आधुनिक वैज्ञानिक यह मानते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति बिग-बैंग से हुई है। महाविस्फोट सिद्धांत (The Bing Bang Theory) के अनुसार लगभग 14 अरब...
आधुनिक वैज्ञानिक यह मानते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति बिग-बैंग से हुई है। महाविस्फोट सिद्धांत (The Bing Bang Theory) के अनुसार लगभग 14 अरब वर्ष पूर्व एक विचित्रबिंदु (सिंगुलैरिटी) के महाविस्फोट से अंतरिक्ष, ऊर्जा, मूलकण और हिग्स-बोसोन जैसे कणों की उत्पत्ति के साथ ब्रह्मांड का सृजन हुआ, जो आज तक फैल रहा है। लेकिन इसके विपरीत कुछ आलोचक हैं जो बराबर यह बात उठाते रहे हैं कि वैज्ञानिक पहले सिर्फ ये बताएं कि वो विचित्रबिंदु, जिसमें महाविस्फोट हुआ था, वह कहां से आया था और बिना अंतरिक्ष के वह कहां रहा था?
इन्हीं आलोचकों में शामिल हैं फिरोजाबाद, उ.प्र. निवासी के.पी.सिंह, जिन्होंने अपनी पुस्तक 'ब्रह्मांड: एक अंतिम खोज' में 'निर्वात सिद्धांत' के आधार पर उक्त गुत्थी को सुलझाने का दावा किया है। श्री सिंह का यह लेख निश्चय ही अनेक रोचक एवं महत्वपूर्ण सिद्धांतों की बात करता है, जिनपर परिचर्चा की जा सकती है। क्या ये विचार बिन्दु वास्तव में किसी ठोस धरातल को प्रदान करते हैं या फिर Pseudoscience का ही एक रूप मात्र हैं? इसी उद्देश्य से श्री सिंह का यह लेख यहां पर अविकल रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है:
इन्हीं आलोचकों में शामिल हैं फिरोजाबाद, उ.प्र. निवासी के.पी.सिंह, जिन्होंने अपनी पुस्तक 'ब्रह्मांड: एक अंतिम खोज' में 'निर्वात सिद्धांत' के आधार पर उक्त गुत्थी को सुलझाने का दावा किया है। श्री सिंह का यह लेख निश्चय ही अनेक रोचक एवं महत्वपूर्ण सिद्धांतों की बात करता है, जिनपर परिचर्चा की जा सकती है। क्या ये विचार बिन्दु वास्तव में किसी ठोस धरातल को प्रदान करते हैं या फिर Pseudoscience का ही एक रूप मात्र हैं? इसी उद्देश्य से श्री सिंह का यह लेख यहां पर अविकल रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है:
शून्य, ब्रह्म, ईश्वर, परमात्मा, भगवान और सृष्टि का वैज्ञानिक आधार क्या है?
लेखक के. पी. सिंह
ईश्वर क्या है और सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई? इन्हें जानने की जिज्ञासा हमारे अंदर आज भी बनी हुई है। इसके लिए हमें ब्रह्म, शून्य, परमात्मा-आत्मा और निर्गुण-सगुण आदि शब्दों का वास्तविक प्रयोजन जानना होगा कि इनको किस सैद्धांतिक लक्ष्य के लिए प्रयोग किया गया था। इनके संबंध में भारतीय दर्शन को गंभीरता से समझने पर ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिक सृष्टि के उस आधारभूत कारण की खोज में थे, जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हुई, और उसी से ईश्वर का रहस्य भी खुलता है। क्योंकि सृष्टि को समझकर ही ईश्वर को समझा जा सकता है। यदि हम भारतीय दर्शन को आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझें तो यह प्रमाणित हो जाएगा है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने हजारों साल पहले ही सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्य का अंतिम सैद्धांतिक कारण जान लिया था, जैसे-
