Sustainable Agriculture in Hindi.
बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण सिमटते भूमि तथा जल संसाधनों एवं आनुवंशिक ह्रास को देखते हुए संपोषित कृषि को अपनाना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो भविष्य में कृषि पैदावार में गिरावट तथा पारिस्थितिक असन्तुलन का खतरा बढ़ने के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य भी प्रभावित होगा।
संपोषित कृषि अपनायें
पर्यावरण एवं संसाधन बचायें
-डॉ. अरविन्द सिंह
रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों पर पूर्णतः आधारित पारम्परिक कृषि (Conventional agriculture) से खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि तो हुई लेकिन साथ ही भूमि क्षरण, वनविनाश, पर्यावरण प्रदूषण, आनुवंशिक ह्रास, भूमिगत जलस्तर में गिरावट जैसी गंभीर समस्यायें भी पैदा हुई। उपर्युक्त समस्याओं को देखते हुए यह महसूस किया गया कि पारम्परिक कृषि लम्बी दौड़ में टीकाऊ नहीं है। इसी के परिणामस्वरूप संपोषित कृषि (Sustainable agriculture) की अवधारणा का जन्म 1981 में हुआ जो कि प्राकृतिक संसाधनों तथा पर्यावरण संरक्षण पर विषेष जोर देती है। संपोषित कृषि को सतत कृषि, निर्वहनीय कृषि, समगतिशील कृषि तथा टिकाऊ कृषि के नामों से भी जाना जाता है। ‘‘संपोषित कृषि वह कृषि है जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पुर्ति के साथ-साथ भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं के पुर्ति का भी ध्यान रखती है।’’
लोगों में आमतौर से भ्रान्ति है कि संपोषित कृषि एवं जीवांश कृषि (Organic agriculture) एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। लेकिन यहाँ यह बताना आवश्यक है कि संपोषित कृषि एक विस्तृत शब्दावली है जो जीवांश कृषि को भी अपने आप में समाहित करता है। अर्थात दूसरे शब्दों में जीवांश कृषि संपोषित कृषि का ही एक रूप है जिसमें रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का प्रयोग पूर्णतः वर्जित होता है। संपोषित कृषि के मुख्यतः चार लक्ष्य होते हैं। (i) संसाधन संरक्षण, (ii) पर्यावरण स्वास्थ्य, (iii) आर्थिक लाभ; तथा (iv) सामाजिक एवं आर्थिक समानता।
संपोषित कृषि में प्रबन्धन प्रक्रियायें पारम्परिक कृषि से भिन्न होती है। इस प्रकार की कृषि में आनुवंशिक संसाधनों एवं जल संसाधनों के संरक्षण के साथ मृदा संरक्षण पर विशेष बल दिया जाता है। संपोषित कृषि में उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए एकीकृत पोषक प्रबन्धन, कीटों के नियन्त्रण के लिए एकीकृत कीट प्रबन्धन तथा खरपतवार नियन्त्रण के लिए एकीकृत खरपतवार नियन्त्रण को व्यवहार में लाया जाता है। जबकि इसके विपरीत पारम्परिक कृषि में मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों तथा कीट एवं खरपतवार नियन्त्रण के लिए हानिकारक रसायनों का प्रयोग होता है।
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खाद्यान्न उत्पाद में वृद्धि के लिए अधिक उपज देने वाली कुछ संकर किस्मों के उपयोग के कारण विभिन्न फसलों की पारम्परिक देसी किस्में या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्ति के कगार पर खड़ी हैं। फसलों की विभिन्न देसी किस्मों के साथ-साथ उनके जंगली प्रजातियों (Wild relatives) के क्षय को आनुवंशिक ह्रास (Genetic erosion) के रुप में जाना जाता है। देशी किस्मों का संरक्षण आवश्यक है क्योंकि संकर किस्मों की तुलना में इनमें ज्यादा पौष्टिकता होती है। इसके अतिरिक्त इनमें बहुत से उपयोगी गुण (रोगरोधी, कीटरोधी, सूखारोधी आदि) होते हैं जो भविष्य में संकर किस्मों के सुधार में कारगर साबित हो सकते हैं।
चूंकि जैव-विविधता संरक्षण भी संपोषित कृषि का एक प्रमुख लक्ष्य होता है, इसलिए इस प्रकार की कृषि में संकर प्रजातियों के साथ-साथ देसी किस्मों की खेती पर भी विषेष जोर दिया जाता है जिससे फसलों की देसी प्रजातियों को संरक्षित किया जा सके ताकि भावी पीढ़ी इनसे लाभान्वित हो सके।
