Green Revolution in India in Hindi.
भारत में हरित क्रान्ति
हरे पर हावी होता लाल रंग
-डॉ0 अरविन्द सिंह
भारतीय कृषि में अधिक पैदावार देने वाली किस्मों, रासायनिक उर्वरकों तथा नाशिजीवनाशकों (Pesticides) के वृहद् पैमाने पर इस्तेमाल एवं सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के फलस्वरूप आई खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि को हरित क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। देश में हरित क्रान्ति की शुरूआत 1965-66 में हुई थी। यही वह वर्ष था जब देश में सूखे की स्थिति थी तथा इसी वर्ष अधिक पैदावार देने वाली फसलों के बीज भी उपलब्ध थे।
हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया। हरित क्रान्ति से पूर्व देश में भूखमरी तथा कुपोषण की स्थिति थी और खाद्यान्न की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्नों का आयात दूसरे देशों से किया जाता था। देश में 1949-50 में खाद्यान्न उत्पादन लगभग 51 मिलियन टन था जो 1978 में हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप बढ़कर 130 मिलियन टन तक पहुँच गया। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप आज देश में खाद्यान्न उत्पादन लगभग 260 मिलियन टन तक पहुँच चुका है।
हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया। हरित क्रान्ति से पूर्व देश में भूखमरी तथा कुपोषण की स्थिति थी और खाद्यान्न की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्नों का आयात दूसरे देशों से किया जाता था। देश में 1949-50 में खाद्यान्न उत्पादन लगभग 51 मिलियन टन था जो 1978 में हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप बढ़कर 130 मिलियन टन तक पहुँच गया। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप आज देश में खाद्यान्न उत्पादन लगभग 260 मिलियन टन तक पहुँच चुका है।
देश में हरित क्रान्ति के लिए मुख्यतः गेहूं (ट्रीटीकम एस्टीवम) एवं धान (ओराइजा सेटाइवा) की बौनी किस्में जिम्मेदार थीं। विश्व प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ0 नार्मन ई0 बोरोलाग (Dr. Norman E. Borlaug) ने गेंहू की बौनी किस्मों का विकास अन्तर्राष्ट्रीय गेंहू तथा मक्का सुधार केन्द्र, मेक्सिको में किया था। नारीन-10 (Norin-10) जापानी गेंहू की वह किस्म थी जिसका उपयोग गेंहू की बौनी किस्मों के विकास में किया गया था। इन बौनी किस्मों ने भारत सहित विश्व के तमाम विकासशील देशों को भूखमरी एवं अकाल से छुटकारा दिलाया था। इस योगदान के लिए डॉ नार्मन ई0 बोरोलाग को 1970 में नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था आज दुनिया में उन्हें ‘हरित क्रान्ति के जनक’ के रूप में जाना जाता है।
सोनोरा 64 (Sonora 64) तथा लरमा रोसो (Lerma Roso) गेहूँ की वह बौनी किस्में थी जिनका आगमन 1963 में भारत में हुआ था। कल्याण सोना (Kalyan Sona) तथा सोनालिका (Sonalika) इन्हीं किस्मों का रूपान्तरित रूप थी जिनका विकास भारत के प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन (Dr. M. S. Swaminathan) द्वारा किया गया था। इस योगदान के लिए डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन को ‘भारत में हरित क्रान्ति के जनक’ के रूप में जाना जाता है। उपर्युक्त किस्मों में अधिक पैदावार के साथ रोगरोधी गुण भी मौजूद थे।
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धान की बौनी किस्मों का विकास अन्तर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, फिलिपिन्स में हुआ था। डी-जियो-ऊ-जेन (De-geo-woo-gen) ताईवान की वह बौनी तथा शीघ्र परिपक्व होने वाली जैपोनिका (Japonica) धान की किस्म थी जिससे धान की बौनी किस्में ताइचुंग नेटिव 1 (Taichung Native 1) तथा आई आर 8 (IR 8) विकसित की गयी थी। भारत में इन किस्मों का आगमन 1966 में हुआ था। इन आयातित बौनी किस्मों से देश में जया (Jaya) तथा रत्ना (Ratna) नामक अर्द्ध-बौनी (Semi-dwarf) किस्मों का विकास किया गया।