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ऋग्वेद सूक्त 10.129 में, सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में कई ऋषियों के परस्पर विचार इस प्रकार मिलते हैं- (एक ऋषि के अनुसार)-‘‘उस समय न सत् (अस्तित्व) था, न असत् (अनस्तित्व) था। न दिन था, न रात, सिर्फ अंधकार था। न कोई ढकने वाला आवरण था, केवल अनंत रिक्तता (शून्यता) थी। वहां वह एकाकी स्वावलंबी शक्ति से श्वसित था। इसके ऊपर अन्य कोई शक्ति नही थी। उस शक्ति में सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा हुई, जो सृष्टि के प्रांरभ का बीज बनी।। ऋषियों ने अपनी बुद्धि से इस प्रकार का विचार किया और असत् में सत् के कारण को जाना। (अन्य ऋषि...)- निश्चित रूप से कौन जानता है? किसने बताया है? कि उद्भव किससे हुआ है? सृष्टि कहां से हुई? देवता भी सृष्टि के बाद के हैं।। (एक अन्य ऋषि...)- तब वह मूलस्रोत जिससे यह विश्व उत्पन्न हुआ, वह क्या रचा गया? या वह न रचा गया? परम आकाश में जो नियामक है, सर्वदर्शी है, वह जानता होगा, न भी जानता होगा।।’’
ऋग्वेद के सूक्त की यह एकाकी स्वावलंबी शक्ति, निर्वात सिद्धांत के अनुसार और कुछ नही बल्कि ‘ब्रह्मांडीय निर्वात’ है, जो ‘कुछ नही’ (रिक्तता) के कारण स्वतः शाश्वत है और निर्वात, गति के सिवाय और कुछ नही, जो स्वयं को भरने की कोशिश करता, लेकिन भरा नही जा सकता, इसलिए यह सदैव गतिशील रहता है। निर्वात जितना प्रबल होगा, वह उतनी ही तीव्र आंतरिक गति में होगा। लेकिन ब्रह्मांडीय निर्वात अनंत है इसीलिए वह परम गति का केन्द्र है, जिसकी केन्द्रहीन आंतरिक गति के घर्षण से उसमें लगातार मूल ऊर्जा पैदा होती है, जिसके संपीडन से साकार ब्रह्मांड (पदार्थ) का सृजन हुआ। इसलिए निर्वातीय ब्रह्मांड स्वचालित है जिसे गति के लिए किसी सहारे की जरूरत नही बल्कि उसका अनंत निर्वात ही उसकी परम गति है। इसके अतिरिक्त उसमें और कुछ नही, न उससे कोई ऊपर है, न उसमें कुछ बाहर से आ सकता है, न उसमें पहले से कुछ भौतिक अस्तित्व हो सकता है। अतः ब्रह्मांड उत्पत्ति की खोज में इससे परे जाने की जरूरत नही, सब कुछ उसी में है और सब उसी से संभव है। (निर्वात सिद्धांत का विस्तार अध्ययन ‘ब्रह्मांडः एक अंतिम खोज’ पुस्तक में दिया गया है)
अब सूक्त की निर्वात सिद्धांत से तुलना करने पर, जहां- एक ऋषि इस बात पर सुनिश्चित है कि परम निर्वात गति (एकाकी स्वावलंबी शक्ति) जिससे ऊर्जा उत्पन्न (श्वसित) हो रही थी, वही ऊर्जा निर्वात गति में संपीडित होकर साकार पदार्थ (प्रारंभिक सृष्टि) का बीज बनी। लेकिन दूसरा ऋषि असमंजस में था कि इस शक्ति से ऐसा क्या कुछ उत्पन्न हो सकता है... जो प्रारंभिक सृष्टि का बीज बने। शायद व्यवहारिक विज्ञान के अभाव में यह ऋषि इस बात से अनजान था कि ऊर्जा, गति से ही पैदा होती है और ऊर्जा से ही पदार्थ बनता है, क्योंकि आइंस्टीन के अनुसार भी पदार्थ ऊर्जा का ही रूप है। जबकि अन्य ऋषि की बात का अर्थ है कि, क्या यह सृष्टि उस मूलस्रोत (ऊर्जा) से योजनाबद्ध तरीके से बनाई गई या यह अनुकूल स्थिति में अपने आप रची। इसके बारे में वह परम आकाश जो इस सबका संविधान है, सर्वदर्शी है, शायद! वही इसे अपने तरीके से जानता होगा या न जानता होगा, ये उसी पर निर्भर है।
