भांति-भांति के तारे (Stars) और उनका जीवन-चक्र (Life Cycles)
'ब्रह्मांड के रहस्यों' को समझने के क्रम में आपने पिछली कड़ी 'तारों की रहस्यमय दुनिया' में आपने पढ़ा कि तारों की स्थितियां, रंग, कांतिमान, तापमान एवं द्रव्यमान के माध्यम से किस प्रकार उन्हें पहचाना जाता है और किस प्रकार उनका वर्गीकरण किया जाता है। अब पढ़ें आगे:
तारों की जीवन यात्रा: 
तारों  की अरबों साल की जीवन यात्रा की तुलना में मनुष्य का जीवन काल बहुत ही  छोटा है। तो फिर वैज्ञानिक तारों के जन्म, यौवन, मृत्यु आदि के बारे में  कैसे जान सकते हैं? कल्पना कीजिये कि कोई दूसरे ग्रह से आया बुद्धिसम्पन्न  प्राणी मनुष्यों के जीवन क्रम को जानना चाहता है। उसके पास दो उपाय हैं।  पहला उपाय यह हैं कि वह धरती पर आकर किसी अस्पताल में जाकर नवजात शिशु को  जन्म होते देखे और साथ-ही-साथ उसे किशोर, युवक, प्रौढ़, वृद्ध तथा  मृत्युपर्यन्त तक उसका अवलोकन करे। इसी प्रकार वह उस मनुष्य के जीवनक्रम से  भलीभांति परिचित हो जाता है, जिसका उसने अवलोकन किया था। परन्तु इससे केवल  एक ही मनुष्य के विषय में जानकारी प्राप्त होगी तथा उस प्राणी को पृथ्वी  पर लगभग साठ-सत्तर वर्ष व्यतीत करने पड़ेंगे। 
दूसरा  उपाय बहुत ही अद्भुत् है। इसके अंतर्गत उस प्राणी को किसी नगर में जाकर  वहाँ के लोगों का अवलोकन तथा अध्ययन करना पड़ेगा। इससें चंद दिनों में ही वह  मनुष्यों के कुछ गुण तथा जीवन के बारे में समझने लगेगा। वह एक  बुद्धिसम्पन्न प्राणी हैं अत: वह सांख्यिकी का इस्तेमाल करेगा जैसे वह नगर  के सभी मनुष्यों का वजन ऊंचाई, बालों का रंग, दाँतों की संख्या, त्वचा के  रंग आदि के बारे में जानकारी एकत्र करेगा । इसी प्रकार कुछ ही दिनों के  अवलोकन के पश्चात् वह मानव के कालानुसार विकास-क्रम की रूप-रेखा से परिचित  हो जायेगा। यही दूसरा उपाय तारों की जीवन यात्रा को समझाने में समर्थ सिद्ध  हुआ है। 
तारों की उत्पत्ति का प्रश्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति से ही समन्धित है। परन्तु यहाँ पर केवल आकाशगंगा पर ही चर्चा करना उचित होगा । 
एक तारे की जीवन यात्रा: 
एक  तारे की जीवन यात्रा आकाशगंगा में उपस्थित धूल एवं गैसों के एक अत्यंत  विशाल मेघ (बादल) से शुरू होती है। इसे 'नीहारिका' (nebula) कहते हैं।  दरअसल नीहारिका शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द नीहार से हुई जिसका अर्थ  है 'कुहरा'। लैटिन में नीहारिका शब्द को 'नेबुला' कहते हैं, जिसका शाब्दिक  अर्थ है 'बादल'। इन नीहारिकाओं के अंदर हाइड्रोजन की मात्रा सर्वाधिक होती  है और 23 से 28 प्रतिशत हीलियम तथा बहुत कम मात्रा में कुछ भारी तत्व होते  हैं। ऐसी ही तारों की एक प्रसूतिगृह है ओरीयान नीहारिका। इसकी विस्तृति  लगभग 100 प्रकाश-वर्ष हैं इसके अंदर बहुत से नये तारे हैं तथा इसमें अनेकों  ऐसे तारे हैं जिनका निर्माण हो रहा है। 