हरित क्रान्ति जहां एक ओर देश से भूखमरी मिटाने में कारगर साबित हुई वहीं दूसरी ओर अपने तमाम पार्श्व प्रभावों (Side effects) के कारण आज यह क्रान्ति हानिकारक साबित हो रही है। भारत में हरित क्रान्ति का पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण, कृषि एवं मानव स्वास्थ्य पर गंभीर पार्श्व प्रभाव पड़ा है जो निम्नलिखित है:
पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण:
हरित क्रान्ति का सर्वाधिक दुष्प्रभाव पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण पर पड़ा है। हरित क्रान्ति के आगमन के परिणामस्वरूप देश के वन क्षेत्रफल में कमी आई है। आधुनिक यान्त्रिक औजारों के उपयोग से वनों की कटाई कर उन्हे कृषि भूमि में परिवर्तित कर दिया गया। भारत में प्रति व्यक्ति वन भूमि दुनिया की औसत 1.0 हेक्टेयर की तुलना में मात्र 0.1 हेक्टेयर है। भारत का वन क्षेत्रफल विश्वके कुल वन क्षेत्रफल का मात्र 0.5 प्रतिशत है। भारत में वन ह्रास की दर 1.5 मिलियन हेक्टेयर प्रतिवर्ष है जिसके कारण 6,000 मिलियन टन मिट्टी का बहाव प्रतिवर्ष होता है। वन की कटाई के परिणामस्वरूप सूखा, बाढ़, जैव-विविधता ह्रास तथा वैश्विक तपन (Global warming) जैसी समस्यायें पैदा हुई हैं।
हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप रासायनिक उर्वरकों तथा नाशिजीवनाशकों के अंधाधुन्ध प्रयोग के कारण जल, वायु तथा मृदा प्रदूषण में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। यहाँ तक कि भूमिगत जल भी प्रदूषित हो गया है। रासायनिक उर्वरकों पर जीवाणुओं की क्रिया से नाइट्रस आक्साइड (N2O) गैस का निर्माण तथा उत्सर्जन होता है। नाइट्रस आक्साइड एक हरितगृह गैस है जो वैश्विक तपन के साथ-साथ समतापमंडलीय ओजोन परत की क्षय के लिए भी उत्तरदायी है। रक्षा कवच के रूप में ओजोन परत सूर्य की हानिकारक परा-बैंगनी किरणों को अवशोषित कर पृथ्वी के जीवों की रक्षा करती है। धान की खेती के विस्तार के फलस्वरूप मीथेन (CH4) गैस की उत्सर्जन की दर में बढ़ोत्तरी हुई है। मीथेन भी नाइट्रस आक्साइड की तरह हरितगृह गैस है जो वैश्विक तपन के लिए उत्तरदायी है।
वर्षा जल द्वारा खेत से रासायनिक उर्वरकों का बहाव तालाबों, नदियों तथा झीलों में होता है जो कि जल प्रदूषण को बढ़ावा देता है। जल में पोषक तत्वों की अधिकता को ‘अतिपोषण’ (Eutrophication) कहते हैं। इस प्रकार का जल नील हरित शैवालों (Blue green algae) की वृद्धि को बढ़ावा देता है जिससे जल में जीवांश भार बढ़ जाता है परिणामस्वरूप ऑक्सीजन की कमी के कारण जलीय जीवों की मृत्यु होने लगती है। कार्बनिक पदार्थों के संचय के कारण धीरे-धीरे अनुक्रमण की प्रक्रिया शुरू होती है परिणामस्वरूप नमभूमियाँ स्थलीय पारितंत्र में परिवर्तित हो जाती हैं। आज उत्तर भारत के जलोढ़ मैदानी क्षेत्रों से तालाबों की विलुप्ति एक प्रमुख समस्या है जो हरित क्रान्ति के फलस्वरूप रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुन्ध प्रयोग का ही परिणाम है।
कृषि भूमि से वर्षा जल द्वारा रासायनिक कीटनाशकों का बहाव तालाबों, नदियों, झीलों तथा कुओं में होता है जिससे सतही जल प्रदूषित होता है परिणामस्वरूप जल जीवों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त कीटनाशकों से प्रदूषित जल को पीने से मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। कीटनाशकों के रिसाव से भूमिगत जल भी प्रदूषित हुआ है। हरित क्रान्ति से प्रभावित पंजाब राज्य इसका प्रमुख उदाहरण है।
