Global Warming Facts, Causes, and Effects of Climate Change in Hindi.
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री तूफ़ानों में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप तटीय क्षेत्रों में ज़ान-माल की क्षति होगी। इसके अतिरिक्त अल नीनों की बारंबारता में भी बढ़ोत्तरी होगी जिससे एशिया, अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया महाद्वीपों में सूखे की स्थिति उत्पन्न होगी जबकि वहीं दूसरी ओर उत्तरी अमरीका में बाढ़ जैसी आपदा का प्रकोप होगा। दोनों ही स्थितियों में कृषि उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभाव-एक आकलन
-डॉ. अरविन्द सिंह
जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण वैश्विक तपन है जो हरितगृह प्रभाव (Green house effect) का परिणाम है। हरितगृह प्रभाव वह प्रक्रिया है जिसमें पृथ्वी की सतह से टकराकर लौटने वाली सूरज की किरणों को वातावरण में उपस्थित कुछ गैसें अवशोषित कर लेती हैं परिणामस्वरूप पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है। कार्बन डाईऑक्साइड, मिथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स्, नाइट्रस ऑक्साइड तथा क्षोभमण्डलीय ओजोन वे मुख्य गैसें हैं जो हरित गृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं। वातावरण में इन गैसों की निरंतर बढ़ती मात्रा से वैश्विक जलवायु परिवर्तन का खतरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।
हरितगृह प्रभाव के चलते अनेक क्षेत्रों में औसत तापमान में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी के अनुसार वर्ष 2020 तक पूरी दुनिया का तापमान पिछले 1,000 वर्षों की तुलना में सर्वाधिक होगा। अंतर-शासकीय जलवायु परिवर्तन पैनल Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) ने वर्ष 1995 में भविष्यवाणी की थी कि अगर मौजूदा प्रवृत्ति जारी रही तो 21वीं सदी में तापमान में 3.5 से 10 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होगी। बीसवीं सदी में विश्व की सतह का औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। इस शताब्दी का पहला दशक (2000-2009) अब तक का सबसे उष्ण दशक रहा है जो यह साबित करता है कि हरितगृह प्रभाव के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन का दौर आरंभ हो चुका है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के अनेक प्रभाव होंगे जिनमें से ज्यादातर हानिकारक होंगे।
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वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभाव:
वैश्विक जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार जलवायु में तपन के कारण श्वास एवं हृदय संबंधी बीमारियों में वृद्धि होगी। दुनिया के विकासशील देशों में दस्त, पेचिश, हैजा, क्षयरोग, पीत ज्वर तथा मियादी बुखार जैसी संक्रामक बीमारियों की बारंबारता में वृद्धि होगी। चूँकि बीमारी फैलाने वाले रोगवाहकों के गुणन एवं विस्तार में तापमान एवं वर्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः दक्षिण अमरीका, अफ्रीका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों जैसे-मलेरिया, डेंगू, पीला बुखार तथा जापानी बुखार के प्रकोप में बढ़ोतरी के कारण इन बीमारियों से होने वाली मृत्युदर में इज़ाफ़ा होगा। इसके अतिरिक्त फ़ीलपांव तथा चिकनगुनिया का भी प्रकोप बढ़ेगा। मच्छरजनित बीमारियों का विस्तार उत्तरी अमरीका तथा यूरोप के ठंडे देशों में भी होगा। मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते एक बड़ी आबादी विस्थापित होगी जो ‘पर्यावरणीय शरणार्थी’ (Environmental refugees) कहलाएगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप रोगाणुओं में बढ़ोतरी के साथ-साथ इनकी नयी प्रजातियां विकसित होगी जिसके परिणामस्वरूप फ़सलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। फ़सलों की नाशिजीवों (Pests) तथा रोगाणुओं (Pathogens) से सुरक्षा हेतु नाशीजीवनाशकों (Pesticides) के उपयोग की दर में बढ़ोत्तरी होगी जिससे वातावरण प्रदूषित होगा साथ ही मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप दुनिया के मानसूनी क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि होगी जिससे बाढ़, भूस्खलन तथा भूमि अपरदन जैसी समस्याएं पैदा होंगी। जल की गुणवत्ता में गिरावट आएगी।