अतः सृष्टि के संबंध में ऋग्वेदिक ऋषियों ने ऐसी कोई कल्पना नही की जिसपर प्रश्नचिन्ह उठे बल्कि उन्होंने एकाकी स्वावलंबी शक्ति के बारे में सही सोचा, जो इतना प्रमाणिक तथ्य है, जिसे गलत सिद्ध नही किया जा सकता। आगे चलकर इसी सूक्त की एकाकी स्वावलंबी शक्ति ने उपनिषदकारों को भी प्रभावित किया, जिसे उन्होंने ‘ब्रह्म’ कहा। क्योंकि, जब उपनिषदकार याज्ञवल्क्य से पूछा गया कि ब्रह्म क्या है? तो उन्होंने कहा- नेति! नेति! अर्थात् ‘नही-नही’ यानि जो ‘कुछ नही’, वही ब्रह्म है। इसलिए आदि शंकाराचार्य ने भी कहा है- ब्रह्म सभी में है और सभी ब्रह्म में हैं।
गौतम बुद्ध और बौद्ध आचार्य नागार्जुन ने इसी परमसत्ता को शून्य कहा, तो अन्य दार्शनिकों ने इसे परमात्मा कहा। अर्थात् जो अपने आप में परम आत्म है वही परमात्मा (निर्वात) है, और इससे उत्पन्न आत्म ‘आत्मा’ (ऊर्जा) है, जिससे ‘भूत’ (शरीर, पदार्थ) निर्मित हैं। क्योंकि सीधे तौर पर कोई पदार्थ पैदा हो नही सकता, इसलिए उस परमात्मा के आत्म में जो उससे उत्पन्न है उसे ही आत्मा (ऊर्जा) कहा गया। इसलिए गीता में कहा है- आत्मा को न मारा जा सकता है, न काटा जा सकता बल्कि ये एक शरीर से दूसरे शरीर में रूपांतरित होती है। और विज्ञान भी यही कहता है कि ऊर्जा नष्ट नही होती बल्कि रूपांतरित होती है। जब भी पदार्थ (शरीर) का क्षय होता है तब ऊर्जा (आत्मा) निर्वात (परमात्मा) में विलीन हो जाती है, जिसे आध्यात्म में आत्मा का परमात्मा से मिलन कहा जाता है। गीता में भगवान कृष्ण ने अपने को ‘मैं’ बताते हुए कहा है- मैं सभी में हूं और सभी मुझमें है। उनका तात्पर्य निर्वात से ही है जो सभी में है और सभी उसी में हैं।
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भारतीय खगोलज्ञ् आर्यभट (चौथी सदी) जिन्होंने सर्वप्रथम खगोलीय वैज्ञानिक पद्धति को खोजा, ने भी ब्रह्म को ही ब्रह्मांड का सैद्धांतिक सृजनकर्ता मानते हुए अपने ‘आर्यभटीय’ ग्रंथ के ‘दशगीतिका’ के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा है-
‘‘जो ब्रह्म कारण रूप से एक होते हुए भी कार्य रूप से अनेक है, जो सत्य देवता परमब्रह्म अर्थात् जगत का मूल कारण है उसको मन, वाणी और कर्म से नमस्कार करके आर्यभट गणित, कालक्रिया और गोलपाद इन तीनों का वर्णन करता हूं।’’
आर्यभट ने इस श्लोक में परमब्रह्म सत्ता को वैज्ञानिक आधार पर स्वीकार किया है, जो जानते थे कि इसके बिना न सृष्टि संभव है, न उसका कोई भी कार्य-रूप। आर्यभट के अनुसार ब्रह्म (निर्वात) ही जगत का मूल कारण है, भले ही वह एकल परमसत्ता है लेकिन उसके द्वारा ही सभी की अलग-अलग प्रकार से गति आदि कार्य-प्रक्रियाएं संपन्न हो रही हैं, जैसे आकाशीय पिंड, जीव-जंतु, वनस्पति आदि सब कुछ ब्रह्मांडीय निर्वात में ही है, जिनमें अलग-अलग गति कार्य इसी ब्रह्म अर्थात निर्वात द्वारा हो रहे हैं, स्वतः नही। और यदि, ब्रह्म का आशय निर्वात सत्ता से न होता तो आर्यभट इसे कभी स्वीकार नही करते क्योंकि उन्होंने चंद्र-सूर्यग्रहण का कारण बताने वाले राहू-केतु जैसे अवैज्ञानिक मत को अस्वीकार कर दिया था। किन्तु, कालांतर में इस ब्रह्म को सृष्टि का निर्माता ‘ब्रह्मा’ कहकर मानवीकरण कर दिया गया।