कृषि यान्त्रिकरण ने ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी जैसी समस्या को जन्म दिया है परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों से रोजगार के तलाश हेतु शहरी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियाँ इसी पलायन का परिणाम हैं। शहरी क्षेत्रों विशेषकर महानगरों में झुग्गी-झोपड़ियों का पर्यावरण प्रदूषण में विशेष योगदान है।
कृषि:
हरित क्रान्ति से पूर्व देश में विभिन्न प्रकार की पारम्परिक देसी फसलों की किस्मों को उगाने का चलन था जबकि आज इसके विपरीत देसी फसलों की जगह अधिक पैदावार वाली कुछ संकर किस्मों को उगाने का चलन है। इससे न सिर्फ फसल विविधता में एकरूपता आई है अपितु फसल विविधता क्षय को भी बढ़ावा मिला है। हरित क्रान्ति के अन्तर्गत संकर किस्मों के वृहद पैमाने पर उपयोग के कारण पौष्टिकता सम्पन्न देसी किस्मों ने अपना महत्व खो दिया है परिणामस्वरूप बहुत सी देसी किस्में या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्ति के कगार पर खड़ी हैं। पारम्परिक देसी किस्मों की विलुप्ति आज गंभीर चिन्ता का विषय है क्योंकि इनमें रोगरोधी, कीटरोधी तथा सूखारोधी जैसे बहुत से उपयोगी गुण होते हैं, जिनका उपयोग हम भविष्य में आवश्यकता अनुसार वर्तमान फसलों की किस्मों के सुधार में कर सकते हैं।
देश में मृदा अपरदन Soil Erosion की दर में वृद्धि भी हरित क्रान्ति की ही देन है। हरित क्रान्ति के अर्न्तगत गहन कृषि के कारण भूमि संसाधनों पर दबाव पड़ा है जिससे मृदा अपरदन जैसी समस्या पैदा हुई है। रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण मृदा संरचना नष्ट हो जाती है परिणामस्वरूप मृदा जल तथा वायु अपरदन के प्रति संवेदनशील हो जाती है। देश का लगभग 25 प्रतिशत भूमि क्षेत्रफल जल अपरदन की समस्या से प्रभावित है जो कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी क्षति है। एक अनुमान के अनुसार मृदा की उपरी सतह की प्रत्येक इंच की हानि गेहूँ के फसल की पैदावार को 6 प्रतिशत तक कम कर देती है।
रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुन्ध प्रयोग के कारण मृदा में सूक्ष्म-तत्वों की कमी हो जाती है। नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश से युक्त रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग जब फसल पैदावार वृद्धि के लिए होता है तो फसलें उर्वरकों के अतिरिक्त नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटास के साथ-साथ मृदा से सूक्ष्म-तत्वों जैसे- जिंक, मैंगनीज, कापर, मालिवेडनम, बोरान आदि को अधिक मात्रा में अवशोषित कर लेती हैं जिससे मिट्टी में इन तत्वों की कमी हो जाती है।
हरित क्रान्ति से प्रभावित पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में इन सूक्ष्म-तत्वों की मृदा में कमी दर्ज की गयी है। इन सूक्ष्म-तत्वों की मृदा में कमी से फसल की पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए जिंक की कमी से धान में खैरा रोग लग जाता है जबकि बोरान एवं मालिबेडनम की कमी से नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रक्रिया प्रभावित होती है जिससे दलहनी फसलों के पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। यह हरित क्रान्ति के दुष्प्रभावों का परिणाम है कि आज धान की खेती वाले क्षेत्रों में खैरा रोग (Khaira disease) एक आम बिमारी बन गई है जबकि दलहनी फसलों की उपज वृद्धि हेतु यूरिया उर्वरक का इस्तेमाल किया जा रहा है।