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन जल स्रोतों के वितरण को भी प्रभावित करेगा। उच्च अक्षांश वाले देशों तथा दक्षिण-पूर्ण एशिया के जल स्रोतों में जल की अधिकता होगी जबकि मध्य एशिया में जल की कमी होगी। निम्न अक्षांश वाले देशों में जल की कमी होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप ध्रुवीय बर्फ़ के पिघलने के कारण विश्व का औसत समुद्री जलस्तर इक्कीसवीं शताब्दी के अंत तक 9 से 88 सेमी तक बढ़ने की संभावना है जिससे दुनिया की आधी से अधिक आबादी, जो समुद्र से 60 किमी की दूरी तक रहती है, पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। बांग्लादेश का गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा, मिस्र का नील डेल्टा तथा मार्शल द्वीप और मालदीव सहित अनेक छोटे द्वीपों का अस्तित्व वर्ष 2100 तक समाप्त हो जाएगा। इसी ख़तरे की ओर संपूर्ण विश्व का ध्यान आकर्षित करने के लिए अक्टूबर 2009 में मालदीव सरकार की कैबिनेट ने समुद्र के भीतर बैठकर एक अनूठा प्रयोग किया था। इस बैठक में दिसम्बर 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन के लिए एक घोषणापत्र भी तैयार किया गया था। प्रशांत महासागर का सोलोमन द्वीप जलस्तर में वृद्धि के कारण डूबने के कगार पर है।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन का प्रभाव समुद्र में पाए जाने वाली जैव-विविधता संपन्न प्रवाल भित्तियों (Coral reefs) पर पड़ेगा जिन्हें महासागरों का उष्णकटिबंधीय वर्षा वन कहा जाता है। समुद्री जल में उष्णता के परिणामस्वरूप शैवालों (Algae) पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जो कि प्रवाल भित्तियों को भोजन तथा वर्ण प्रदान करते हैं। उष्ण महासागर विरंजन (Bleaching) प्रक्रिया के कारक होंगे जो इन उच्च उत्पादकता वाले पारितंत्रों (Ecosystems) को नष्ट कर देंगे। प्रशांत महासागर में वर्ष 1997 में अलनीनो के कारण बढ़ने वाली ताप की तीव्रता प्रवालों की मृत्यु का सबसे गंभीर कारण बनी है। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी की लगभग 10 प्रतिशत प्रवाल भित्तियों की मृत्यु हो चुकी है, 30 प्रतिशत गंभीर रूप से प्रभावित हुई हैं तथा 30 प्रतिशत का क्षरण हुआ है। ग्लोबल कोरल रीफ मॉनीटरिंग नेटवर्क, ऑस्ट्रेलिया (Global coral reef monitoring network, Australia) का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक सभी प्रवाल भित्तियों की मृत्यु हो जाएगी।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि पैदावार पर पड़ेगा। संयुक्त राज्य अमरीका में फ़सलों की उत्पादकता में कमी आएगी जबकि दूसरी तरफ उत्तरी तथा पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व देशों, भारत, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया तथा मैक्सिको में गर्मी तथा नमी के कारण फ़सलों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होगी। वर्षा जल की उपलब्धता के आधार पर धान के क्षेत्रफल में इजाफ़ा होगा।
वातावरण में ज्यादा ऊर्जा के जु़ड़ाव से वैश्विक वायु पद्धति (Global wind pattern) में भी परिवर्तन होगा। वायु पद्धति में परिवर्तन के परिणामस्वरूप वर्षा का वितरण असमान होगा। भविष्य में मरुस्थलों में ज्यादा वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत पारंपरिक कृषि वाले क्षेत्रों में कम वर्षा होगी। इस तरह के परिवर्तनों से वृहद पैमाने पर मानव प्रव्रजन को बढ़ावा मिलेगा जो कि मानव समाज के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक ताने-बाने को प्रभावित करेगा।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप बाढ़, सूखा तथा आंधी-तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता में वृद्धि के कारण अन्न उत्पादन में गिरावट आयेगी। स्थानीय खाद्यान्न उत्पादन में कमी, भूखमरी और कुपोषण का कारण बनेगी जिससे स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेंगे। खाद्यान्न और जल की कमी से प्रभावित क्षेत्रों में टकराव पैदा होंगे।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जैव-विविधता पर भी पड़ेगा। किसी भी प्रजाति को अनुकूलन हेतु समय की आवश्यकता होती है। वातावरण में आकस्मिक परिवर्तन से अनुकूलन के अभाव में उसकी मृत्यु हो जाएगी। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव समुद्र के तटीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली दलदली क्षेत्र की वनस्पतियों पर पड़ेगा जो तट को स्थिरता प्रदान करने के साथ-साथ समुद्री जीवों के प्रजनन के लिए आदर्श स्थल भी होती है। दलदली वन (Mangrove forest) जिन्हें ज्वारीय वन भी कहा जाता है, तटीय क्षेत्रों को समुद्री तूफानों से रक्षा करने का भी कार्य करते हैं। जैव-विविधता क्षरण के कारण पारिस्थितिक असंतुलन का ख़तरा बढ़ेगा।
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जलवायु में तपन के कारण उष्णकटिबंधीय वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी परिणामस्वरूप वनों का विनाश होगा जिसके कारण जैव-विविधता का ह्रास होगा।
नाशिजीवों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या में वृद्धि तथा इनकी नयी प्रजातियों की उत्पत्ति का प्रभाव दुधारू पशुओं पर भी पड़ेगा जिससे दुग्ध उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
