरमेक्टिन (Ivermectin) दो अन्य फाइलेरियारोधी औषधियां हैं जिनका उपयोग इस बीमारी के बचाव के लिए किया जा सकता है।
चूंकि यह बीमारी मच्छरों के काटने से फैलती है, इसलिए मच्छरों की जनसंख्या पर प्रभावी नियंत्रण संक्रमण की संभावना को खत्म कर देगा। फाइलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में घरों के अंदर और बाहर कीटनाशकों के इस्तेमाल से मानव आबादी सुरक्षित रह सकती है।
जलीय खरपतवार पिस्टिया लेंसियोलाटा, (Pistia lanceolata) मच्छरों के प्रजनन को बढ़ावा देता है, इसलिए बारिश के मौसम में इस वनस्पति की प्रजाति को भौतिक, रासायनिक या जैविक तरीके से नष्ट कर देना चाहिए। जैविक नियंत्रक जैसे कि मछलियां, कीट, और कवकों (Fungi) का इस्तेमाल करके मच्छरों की जनसंख्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है। दुनिया भर में मच्छरों पर नियंत्रण के लिए दो लार्वाभक्षी मछलियों गैंबुसिया एफिनिस (Gambusia affinis) एवं पोइसिलिया, रेटिकुलेटा (Poecilia reticulata) का इस्तेमाल किया जाता है।
बैसिलस स्फेरिकस (Bacillus sphaericus) और बैसिलस थुरिनजियेन्सिस (Bacillus thuringiensis) जैसे जीवाणुओं के जैव-लार्वानाशक रसायनों का इस्तेमाल भी मच्छरों की जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए किया जा सकता है। सीलोमोमाइसीस (Coelomomyces), लैजेनिडियम (Lagenidium) तथा मैटाराइज़ियम (Metarhizium) जैसे कवकों और रोमानोमर्मिस कुलिसिवोरैक्स (Romanomermis culcivorax) और रोमानोमर्मिस आयंगराइ (Romanomermis iyengari) का इस्तेमाल भी मच्छरों के प्रजनन को रोकने में किया जा सकता है।
जल में रहने वाले कई कीट जैसे जल बिच्छू, वाटर बोट और वाटर बग आदि मच्छरों के प्राकृतिक शत्रु होते हैं जिनका इस्तेमाल मच्छरों की जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए किया जा सकता है। ऐसा पाया गया है कि जल में उगने वाला फर्न एज़ोला पिन्नेटा (Azolla pinnata) धान के खेतों में मच्छरों पर नियंत्रण पाने में कारगर रहा है, क्योंकि यह जल की सतह पर एक मोटी परत बना देता है जिससे मच्छर पानी में अंडे नहीं दे पाते हैं। यह नाइट्रोजन भी संचित करता है जिससे यह जैव उर्वरक का भी काम करता है। इसलिए एजोला पिन्नेटा का इस्तेमाल भी मच्छरों की रोकथाम के लिए किया जाना चाहिए।
मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी तथा मच्छर-रोधी क्रीम का रोजाना इस्तेमाल करना चाहिए।
निष्कर्ष:
अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि फाइलेरिया उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों में मच्छरों से फैलने वाली एक बीमारी है जो जानलेवा तो नहीं होती है, लेकिन इसका परिणाम शारीरिक विकृति, गतिशीलता में कमी और लंबी अवधि की विकलांगता के रूप में सामने आता है। इसलिए यह आवश्यक है कि शरीर को विकृति करने वाली इस बीमारी की रोकथाम एवं नियन्त्रण हेतु सभी संभव तरीकों को अपनाया जाए।
लेखक परिचय:


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upyogi jankari, thanks.
जवाब देंहटाएंye to accha hai lekin general sankraman ka kya? mujhe 'sankraman se sanrakshan hi ek maatr upaay' par nibandh chahiye
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