हरित क्रान्ति से प्रभावित पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में इन सूक्ष्म-तत्वों की मृदा में कमी दर्ज की गयी है। इन सूक्ष्म-तत्वों की मृदा में कमी से फसल की पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए जिंक की कमी से धान में खैरा रोग लग जाता है जबकि बोरान एवं मालिबेडनम की कमी से नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रक्रिया प्रभावित होती है जिससे दलहनी फसलों के पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। यह हरित क्रान्ति के दुष्प्रभावों का परिणाम है कि आज धान की खेती वाले क्षेत्रों में खैरा रोग (Khaira disease) एक आम बिमारी बन गई है जबकि दलहनी फसलों की उपज वृद्धि हेतु यूरिया उर्वरक का इस्तेमाल किया जा रहा है।
सिंचाई में जल के अत्यधिक प्रयोग तथा कुप्रबन्धन के कारण मृदा लवणता तथा जल-जमाव जैसी समस्यायें पैदा हुई हैं। लवणीय मृदा में सोडियम, मैग्निसियम तथा कैलसियम के क्लोराइड तथा सल्फेट की अधिकता होती है। देश की लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता के कारण बंजर भूमि में परिवर्तित हो चुकी है। भूमि लवणता हरित क्रान्ति से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की प्रमुख समस्या है।
जल-जमाव से प्रभावित भूमि में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है जिसके कारण विभिन्न प्रकार के लाभकारी सूक्ष्मजीवों की मृत्यु हो जाती है या उनकी गतिविधियों में कमी आ जाती है जो मृदा की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त जल-जमाव से प्रभावित भूमि में फसलों का विकास अवरूद्ध हो जाता है। अतः जल-जमाव से ग्रसित भूमि खेती के योग्य नहीं होती है। देश की लगभग 6 मिलियन हेक्टेयर भूमि जल-जमाव के कारण बंजर भूमि में तब्दील हो चुकी है।
कीटनाशकों के अंधाधुन्ध प्रयोग के कारण कीटों ने प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर ली है जिससे कीटों की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। देश में 140 से ज्यादा कीटनाशकों का प्रयोग होता है और इनकी वार्षिक खपत लगभग 90,000 टन है। कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण नगदी फसल कपास (गासिपियम हरसुटम, गासिपियम आरबोरियम तथा गासिपियम बारबाडेन्स) को क्षति पहुँचाने वाले बहुत से कीटों ने प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर ली है जिससे देश में कपास की फसल को महाराष्ट्र की कपास पट्टी में ज्यादा नुकसान हो रहा है फलस्वरुप आर्थिक तंगी के कारण किसान खुदकुशी को मजबूर हैं। पिछले कई वर्षों से महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में किसानों की लगातार आत्महत्या के पीछे नकदी फसल कपास की असफलता है।
कीटनाशकों के अंधाधुन्ध प्रयोग के कारण कीटों ने प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर ली है जिससे कीटों की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। देश में 140 से ज्यादा कीटनाशकों का प्रयोग होता है और इनकी वार्षिक खपत लगभग 90,000 टन है। कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण नगदी फसल कपास (गासिपियम हरसुटम, गासिपियम आरबोरियम तथा गासिपियम बारबाडेन्स) को क्षति पहुँचाने वाले बहुत से कीटों ने प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर ली है जिससे देश में कपास की फसल को महाराष्ट्र की कपास पट्टी में ज्यादा नुकसान हो रहा है फलस्वरुप आर्थिक तंगी के कारण किसान खुदकुशी को मजबूर हैं। पिछले कई वर्षों से महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में किसानों की लगातार आत्महत्या के पीछे नकदी फसल कपास की असफलता है।
