शीतनिष्क्रियता क्या है और यह किन-किन जीवों में पाई जाती है, इस सम्बंध में जानकारी देता एक सम्पूर्ण आलेख।
शीतनिष्क्रियता कुछ जीवों में देखी जाने वाली ऐसी ही विशेष अवस्था है जिसमें जीव सामान्य निद्रा से अलग ऐसी अवस्था में होता है जिसमें उसके शरीर की आवश्यक क्रियाओं जैसे चपापचयी दर, श्वसन दर और दिल की धड़कनों की गति कम हो जाती है। शीतनिष्क्रियता की अवस्था कुछ समय से लेकर कुछ हफ्तों तक हो सकती है। शीतनिष्क्रियता को अंग्रेजी में हायबरनेशन कहा जाता है। इस अवस्था में जीव विषम मौसम में अपने को सुरक्षित रखते हैं।
ठंड से बचने की अनोखी जुगाड़-शीतनिष्क्रियता
-नवनीत कुमार गुप्ता
पृथ्वी पर जीवन विभिन्न रूपों में फैला हुआ है। जीवन के ये विभिन्न रूप एक लंबे समय अंतराल में विकसित हुए हैं। हालांकि साढ़े चार अरब वर्ष पहले जब पृथ्वी का इतिहास आरंभ हुआ था, तब पृथ्वी पर जीवन के लिए अनुकूल पर्यावरण उपस्थित नहीं था। धीरे-धीरे प्रकृति पृथ्वी को विभिन्न रूपों में सजाती गई और फिर पर्यावरण और जलवायु के अनुरूप जीवन भी अपने को ढालता गया। प्रकृति ने इस धरती पर सभी जीवों को जीवन-यापन की सुविधाएं और विशेषताएं प्रदान की हैं ताकि धरती पर जीवन विविध रूपों में मुस्कुराता रहे।
इस दौरान विभिन्न वनस्पतियां एवं जीव-जंतु जलवायु और वातावरण में हो रहे परिवर्तन के अनुसार अपने में भी बदलाव करते रहे। जैसे हमेशा से बर्फ से ढके टुंड्रा क्षेत्रों में रहने वाले उल्लू ने समय के साथ-साथ अपना आवरण ज्यादा मोटा और सफेद कर लिया, जो उसे गर्म भी रखता और शिकारियों से सुरक्षा भी प्रदान करता। इसी तरह भेड़ियों का आवास गर्म होने लगा, तो उन्होंने अपने शरीर पर मौजूद मोटे, गर्म फर यानी मुलायम बाली की परत को त्याग दिया और पीढ़ी दर पीढ़ी से आए इस बदलाव का फायदा यह हुआ कि वह अपने को गर्म होती धरती के अनुरूप ढाल पाए जिसके परिणामस्वरूप उनका शरीर ज्यादा तपने से बच गया। बारहसिंगा जंगल से निकलकर जब घास के मैदानों में आया, तो उसे मिले लम्बे पैर और उसमें तेज भागने की क्षमता विकसित हुई जिससे इन खुले क्षेत्रों में रहने के खतरों से वह अपने को बचा पाया।
प्रकृति ने बदलते युग के साथ अधिकतर जीव-जंतुओं, वनस्पतियों आदि को बदलने की क्षमता दी है, जिनमें यह क्षमता नहीं वह हमेशा के लिए विलुप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार कुछ जीव प्रजातियां अपने वातावरण के अनुसार अपने को ढालती हैं तो कुछ विशेष क्रियाओं या अवस्थाओं के द्वारा अपने को विषम वातावरण से बचाए रखती हैं। शीतनिष्क्रियता कुछ जीवों में देखी जाने वाली ऐसी ही विशेष अवस्था है जिसमें जीव सामान्य निद्रा से अलग ऐसी अवस्था में होता है, जिसमें उसके शरीर की आवश्यक क्रियाओं जैसे चपापचयी दर, श्वसन दर और दिल की धड़कनों की गति कम हो जाती है। शीतनिष्क्रियता की अवस्था कुछ समय से लेकर कुछ हफ्तों तक हो सकती है। शीतनिष्क्रियता को अंग्रेजी में हायबरनेशन (Hibernation) कहा जाता है। इस अवस्था में जीव विषम मौसम में अपने को सुरक्षित रखते हैं।
शीतनिष्क्रियता अवस्था में जीव-जंतु एक निष्क्रिय अवस्था में होते हैं जिन्हें अपने आसपास के वातावरण में हुए छोटे-मोटे बदलावों का ध्यान नहीं होता। हालांकि भालू जैसे जीव इस अवस्था में भी अपने वातावरण में होने वाले बदलावों के प्रति सचेत रहते हैं। गिलहरी, कछुए, चमगादड़, बिवर और सर्प शीतकाल में शीतनिष्क्रियता अवस्था में रहते हैं। शीतनिष्क्रियता अवस्था में जाने से पहले ये जीव सामान्य से अधिक भोजन करते हैं। यह अतिरिक्त भोजन चर्बी बन कर शीतनिष्क्रियता की अवस्था के दौरान इन जीवों को ऊर्जा प्रदान करता है ताकि इनकी आवश्यक शारीरिक गतिविधियां चलती रहें।
इस दौरान इनकी आंतरिक शारीरिक क्रियाएं धीरे-धीरे चलती रहती हैं। इस अवस्था में जीव अपने शरीर को ढीला छोड़ देते हैं ठीक श्वासन की तरह। शीतनिष्क्रियता के दौरान इन जीवों की चर्बी कम हो जाती है। जिससे शीतनिष्क्रियता से वापस लौटने पर ये जीव काफी कमजोर हो जाते हैं। कुछ जीव तो इस अवस्था के खत्म होने पर कमजोरी के कारण चल-फिर भी नहीं पाते हैं।
