भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में हर्रा , बहेड़ा तथा अर्जुन वनस्पतियों की प्रजातियों के प्रचार एवं प्रसार की आवश्यकता है जिससे इनके वृहद पै...
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में हर्रा, बहेड़ा तथा अर्जुन वनस्पतियों की प्रजातियों के प्रचार एवं प्रसार की आवश्यकता है जिससे इनके वृहद पैमाने पर रोपण को बढ़ावा मिल सके। इन वनस्पतियों के वृहद रोपण से न सिर्फ आर्थिक लाभ की प्राप्ति की जा सकती है अपितु पर्यावरण को भी संरक्षण प्रदान किया जा सकता है।
एक ही कुल की महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पतियां हर्रा, बहेड़ा तथा अर्जुन
-डा. अरविन्द सिंह
हर्रा, बहेड़ा तथा अर्जुन महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पतियां हैं जो आमतौर से उत्तर तथा मध्य भारत में बहुतायत में पायी जाती हैं। ये तीनों वनस्पति प्रजातियां पुष्पीय पौधों के काम्बरिटेसी (Combretaceae) कुल की सदस्य हैं। तीनों वृक्ष प्रजातियां आमतौर से कठोर प्रवृत्ति की होती हैं जो किसी भी प्रकार की मृदा में उगने में सक्षम होती हैं।
हर्रा, बहेड़ा तथा अर्जुन का उपयोग आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में बड़े पैमाने पर होता है। इन वृक्षों के उत्पादों का उपयोग देसी दवा के रूप भी किया जाता है। हमारे प्राचीन चिकित्सा ग्रन्थों विशेषकर अथर्ववेद में इन वृक्षों की प्रजातियों के औषधीय गुणों का वर्णन किया गया है। इन वनस्पति प्रजातियों की विशेषताओं एवं उनके औषधीय गुणों का विवरण निम्नलिखित हैः
हर्रा:
हर्रा को ‘हरीतकी’ एवं ‘हरड़’ के नाम से भी जाना जाता है। हर्रा के वृक्ष विशाल होते हैं, जिनकी छाल गहरे भूरे रंग की होती है। हर्रा आमतौर से उत्तर भारत के उष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वनों (Tropical deciduous forests) में पाया जाता है। यह देश के पश्चिमी घाट एवं दक्षिण भारत में भी पाया जाता है।
हर्रा का वैज्ञानिक नाम टर्मिनेलिया चेबुला (Terminalia chebula) है। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में हर्रा के वृक्ष की लम्बाई ज्यादा होती है। इसकी पत्तियाँ साधारण प्रकार की तथा डण्ठलयुक्त होती हैं। पत्तियों की लम्बाई 3-6 सेमी. होती है। हर्रा वृक्ष के सफेद पुष्प अप्रैल-जून में प्रकट होते हैं तथा फल शीत ऋतु में पक के तैयार होते हैं। फल ड्रयूप (Drupe) प्रकार का होता है।
हर्रा के औषधीय गुण: इस वनस्पति के औषधीय गुण
आमतौर से फल में पाये जाते हैं। फल का गुदा अतिसार, पेचिश, दमा, मंदाग्नि, आंत की सूजन, उल्टी, पेशाब सम्बन्धी व्याधियों तथा यकृत व्याधियों में दिया जाता है। फल के गुदे के उपयोग बाह्य तौर पर अल्सर तथा घाव के उपचार में भी किया जाता है। फल का महीन चूर्ण दाँत तथा मसूड़ों सम्बन्धी बिमारियों के उपचार में कारगर होता है। पके फल के सेवन से मानसिक दुर्बलता के उपचार में सहायता मिलती है।
आमतौर से फल में पाये जाते हैं। फल का गुदा अतिसार, पेचिश, दमा, मंदाग्नि, आंत की सूजन, उल्टी, पेशाब सम्बन्धी व्याधियों तथा यकृत व्याधियों में दिया जाता है। फल के गुदे के उपयोग बाह्य तौर पर अल्सर तथा घाव के उपचार में भी किया जाता है। फल का महीन चूर्ण दाँत तथा मसूड़ों सम्बन्धी बिमारियों के उपचार में कारगर होता है। पके फल के सेवन से मानसिक दुर्बलता के उपचार में सहायता मिलती है।
बहेड़ा:
यह एक विशाल पर्णपाती वृक्ष की प्रजाति है, जिसका मुख्य तना सीधा तथा छाल मोटी तथा गहरे भूरे रंग की होती है। बहेड़ा का वानस्पतिक नाम टर्मिनेलिया बेलेरिका (Terminalea bellerica) है। यह वनस्पति आमतौर से उत्तर भारत के पर्णपाती वनों में पायी जाती है। बहेड़ा नम तथा शुष्क पर्णपाती वनों (Moist and dry deciduous forests) में शाखू (Shorea robusta) तथा सागौन (Tectona grandis) का मुख्य सहयोगी है।
बहेड़ा पथरीली तथा लवणीय भूमि में उगने में सक्षम होता है। अतः इसे बंजर भूमि पर भी उगाया जा सकता है। प्रायद्वीपीय भारत में यह आमतौर से नम घाटियों में पाया जाता है। वनस्पति की पत्तियों का उपयोग रेशम कीट पालन में भी किया जाता है।
