Soil Salinity and Alkalinity Control Article in Hindi.
हरित क्रान्ति के फलस्वरूप खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि के साथ ही अनेक समस्यायें भी पैदा हुई जिनमें भूमि क्षरण भी शामिल है। भूमि लवणता एवं क्षारीयता भी भूमि क्षरण का ही एक उदाहरण है। लवणीय एवं क्षारीय भूमियां अर्थव्यवस्था के लिए हानि हैं क्योंकि इस प्रकार की भूमियां फसल उत्पादन के योग्य नही होती है। लवणता एवं क्षारीयता सें प्रभावित भूमियों पर किसान लवण एवं क्षार रोधी वृक्षों की प्रजातियों का रोपण करके न केवल लवणीय भूमि का पुनरूत्थान कर सकते हैं अपितु इससे आर्थिक लाभ भी कमा सकते हैं।
लवणीय एवं क्षारीय भूमियों के पुनरूत्थान में कारगर वृक्षों की कुछ बहुउपयोगी प्रजातियां
-डॉ. अरविन्द सिंह
भूमि लवणता एवं क्षारीयता देश की एक प्रमुख समस्या है। आंकड़े बताते हैं कि देश की लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता (salinity) एवं क्षारीयता (alkalinity) से प्रभावित है जो कि देश की कुल भूमि के 2 से 13% क्षेत्रफल का प्रतिनिधित्व करती है। भूमि लवणता एवं क्षारीयता आमतौर से सिंचाई जल के कुप्रबंधन विशेषकर जल जमाव के कारण होती है। लगभग 40% लवणीय एवं क्षारीय भूमि का विस्तार उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा तथा पंजाब राज्यों में है जो कि हरित क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र रहे हैं।
क्षारीय भूमि में विनिमेय सोडियम की मात्रा 15 प्रतिशत से ज्यादा होती है जो फसलों के लिए हानिकारक साबित होती है। इस प्रकार की मृदा में घुलनशील लवणों की मात्रा बहुत ज्यादा नहीं होती है। क्षारीय मृदा की विद्युतीय चालकता 4 से कम होती है जबकि pH मान 8.5 से ज्यादा होता है।
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लवणीय एवं क्षारीय भूमियां देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी क्षति है क्योंकि इससे मृदा की उत्पादकता प्रभावित होती है परिणामस्वरूप लवणीय एवं क्षारीय भूमियां बंजर या बेकार भूमि (wasteland) में तब्दील हो जाती है। बढ़ती आबादी को देखते हुए लवणीय एवं क्षारीय भूमियों का पुनरूत्थान समय की आवश्यकता है। लवणीय भूमि का जैविक पुनरूथान विधि सबसे सस्ती एवं उत्तम विधि होती है।
वृक्षों की अनेक प्रजातियों में भूमि लवणता एवं क्षारीयता को बर्दाश्त करने की क्षमता होती है अतः इन लवणरोधी एवं क्षाररोधी वृक्षों की प्रजातियों से लवणीय एवं क्षारीय भूमियों को आच्छादित कर न सिर्फ उनका पुनरूत्थान किया जा सकता है वरन् इन वृक्षों की प्रजातियों से आर्थिक लाभ भी कमाया जा सकता है। लवणीय एवं क्षारीय भूमियों के पुनरूत्थान में कारगर कुछ वृक्षों की प्रजातियां एवं उनके आर्थिक लाभ निम्नलिखित हैं:
करंज: यह दलहनी कुल फैबेसी (Fabaceae) की छोटी अथवा मध्य आकार की वृक्ष की प्रजाति है जो लवणीय एवं क्षारीय भूमि पर सफलतापूर्वक उगती है। इसका वैज्ञानिक नाम पानगैमिया पिन्नेटा (Pongamia pinnata) है। करंज की वृद्धि दर काफी तेज होती है। यह अत्यन्त ही महत्वपूर्ण बहुउपयोगी वृक्ष की प्रजाति है। बीज से प्राप्त तेल गठिया, त्वचा एवं बिमारियों के इलाज में प्रभावी होता है। बीज के तेल का औद्योगिक उपयोग साबुन, मोमबत्ती इत्यादि के निर्माण में होता है। इसके अतिरिक्त तेल का उपयोग जलाने हेतु भी किया जाता है। बीज के तेल को परिसंस्करण के पश्चात् बायोडीजल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। अतः बीज अथवा बीज के तेल से आर्थिक लाभ की प्राप्ति की जा सकती है।