वर्तमान  में सभी वैज्ञानिक इस सिद्धांत से सहमत हैं कि धूल और गैसों के बादलोँ से  ही तारों का जन्म होता है। कल्पना कीजिए कि गैस और धूलों से भरा हुए मेघ के  घनत्व में वृद्धि हो जाती है। उस समय मेघ अपने ही गुरुत्वाकर्षण के कारण  संकुचित होने लगता है। इस संकुचन के होने के समय को 'हायाशी-काल' कहा जाता  है। जैसे -जैसे मेघ में संकुचन होने लगता है, वैसे-वैसे उसके केन्द्रभाग का  तापमान तथा दाब भी बढ़ जाता है। आखिर में तापमान और दाब इतना अधिक हो जाता  है कि हाइड्रोजन के नाभिक आपस में टकराने लगते हैं और हीलियम के नाभिक का  निर्माण करते हैं। तब तापनाभिकीय अभिक्रिया (संलयन) प्रारम्भ हो जाता है।  इस प्रक्रम में प्रकाश तथा गर्मी के रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस  प्रकार वह मेघ ताप और प्रकाश से चमकता हुआ तारा बन जाता है। 
हर्टजस्प्रुंग-रसेल  आरेख की मुख्य अनुक्रम पट्टी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर तारे इसी  पट्टी में पायें जाते हैं। इसका कारण यह है कि तारे अपने जीवन के 90  प्रतिशत भाग को इसी अवस्था में व्यतीत करते हैं । इस अवस्था में हाइड्रोजन  का हीलियम में परिवर्तन काफी लम्बे समय तक चलता है। इसके कारण तारों के  केन्द्रभाग में हीलियम की मात्रा में वृद्धि होती रहती है। अंत में तारों  का 'क्रोड' हीलियम में परिवर्तित हो जाता है। 
जब  हीलियम क्रोड में परिवर्तित हो जाता है तो उसके उपरांत उनकी तापनाभिकीय  अभिक्रियायें इतनी अधिक तेजी से होने लगती हैं कि तारे मुख्य अनुक्रम से  अलग हो जाते हैं। 
दानव तारे: red giant in hindi, red supergiant in hindi  
मुख्य  अनुक्रम के पश्चात् तारे के केन्द्रभाग में संकुचन प्रारम्भ हो जाता है,  संकुचित होने के कारण उत्पन्न होने वाली ऊर्जा के कारण तारा फैलने लगता है।  फैलने के उपरांत वह एक दानव तारा बन जाता है। हमारा सूर्य भी 450 वर्षों  के उपरांत इस अवस्था में आ जाएगा। पृथ्वी को छोड़कर बुध और शुक्र जैसे  ग्रहों का नामोनिशान ही मिट जायेगा। यदि पृथ्वी सूर्य का ग्रास  बनने से बच  भी जाता हैं तो भी आग का दैत्याकार गोला बनने के बाद जब सूर्य श्वेत वामन  तारा बन जायेगा। इससे पृथ्वी पर पर एक्स-रे तथा अन्य पैराबैंगनी किरणों की  झड़ी-सी लग जाएगी। उस समय पृथ्वी को जीवन विहीन बनने से कोई भी नही रोक  पायेगा। 
श्वेत वामन तारे: white dwarf in hindi 