जिस प्रकार आर्यभट ने ब्रह्म (शून्य) को सृष्टि की परमसत्ता माना, उसी प्रकार महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन ने भी गणित में इसकी सैद्धांतिकता को माना। रामानुजन ‘शून्य’ को परमसत्ता मानते थे जिसकी विविधता को ‘अनंत’ सुस्पष्ट करता है। इसका तात्पर्य है कि शून्य एक परमसत्ता है, जिसकी ऊर्जा से विविध (अनिश्चित) पदार्थ निर्मित हैं और यह विविधता अनंत है जो इसी परमसत्ता में है। क्योंकि शून्य परमसत्ता न होता तो इतनी विविधता उसमें नही आ सकती थी। इसलिए साकार ब्रह्मांड की विविधता की अनंतता उसकी परमसत्ता को सुस्पष्ट करती है। गणित में शून्य और अनंत के गुणनफल को अनिश्चित ( 0 X ¥ = अनिश्चित) माना जाता है जिसका परिणाम कोई भी संख्या हो सकती है। रामानुजन इसे ब्रह्म और सृष्टि से जोड़ते थे, और उनका कहना था कि ‘‘यह गुणनफल केवल अनिश्चित संख्या ही नही है, वास्तम में यह सभी संख्याओं के बराबर है, और सभी अलग-अलग संख्याएं सृजन-क्रिया के अलग-अलग क्रमों के प्रतिरूप हैं।’’
उपरोक्त गणितीय सूत्र का सैद्धांतिक आधार यह है कि शून्य, ब्रह्मांडीय निर्वात गति और अनंत, इससे उत्पन्न मूलऊर्जा है। जिसके गुणनफल से ही पदार्थ बनता है, जैसे
0 X ¥ = अनिश्चित संख्या
या
ब्रह्मांडीय निर्वात गति X मूल ऊर्जा = संपीडित (केन्द्रित) पदार्थ, उदाहरणार्थ सूर्य-तारे। लेकिन यह सैद्धांतिक सूत्र अलग-अलग पदार्थ अलग-अलग के लिए होगा। यहां ये सिर्फ सूर्य-तारों के लिए है।
अतः उनके इस रहस्यमयी तथ्य का अर्थ है कि शून्य जो निर्वात और ऊर्जा जो अनंत है, के गुणनफल से ही जैसे सूर्य, तारे, ग्रह, पिंड, जीव, जंतु, वनस्पति आदि के अनिश्चित परिणाम प्राप्त हुए हैं और हो रहे हैं, जो अपनी अनुकूलता में हैं। क्योंकि सृजन-क्रिया से अलग-अलग प्रकार के विविध साकार परिणाम (द्रव्य, पदार्थ) अलग-अलग क्रमों के प्रतिरूप अथवा अलग-अलग क्रमों में अलग-अलग पदार्थ बनते हैं। जबकि पदार्थों की संख्या भले ही असंख्य हो, वह हमेशा शून्य और ऊर्जा के गुणनफल के बराबर ही रहेगी, क्योंकि पदार्थ लगातार बनते रहते हैं तो उन्हें बनाने वाली ऊर्जा भी लगातार उत्पन्न होती है।
इसी परमसत्ता को ‘ईश्वर’ भी कहा गया है, क्योंकि किसी से पूछो कि क्या तुमने ईश्वर को देखा है, वह कहां है? तो वो इसका एक ही उत्तर देगा- ईश्वर एक अदृश्य परमशक्ति है जिससे सृष्टि उत्पन्न है, और उसी से चल रही है और वही कण-कण में व्याप्त है। तो ऐसा सर्वव्यापी ईश्वर परम निर्वात के अतिरिक्त और क्या हो सकता है, जिससे सृष्टि उत्पन्न है, और परमसूक्ष्म से परमस्थूल इकाइ में बसा जीवन उसी से गतिमान और श्वसनशील है। जबकि संतों ने इसी परमब्रह्म सत्ता को ‘निर्गुण’ कहा, जो सत्त्व, रज तथा तम तीनों गुणों से परे है, यानि बिल्कुल रिक्त, जो कि निर्वात है। लेकिन इसी निर्गुण में साकार (पदार्थ) भी विकसित हुआ है जिसे ‘सगुण’ या साकार ब्रह्म कहा गया।
