Effects of Climate Change on Agriculture in Hindi
अगर वैश्विक तपन की वर्तमान दर जारी रही तो एक अनुमान के अनुसार भारत के वर्षा सिंचित क्षेत्र में 125 मिलियन टन अनाज की पैदावार में कमी आयेगी। शीतऋतु में 0.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि के कारण पंजाब राज्य में गेहूँ की फसल की पैदावार में 10 प्रतिशत की कमी आयेगी।
शहरीकरण एवं वैश्विक तपन
भारत के कृषि क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन
-डॉ. अरविन्द सिंह
शहरीकरण का आशय शहरों के निर्माण से है, जो एक जटिल प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति एवं स्थान दोनों प्रभावित होते हैं। शहरीकरण के परिणामस्वरूप गैर कृषि गतिविधियों का प्रभुत्व हो जाता है तथा जनसंख्या में संरचनात्मक परिवर्तन होता है (उदाहरण के लिए कम जन्मदर, अधिक मृत्युदर इत्यादि)। शहरीकरण सामाजिक विकास एवं आर्थिक परिवर्तन का प्राकृतिक परिणाम है। शहरीकरण का एक प्रमुख कारण औद्योगीकरण भी है। उद्योगों की स्थापना से शहरीकरण को बढ़ावा मिलता है। एक कस्बा जब शहर में तब्दील होता है तो खेती योग्य भूमि, वन, चरागाह आदि को नष्ट कर देता है।
वर्ष 1975 में विकासशील देशों में मात्र 27 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में वास करती थी। वर्ष 2000 तक यह संख्या बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो गयी और एक अनुमान के अनुसार 2030 तक यह संख्या बढ़कर 56 प्रतिशत तक हो जायेगी। विकासशील देशों की तुलना में विकसित देश अत्यधिक शहरीकृत हैं, जहाँ 75 प्रतिशत से भी ज्यादा जनसंख्या शहरों में वास कर रही है। आर्थिक विकास के कारण भारत में भी शहरीकरण को बढ़ावा मिला है। भारत में वर्ष 1991 में 23 महानगर थे जो 2001 में बढ़कर 40 हो गये थे। आज भारत के शहरों और कस्बों में लगभग 35 करोड़ से अधिक की आबादी निवास करती है।
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शहरीकरण ने औद्योगीकरण को जन्म दिया है। आज बड़े उद्योग शहरों की पहचान बन चुके हैं। इसके अतिरिक्त, शहरीकरण के परिणामस्वरुप मोटर गाड़ियों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। शहरों में उद्योगों तथा मोटर गाड़ियों में उपयोग होने वाले ईंधनों से उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड (CO2), नाइट्रस आक्साइड (N2O) तथा नाइट्रोजन डाईऑक्साइड (NO2) गैसों ने जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर खतरे को जन्म दिया है।
इसके अतिरिक्त शहरों में बड़े पैमाने पर उपयोग होने वाले एअर कंडीशनर तथा रेफ्रिजरेटर (प्रशीतक यन्त्र) से निकलने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (Chlorofluorocarbons) नामक रसायनों से भी जलवायु परिवर्तन का गंभीर खतरा है। शहरीकरण के परिणामस्वरुप उद्योगों, मोटर गाड़ियों, एयर कंडीशनर, रेफ्रिजरेटर आदि से उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स तथा ओजोन (O3) जैसी हरित गृह गैंसे वैश्विक तपन के लिए उत्तरदायी हैं।
वैश्विक तपन (Global warming) का प्रमुख कारण हरितगृह प्रभाव (Green house effect) है जिसमें वातावरण में मौजूद कुछ गैसे पृथ्वी की सतह से टकराकर लौटने वाली सूर्य की किरणों को अवशोषित कर लेती है, जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है। कार्बन डाईऑक्साइड (CO2), क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFCs), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) तथा क्षोभमण्डलीय ओजोन (O3) वे प्रमुख गैसे हैं, जो वैश्विक तपन के लिए जिम्मेदार हैं।
कार्बन डाईऑक्साइड पर्यावरण में 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है जो आमतौर से जीवाश्म ईधनों (कोयला, पेट्रोल, डीजल आदि) के जलने से उत्सर्जित होती है। वनविनाश (deforestation) भी इसकी पर्यावरण में बढ़ोत्तरी का एक प्रमुख कारण है। शहरों के विस्तार से वनविनाश जैसी समस्या को बढ़ावा मिला है। वन कार्बन डाईऑक्साइड के प्रमुख अवशोषक होते हैं।