दानवी  अवस्था में पहुँचने के पश्चात् तारे के अंदर हीलियम की ऊर्जा उत्पन्न होती  है। और एक विशेष प्रक्रिया के अंतर्गत हीलियम भारी तत्वों में परिवर्तित  हो जाता है। अंतत: यदि तारा सूर्य से पांच -छह गुना ही अधिक बड़ा हों तो  उसमे छोटे-छोटे विस्फोट होकर उससे तप्त गैस बाहर निकल पड़ती है। उसके उपरांत  तारा श्वेत वामन के रूप में अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत करता है।  प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ० सुब्रमणियन्  चन्द्रशेखर ने यह सिद्ध किया  कि तारों का द्रव्यमान सूर्य से 44 प्रतिशत से अधिक नही हो सकता । इस  द्रव्यमान-सीमा को 'चन्द्रशेखर-सीमा' के नाम से जाना जाता है। 
विस्फोटी तारे: supernova in hindi 
जो  तारे सूर्य से पांच-छह गुना अधिक विशाल होते हैं अन्तत: उनमें एक भंयकर  विस्फोट होता है। विस्फोटी तारे के बाहर का समस्त आवरण (कवच) उड़ जाता है और  और उसका समस्त द्रव्य-राशी अंतरिक्ष में फ़ैल जाता है। परन्तु उसका अति  तप्त क्रोड सुरक्षित रहता है। इस अद्भुत् घटना को सुपरनोवा कहते हैं। यदि  उस तारे में अत्यधिक तेजी से संकुचन होने लगता है तो तो वह न्यूट्रॉन तारे  का रूप धारण कर लेता है। बशर्ते उस तारे का द्रव्यमान हमारे सूर्य से दुगनी  से अधिक न हो। कुछ विशेष परिस्थितियों में तारे इतना अधिक संकुचित हो जाते  हैं कि इनमे से प्रकाश की किरणें भी बाहर नही निकल पाती है। इसकी चर्चा हम  आगे करेंगे। 
4  जुलाई 1054 को चीनी ज्योतिषियों ने हमारी आकाशगंगा में एक बहुत ही चमकीला  तारा देखा यहाँ तक दो दिनों तक तारा सूर्य के रहते हुए भी प्रकाशमान  रहा,परन्तु शनै:-शनै: उसकी शक्ति समाप्त हो गयी। यदि करोड़ो-करोड़ो हाइड्रोजन  बमों का विस्फोट करे तो शायद ऐसा विस्फोट हो। कर्कट-नीहारिका (crab  nebula) में इस विस्फोट के आज भी स्पष्ट चिन्ह प्राप्त होते हैं । 
दरअसल  'नोवा' लैटिन भाषा का एक शब्द हैं जिसका अर्थ होता हैं-नया। इसलिए   प्राचीन ज्योतिषियों ने जब भी आकाश में कोई नई घटना होती देखी, बशर्ते आकाश  में कोई नया तारा उदय होते देखा तो नोवा शब्द का इस्तेमाल किया। इसी  प्रकार सुपरनोवा नाम पड़ा। 
जैसा  कि हम पहले भी बता चुके हैं कि जब तारे इतना अधिक संकुचित हो जाते हैं कि  अत्यंत सघन पिंड(न्यूट्रॉन तारे से भी अधिक) बन जाते हैं, जिनमें से प्रकाश  का भी निकल पाना सम्भव नही होता। वैज्ञानिक ऐसे अत्यधिक सघन पिंडों को  'श्याम विवर' या ‘ब्लैक होल’ (black hole) कहते हैं। क्या कारण हैं कि  श्याम विवर प्रकाश को भी बाहर नही आने देते? ऐसा उस क्षेत्र के अत्यंत  प्रबल गुरुत्वाकर्षण के कारण होता हैं। विस्मयकारी  बात यह हैं  कि श्याम  विवर के निकट काल के प्रवाह में भी बेहद परिवर्तन हो जाता है। 