जल एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। पारम्परिक कृषि कार्यों हेतु जल के अंधाधुन्ध दोहन के परिणामस्वरूप भूमिगत जल में गिरावट आयी है। भारत में हरित क्रान्ति से प्रभावित राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जलस्तर के गिरावट में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है। पंजाब राज्य के 57 प्रतिशत क्षेत्रफल का भूमिगत जल सिंचाई योग्य नहीं रह गया है।
संपोषित कृषि जल संरक्षण पर विशेष ध्यान देती है। संपोषित कृषि में वर्षा जल के संचय, जलविभाजक प्रबन्धन (Watershed management) पर विशेष ध्यान दिया जाता है ताकि वर्षा जल का अधिक से अधिक उपयोग कृषि कार्यों हेतु किया जा सके। इसके अतिरिक्त टपक सिंचाई (Drip irrigation) जैसी सिंचाई विधियों के प्रयोग पर भी जोर दिया जाता है जिसमें सिंचाई कार्यों हेतु जल का न्यूनतम इस्तेमाल होता है। इस प्रकार जल संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।
चूंकि भूमि एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण संसाधन है। अतः संपोषित कृषि में भूमि संरक्षण पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है क्योंकि पारम्परिक कृषि प्रणाली का सर्वाधिक हानिकारक प्रभाव भूमि पर पड़ा है। आज भारत के कुल क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टयर का लगभग 178 मिलियन हेक्टेयर भूमि बंजर या बेकार भूमि में तब्दील हो चुकी है। इसमें लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता तथा लगभग 6 मिलियन हेक्टेयर भूमि जल-जमाव से प्रभावित है। रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुन्ध प्रयोग से मृदा अपरदन Soil Erosion की दर में लगातार वृद्धि हुई है। देश की लगभग 25 प्रतिशत भूमि जल अपरदन से प्रभावित है।
पारम्परिक कृषि में रासायनिक खादों के अंधाधुन्ध प्रयोग से न सिर्फ मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलता है अपितु सतही तथा भूमिगत जल भी प्रदूषित हो जाता हैं। इसलिए संपोषित कृषि में मृदा की उर्वरा शक्ति की बढ़ोत्तरी के लिए एकीकृत पोषक प्रबन्धन को अपनाया जाता है। एकीकृत पोषक प्रबन्धन में खाद, गोबर खाद, हरी खाद, कम्पोस्ट, केंचुआ खाद, जैविक खाद तथा खली (Oil cake) का इस्तेमाल होता है। इसके अतिरिक्त अगर आवश्यकता पड़ती है तो अल्प मात्रा में रासायनिक खादों का भी प्रयोग किया जाता है।
जैविक खाद में नाइट्रोजन आपूर्ति के लिए नील हरित शैवालों (Blue green algae) जैसे एनाबीना, नास्टाक, आलोसाइरा, सिलेण्डोस्परमम, साइटोनीमा, प्लेक्टोनीमा, ग्लियोकैप्सा आदि का उपयोग होता है। नील हरित शैवालों की नाइट्रोजन स्थिरीकरण की दर 15 से 45 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर तक होती है। इसके अतिरिक्त फर्न प्रजाति का पौधा एजोला पिन्नेटा (Azolla pinnata) का प्रयोग जैविक खाद के रूप में धान के खेती में होता है। एलोजा जलीय पौधा है जो आमतौर से बरसात में तालाब, टैंक आदि में बहुतायत में उगता है। एजोला की मोटी परत 30 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत को आपूर्ति करती है।
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दलहनी फसलों के लिए एजोराइजोबियम, ब्रैडीराइजोबियम, मिसोराइजोबियम, राइजोबियम तथा साइनोराइजोबियम जीवाणुओं (Bacteria) का जैविक खाद के रूप में इस्तेमाल होता है। गैर-दलहनी फसलों जैसे धान (ओराइजा सेटाइवा), गेहूँ (ट्रीटीकम एस्टीवम), जौ (होरडियम वल्गेयर), ज्वार (सोरघम वल्गेयर), मक्का (जिया मेज), गन्ना (सैकरम आफिसिनेरम) आदि फसलों के लिए एजोटोबेक्टर, बेजरिंकिया, क्लास्टिरिडियम, रोडोस्पाइरिलम, एजोस्पाइरिलम और हरबास्पाइरिलम जैसे नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं का प्रयोग किया जाता है। इन जीवाणुओं की प्रजातियों की नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्षमता 20 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