करंज की पत्तियों में प्रोटीन की अधिकता के कारण इसका उपयोग पालतु पशुओं के चारे हेतु किया जाता है। पत्तियों का उपयोग हरी खाद के रूप में भी किया जाता है। बीज की खली का उपयोग कार्बनिक खाद के रूप में मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए किया जाता है। लकड़ी का इस्तेमाल हल तथा बैलगाड़ी की पहिया बनाने एवं ईधन के रूप में किया जा सकता है।
अर्जुन: अर्जुन एक बहुउपयोगी वृक्ष की प्रजाति है जो पुष्पीय पौधों के काम्बरिटेसी (Combretacae) कुल का सदस्य है। इसका वैज्ञानिक नाम टर्मिनेलिया अर्जुना (Terminalia arjuna) है। अर्जुन की छाल में औषधीय गुण पाये जाते हैं जिसका उपयोग हृदय सम्बन्धी बिमारियों के उपचार हेतु किया जाता है। अतः अर्जुन की छाल को औषधीय कम्पनियों को बेचकर आर्थिक लाभ कमाया जा सकता है। इसकी पत्तियों को हरे चारे के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। पत्तियों का उपयोग रेशम कीटों (silkworms) के पालन हेतु भी किया जा सकता है।
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बहेड़ा: यह एक विशाल वृक्ष की प्रजाति है जिसका वैज्ञानिक नाम टर्मिनेलिया बेलेरिका (Terminalia bellerica) है। यह पुष्पीय पौधों के काम्बरिटेसी (Combretaceae) कुल का सदस्य है। बहेड़ा वनस्पति अपने औषधीय गुणों के लिए विख्यात है। वृक्ष के छाल एवं फल में औषधीय गुण पाये जाते हैं। वृक्ष के तने के छाल का उपयोग एनिमिया (anaemia) तथा ल्युकोडरमा (leucoderma) के उपचार में किया जाता है। फल का उपयोग बदहजमी, कब्ज, जलोदर, बवासीर, डाइरिया, कुष्ठ रोग के उपचार में किया जाता है। फल का उपयोग ‘त्रिफला चूर्ण’ जैसी आयुर्वेदिक औषधि के निर्माण में होता है। अतः फल से आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। पत्तियों को हरे चारे के रूप में पालतू पशुओं हेतु इस्तेमाल किया जा सकता है।
आंवला: आंवला Amla तेज वृद्धि दर वाली छोटे वृक्ष की प्रजाति है जिसमें लवणीय एवं क्षारीय मृदा में उगने की क्षमता होती है। इसका वैज्ञानिक नाम फाइलेन्थस ऐम्बेलिका (Phyllanthus emblica) है। यह पुष्पीय पौधों के फाइलेन्थेसी (Phyllanthaceae) कुल का सदस्य है। फल का उपयोग मुरब्बा, च्यवनप्राश, चटनी, कैंडी, अचार, आदि बनाने में होता है। आंवले का फल विटामिन सी (Vitamin C) का उत्तम श्रोत होता है। फल की बाजार में मांग होने से इससे आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। सूखे फल के चूर्ण का उपयोग देशी दवा के रूप में कब्ज के उपचार में किया जा सकता है। पत्तियों का उपयोग आँख की बिमारियों जैसे आपथैल्मिया (opthalmia) तथा अंधेपन के उपचार में किया जाता है। लकड़ी का उपयोग कृषि औजार बनाने में किया जाता है।
ईमली: इमली फैबेसी (Fabaceae) कुल से संबद्ध विशाल वृक्ष की प्रजाति है। इसका वैज्ञानिक नाम टेमरिण्डस इण्डिकस (Tamarindus indicus) है। ईमली के फल में 12% टारटेरिक अम्ल (tartaric acid) पाया जाता है। इसके फल का उपयोग चटनी आदि बनाने में होता है। बीज जेलोज (jellose) का श्रोत होती है जिसका उपयोग कपास एवं पटसन उद्योग में होता है। लकड़ी के टिकाऊ होने के कारण इसका व्यापक उपयोग निर्माण कार्यों में होता है। लकड़ी का इस्तेमाल ईधन रूप में भी किया जा सकता है।
शिरीष: शिरीष दलहनी कुल फैबेसी (Fabaceae) से संबद्ध एक विशाल बहुउपयोगी वृक्ष की प्रजाति है। इसका वैज्ञानिक नाम एलबिजिया लिबेक (Albizia lebbeck) है। शिरीष की हरी पत्तियों में प्रोटीन की अधिकता के कारण इसका इस्तेमाल हरे चारे के रूप में किया जाता है। शिरीष की लकड़ी काफी मजबूत एवं टिकाऊ होती है अतः इसका उपयोग निर्माण कार्यों में बड़े पैमाने पर किया जाता है। शिरीष की लकड़ी को सागौन एवं शाखू के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। सूखी पत्तियों के काढ़े का इस्तेमाल श्वास सम्बन्धी बिमारियों जैसे दमा, ब्रान्काइटिस (इतवदबीपजपेद्ध इत्यादि के उपचार में होता है।