श्याम  विवर के अस्तित्व में होने की सम्भावना सर्वप्रथम गणितज्ञ लाप्लास ने सन्  1798 में बताई थी। यदि श्याम विवर प्रकाश की किरणों को नही भेजता तो हम उसे  कैसे देख सकते हैं? हम यह अनुमान कैसे लगा सकते हैं कि श्याम विवर का  अस्तित्व है? श्याम विवर की कल्पना हम उस व्यक्ति से कर सकते हैं जो सोफ़े  पर बैठा हुआ हैं, परन्तु अदृश्य हैं। हम उस व्यक्ति को नही देख सकते हैं  क्योंकि वह दृश्यमान नही है, परन्तु उसके बैठने से सोफ़े में गड्ढ़े बन जाते  हैं! ठीक उसी प्रकार से तारों के  गुरुत्व क्षेत्र के प्रभाव को देखकर  वैज्ञानिक श्याम विवर के अस्तित्व के बारे में पता लगा सकते हैं। हम जानते  हैं कि आकाश में अनेक युग्म तारे (ऐसे तारे जो एक-दूसरे की परिक्रमा करते  हैं) हैं। कल्पना कीजिये उनमे से एक तारा श्याम विवर है, तो दूसरे तारे के  द्रव्यमान के बारे में खगोलीय विधियों द्वारा जानकारी प्राप्त की जा सकती  है। यदि उस पिंड का द्रव्यमान दो-तीन सूर्य से अधिक निकलता है तो अत्यधिक  सम्भावना यही है कि वह पिंड श्याम विवर है। 
प्रसिद्ध  वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग (Stephen Hawking) ने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत  तथा क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतो के आधार पर यह निष्कर्ष निकला है कि  श्याम विवर किसी गर्म पिंड की भांति एक्स और गामा किरणों का उत्सर्जन  करते  हैं।  कई वैज्ञानिको का मत है कि हमारे आकाशगंगा में ही करोड़ो-अरबों की  संख्या में श्याम विवर हो सकते हैं। वर्तमान में भी कई खगोलविदों का यह मत  है कि श्याम विवर केवल एक कल्पना-मात्र हैं। 
ध्रुव तारा : आखिर कितना स्थिर?dhruv tara in hindi, dhruv tara story in hindi 
जब  हम रात्रि में आकाश-दर्शन करते हैं तो  यह देखते हैं कि ध्रुव तारा  प्रतिदिन,हर समय एक ही स्थिति में दिखाई देता हैं। अत: हमने ध्रुव तारे को  स्थिरता का प्रतीक मान लिया है। 
हमारी  पौराणिक कथाओं में भी ध्रुव से सम्बंधित एक कथा हैं। राजा उत्तानपाद की दो  रानियाँ थी-सुनीति और सुरुचि। उत्तानपाद सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे।  सुनीति को ध्रुव नामक पुत्र हुआ तथा सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम था। एक  दिन उत्तम को अपने पिता के गोद में बैठा देखकर ध्रुव ने भी  गोद में बैठने  की इच्छा प्रकट की। और जाकर बैठ गया, परन्तु सुरुचि ने बालक ध्रुव को वहाँ  से जबर्दस्ती दूर धकेल दिया। 
इस  घटना से बालक ध्रुव अत्यंत क्षुब्ध हो गया और घर को त्याग दिया। ध्रुव ने   जंगल में जाकर तपस्या शुरू कर दी। कड़ी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान  विष्णु या शिव ने ध्रुव से वर मांगने के लिये बोला। तो ध्रुव ने त्रिलोक  अर्थात् पृथ्वी,अंतरिक्ष तथा स्वर्ग में सर्वोच्च पद की मांग की,जहाँ से  उसे हटाया न जा सके। भगवान ने उसे वही स्थान दिया जो सदैव अटल रहता  है,ध्रुव तारा! 
