गिद्धों की विलुप्ति के कारण और उनका संरक्षण

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गिद्धों की विलुप्ति के कारण और गिद्ध संरक्षण।

भारत में गिद्धों की गिरती जनसंख्या का प्रमुख कारण डाईक्लोफिनेक नामक रसायन है जो एक आम दर्दनाशक के रूप में प्रयोग होता है। यह रसायन सभी प्रकार के दर्दनाशक जेल, मलहम एवं स्प्रे का प्रमुख घटक होता है। दर्दनाशक डाईक्लोफिनेक मवेशियों में भी समान रूप से प्रभावी होता है। मवेशियों के लिए बड़े पैमाने पर दर्दनाशक के रूप में डाईक्लोफिनेक का उपयोग भारत में गिद्धों की गिरती जनसंख्या का एक प्रमुख कारण है।
भारत में तेजी से विलुप्त होते प्राकृतिक सफाईकर्मी गिद्ध
-डॉ. अरविन्द सिंह

गिद्ध (Vulture) पर्यावरण के प्राकृतिक सफाईकर्मी पक्षी होते हैं जो विशाल जीवों के शवों का भक्षण कर पर्यावरण को साथ-सुथरा रखने का कार्य करते हैं। भारत में पारसी समुदाय पारम्परिक रूप से शवों के निपटारे हेतु गिद्धों पर ही निर्भर रहता है। इस प्रकार गिद्ध सदियों से पारसी समुदाय के लिए पारिस्थितिक सेवा प्रदान कर रहे हैं। गिद्ध 7000 फीट की उँचाई तक उड़ सकते हैं और एक बार में 100 कि.मी. से भी ज्यादा की दूरी तय कर सकते हैं।

दुर्भाग्यवश आज भारत में गिद्धों की जनसंख्या बहुत तेजी से गिर रही है। 1990 में देश में गिद्धों की कुल संख्या लगभग 4 करोड़ थी जो से आज घटकर 60 हजार से भी कम हो गई है। भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य से गिद्ध पूर्णतः विलुप्त हो चुके हैं। 1980 के मध्य तक देश में पर्याप्त संख्या में गिद्ध पाये जाते थे। यहाँ तक कि इन्हें शहरी क्षेत्रों में ऊँचे वृक्षों के आसपास मंडराते हुए आमतौर से देखा जाता था। जबकि आज गिद्ध ग्रामीण क्षेत्रों में भी बमुश्किल ही दिखाई देते हैं।

गिद्ध पर्यावरण के प्राकृतिक सफाईकर्मी होते हैं। वे पशुओं के मृत शरीर का भक्षण कर पोषक चक्र की प्रक्रिया को गति प्रदान करते हैं। गिद्ध मृत शरीर का निपटारा कर संक्रामक बिमारियों के फैलाव को रोकते हैं। गिद्धों की अनुपस्थिति में आवारा कुत्तों की जनसंख्या में वृद्धि होती है परिणामस्वरूप रैबीज रोग का फैलाव होता है।
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भारत में गिद्धों की कुल नौ प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें से ज्यादातर प्रजातियाँ जोखिमग्रस्त हैं। इनका औसत वजन 3.5-7.5 किलोग्राम होता है और लम्बाई 75-93 से.मी. के बीच होती है। देश में गिद्धों की जो नौ प्रजातियाँ पायी जाती हैं उनके नाम इस प्रकार हैं
-श्याम गिद्ध (Aegypius Monachus - एजिपियस मोनैकस),
अरगुल गिद्ध (Gypaetus Barbatus - जिपिटस बारबेटस),
यूरेशियन पांडुर गिद्ध (Gyps Fulvus - जिप्स फलवस),
सफेद पीठ गिद्ध (Gyps Bengalensis - जिप्स बेंगालेनसिस),
दीर्घचुंच गिद्ध (Gyps Indicus - जिप्स इण्डिकस),
बेलनाचुंच गिद्ध (Gyps Tenuirostris - जिप्स टेन्यूरास्ट्रीस),
पांडुर गिद्ध (Gyps Himalayensis - जिप्स हिमालयेन्सिस),
गोपर गिद्ध (Neophron Percnopterus - नियोफ्रान पर्कनाप्टेरस) एवं
राज गिद्ध (Sarcogyps Calvus - सारकोजिप्स कालवस)।