सफेद शिरीष: यह तेज वृद्धि दर वाली विशाल वृक्ष की प्रजाति है जो पुष्पीय पौधों के फैबेसी (Fabaceae) कुल का सदस्य है। सफेद शिरीष का वैज्ञानिक नाम एलबिजिया प्रोसेरा (Albizia procera) है। वृक्ष का तना सफेद रंग का होता है अतः इसे सफेद शिरीष के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसमें लवणता को बर्दाश्त करने की प्रचुर क्षमता होती है। लकड़ी निर्माण कार्यों हेतु अति उत्तम होती है। पत्तियों में प्रोटीन की अधिकता के कारण उन्हें हरे चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
बेर: यह एक छोटे आकार की कंटीली वृक्ष की प्रजाति है जो पुष्पीय वनस्पतियों के रैमनेसी (Rhamnaceae) कुल का सदस्य है। इसका वैज्ञानिक नाम जिजिफस जुजुबा (Ziziphus jujuba) है। बेर की वृद्धि दर काफी तेज होती है। इसका फल खाने योग्य तथा फास्फोरस का प्रमुख श्रोत होता है। फल से आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। पत्तियों का उपयोग हरे चारे के रूप में किया जाता है। इसके अतिरिक्त पत्तियों का उपयोग रेशम कीट पालन में भी किया जा सकता है।
शहतूत: यह छोटे आकार की वृक्ष की प्रजाति है जो पुष्पीय पौधों के मोरेसी (Moraceae) कुल की सदस्य है। इसका वैज्ञानिक नाम मोरस एल्बा (Morus alba) है। शहतूत का फल खाने योग्य होता है। फल में विटामिन सी तथा खनिज पदार्थ पर्याप्त मात्रा में होते हैं। अतः फल की बाजार में मांग से आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। पत्तियों का उपयोग बड़े पैमाने पर रेशम कीट पालन (sericulture) में किया जाता है। लकड़ी का उपयोग खेल सम्बन्धी उपकरणों जैसे हाकी स्टिक, टेनिस रैकेट, बैडमिन्टन रैकेट, क्रिकेट स्टम्प इत्यादि के निर्माण में होता है।
उपर्युक्त वृक्षों की प्रजातियां लवणीय एवं क्षारीय भूमि में सफलतापूर्वक उगने की क्षमता रखती हैं। यह प्रजातियाँ अपने मृत अवशेषों जैसे पत्तियां, टहनियां, पुष्पों आदि को लवणीय मृदा सतह पर गिराती हैं जिनके विघटन से धीरे-धीरे मृदा के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में परिवर्तन होता है परिणामस्वरूप मृदा अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करती है जिसका उपयोग पुनः फसल उगाने हेतु किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
भूमि लवणता एवं क्षारीयता हरित क्रान्ति से प्रभावित राज्यों विशेषकर पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश की प्रमुख समस्या है। इस प्रकार की क्षरित भूमि का पुनरुत्थान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है ताकि कृषि उत्पादकता को बढ़ाया जा सके। लवणीय एवं क्षारीय भूमि का जैविक पुनरुत्थान लवणरोधी एवं क्षाररोधी वृक्षों की प्रजातियों के रोपण से संभव है। किसान लवणरोधी एवं क्षाररोधी वृक्षों की बहुउपयोगी प्रजातियों का लवणीय एवं क्षारीय भूमि पर रोपण कर न सिर्फ उनसे व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं अपितु आर्थिक लाभ भी कमा सकते हैं। इससे पर्यावरण संरक्षण में भी सहायता मिलेगी साथ ही लगातार गिर रहे भूमिगत जलस्तर में भी बढ़ोत्तरी होगी।
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लेखक परिचय:


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upyogi lekh hai dhanyawad.
जवाब देंहटाएंvery informative
जवाब देंहटाएंआपके इस उत्कृष्ट आलेख का उल्लेख कल सोमवार (30-03-2015) की चर्चा "चित्तचोर बने, चित्रचोर नहीं" (चर्चा - 1933) पर भी होगा.
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ
Thanks for the honour
हटाएंwow very nice
जवाब देंहटाएंthank u
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