Karl Landsteiner Biography in Hindi
पूरे एक साल तक परीक्षण, क्रॉस टैस्टिंग और रक्त की पेचीदा संरचना का अध्ययन करने के बाद उन्होंने रक्त के समूहों पर अपने विचार दुनिया के सामने प्रस्तुत किए। कार्ल लैंडश्टाइनर यह समझाने में कामयाब रहे कि इंसानी रक्त प्रमुख रूप से कम से कम तीन तरह का होता है जो रक्त की लाल कोशिकाओं के प्लाज्मा झिल्ली से जुड़े प्रतिजन के अनुसार भिन्न होता है।
रक्त समूह की कहानी बताने वाले वैज्ञानिक लैंडश्टाइनर
-नवनीत कुमार गुप्ता
मानवों की शारीरिक बनावट लगभग एक जैसी ही होती है, लगभग सभी की दो आंखें, दो कान, एक नाक, मुंह दो-दो हाथ-पैर आदि होते हैं। शरीर के अंगों के साथ ही उनके उपयोग भी एक जैसे ही होते हैं। लेकिन फिर भी एक सी स्थितियों में शरीर क्यों अलग-अलग प्रतिक्रिया करता हैं, इस बात ने प्राचीन काल से कई वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। ऐसे कुछ कारकों में शामिल रक्त यानी रक्त को समझने के लिए वैज्ञानिकों को काफी समय लगा।
दुनिया को रक्त की ऐसी ही विभिन्न विषेशताओं का परिचय सबसे पहले रोगविज्ञानी कार्ल लैंडश्टाइनर (Karl Landsteiner) ने कराया। इनका जन्म 14 जून, 1868 में हुआ था। लैंडश्टाइनर ने अपने कैरियर के आरंभ में बीमारी और संक्रमण पर शोध किया। उनका अधिकांश समय रक्त और उसके विभिन्न घटकों के अध्ययन में गुजरा।
सदियों पहले समाज में यह धारणा थी कि संसार में दो रक्त समूह है एक अच्छे व्यक्तियों में और दूसरे बुरे व्यक्तियों में पाया जाता है। बाद में समय बदलने के साथ यह विचार भी बदला। लैंडश्टाइनर के समय यह धारणा प्रचलित थी कि सभी मानवों का रक्त एक सा होता है। लेकिन उस समय तक रक्त का ट्रांसफ्यूजन यानी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में रक्त स्थानांतरित करने का काम आम नहीं था। कभी-कभार यह संयोग हो जाता था कि चढ़ाने वाला रक्त, रक्त ग्रहण करने वाले के रक्त से मेल खा जाता था।
इसके अलावा रक्त चढ़ाने के लिए तकनीक भी उन्नत नहीं थी इसलिए रक्त पाने वाले को इससे उतना लाभ नहीं होता था जितना होना चाहिए। ऐसे ट्रांसफ्यूजन यानी रक्त आधान के मामले में रक्त की कोशिकाओं के थक्के बन जाते थे और रक्त बहना बंद हो जाता था। थक्के बनने के कारण अक्सर व्यक्ति को आघात और पीलिया हो जाता था और उसकी मौत भी हो जाती थी। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि ऐसे ट्रांसफ्यूजन में जब रक्त देने वाले के रक्त की कोशिकाओं और रक्त पाने वाले के सेरम या प्लाजमा को मिलाया जाता है तो हेमागल्युटिनेशन की वजह से क्रॉस मैचिंग हो जाती है, जिससे पता चलता है कि रक्त देने वाले का रक्त किसी व्यक्ति विशेष के लिए अयोग्य है।
1901 में लैंडश्टाइनर ने पता लगाया कि ऐसा रक्त के रक्त सीरम के सम्पर्क में आने की वजह से होता है। उन्होंने नतीजा निकाला कि अलग-अलग लोगों के रक्त की बनावट अलग-अलग थी और इसी कारण से रक्त देने वाले की कोशिकाओं और रक्त पाने वाले की कोशिकाओं में समानता और असमानता उत्पन्न होती है। अपने इस सिद्धांत की पुष्टि के लिए उन्होंने वियना यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में कई दर्जन मरीजों के रक्त के नमूने लिये। अपनी लेबोरेटरी में उन्होंने रक्त के घटक आर बी सी को, हर नमूने के मूलभूत रक्त सीरम से अलग किया। ऐसे सैकड़ों नमूनों की जांच और रक्त की लाल कोशिकाओं की संकर परीक्षण यानी क्रॉस टैस्टिंग के बाद उन्होंने पाया कि कुछ मामलों में रक्त देने वाले का रक्त कुछ सेरम नमूनों में थक्कों में बदल जाता था और कुछ नमूनों में ऐसी कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं होती थी