कुल नौ प्रजातियों में से दीर्घचुंच गिद्ध (जिप्स इण्डिकस), सफेद पीठ गिद्ध (जिप्स बेंगालेनसिस), बेलनाचुंच गिद्ध (जिप्स टेन्यूरास्ट्रीस) तथा राज गिद्ध (सारकोजिप्स कालवस) गंभीर लुप्तप्राय प्रजाति के अन्तर्गत आती हैं जबकि गोपर गिद्ध (नियोफ्रान पर्कनाप्टेरस) लुप्तप्राय प्रजाति के अन्तर्गत आती है। श्याम गिद्ध (एजिपियस मोनैकस) की प्रजाति लगभग जोखिमग्रस्त प्रजाति के अन्तर्गत आती है।

गिद्धों की विलुप्ति के कारण:-
भारत में गिद्धों की गिरती जनसंख्या का प्रमुख कारण डाईक्लोफिनेक (Diclofenac) नामक रसायन है जो एक आम दर्दनाशक के रूप में प्रयोग होता है। यह रसायन सभी प्रकार के दर्दनाशक जेल, मलहम एवं स्प्रे का प्रमुख घटक होता है। दर्दनाशक डाईक्लोफिनेक मवेशियों में भी समान रूप से प्रभावी होता है। मवेशियों के लिए बड़े पैमाने पर दर्दनाशक के रूप में डाईक्लोफिनेक का उपयोग भारत में गिद्धों की गिरती जनसंख्या का एक प्रमुख कारण है। चूंकि गुर्दे इस रसायन को बाहर करने में काफी वक्त लेते हैं इसलिए मवेशियों के मृत्यु के पश्चात भी डाईक्लोफिनेक रसायन उनके शरीर में उपस्थित रहता है। गिद्ध सफाईकर्मी पक्षी होने के कारण मवेशियों के मृत शरीर का भक्षण करते हैं। इस प्रकार डाईक्लोफिनेक रसायन उनके शरीर में पहुँच जाता है जहाँ यह गुर्दो को प्रभावित करता है जिससे गुर्दे काम करना बन्द कर देते हैं परिणामस्वरूप गिद्धों की मौत हो जाती है।

कीटनाशक डी.डी.टी. (Die cloro die fenile tri chloro ethane) का उपयोग आवास विनाश, शहरीकरण, प्रजनन की धीमी दर, शवों की कमी, जहरीले शवों का भक्षण और कानूनी संरक्षण का अभाव गिद्धों की गिरती जनसंख्या के अन्य कारण हैं।

डी.डी.टी. जिसका प्रयोग कृषि में कीटनाशक के रूप में होता है एक अत्यन्त ही टिकाऊ रसायन होता है। पर्यावरण में जल्दी इसका विघटन नहीं होता है जिससे यह खाद्य श्रृंखला के माध्यम से गिद्धों में पहुँच कर इस्ट्रोजेन (Estrogen) नामक हार्मोन के गतिविधि को प्रभावित करता है जिसके परिणामस्वरूप अण्डे की खोल कमजोर हो जाती है और अण्डा समय से पहले ही फूट जाता है जिसके फलस्वरूप भ्रूण की मृत्यु हो जाती है।
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बहुधा किसान लोग मवेशियों का शिकार करने वाले परभक्षियों को मारने हेतु जहरीले शवों का उपयोग चारे के रूप में करते हैं। ऐसे जहरीले शवों का दुर्घटनावश भक्षण करने से गिद्धों की मौत हो जाती है। दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के अन्नामलाई जिले में किसानों द्वारा जहरीले शवों को चारे के रूप में उपयोग ने गिद्धों का पूर्णतः सफाया कर दिया है।

