Vateria Indica Information in Hindi
अजकर्ण अत्यन्त ही आर्थिक महत्व की वनस्पति है। वृक्ष की लकड़ी का उपयोग माचिस एवं प्लाईवुड के निर्माण में होता है। वृक्ष से प्राप्त रेसिन का उपयोग ब्रान्काइटिस, बवासीर, घुटने के जोड़ों का दर्द, संक्रमित घाव, कान दर्द आदि के उपचार में होता है। रेसिन में कैंसर रोधी गुण भी पाये जाते हैं।
विलुप्ति के खतरे से जूझती आर्थिक महत्व की वनस्पति अजकर्ण
-डा. अरविन्द सिंह
अजकर्ण वृक्ष की एक प्रजाति है जो भारत के पश्चिमी घाट (Western Ghats) में पायी जाती है। यह प्रजाति यहां के लिए स्थानिक (endemic) है। इस वृक्ष की प्रजाति का वैज्ञानिक नाम वटेरिया इण्डिका (Vateria indica) है और ये पुष्पीय वनस्पतियों के डिप्टेरोकार्पेसी (Dipterocarpaceae) कुल की सदस्य है। आम बोल चाल की भाषा में इसे ‘इण्डियन कोपल ट्री’ ‘व्हाइट डामर’, ‘पिने वार्निश एवं ‘मालाबार टैलो’ नामों से जाना जाता है। हिन्दी में इस वनस्पति को 'खरूबा' नाम से जाना जाता है जबकि मलयालम में इसे ‘वेलाकन्टुरूक्कम’ तथा तमिल में ‘धुप मारम’ नाम से जाना जाता है। कन्नड़ में इस वनस्पति को ‘डामर’ नाम से जाना जाता है।
अति कम जनसंख्या के कारण अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature and Natural Resources) ने 2012 में इस वनस्पति को लाल सूची (Red List) में गम्भीर संकटग्रस्त (Critically Endangered) प्रजाति के तहत सूचीबद्ध किया है। वे प्रजातियां जिनकी जंगली अवस्था में विलुप्ति का तत्काल भविष्य में खतरा है को गम्भीर संकटग्रस्त प्रजाति के रूप में जाना जाता है।
अजकर्ण एक विशाल सदाबहार वृक्ष की है जिसकी लम्बाई लगभग 40 मीटर होती है। कभी कभार इसकी लम्बाई 60 मीटर तक भी होती है। वृक्ष की छाल चिकनी एवं भूरे रंग की होती है। पत्तियां साधारण एवं डण्ठलयुक्त होती हैं। पुष्प सुगंधित एवं सफेद रंग के होते हैं तथा वृक्ष पर गुच्छे में प्रकट होते हैं। फल कैप्सुल प्रकार का होता है जिसमें सिर्फ एक बीज होता है।
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अजकर्ण वनस्पति भारत के दक्षिणी राज्यों केरल, तमिलनाडु एवं कर्नाटक में पायी जाती है। यह वनस्पति की प्रजाति श्चिमी घाट के नम सदाबहार वन (Wet Evergreen Forest) की घटक प्रजाति होती है। यह निचले क्षेत्रों से लेकर 1,200 मीटर की ऊंचाई तक पायी जाती है। इस प्रजाति के सफल विकास हेतु 2500-3000 मी0मी0 तक की औसत वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। पुष्प जनवरी तथा मार्च महीने के बीच प्रकट होते हैं जबकि फल मई एवं जुलाई माह के बीच पक कर तैयार होते हैं। वृक्ष का प्रजनन बीज द्वारा होता है।
अजकर्ण अत्यन्त ही आर्थिक महत्व की वनस्पति है। भारत के दक्षिणी राज्यों में इस वनस्पति का रोपण सड़को के किनारे छायादार वृक्ष के रूप में किया जाता है। वृक्ष की लकड़ी का उपयोग माचिस एवं प्लाईवुड के निर्माण में होता है। छाल का उपयोग गुड़ उद्योग में होता है। वृक्ष के तने से प्राप्त रेसिन को ‘सफेद डामर’ अथवा ‘धूप’ नाम से जाना जाता है जिसका प्रयोग वार्निश, मोमबत्ती, मलहम आदि में होता है।
रेसिन में औषधीय गुण पाये जाते हैं। रेसिन का उपयोग ब्रान्काइटिस, बवासीर, अतिसार, घुटने के जोड़ो का दर्द, संक्रमित घाव, कान दर्द आदि के उपचार में होता है। रेसिन में कैंसर रोधी गुण भी पाये जाते हैं। वृक्ष के छाल का प्रयोग स्थानीय लोग मलेरिया के उपचार हेतु करते हैं जबकि बीज से प्राप्त तेल का उपयोग वाह्य तौर पे घुटने के जोड़ों के दर्द के उपचार में किया जाता है।
अतिशोषण एवं आवास क्षरण अजकर्ण वनस्पति के लिए दो प्रमुख खतरे हैं। जीवित प्रौढ़ वृक्षों की कटाई लकड़ी हेतु की जाती है जिसका उपयोग प्लाईवुड उद्योग में होता है। कृषि एवं रोपण में विस्तार इस वनस्पति के आवास क्षरण के कारण हैं।
अजकर्ण का संरक्षण निम्नलिखित उपायों द्वारा किया जा सकता है -
1. आवास क्षरण पर नियंत्रण
2. विघटित आवास का पुनरुत्थान
3. जीवित वृक्षों की कटाई पर पूर्णतः रोक की आवश्यकता
4. इस वृक्ष की प्रजाति के रोपण के लिए स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित करना
अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि आर्थिक महत्व की अजकर्ण वनस्पति आज विलुप्ति के खतरे का सामना कर रही है। अतः जैव-विविधता संरक्षण पारिस्थितिक संतुलन एवं भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इस वनस्पति का संरक्षण आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
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ispar dhyan diye jane ki awashyakta hai.
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