कीटनाशकों के अंधाधुन्ध प्रयोग से न केवल हानिकारक कीटों की मृत्यु होती है अपितु इससे फसलों में परागण को बढ़ावा देने वाले लाभकारी कीट भी नष्ट हो जाते हैं परिणामस्वरूप फसलों की पैदावार प्रभावित होती है। पंजाब में कीट परागित फसल पीली सरसों (ब्रैसिका कम्पेस्ट्रिस) की पैदावार में गिरावट दर्ज की गयी है जिसका प्रमुख कारण परागण पहुंचाने वाले कीटों की जनसंख्या में लगातार आ रही गिरावट है।
इसी प्रकार शाकनाशकों के उपयोग से वांछित खर-पतवारों के साथ-साथ जंगली अवस्था में उगने वाले औषधीय पौधे भी नष्ट हो जाते हैं। रासायनिक उर्वरकों विशेषकर यूरिया के प्रयोग से मृदा अम्लीकरण को बढ़ावा मिला है जिससे मृदा के उपयोगी सूक्ष्मजीव प्रभावित हुए हैं परिणामस्वरूप मृदा की उर्वरा शक्ति में गिरावट आई है। हरित क्रान्ति से प्रभावित क्षेत्रों की मृदा में दलहनी फसलों से सहसंबंध स्थापित कर नाइट्रोजन स्थिरीकरण के लिए उत्तरदायी राइजोबियम (Rhizobium) जीवाणुओं की जनसंख्या में गिरावट दर्ज की गयी है।
रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग फसलों को कीट आक्रमण के प्रति संवेदनशील बना देता है। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिला में किसानों ने ऐसा पाया है कि फसल उत्पादन में वृद्धि हेतु उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण गेहूँ, धान, गन्ना (सैकरम आफिसिनेरम) तथा पीली सरसों जैसी फसलों की उत्पादकता में 17 से 26 प्रतिशत तक की कमी आ जाती है।
कृषि पैदावार हेतु सिंचाई के लिए भूमिगत जल के अंधाधुन्ध दोहन से भूमिगत जलस्तर में लगातार गिरावट दर्ज की गयी है। हरित क्रान्ति से प्रभावित क्षेत्रों में आज भूमिगत जलस्तर 1980 की तुलना में 5 से 6 मीटर तक गिर गया है। पंजाब में भूमिगत जलस्तर में गिरावट एक गंभीर समस्या है।
हरित क्रान्ति का प्रभाव केवल गेहूँ तथा धान, जैसी फसलों तक ही सीमित रहा है। अन्य फसलों विशेषकर दलहन तथा तिलहन पर इस क्रान्ति का कोई विशेष प्रभाव नही पड़ा है।
स्वास्थ्य:
सिंचाई के लिए नहरों तथा बांधों के निर्माण तथा धान के कृषि क्षेत्रफल में विस्तार के कारण मच्छरों से प्रसारित होने संक्रामक बिमारियाँ जैसे मलेरिया, जापानी मस्तिष्क ज्वर तथा फाइलेरिया (फ़ीलपॉव) के प्रकोप में लगातार वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति के आगमन से प्रोटोजोआजनित मलेरिया रोग के प्रकोप में कई गुना वृद्धि हुई है परिणामस्वरूप आज ग्रामीण क्षेत्रों में मलेरिया प्रमुख स्वास्थ्य समस्या बन गयी है। मलेरिया का घातक रूप मस्तिष्क मलेरिया की दर में वृद्धि दर्ज की गयी है। इसके अतिरिक्त कृमिजनित फाइलेरिया के रोगियों में भी वृद्धि दर्ज की गयी है।
मच्छरों से फैलने वाला विषाणुजनित जापानी मस्तिष्क ज्वर जो आमतौर से बच्चों को प्रभावित करता है, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, तथा असम राज्य में एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनता जा रहा है। वर्तमान में पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस बिमारी का सर्वाधिक प्रकोप है। पूर्वी उत्तर प्रदेश का गोरखपुर जिला जापानी मस्तिष्क ज्वर का प्रमुख केन्द्र बन चुका है। बेस्ट नाइल ज्वर भी मच्छरों के क्यूलेक्स विष्णुनाई (Culex vishnui) तथा क्यूलेक्स फाटिगेन्स (Culex fatigans) प्रजातियों से प्रसारित होने वाली विषाणुजनित बिमारी है जो पंजाब राज्य में धीरे-धीरे एक स्वास्थ्य समस्या के रुप में उभर रही है।
रासायनिक उर्वरक यूरिया के अत्यधिक प्रयोग के कारण खाद्यान्नों में पोटेशियम की मात्रा कम हो जाती है। पोटैशियम उच्च रक्तचाप को नियन्त्रित करने के साथ-साथ हृदय को भी स्वस्थ रखता है। इसी प्रकार पोटाश के अत्यधिक प्रयोग के कारण विटामिन ‘सी’ तथा विटामिन ‘ए’ की कमी हो जाती है। विटामिन ‘सी’ रक्षातन्त्र को मजबूत करती है जबकि विटामिन ‘ए’ आँखों की रोशनी के लिए अनिवार्य है। अतः रासायनिक उर्वरकों से उत्पन्न खाद्यान्नों की पोषकीय गुणवत्ता प्रभावित होती है। आज देश में उच्च-रक्तचाप, हृदय तथा श्वास-सम्बन्धी बिमारियाँ, आँखों की बिमारियाँ जैसे- रतौंधी तथा अंधापन के रोगियों की बढ़ती संख्या हरित क्रान्ति का ही परिणाम है।