बहेड़ा की पत्तियाँ साधारण तथा 3-8 इंच लम्बी होती हैं। पत्तियाँ आमतौर से डालियों के सिरे पर गुच्छा बनाती हैं। फल ड्रयूप प्रकार का होता है। बहेड़ा का रोपण छायेदार वृक्ष के रूप में बाग-बगीचों तथा सड़क के किनारे किया जाता है। यह तीव्र वृद्धि दर वाली वृक्ष की प्रजाति है। वृक्ष में खुशबूदार पुष्प अप्रैल-जून में नई पत्तियों के साथ प्रकट होते हैं जबकि फल शीत ऋतु में पक कर तैयार होते हैं।
बहेड़ा के औषधीय गुण:
अथर्ववेद के अनुसार बहेड़ा कास, स्वरभेद, गलक्षत, अतीसार, शोथ, अर्श, कुष्ठ और प्लीहा वृद्धि में हितकर है। औषधीय गुण वृक्ष के फल तथा छाल में पाये जाते हैं। सूखा पका फल रक्त स्राव को रोकने तथा विरेचक के रूप में प्रभावी होता है। फल को बवासीर, जलोदर, अतिसार, कोढ़, बदहजमी तथा सरदर्द में दिया जाता है। अधपके फल को विरेचक तथा पूर्णरूप से पके फल को रूधिर स्राव के उपचार में दिया जाता है। फल का उपयोग आयुर्वेदिक औषधि त्रिफला चूर्ण के निर्माण में किया जाता है।
अथर्ववेद के अनुसार बहेड़ा कास, स्वरभेद, गलक्षत, अतीसार, शोथ, अर्श, कुष्ठ और प्लीहा वृद्धि में हितकर है। औषधीय गुण वृक्ष के फल तथा छाल में पाये जाते हैं। सूखा पका फल रक्त स्राव को रोकने तथा विरेचक के रूप में प्रभावी होता है। फल को बवासीर, जलोदर, अतिसार, कोढ़, बदहजमी तथा सरदर्द में दिया जाता है। अधपके फल को विरेचक तथा पूर्णरूप से पके फल को रूधिर स्राव के उपचार में दिया जाता है। फल का उपयोग आयुर्वेदिक औषधि त्रिफला चूर्ण के निर्माण में किया जाता है।
त्रिफला चूर्ण के अन्य दो घटक हरीतकी (हरड़) और आँवला होते हैं। त्रिफला चूर्ण आयुर्वेद की प्राचीन औषधि है। फल के क्वाथ में जीवाणुरोधी गुण पाये जाते हैं। छाल का उपयोग रक्ताल्पता तथा ल्यूकोडरमा के उपचार में किया जाता है।
अर्जुन:
अर्जुन वनस्पति आमतौर से उत्तर तथा मध्य भारत के उष्णकटिबन्धीय वनों में पायी जाती है। इसका वैज्ञानिक नाम टर्मिनेलिया अर्जुना (Terminalia arjuna) है। वृक्ष की छाल मोटी चिकनी तथा भूरे रंग की होती है। वर्षा ऋतु में छाल स्वयं गिर जाती है ओर पुनः बन जाती है। इस वनस्पति का रोपण छायेदार वृक्ष के रूप में बाग-बगीचों तथा सड़क के किनारे भी किया जाता है।
अर्जुन पथरीली, लवणीय तथा क्षारीय भूमि में सफलतापूर्वक उगने की क्षमता रखता है। अतः इसे भी बहेड़ा की तरह बंजर भूमि पर उगाया जा सकता है। अर्जुन तीव्र वृद्धि दर वाली वृक्ष की प्रजाति है। पत्तियाँ साधारण प्रकार की होती है तथा उनकी लम्बाई 4-8 सेमी0 तक होती है। पत्तियों का डण्ठल छोटा होता है। अर्जुन में सफेद और सुगंधयुक्त पुष्प अप्रैल तथा मई में लगते हैं तथा फल शीत ऋतु में पक कर तैयार होते हैं। फल की लम्बाई 1-2 सेमी0 तक होती है। परिपक्व फल भूरे लाल रंग के होते हैं।
अर्जुन के औषधीय गुण: अथर्ववेद में अर्जुन वनस्पति का उल्लेख कई बार किया गया है। अर्जुन को ‘हरिता अर्जुना उत’ इत्यादि कहकर इसे हृदय रोगों, अश्मरी, अस्थिभंग, रक्तस्त्रावादि में हितकर बताया है। यह रूधिरविकार, क्षत, क्षय, विष, प्रमेह, व्रण, गुल्म, कफ, पित्तनाशक है।
अर्जुन के औषधीय गुण इसके छाल में पाये जाते है। छाल में ज्वरनाशक तथा हृदयवर्धक गुण पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त, छाल में रक्तस्राव रोकने की भी क्षमता होती है। अर्जुन हृदय व्याधियों के उपचार में अत्यन्त ही कारगर होता है। छाल का क्वाथ अल्सर के उपचार में सहायक होता है। अर्जुन के छाल के सेवन से अस्थिभंग एवं क्षय रोग के उपचार में सहायता मिलती है।
निष्कर्ष:
हर्रा, बहेड़ा तथा अर्जुन एक ही कुल के महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पतियां हैं जो विभिन्न प्रकार के व्याधियों के उपचार में कारगर होती हैं। हर्रा एवं बहेड़ा के औषधीय गुण फलों में पाये जाते हैं जबकि इसके विपरीत अर्जुन के औषधीय गुण तने के छाल में पाये जाते हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में इन वृक्षों की प्रजातियों के प्रचार एवं प्रसार की आवश्यकता है जिससे इनके वृहद पैमाने पर रोपण को बढ़ावा मिल सके। इन वनस्पतियों की कठोर प्रवृत्ति के कारण इन्हें बंजर भूमि पर भी उगाया जा सकता है। इनके वृहद रोपण से न सिर्फ आर्थिक लाभ कमाया जा सकता है अपितु पर्यावरण को भी संरक्षण प्रदान किया जा सकता है।
लेखक परिचय:


nice info.
जवाब देंहटाएंZaroor sir dhanyawaad
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