वनविनाश के कारण 20 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड का पर्यावरण में जुड़ाव होता है। कार्बन डाईऑक्साइड पृथ्वी के तापमान को 50 प्रतिशत तक बढ़ाती है। एक अनुमान के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक कार्बन डाईऑक्साइड का पर्यावरण में 25 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी हुई है जो 2030 तक दुगुनी हो सकती है। पूर्व-औद्योगीकरण काल की तुलना में वायु में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर 31 प्रतिशत बढ़ गया है।
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क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स रसायनों का उपयोग आमतौर से उत्प्रेरक, प्रशीतक तथा ठोस प्लास्टिक फेन के रुप में होता है। सी एफ सी-11 तथा सी एफ सी-12 क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स के दो प्रमुख रुप हैं जो पर्यावरण में 5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहे हैं। इस समूह के रसायन पर्यावरण में अत्यधिक स्थिर होते हैं। औद्योगीकरण के कारण 25 प्रतिशत क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स का जुड़ाव पर्यावरण में होता है। शहरीकरण से प्रभावित उत्तरी अमेरीका तथा यूरोप महाद्वीप के विकसित देश मुख्यतः क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं।
नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) पर्यावरण में 0.3 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। जीवाश्म ईंधन पर्यावरण में मौजूद इस गैस के प्रमुख स्रोतों में से एक है। जीवाश्म ईधन नाइट्रस आक्साइड के 20-30 प्रतिशत तक पर्यावरण में बढ़ोत्तरी के लिए जिम्मेदार हैं। वैश्विक तपन में इस गैस का 5 प्रतिशत योगदान है।
क्षोभमण्डलीय ओजोन (O3) गैस भी वैश्विक तपन के लिए जिम्मेदार है जो 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। ओजोन का निर्माण आमतौर से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड (NO2) तथा हाइड्रोकार्बन्स की प्रतिक्रिया स्वरूप होता है। नाइट्रोजन डाईऑक्साइड के प्रमुख स्रोत जीवाश्म ईधन हैं। ओजोन गैस का वैश्विक तपन में 2 प्रतिशत का योगदान है।
वैश्विक तपन का भारत के कृषि क्षेत्र पर संभावित प्रभाव:
वर्तमान में वैश्विक तपन दुनिया की एक प्रमुख पर्यावरणीय समस्या है क्योंकि तापमान में वृद्धि से दुनिया की जलवायु में अभूतपूर्व परिवर्तन होगा जिसका प्रभाव कृषि क्षेत्रों पर भी पड़ेगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस सदी के अन्त तक वैश्विक तापमान में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि की संभावना है। पिछले 50 वर्षों के तापमान आंकड़ों के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि भारत में शीत ऋतु में 0.7 डिग्री सेल्सियस तथा ग्रीष्म ऋतु में 1.4 डिग्री सेल्सियस तक तापमान में वृद्धि हुई है।
भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है जहाँ की जलवायु पहले से ही उष्ण है ऐसे में तापमान में वृद्धि से यहाँ की जलवायु और उष्ण होगी जिसका कृषि क्षेत्र पर ऋणात्मक के साथ-साथ धनात्मक प्रभाव भी पड़ेगा।
तापवृद्धि के कारण C4 प्रकार के प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) वाली फसलों जैसे- गन्ना (Saccharum officinarum), ज्वार (Sorghum vulgare) तथा बाजरा (Pennisetum typhoides) के उत्पादन की दर में वृद्धि होगी जबकि इसके विपरीत C3 प्रकार के प्रकाश संश्लेषण वाली फसलों जैसे- गेहूँ (Triticum aestivum), धान (Oryza sativa), जौ (Hordeum vulgare) तथा आलू (Solanum tuberosum) के उपज में गिरावट होगी।
तापमान में वृद्धि के कारण दलहनी फसलों (leguminous crops) में नाइट्रोजन स्थिरीकरण (nitrogen fixation) की दर में वृद्धि के कारण इन फसलों जैसे अरहर (Cajanus cajan)] मटर (Pisum sativum), चना (Cicer arientinum), उड़द (Phaseolus mungo), मसूर (Lens esculentum), सोयाबीन (Glycine max) rFkk मूंगफली (Arachis hypogea) की उपज में बढ़ोत्तरी होगी। इसके विपरीत तिलहनी फसलों (oil seed crops) जैसे सरसों (Brassica campestris), सूरजमुखी (Helianthus annuus), अलसी (Linum usitatissimum), कुसुम (Carthamus tinctorius) आदि की पैदावार में गिरावट होगी।