इसके अतिरिक्त भारतीय तत्ववेत्ताओं ने ये भी प्रमाणिक आधार दिया कि साकार रूप पंचतत्वों (भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर) से बना है, और प्रकृति के इस साकार पंचतत्व को ही ‘भगवान’ की संक्षिप्त संज्ञा दी गई, जैसे भ = भूमि, ग = गगन, व = वायु, या अ = अग्नि और न = नीर, यानि भगवान। इसलिए हमने जब भी किसी विशेष व्यक्ति को प्रकृति के प्रति सहज पाया तो उसे भी भगवान की उपाधि दे दी गई।
अतः ऋग्वेदिक सूक्त की एकाकी स्वावलंबी शक्ति, ब्रह्म और शून्य आदि का आशय परम शाश्वत सत्ता ब्रह्मांडीय निर्वात से ही है, जिसकी उत्पन्न ऊर्जा ही साकार सृष्टि की उत्पत्ति का आधारभूत कारण साबित होती है। साथ ही परमात्मा, आत्मा तथा भूत का रहस्य निर्वात, ऊर्जा तथा पदार्थ से तुलना करने पर हमारे सामने होता है। क्योंकि ब्रह्मांड के ‘कुछ नही’ को जो अनंत निर्वात (वायड) है, उसी को प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ब्रह्म, शून्य परमात्मा, ईश्वर, निर्गुण कहा, जिनके गूढ़ रहस्य को समझना ब्रह्मांडीय निर्वात को समझे बिना संभव नही था। इसलिए इनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण अबतक एक रहस्य बना रहा।
क्या परमशून्य के इस प्रमाण के बाद भी कोई दूसरी सत्ता संभव है? जिससे सृष्टि उत्पन्न हुई हो और जिसके कारण ये चलायमान हो...? क्या इसे उपेक्षित करके हम सृष्टि के वास्तविक आधार को जान सकते हैं...? क्या इसके बाद भी ईश्वर आदि को जानने की जिज्ञासा शेष रह जाती है...? तो, शून्य अपनी परमसत्ता का अंतिम प्रमाण इस प्रकार भी दे देता है कि यदि शून्य में रहना है तो शून्य का ही पालन करना पड़ेगा। इसीलिए सभी आकाशीय ग्रह-पिंड लगातार घूमकर शून्य बनाते हैं और पृथ्वी के घूमने के साथ हम भी शून्य बना रहे हैं।
यदि इसमें जिसकी गति जहां रुकी वहीं उसका क्षय निश्चित है। क्या शून्य की महत्ता का इससे बड़ा और कोई प्रमाण है, जिसमें सभी शून्य (निर्वात) का पालन कर रहे हों। यह है परमशून्य होने का प्रमाण और उसमें हमारे जीवित होने का प्रणाम यह है कि, यदि हम अपनी नाक-मुह बंद करके श्वास रोक दें तो बिना श्वास के हम या कोई भी जीवित नही रह सकता क्योंकि श्वास गति निर्वात से होती है जो ऑक्सीजन को अंदर ले जाने और कार्बन को बारह लाने का कार्य करती है। और जिसके साथ इसका प्रवाह बना रहता है वह तो जीवित है और जिसमें यह रुक गया है वही निर्जीव-मृत है। इसलिए निर्वात ही परमब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर है, जो ब्रह्मांड तक ही सीमित नही बल्कि उसी से हम सभी का जीवन चलता है। और जब हमारा जीवन इसके बिना नही चल सकता तो सृष्टि कैसे चलती।