पूरे एक साल तक परीक्षण, क्रॉस टैस्टिंग और रक्त की पेचीदा संरचना का अध्ययन करने के बाद उन्होंने रक्त के समूहों पर अपने विचार दुनिया के सामने प्रस्तुत किए। कार्ल लैंडश्टाइनर यह समझाने में कामयाब रहे कि इंसानी रक्त प्रमुख रूप से कम से कम तीन तरह का होता है जो रक्त की लाल कोशिकाओं के प्लाज्मा झिल्ली से जुड़े प्रतिजन के अनुसार भिन्न होता है। इस सिद्धांत का प्रयोग करके लैंडश्टाइनर ने मानव के रक्त को तीन समूहों में बांटाः ए, बी और सी। बाद में सी को ग्रुप ‘ओ’ नाम दिया गया। एक साल बाद उनके दो साथियों - एल्फ्रैड फॉन डिकास्टेलो (Alfred Von Decastello) और एड्रियानो स्टरली (Adriano Sturli) ने और ज्यादा लोगों की जांच की और एक चौथे ब्लड ग्रुप का भी पता लगाया और इसे ‘एबी’ ग्रुप नाम दिया गया।
दरअसल रक्त की लाल कोशिकाओं की सतह पर वंशानुगत एंटीजेनिक सामग्री की मौजूदगी या गैरमौजूदगी पर आधरित रक्त का वर्गीकरण किया गया है। रक्त समूह व्यवस्था पर आधरित ये प्रतिजन प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, ग्लाइकोप्रोटीन या ग्लाइकोलिपिड्स के रूप में हो सकते हैं। इनमें से कुछ एंटीजन विभिन्न ऊतकों की अलग-अलग तरह की कोशिकाओं की सतह पर मौजूद होते हैं। एक युग्मजीविकल्पी से निकलने वाले रक्त की लाल कोशिकाओं की सतह पर मौजूद प्रतिजन किसी एक रक्त समूह व्यवस्था का निर्माण करते हैं।
इंटरनेशनल सोसायटी फॉर ब्लड ट्रांसफ्यूजन (आईएसबीटी) के मुताबिक इंसानी रक्त के तीस रक्त समूह व्यवस्था हैं। किसी सम्पूर्ण रक्त समूह व्यवस्था में आरबीसी की सतह पर मौजूद सभी 30 तत्वों का वर्णन होता है, और रक्त की कोई एक किस्म ब्लड ग्रुप प्रतिजन के बहुत से संभावित मेलों में से कोई एक होती है।
रक्त के प्रकारों की खोज एक क्रांतिकारी कदम थी। लेकिन उस दौर का वैज्ञानिक समुदाय इस खोज को स्वीकारने और इसका प्रयोग करने के सिलसिले में आशंकित था। 1907 में यानी लैंडश्टाइनर की खोज को सार्वजनिक किए जाने के चार साल बाद न्यूयॉर्क के सेनाई हॉस्पिटल में डॉक्टर र्यूबिन ओटनबर्ग ने ब्लड टाइपिंग का इस्तेमाल करके पहले आधुनिक ब्लड ट्रांसफ्यूजन को अंजाम दिया, ये ट्रांसफ्यूजन वैसा ही था जैसा कि आजकल होता है। 1915 तक लैंडश्टाइनर के ब्लड टाइपिंग सिद्धांत को पूरी दुनिया में काफी हद तक स्वीकारा जाने लगा।
लेकिन ब्लड टाइपिंग का इस्तेमाल करके बड़े स्तर पर पहला ब्लड ट्रांसफ्यूजन इतिहास में एक बदकिस्मत दौर में आया। पहले विश्व युद्ध के दौरान बहुत बड़े स्तर पर ब्लड ट्रांसफ्यूजन हुआ। ह्दय, फेफड़ों और शरीर के अन्य महत्वपूर्ण अंगों की सर्जरी पहले ब्लड ट्रांसफ्यूजन की कमी के कारण असंभव सी मानी जाती थी लेकिन अब ये काम आसान हो गया। ब्लड टाइपिंग से होने वाले ब्लड ट्रांसफ्यूजन के कारण बहुत सी जिंदगियां बचाई जा सकीं।
लेकिन ब्लड टाइपिंग की ये कार्यवाई अब भी अधूरी थी, लैंडश्टाइनर अब भी इंसान के रक्त के अध्ययन और इसका जायजा लेने में जुटे थे। लैंडश्टाइनर ने देखा कि बहुत थोड़े मामलों में रक्त देने वाले और रक्त पाने वाले के ब्लड ग्रुप का पूरी तरह मिलान करने के बावजूद रक्त पाने वाले की रक्त कोशिकाएं नए रक्त को स्वीकारने से इंकार कर देती थी जिससे खतरनाक और कभी-कभी घातक परिणाम हो जाते थे।