वैश्विक तपन के कारण फसलों को क्षति पहुँचाने वाले कीटों की जनसंख्या में वृद्धि होगी परिणामस्वरूप कपास (Gossypium hirsutum) जैसी फसल के उत्पादन में अभूतपूर्व गिरावट होगी। साथ ही अन्य फसलें भी प्रभावित होंगी जिसके कारण कीटनाशकों के उपयोग की दर में व्यापक वृद्धि होगी।
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वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड की वृद्धि के कारण फसलों में कार्बन स्थिरीकरण (carbon fixation) की दर में बढ़ोत्तरी होगी जिससे मृदा से अधिक पोषकों (nutrients) का अवशोषण होगा परिणामस्वरूप मृदा की उर्वरा शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। मृदा की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों के उपयोग की दर में वृद्धि होगी।
तापमान में वृद्धि के कारण मृदा में कार्बनिक पदार्थो (organic matter) के विघटन की दर में तेजी आयेगी जिसके परिणामस्वरूप पोषक चक्र (nutrient cycling) की दर प्रभावित होगी जो कि जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति अव्यवस्थित हो जायेगी।
तपन के फलस्वरूप पोएसी (Poaceae), साइप्रेसी (Cyperaceae), फैबेसी (Fabaceae), यूर्फोबियेसी (Euphorbiaceae) एवं अमरेन्थेसी (Amaranthaceae) कुलों से सम्बद्ध खर-पतवारों (weeds) की जनसंख्या में वृद्धि होगी जिससे फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। फसल रक्षा हेतु खर-पतवारनाशकों (weedicides) पर निर्भरता में वृद्धि होगी।
तपन के चलते ध्रुवीय हिमनदों (glaciers) के पिघलने के कारण समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी परिणामस्वरूप भारत के पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्यों के तटीय क्षेत्र जलमग्नता तथा लवणता के शिकार होंगे जिससे यह क्षेत्र बेकार भूमि (wastelands) में तब्दील हो जायेंगे। इसके चलते कृषि योग्य भूमि (cultivable lands) के क्षेत्रफल में गिरावट के कारण खाद्यान्न उत्पादन में कमी आयेगी।
तपन के कारण वाष्पीकरण (evaporation) तथा वाष्पोत्सर्जन (transpiration) की दर में वृद्धि होगी परिणामस्वरूप मृदा जल के साथ ही जलाशयों में जल की कमी होगी जिससे फसलों को पर्याप्त जल न उपलब्ध होने के कारण उनकी पैदावार प्रभावित होगी। वैश्विक तपन का सर्वाधिक प्रभाव धान जैसी फसल पर पड़ेगा जिसकी उपज जल की उपलब्धता पर निर्भर होती है। जलाशयों में जल की कमी के कारण सिंघाड़ा (Trapa bispinosa) एवं मखाना (Euryale ferox) की खेती पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त जल की कमी के कारण मत्स्य उत्पादन में भी गिरावट आयेगी।
वैश्विक तपन देश में फसल पद्धति (cropping system) को भी व्यापक रूप से प्रभावित करेगा।
तापवृद्धि से आम (Mangifera indica), के उत्पादन में वृद्धि होगी जबकि सेब (Malus pumilo) के उत्पादन में गिरावट होगी।
निष्कर्ष:
वैष्विक तपन का भारत के कृषि क्षेत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। एक ओर जहाँ गन्ना, ज्वार, बाजरा, अरहर, सोयाबीन, मूँगफली जैसी फसलों के पैदावार में वृद्धि होगी वही दूसरी ओर गेहूँ तथा धान जैसी मुख्य फसलों की उपज में गिरावट के कारण भूखमरी तथा कुपोषण जैसी समस्यायें पैदा होगी। इसके अतिरिक्त कीटनाशकों, खर-पतवारनाशकों तथा रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में वृद्धि होगी जिसके फलस्वरूप पर्यावरण प्रदूषित होगा तथा किसानों की आर्थिक स्थिति में गिरावट होगी।
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लेखक परिचय:
डॉ. अरविंद सिंह वनस्पति विज्ञान विषय से एम.एस-सी. और पी-एच.डी. हैं। आपकी विशेषज्ञता का क्षेत्र पारिस्थितिक विज्ञान है। आप एक समर्पित शोधकर्ता हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिकाओं में अब तक आपके 4 दर्जन से अधिक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। खनन गतिविधियों से प्रभावित भूमि का पुनरूत्थान आपके शोध का प्रमुख विषय है। इसके अतिरिक्त आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मुख्य परिसर की वनस्पतियों पर भी अनुसंधान किया है। आपके अंग्रेज़ी में लिखे विज्ञान विषयक आलेख TechGape पर पढ़े जा सकते हैं। आपसे निम्न ईमेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है-
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