होती है।
‘‘सेल्युलोलिटिक जैविक खाद’’ (Cellulolytic biofertilizers) के रूप में एजपर्जिलस, पेनिसिलियम, फ्यूजेरियम तथा ट्राइकोडरमा जैसे कवकों (Fungi) का उपयोग कार्बनिक पदार्थों के विघटन की दर को बढ़ाने के लिए होता है जिससे प्रमुख पोषक तत्व कार्बनिक पदार्थों से मृदा में मुक्त होकर पौधो को उपलब्ध हो सकें।
आमतौर से फास्फोरस मृदा में अघुलनशील अवस्था में पाया जाता है जिसका उपयोग पौधे नहीं कर पाते हैं। फास्फोरस को घुलनशील बनाने के लिए जैविक खाद के रूप में स्यूडोमोनास प्यूटिडा एवं बैसीलस सबटिलिस जैसे जीवाणुओं का उपयोग होता है। इन जीवाणुओं के प्रयोग से मृदा में फास्फोरस की उपलब्धता कई गुना बढ़ जाती हैै।
जिवाणुओं के अतिरिक्त कवकमूल कवकों (Mycorrhizhal fungi) को भी फास्फोरस को घुलनशील बनाने के लिए जैविक खाद के रुप में प्रयोग किया जाता है। यह कवकमूल कवक फसलों के साथ सहसम्बन्ध बनाकर उन्हें फास्फोरस की आपूर्ति करते हैं। अतः कवकमूल कवकों की फास्फोरस पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फसलों के लिए आमतौर से ग्लोमस, इण्डोगोन, स्केलोरोसिस्टिस, अकोलोस्पोरा तथा गाइगास्पोरा जैसे कवकमूल कवकों का उपयोग किया जाता है।
संपोषित कृषि में मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए हरी खाद जैसे ढ़ैचा (सेस्बेनिया रोस्टेªटा), बरसीम (ट्राइफोलियम एलेक्जेन्ड्रियम), सनई (क्रोटोलेरिया जुनसिया), मसूर (लेन्स स्कुलेन्टम) आदि का उपयोग होता है। हरी खाद के रूप में इस्तेमाल होने वाले इन पौधों में 2ण्5 से 4 प्रतिशत नाइट्रोजन की मात्रा होती है। इन हरी खाद वाली फसलों को खेत में उगाकर उनकी जुताई कर दी जाती है। हरी खाद से मृदा में नाइट्रोजन वृद्धि के साथ-साथ कार्बनिक पदार्थों की भी वृद्धि होती है, जिससे मृदा की संरचना में सुधार होता है परिणामस्वरूप मृदा संरक्षण को बढ़ावा मिलता है और साथ ही मृदा की जलधारण क्षमता में भी वृद्धि होती है।
नीम (एजाडिराक्टा इण्डिका), करंज (पानगैमिया पिन्नेटा), महुआ (बैसिया लैटीफोलिया), रेड़ (रिसिनस कम्यूनिस), तीसी (लाइनम यूसिटैसिस्मम) आदि के खली को कार्बनिक नाइट्रोजन खाद के रूप में उपयोग किया जाता है जिसमें नाइट्रोजन की मात्रा 4 से 6 प्रतिशत तक होती है। खली मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के अतिरिक्त मृदा में उपस्थित हानिकारक कीटों, रोगाणुओं आदि को भी नष्ट कर देती है।
पारम्परिक जुताई प्रक्रियाओं से भूमि अपरदन को बढ़ावा मिलता है। अतः संपोषित कृषि में जुताई प्रक्रिया को इस प्रकार व्यवहार में लाया जाता है ताकि भूमि संरक्षण को बढ़ावा मिल सके। इसलिए पारम्परिक जुताई (Conventional tillage) के स्थान पर संरक्षित जुताई (Conservational tillage) को अपनाया जाता है।
संरक्षित जुताई में कृषि भूमि को न्यूनतम अव्यवस्थित किया जाता है जिससे फसलों के अवशेष (Crop residues) मृदा सतह पर बने रहें। फसलों के अवशेष मृदा को जल तथा वायु अपरदन से बचाते हैं और बाद में विघटित होकर मृदा की उर्वरा शक्ति को भी बढ़ाते हैं। शून्य जुताई (Zero tillage) तथा न्यूनतम जुताई (Minimum tillage) संरक्षित जुताई की दो विधियाँ है जो मृदा को संरक्षण प्रदान करती हैं। पारम्परिक जुताई की तुलना में संरक्षित जुताई मृदा अपरदन को लगभग 50 प्रतिशत तक कम कर देती हैं।
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इसके अतिरिक्त मृदा संरक्षण तथा उर्वरा शक्ति को बनाये रखने के लिए मिश्रित शस्यन (Mixed croppings), सह फसली पद्धतियाँ (Inter cropping patterns) तथा फसल चक्र (Crop rotation) जैसी शस्यीय क्रियाओं को व्यवहार में लाया जाता है। मिश्रित शस्यन में दलहनी (Leguminous) एवं गैर-दलहनी (Non-leguminous) फसलों को एक साथ उगाया जाता है तथा फसल चक्र में दलहनी फसलों के बाद गैर-दलहनी फसलों को उगाया जाता है जिससे मृदा के नाइट्रोजन का उचित उपयोग हो सके।