शिकारी लोग जहर का प्रयोग आमतौर से हाथी, बाघ, हिरन, भालू आदि का शिकार के लिए करते हैं जिनसे उन्हें खाल, दांत, कस्तूरी, सींघ, पित्त आदि जैसी व्यापार वाली वस्तुओं की प्राप्ति होती है। जहर के प्रयोग से मारे गये जंगली जानवरों के शवों के भक्षण से गिद्धों की मौत हो जाती है। भारत में गिद्धों की विलुप्ति के पीछे यह भी एक कारण है।

गिद्धों में धीमी प्रजनन दर भी उनकी जनसंख्या गिरावट का एक कारण है। गिद्ध आमतौर से एक वर्ष में एक ही अण्डा देते हैं।

भारत में पाये जाने वाली गिद्धों की कुल नौ प्रजातियों में से केवल अरगुल गिद्ध (जिप्टस बारबेटस) को ही कानूनी संरक्षण प्राप्त है। इस प्रकार कानूनी संरक्षण का अभाव भी गिद्धों की बड़े पैमाने पर मौत का कारण है।

गिद्धों की विलुप्ति के दुष्प्रभाव:-
पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण गिद्धों की विलुप्ति चिन्ता का विषय है। गिद्धों की कम जनसंख्या वाले स्थानों पर आवारा कुत्तों की जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। कुत्तों की बढ़ती जनसंख्या के कारण रैबीज बीमारी से होने वाली मृत्यु का खतरा भी बढ़ा है। गिद्धों के पाचन तन्त्र में उन रोगाणुओं को नष्ट करने की क्षमता होती है जो मनुष्यों में खतरनाक संक्रामक बीमारी पैदा करते हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में तेंदुओं द्वारा मानव बस्तियों पर बढ़ते आक्रमण की घटनाओं के पीछे गिद्धों की घटती जनसंख्या है। कुत्तों की बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरूप उनका भक्षण करने वाले तेन्दुओं की जनसंख्या में भी वृद्धि हुई है। ऐसे स्थानों पर तेंदुए कुत्तों के शिकार के लिए मानव बस्तियों पर धावा बोलते हैं और बहुधा मानव बच्चों को अपना शिकार बना लेते हैं।

भारत में पारसी समुदाय दो समस्याओं से जुझ रहा है। एक उनकी खुद की तेजी से घटती जनसंख्या और दूसरी गिद्धों की गिरती जनसंख्या जिनकी पारसियों के मृत शरीर के निपटाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पारसी समुदाय के लिए भूमि, जल एवं अग्नि पवित्र तत्व हैं इसलिए इनमें से किसी का भी उपयोग अन्तेष्ठी क्रिया हेतु नहीं किया जाता है।

पारसी संस्कृति में शवों को घिरे हुए ऊँचे स्थान पर रख दिया जाता है। ऐसे स्थान को ‘ढ़कमा’ (Tower of Silence) के नाम से जाना जाता है जहाँ शवों का निपटारा गिद्धों द्वारा किया जाता है। चूंकि आज गिद्धों की जनसंख्या गंभीर स्तर तक घट गई है, इसलिए पारसी समुदाय इस परम्परागत क्रिया को त्यागने के लिए मजबूर है। विकल्प के तौर पर पारसी समुदाय सौर ऊर्जा का उपयोग शव को जलाने हेतु कर रहा है।