ऐसी  प्राकृतिक घटनाएँ जिसका कारण विज्ञान द्वारा नहीं मिलता,ऐसी लोककथाओं तथा  पौराणिक कथाओं में गढ़ा जाता है। इतना तो स्पष्ट हैं कि ध्रुव तारे की  स्थिरता को ही देखकर उपरोक्त कथा गढ़ी गयी होगी। वर्तमान में हमारे पास कारण  मीमांसा उपलब्ध हैं, इसलिए हम यह बता सकते हैं कि ध्रुव तारा स्थिर (अटल)  क्यों प्रतीत होता है। और अब यह कथा केवल मनोरंजक कहानी रह गई है। 
आज  से लगभग दो हजार साल पहले यूनानी दार्शनिकों की यह अवधारणा थी कि पृथ्वी  के चारों तरफ एक गोल पर तारे फैले  हुए  हैं (तथाकथित खगोल) तथा यह गोल एक  धुरी पर घूमती है। इस अवधारणा के अनुसार तारे इस गोल पर जड़े हुए प्रकाशीय  स्रोत हैं जो तथाकथित खगोल के साथ-साथ घूमते रहते हैं। ध्रुव तारा गोल की  धुरी पर होने के कारण स्थिर प्रतीत होता है। 
महान  भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट ने यूनानी दार्शनिकों की इस अवधारणा का खंडन  किया तथा उन्होंने बताया पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर  परिक्रमा करती है, इसलिए तारे हमें पश्चिम से पूर्व की ओर जाते हुए प्रतीत  होते हैं। हम जानते हैं कि आर्यभट की यह अवधारणा सही है। 
पृथ्वी  अपनी धुरी पर लट्टू की भांति घूमती हैं। पृथ्वी की यह धुरी उत्तर दिशा में  ध्रुव तारे की ओर है। परन्तु यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर लट्टू की भांति  घूमती हैं तो क्या लट्टू की धुरी सैदव स्थिर रहती है? तो फिर ध्रुव तारा  हमेशा स्थिर कैसे प्रतीत होता है? जब हम लट्टू को नचाते हैं, तो वह  धीरे-धीरे शंकु बनाते हुए घुमा करता है। ठीक लट्टू की ही भांति हमारी  पृथ्वी की भी धुरी अंतरिक्ष में स्थिर नही है। दिलचस्प बात यह हैं कि  पृथ्वी की यह धुरी स्वयं सूर्य की गुरुत्वाकर्षण के कारण धीरे-धीरे घूम रही  है। और लगभग 20000 वर्षों में एक चक्कर पूरी करती है। इसका तात्पर्य यह  हुआ कि सर्वदा इस धुरी की स्थिति ध्रुव तारे की ओर नहीं रहेगी। 
आज  से लगभग 4000 वर्ष पूर्व वर्तमान ध्रुव तारा घूमता हुआ प्रतीत होता होगा,  क्योंकि उस समय अटल(स्थिर) स्थान था अल्फ़ा ड्रेकोनिस। इसी प्रकार उत्तरी  आकाश का सर्वाधिक चमकीला तारा अभिजित (vega) आज से करीब 12 हजार साल बाद  ध्रुव-बिंदु के अत्यधिक नजदीक होगा और उस समय उसे ध्रुव तारा कहा जायेगा। 
अत:  इस भौतिक-विश्व में कुछ भी स्थिर नही है, ध्रुव तारा भी नहीं! सूक्ष्म  परमाणु कणों से लेकर विराट आकाशगंगाओं तक की इस भौतिक-विश्व की प्रत्येक  वस्तु गतिशील है। विश्व में अटल, स्थिर, शाश्वत, सदैव एकरूपी, नित्य  एकरूपी, पक्का इत्यादि नाम की कोई भी वस्तु नही है।
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लेखक परिचय: श्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी दिल्ली के जी.बी.एस.एस. स्कूल में दसवीं के विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ 'विज्ञान के अद्भुत चमत्कार' नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त आप 'साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन' के भी सक्रिय सदस्य के रूप में जाने जाते हैं।
							    
							    
							    
							    


बढ़िया जानकारी
जवाब देंहटाएंAti sundar evam abhar.
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