पारम्परिक कृषि में कीटनाशकों के अंधाधुन्ध प्रयोग से पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कीटनाशक आमतौर से खाद्य श्रृंखला द्वारा मानव शरीर में पहुँचकर स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में कीटनाशक डी0डी0टी0 की सर्वाधिक मात्रा (13.30 पीपीएम) भारतीयों के शरीर में पायी जाती है। चूँकि संपोषित कृषि में पर्यावरण संरक्षण के साथ मानव स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया जाता है इसलिए कीटो का नियन्त्रण एकीकृत कीट प्रबन्धन के जरिए किया जाता है।
एकीकृत कीट प्रबन्धन में यान्त्रिक, कर्षण (Cultural) तथा जैविक विधियों का उपयोग कीटों के नियन्त्रण में होता है। आवश्यकता पड़ने पर कीटों के सम्पूर्ण खात्मे के लिए रासायनिक विधि का सीमित उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त रोगरोधी एवं कीटरोधी फसलों के इस्तेमाल से रोगाणुओं तथा कीटों पर नियन्त्रण पाया जाता है। जैविक नियन्त्रण में सूक्ष्मजीवों जैसे बैसिलस थुरेनजियेन्सिस, ट्राइकोडरमा विरिडी आदि का उपयोग होता है। शरीफा (एनोना स्क्यूमोसा), नीम (एजाडिराक्टा इण्डिका), काबुली कीकर (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) लहसुनिया (एडिनोकैलिमा एलिसियम) तथा लहसुन (एलियम सेटाइवम) से प्राप्त वानस्पतिक नाशिजीवनाशकों (Botanical pesticides का उपयोग कीटों, कवकों, जीवाणुओं तथा विषाणुओं के नियन्त्रण में होता है।
संपोषित कृषि में पादप रोगों के नियंत्रण के लिए फसल चक्र पर विशेष ध्यान दिया जाता है जिसके अन्तर्गत एक ही प्रकार की फसल को बार-बार एक ही खेत में उगाने से बचा जाता है। इस प्रकार फसलों के हेर फेर से रोगाणुओं की जनसंख्या नियंत्रित रहती है परिणामस्वरूप रोग लगने की संभावना कम रहती है।
संपोषित कृषि में खरपतवारों के नियन्त्रण हेतु एकीकृत खरपतवार प्रबन्धन का उपयोग होता है जिसमें यान्त्रिक, कर्षण एवं जैविक विधियों के इस्तेमाल से खरपतवारों पर नियन्त्रण पाया जाता है। अगर आवश्यक हुआ तो खरपतवारनाशकों का न्यूनतम इस्तेमाल भी खरपतवार नियन्त्रण के लिए होता है। यान्त्रिक विधि में खरपतवारों को हाथ से अथवा कृषि औजारों जैसे खुर्पी आदि के इस्तेमाल से जड़ से नष्ट कर दिया जाता है। जबकि कर्षण विधि में खरपतवार नियन्त्रण के लिए बुआई वाले बीज के साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता है जिससे खरपतवार के बीज फसल के बीज के साथ खेत में न पहुँच सके। इसके अतिरिक्त इस विधि में खरपतवार का नियन्त्रण फसल चक्र क्रियायों को अपनाकर भी किया जाता है। जैविक विधि में खरपतवारों का नियंत्रण उनके प्राकृतिक शत्रुओं जैसे कीटों एवं रोगाणुओं के प्रयोग से किया जाता है।
निष्कर्ष:
रासायनिक उर्वरकों एवं नाशिजीवनाशकों पर आधारित पारम्परिक कृषि की तुलना में संपोषित कृषि के अनेक लाभ हैं। इस प्रकार की कृषि से न केवल भूमि, जल, जैव-विविधता एवं पर्यावरण को संरक्षण मिलता है बल्कि खाद्यान्नो की उच्च पोषण गुणवत्ता भी बनी रहती है। साथ ही खाद्यान्न नाशिजीवनाशकों के अवशेषों से मुक्त होते हैं। संपोषित कृषि, पारिस्थितिक संतुलन को बनाये रखने में भी सहायक होती है।
चूँकि संपोषित कृषि में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग अल्प मात्रा में होता है (अथवा नही भी होता है) इसलिए इस प्रकार की कृषि में कम लागत आती है जो भारत जैसे विकासशील देश के लिए लाभकारी है क्योंकि देश के ज्यादातर किसान छोटी पूँजी वाले एवं गरीब हैं जिनके लिए पारम्परिक कृषि को वहन करना अब महंगा सौदा साबित हो रहा है और यही इनके आर्थिक पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण भी बनता जा रहा है।
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लेखक परिचय:


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