गिद्धों का संरक्षण:-
भारत सरकार ने गिद्धों की गिरती जनसंख्या को देखते हुए डाईक्लोफिनेक (Diclofenac) दवा के इस्तेमाल पर 2006 में ही रोक लगा दिया था और विकल्प के तौर पर मेलोक्सिकेम (Meloxicam) के प्रयोग की सिफारिश की थी, लेकिन आज भी डाईक्लोफिनेक गैर-कानूनी तरीके से बाजार में बेची जा रही है और मवेशी किसान इसका उपयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं। डाईक्लोफिनेक का विकल्प मेलोक्सिकेम मंहगी होने के साथ-साथ कम प्रभावशाली होती है। गिद्धों की निरन्तर घटती आबादी गंभीर चिन्ता का विषय है अतः इन सफाईकर्मी पक्षियों के संरक्षण हेतु तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। देश में गिद्धों के संरक्षण हेतु निम्नलिखित रणनीतियों को अपनाये जाने की आवश्यकता है।
डाईक्लोफिनेक के प्रभावी विकल्प को विकसित करने के साथ ही वर्तमान विकल्प मेलोक्सिकेम की कीमत कम किए जाने की आवश्यकता है।
देश में जोखिमग्रस्त गिद्ध की प्रजातियों की कैद में प्रजनन के लिए कार्यक्रम को चालू करने की आवश्यकता है।
गिद्धों की लगभग जोखिमग्रस्त एवं कम चिन्ता वाली प्रजातियों के संरक्षण के लिए सभी संभव प्रयास की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, गिद्धों की उन आठ प्रजातियों को कानून के तहत संरक्षित किये जाने की आवश्यकता है जिन्हें कानून के तहत संरक्षण प्राप्त नहीं है।
पारसी समुदाय के कब्रिस्तानों के समीप गिद्ध अभ्यारण स्थापित करने की आवश्यकता है, ताकि शवों का निपटारा हो सके। ऐसा करने से पर्याप्त भोजन की उपलब्धता के कारण गिद्धों की जनसंख्या में भी बढ़ोत्तरी होगी।
गिद्धों के विघटित आवासों के पुनरूद्धार की आवश्यकता है।
डी.डी.टी. जैसे हानिकारक कीटनाशक के उपयोग पर प्रभावी रोक लगाने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:-
पर्यावरण के सफाईकर्मी पक्षी गिद्धों की निरन्तर घटती जनसंख्या गंभीर चिन्ता का विषय है क्योंकि गिद्धों की विलुप्ति से न सिर्फ पारिस्थितिक असंतुलन का खतरा पैदा होगा अपितु रैबीज समेत अनेक प्रकार की संक्रामक बिमारियों का प्रकोप भी बढ़ेगा। अतः गिद्धों का संरक्षण समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

लेखक परिचय:

डॉ. अरविंद सिंह वनस्पति विज्ञान विषय से एम.एस-सी. और पी-एच.डी. हैं। आपकी विशेषज्ञता का क्षेत्र पारिस्थितिक विज्ञान है। आप एक समर्पित शोधकर्ता हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिकाओं में अब तक आपके 4 दर्जन से अध‍िक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। खनन गतिविधियों से प्रभावित भूमि का पुनरूत्थान आपके शोध का प्रमुख विषय है। इसके अतिरिक्त आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मुख्य परिसर की वनस्पतियों पर भी अनुसंधान किया है। आपके अंग्रेज़ी में लिखे विज्ञान विषयक आलेख TechGape.Com पर पढ़े जा सकते हैं। आपसे निम्न ईमेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है-
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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी1/14/2015 5:47 pm

    Bharat mein Giddho ki durdasha ko darshata suder alekh. Dr. Arvind Singh ko badhai. Giddha Parsi samuday ko shava niptare ke jariye hamesha se paristhitik sevayein pradaan karte rahein hain. Lekin vidambana ye hai ki Giddho ke saath saath Parsi samuday bhi bilupti ke sankat se jujh raha hai jiski Bharat ke nirmaan mei mahatwapurna bhumika rahi hai.

    जवाब देंहटाएं
वैज्ञानिक चेतना को समर्पित इस यज्ञ में आपकी आहुति (टिप्पणी) के लिए अग्रिम धन्यवाद। आशा है आपका यह स्नेहभाव सदैव बना रहेगा।

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Scientific World: गिद्धों की विलुप्ति के कारण और उनका संरक्षण
गिद्धों की विलुप्ति के कारण और उनका संरक्षण
गिद्धों की विलुप्ति के कारण और गिद्ध संरक्षण।
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