इस प्रकार लैंडश्टाइनर और उनके सहशोधकर्त्ता डॉक्टर एलेक्जैंडर वाइनर (Alexander Vainer) एक कामयाब ब्लड ट्रांसफ्यूजन के एक और महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व से परिचित हुए। इससे इंसान के रक्त में आर एच फैक्टर (Rh factor) की खोज हुई। इसे आर एच फैक्टर इसलिए कहा गया क्योंकि इसे पहले रीसस बंदर में खोजा गया था।
आर एच फैक्टर, रक्त की लाल कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित होता है। लगभग 85 प्रतिशत इंसानी आबादी की रक्त की लाल कोशिकाओं की सतह पर आर एच फैक्टर होता है और इसे आर एच पॉजिटिव (Rh positive) कहा जाता है। बाकी लोगों की रक्त की लाल कोशिकाओं में आर एच फैक्टर नहीं होता है और उन्हें आर एच निगेटिव (Rh negative) कहा जाता है। आर एच फैक्टर को, आर एच ब्लड ग्रुप सिस्टम का सबसे ज्यादा इम्यूनोजैनिक डी प्रतिजन कहा जाता है।
लैंडश्टाइनर और वाइनर ने अंदाजा लगाया कि अगर आर एच निगेटिव वाले लोग आर एच पॉजिटिव रक्त का एक से ज्यादा ट्रांसफ्यूजन पाते हैं तो उनके रक्त में एंटी फैक्टर विकसित हो जाते हैं। इसलिए ये साबित हो गया कि एक कामयाब ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए ये महत्वपूर्ण है कि रक्त की किस्म के साथ-साथ रक्त का आरएच फैक्टर भी मेल खाए।
इस अध्ययन से एक और कमाल की खोज हुई। आर एच फैक्टर का पता चलने से नवजात बच्चों की एरिथ्रोब्लास्टोसिस फैटालिस या हिमोलिटिक बीमारी की वजह पता चली। ऐसा तब होता है जब मां और भ्रूण के रक्त की किस्में आपस में नहीं मिलती हैं और इसके नतीजे में मां की एंटीबडीज भ्रूण को घायल कर देती हैं। ये जानकारी मिलने के साथ ही अब प्रसव से पहले के चरण में इन पेचीदगियों का पता लगाना और जहां कहीं संभव हो उनका इलाज करना और जोखिम को कम से कम करना भी आसान हो गया है।
ब्लड टाइपिंग और आर एच फैक्टर की खोज के कुछ अप्रत्याशित प्रयोग भी निकले हैं। ब्लड टाइपिंग से मैडिको-लीगल मामले में पितृत्व से जुड़े मुकद्दमों और हत्या के मुकद्दमों को सुलझाने में एक नया अध्याय खुला है। ए बी ओ ब्लड टाइपिंग से इन मामलों को सुलझाने में काफी मदद मिल रही है।
1902 में लैंडश्टाइनर ने वियना इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरैंसिक मैडिसिन के मैक्स रिक्टर के साथ मिलकर एक लैक्चर दिया जिसमें उन्होंने अपराधों को हल करने में मदद के लिए रक्त के सूखे हुए धब्बों की टाइपिंग की एक नई विधि के बारे में बताया, जहां अपराध वाली जगह पर रक्त के धब्बे पाए जा सकते थे।
लैंडश्टाइनर, ब्लड टाइपिंग और आर एच फैक्टर के बारे में अपनी खोजों को और पुष्ट तो बना रहे थे लेकिन उन्हें ये पता नहीं चल पाया कि ब्लड ग्रुप पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते हैं। 1910 के आसपास एमिल प्रफाइहर फॉन डंजर्न और लुड्विक हर्षफैल्ड ने ब्लड ग्रुप्स के वंशानुक्रमण के सिद्धांत के लिए अपनी पहली अवधारणा की परिकल्पना को प्रस्तुत किया। पितृत्व या मातृत्व से जुड़े विवादों को निम्न प्रकार से हल किया जाता है।
जिस व्यक्ति के रक्त की लाल कोशिकाओं की सतह पर ‘ए’ किस्म का एंटीजेन होता है उसका रक्त ए प्रकार का होता है। जिसके रक्त की लाल कोशिकाओं की सतह पर ‘बी’ किस्म का एंटीजेन होता है उसका रक्त बी प्रकार का होता है। जिस व्यक्ति का रक्त ए, बी किस्म का होता है, उसके रक्त में दोनों प्रतिजन होते हैं और जिस व्यक्ति का रक्त ‘ओ’ ग्रुप का होता है उसके रक्त की लाल कोशिकाओं की सतह पर कोई प्रतिजन नहीं होता। प्लाज्मा की एंटीबडीज को रक्त की लाल कोशिकाओं की सतह पर प्रतिजन के साथ मिश्रित नहीं होना चाहिए वरना एग्लूटिनेशन यानी थक्काकरण होने लगता है। रक्त की किस्म की इस समानता का प्रयोग माता-पिता या उनके बच्चों के ब्लड ग्रुप को निर्धारित करने में होता है, बशर्ते इनमें से एक की जानकारी हो।