देश की शाकाहारी आबादी के लिए दालें प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं। प्रोटीन के अतिरिक्त दालों से हमें खनिज तथा रेशे भी प्राप्त होते हैं। हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप गेंहूँ तथा धान की पैदावार में बढ़ोत्तरी तो हुई लेकिन दलहनी फसलों की पैदावार में कमी आयी है जिससे प्रोटीन कुपोषण जैसी समस्या पैदा हुई है। बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा छत्तीसगढ़ राज्यों में प्रोटीन कुपोषण एक प्रमुख समस्या है। वयस्कों में प्रोटीन कुपोषण के कारण क्षयरोग की संभावना बढ़ जाती है। भारत में बढ़ते क्षयरोगियों की संख्या का एक प्रमुख कारण प्रोटीन कुपोषण ही है।
हरित क्रान्ति से प्रभावित राज्यों में नाइट्रेट (NO3) तथा नाइट्राइट (NO2) से प्रदूषित जल को पीने से मिथिमोग्लोबिनेमिया (Methmaeglobinaemia) नामक बिमारी आमतौर से बच्चों में होती है जिसमें रक्त की आक्सीजन ढ़ोने की शक्ति क्षीण हो जाती है जिससे श्वसन तन्त्र तथा तन्त्रिका तन्त्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
जहाँ तक कीटनाशकों का प्रश्न है, कीटनाशक खाद्य श्रृंखला द्वारा मनुष्य के शरीर में पहुँचकर स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इण्डोसल्फान (Endosulphan) कीटनाशक का प्रयोग आमतौर से धान की खेती में कीट नियन्त्रण हेतु होता है। यह एक अत्यन्त ही खतरनाक रसायन होता है जो मनुष्यों में आँख, गुर्दा एवं यकृत को प्रभावित करता है।
तमिलनाडु तथा केरल राज्यों में इस प्रतिबन्धित रसायन के अंधाधुन्ध प्रयोग के कारण किसानों में शारीरिक विकृतियाँ देखने में आयी हैं। डी0डी0टी0 (डाईक्लोरो डाईफिनाइल ट्राईक्लोरो इथेन) जैसे घातक क्लोरिनेटेड हाइड्रोकार्बनस् (Chlorinated hydrocarbons) रासायनों का वातावरण में विघटन नहीं होता है जो खाद्य श्रृंखला द्वारा मनुष्य के शरीर में पहुंचकर वसा के साथ घुलकर एडीपोज ऊतकों (Adipose tissues) में जमा हो जाते हैं। जब वसा का आक्सीकरण होता है तब इस समूह के रसायन मनुष्यों में हानिकारक प्रभाव डालते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) की रिपोर्ट के अनुसार भारतीयों के शरीर में सर्वाधिक डी0डी0टी0 पाया जाता है। देश की आबादी में डी0डी0टी0 का स्तर 13 से 30 पीपीएम (पार्टस् पर मिलियन) तक पहुँच चुका है।
निष्कर्ष:
अपने पार्श्व प्रभावों के कारण हरित क्रान्ति आज हानिकारक साबित हो रही है। देश में पर्यावरण प्रदूषण, भूमि क्षरण, जैव-विविधता क्षरण, वन क्षरण, भूमिगत जलस्तर में गिरावट तथा मच्छरों द्वारा प्रसारित होने वाली बिमारियों का दिनोदिन बढ़ता प्रकोप जैसी गंभीर समस्यायें हरित क्रान्ति की ही देन है। अतः इस क्रान्ति के दुष्परिणामों ने इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। हरित क्रान्ति के पार्श्व प्रभावों को देखते हुए आज समय की आवश्यकता है कि हम संपोषित कृषि को अपनाये जिसमें संसाधनों के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण पर भी विशेष बल दिया जाता है। साथ ही रासायनिक उर्वरकों एवं नाशिजीवनाशकों का प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर न्यूनतम मात्रा में किया जाता है। संपोषित कृषि को अपनाकर हम हरित क्रान्ति के पार्श्व प्रभावों से मुक्ति पा सकते हैं।
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लेखक परिचय:


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