वैसे प्रकृति ने शीतनिष्क्रियता के द्वारा उन जीवों में अपना अस्तित्व बनाए रखने की क्षमता प्रदान की है जो अधिक ठंड सहन नहीं कर पाते। शीतनिष्क्रियता में जाने वाले जीवों को ठंड के मौसम में पर्याप्त आहार भी उपलब्ध नहीं हो पाता है इस प्रकार शीतनिष्क्रियता में जाने पर उन्हें भोजन की चिंता भी नहीं रहती है। जैसे चमगादड़ और कुछ सरीसृप जीव जो कीट-पतंगों और छोटे कीड़ों पर निर्भर रहते हैं उन्हें अधिक ठंडे मौसम में कीट-पतंगों की कमी के कारण पर्याप्त खुराक नहीं मिल पाती। इसलिए प्रकृति ने इन जीवों में शीतनिष्क्रियता की क्षमता विकसित कर उन्हें जीवन यापन करने के लिए विशेष सुरक्षा कवच प्रदान उपलब्ध कराया है।
गिलहरी जैसे कुछ जीव शीतनिष्क्रियता के दौरान बेसुध पड़े रहते हैं और हिलाने-डुलाने पर एकाएक बेचैनी से उठ जाते हैं जिनसे इनकी जान भी जा सकती है। इसलिए शीतनिष्क्रियता में पड़े ऐसे जीवों को अचानक से नहीं जगाना चाहिए। वैसे सामान्य तौर पर गिलहरी के दिल के धड़कने की दर 150 प्रति मिनट रहती है। लेकिन शीतनिष्क्रियता के दौरान यह दर घटकर प्रति मिनट 4 से 5 हो जाती है। इसी प्रकार इसकी श्वसन दर भी प्रति मिनट 200 होती है जो शीतनिष्क्रियता के दौरान प्रति मिनट 5 होती है।
वैसे हम छिपकली की इस अवस्था की तुलना किसी योगी से कर सकते हैं जो सांसों पर नियंत्रण कर सकता है। गिलहरी इस अवस्था में बहुत कम तापमान पर भी जिंदा रह पाती है। इस अवस्था में गिलहरी शून्य डिग्री सेल्सियस से लगभग तीन डिग्री नीचे (-3) के तापमान पर भी जीवित पाई गई है हालांकि इस दौरान भी गिलहरी के सिर और गले का तापमान शुन्य डिग्री या इससे अधिक ही रहता है।
शीतनिष्क्रियता के दौरान भालू के दिल की धड़कन सामान्य अवस्था की तुलना में बहुत कम हो जाती है। सामान्य अवस्था में भालू का दिल प्रति मिनट में 40 से 50 बार धड़कता है लेकिन शीतनिष्क्रियता की अवस्था में उसके दिल की धड़कन प्रति मिनट 8-10 हो जाती है। शीतनिष्क्रियता के दौरान भालू जैसे जीव किसी मांद में बच्चे भी जनते देखे गए हैं। जो वसंत ऋतु में बाहर आ जाते हैं। वैसे शीतनिष्क्रियता में सो रहे भालू को जगाना भी खतरे से खाली नहीं होता है वह अचानक जाग कर हमला कर सकता है।
सर्प शीतनिष्क्रियता के दौरान किसी पुराने टीले या कुओं में सोए रहते हैं। कई बार अनेक सांपों को एक साथ सोए हुए पाया जाता है। सांप ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उन्हें एक-दूसरे के शरीर की गर्मी मिलती रहे। बीवर जो जल में अपना बसेरा बनाने वाला अनोखा इंजीनियर भी है वह भी शीतनिष्क्रियता के दौरान अपने बसेरे में आराम फरमा रहा होता है। गोल्डफिश और वुड फोड जैसे कुछ जीव शीतनिष्क्रियता के दौरान लंबे समय तक शुष्क मौसम और अधिक तापमान में भी जीवित रहते हैं। ये जीव इस अवस्था में बिना ऑक्सीजन के भी लंबे समय तक जीवित पाए जाते हैं।
शोर के कारण या अन्य किसी ऐसे माध्यम से शीतनिष्क्रियता में सोए जीव का अचानक से जग जाना उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता है। कभी-कभार तो अचानक से जगने पर इन जीवों की मौत भी हो सकती है। इसलिए हमें भूल से भी शीतनिष्क्रियता में सोए जीवों को अचानक से नहीं जगाना चाहिए। इसी प्रकार शीतनिष्क्रियता से जागने पर यदि इन्हें भोजन नहीं मिल पाता है तो भी इनकी जान तो खतरा होता है। इसलिए हमें यह बात ध्यान रखनी है कि कभी भी शीतनिष्क्रियता में सोए जीव को परेशान न करें।
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नवनीत कुमार गुप्ता पिछले दस वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन आदि जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पर्यावरण संरक्षण जागरूकता के लिए प्रयासरत हैं। आपकी विज्ञान संचार विषयक लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा इन पर गृह मंत्रालय के ‘राजीव गांधी ज्ञान विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार' सहित अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आप विज्ञान संचार के क्षेत्र में कार्यरत संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ से सम्बंद्ध हैं। आपसे मेल आईडी ngupta@vigyanprasar.gov.in पर संपर्क किया जा सकता है।
Navneet Ji, aapke lekh wakai rochak hote hai. Dhanyavad.
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