ए बी ओ किस्म के रक्त में बहु -युग्मजीवीकल्पी गुण होते हैं। ए बी ओ किस्म के खून में बहु -युग्मजीवीकल्पी गुण होते हैं, इसमें तीन युग्मजीवीकल्प होते हैं। ये हैं - IA, BI और IO यहां IA, BI युग्मजीवीकल्प सह-प्रभुत्व दिखाते हैं जबकि IO, IA, BI के प्रति अपगामी होता है। तो ए ब्लड ग्रुप वाले किसी व्यक्ति के लिए संभावित जीनोटाइप होगा - IA, IA या IA, IO बी ब्लड ग्रुप वाले किसी व्यक्ति के लिए संभावित जीनोटाइप होगा - IBIB या IBIO इसी तरह ओ ब्लड ग्रुप वाले किसी व्यक्ति के लिए संभावित जीनोटाइप होगा IOIO और ए बी ब्लड ग्रुप वाले के लिए होगा IAIB, बच्चे को एक युग्मजीवीकल्पी अपनी मां से मिलता है और दूसरा अपने पिता से। इस प्रकार माता-पिता के ब्लड ग्रुप उनके बच्चों के संभावित ब्लड ग्रुप का निर्धारण करते हैं और इसका विपरीत भी सत्य है।
तो इस प्रकार मानव रक्त के व्यवहार से जुड़ी जबर्दस्त पहेली को सुलझाया गया। लैंडश्टाइनर के बाद के दौर वाले वैज्ञानिक इस कमाल की खोज को और बेहतर बनाते गए जिससे इस बात के प्रति बेहतर समझ हासिल हुई कि इंसान का शरीर किस तरह काम करता है। दुनिया इस सिलसिले में ऑस्ट्रियाई मूल के कार्ल लैंडश्टाइनर की आभारी है जो बाद में अमरीका में जा कर बस गए थे। अपने काम से आधिकारिक रूप से सेवानिवृत्त होने के काफी समय बाद तक भी वे सूक्ष्मदर्शी से शोध करके उन तमाम चीजों को नोट करते रहते थे जो अध्ययन के दौरान उन्हें पता चलती थी।
1943 में लैंडश्टाइनर की दिल का गम्भीर दौरा पड़ने से उस स्थान पर मृत्यु हो गई जहां उन्होंने अपना लगभग पूरा जीवन गुजारा था - यानी उनकी लैब में लैंडश्टाइनर ने जो भी खोज की, उसमें वो अग्रणी थे। इसके बावजूद वो प्रचार से और भाषण देने से बचते रहते थे। वे बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे और उनके काम को उनके जीवन काल के दौरान पूरी दुनिया में प्रसिद्धि और मान्यता मिली। 1930 में उन्हें शरीर विज्ञान के लिए नोबल सम्मान दिया गया था। लैंडश्टाइनर ने 26 जून 1943 को इस संसार में अंतिम सांसें लीं।
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नवनीत कुमार गुप्ता पिछले दस वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन आदि जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पर्यावरण संरक्षण जागरूकता के लिए प्रयासरत हैं। आपकी विज्ञान संचार विषयक लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा इन पर गृह मंत्रालय के ‘राजीव गांधी ज्ञान विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार' सहित अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आप विज्ञान संचार के क्षेत्र में कार्यरत संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ से सम्बंद्ध हैं। आपसे निम्न मेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है:

मानवता के इतिहास की महान घटना। इस महान आत्मा को नमन।
जवाब देंहटाएंApka bht2 Dhanyavad,itni important and essential informations dene k liye....
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