तापमान में वृद्धि के कारण वाष्पीकरण तथा वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) की दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी परिणामस्वरूप मृदा जल के साथ ही जलाशयों में जल की कमी होगी जिससे फ़सलों को पर्याप्त जल उपलब्ध न होने के कारण उनकी पैदावार प्रभावित होगी।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जलीय जंतुओं पर भी पड़ेगा। मीठे जल की मछलियों का प्रव्रजन ध्रुवीय क्षेत्रों की ओर होगा जबकि शीतल जल मछलियों के आवास नष्ट हो जाएंगे परिणामस्वरूप बहुत-सी मछलियों की प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगी।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री तूफ़ानों की बारंबारता में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप तटीय क्षेत्रों में ज़ान-माल की क्षति होगी। इसके अतिरिक्त अल नीनों की बारंबारता में भी बढ़ोत्तरी होगी जिससे एशिया, अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया महाद्वीपों में सूखे की स्थिति उत्पन्न होगी जबकि वहीं दूसरी ओर उत्तरी अमरीका में बाढ़ जैसी आपदा का प्रकोप होगा। दोनों ही स्थितियों में कृषि उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हिमनदों (Glaciers) पर भी पड़ेगा। उष्णता के कारण हिमनद पिघल कर खत्म हो जाएंगे। एक शोध के अनुसार भारत के हिमालय क्षेत्र में वर्ष 1962 से 2000 के बीच हिमनद 16 प्रतिशत तक घटे हैं। पश्चिमी हिमालय में हिमनदों के पिघलने की प्रक्रिया में तेज़ी आई है। बहुत-से छोटे हिमनद पहले ही विलुप्त हो चुके हैं। कश्मीर में कोल्हाई हिमनद 20 मीटर तक पिघल चुका है। गंगोत्री हिमनद 23 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल रहा है। अगर पिघलने की वर्तमान दर कायम रही तो शीघ्र ही हिमालय से सभी हिमनद समाप्त हो जाएंगे जिससे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सतलज, रावी, झेलम, चिनाब, व्यास आदि नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इन नदियों पर स्थित जलविद्युत ऊर्जा इकाइयां बंद हो जाएंगी परिणामस्वरूप विद्युत उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त सिंचाई हेतु जल की कमी के कारण कृषि उत्पादकता पर भी प्रभाव पड़ेगा। उपर्युक्त नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाने से भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बांग्लादेश भी प्रभावित होंगे।
वैश्विक जलवायु तपन के कारण जीवांश पदार्थ तेज़ी से विघटित होगें परिणामस्वरूप पोषक चक्र की दर में बढ़ोतरी होगी जिसके कारण मृदा की उपजाऊ क्षमता अव्यवस्थित हो जाएगी जो कृषि पैदावार को प्रभावित करेगी।
वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की वृद्धि के कारण पौधों में कार्बन स्थिरीकरण में बढ़ोत्तरी होगी परिणामस्वरूप मृदा से पोषक तत्वों के अवशोषण की दर कई गुना बढ़ जाएगी जिसके कारण मृदा की उर्वरा शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। मृदा की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों के उपयोग की दर में वृद्धि होगी।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव वनस्पतियों तथा जंतुओं पर भी पड़ेगा। स्थानीय महासागर उष्णता 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के कारण प्रशांत महासागर में सैलमान (Salmon) मछली की जनसंख्या में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गई है। बढ़ती उष्णता के कारण वसंत ऋतु में जल्दी बर्फ़ पिघलने के कारण हडसन की खाड़ी में ध्रुवीय भालुओं (Polar bears) की जनसंख्या में गिरावट आई है।
जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों पर पड़ेगा। आर्थिक क्षेत्र का भौतिक मूल ढांचा जलवायु परिवर्तन द्वारा सर्वाधिक प्रभावित होगा। बाढ़, सूखा, भूस्खलन तथा समुद्री जलस्तर में वृद्धि के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर मानव प्रव्रजन होगा जिससे सुरक्षित स्थानों पर भीड़भाड़ की स्थिति पैदा होगी। उष्णता से प्रभावित क्षेत्रों में प्रशीतन हेतु ज्यादा ऊर्जा की आवश्यकता होगी।
निष्कर्ष:
अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन एक गंभीर खतरा है जिससे संपूर्ण दुनिया प्रभावित होगी। अतः आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हरित गृह गैसों के वातावरण में उत्सर्जन पर प्रभावी रोक लगायी जाये ताकि जलवायु परिवर्तन के हारिकारक प्रभावों से बचा जा सके।
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लेखक परिचय:


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अत्यंत तथ्यपरक आलेख है। लेखक महोदय को हार्दिक धन्यवाद।
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