हालांकि, वैज्ञानिक जगत व्यवहारिक दक्षता में परिपूर्ण है और ब्रह्मांडीय निर्वात से परिचित होने के बावजूद भी उसने इसकी भौतिकी को नही समझा बल्कि इसे यह सोचकर उपेक्षित कर दिया कि इससे कुछ भी उत्पन्न नही हो सकता, जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हो। लेकिन भारतीय दार्शनिक इस बात पर सुनिश्चित थे कि सृष्टि का मूलाधार ब्रह्म (निर्वात) ही है, और कुछ नही। क्योंकि ‘ब्रह्म (निर्वात) $ अंड (केन्द्र)’ को ‘ब्रह्मांड’ कहा गया, जिसकी परम गति से साकार सृष्टि (पदार्थ) का सृजन करने वाली ऊर्जा लगातार उत्पन्न होती है। क्योंकि ब्रह्मांडीय निर्वात ही एकमात्र मूलगति है और अन्य समस्त गतियां इसी का रूपांतरण हैं। फिर भी वैज्ञानिकों ने गति की इस भौतिकी को नही समझा और न माइकल फैराडे के इस इशारे को कि गति ही ऊर्जा पैदा करती है। तब वैज्ञानिकों को ब्रह्मांडीय निर्वात पर ध्यान देना चाहिए था या नही। आखिरकार उसमें भी परम गति किसी प्रयोजन से है।
जबकि आधुनिक वैज्ञानिक सृष्टि की उत्पत्ति बिग-बैंग से मानते हैं। जिनके अनुसार लगभग 14 अरब वर्ष पूर्व, कोई अंतरिक्ष (रिक्तता) नही था बल्कि एक विचित्रबिंदू (सिंगुलैरिटी) था, जिसके महाविस्फोट (बिग-बैंग) से अंतरिक्ष, ऊर्जा, मूलकण और हिग्स-बोसोन जैसे कणों की उत्पत्ति के साथ ब्रह्मांड का सृजन हुआ, जो आज तक फैल रहा है। जिसकी पुष्टि के लिए सर्न में एलएचसी के महाप्रयोग से ‘ईश्वरी कण’ हिग्स-बोसोन की खोज का दावा भी कर दिया गया और जल्दबाजी में पीटर हिग्स को नोबल पुरस्कार दे दिया गया ताकि उनका दावा मजबूत हो जाए। लेकिन विज्ञान वही है जो प्रश्नचिन्ह से परे हो, इसीलिए आज भी विज्ञान के जिज्ञासू यही जानना चाहते हैं कि बिग-बैंग और हिग्स-बोसोन कण की खोज तभी वैज्ञानिक उपलब्धि मानी जा सकती है, जब वैज्ञानिक पहले सिर्फ ये बताएं कि वो विचित्रबिंदू कहां से आया था और बिना अंतरिक्ष के वह कहां रहा था? जिसमें महाविस्फोट हुआ।
इस प्रश्न का जबाव तो अभी तक वैज्ञानिकों ने दिया नही और हिग्स-बोसोन कण की खोज का दावा कर दिया। इसलिए बिग-बैंग और मूलकण भौतिकी जो शुरु से अंत तक प्रश्नचिन्हों से घिरे हैं, उनसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उसके साकार क्रमिक विकास को कभी पूर्ण परिभाषित नही किया जा सकता बल्कि इसके लिए वैज्ञानिकों को भविष्य में ब्रह्मांडीय निर्वात सिद्धात की शरण में आना पडे़गा, जो किसी भी भौतिकी को परमसूक्ष्मता से परमस्थूलता में परिभाषित कर सकता है।।
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ऋग्वेद सूक्त 10.129 में, सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में कई ऋषियों के परस्पर विचार इस प्रकार मिलते हैं- (एक ऋषि के अनुसार)-‘‘उस समय न सत् (अस्तित्व) था, न असत् (अनस्तित्व) था। न दिन था, न रात, सिर्फ अंधकार था। न कोई ढकने वाला आवरण था, केवल अनंत रिक्तता (शून्यता) थी। वहां वह एकाकी स्वावलंबी शक्ति से श्वसित था। इसके ऊपर अन्य कोई शक्ति नही थी। उस शक्ति में सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा हुई, जो सृष्टि के प्रांरभ का बीज बनी।। ऋषियों ने अपनी बुद्धि से इस प्रकार का विचार किया और असत् में सत् के कारण को जाना। (अन्य ऋषि...)- निश्चित रूप से कौन जानता है? किसने बताया है? कि उद्भव किससे हुआ है? सृष्टि कहां से हुई? देवता भी सृष्टि के बाद के हैं।। (एक अन्य ऋषि...)- तब वह मूलस्रोत जिससे यह विश्व उत्पन्न हुआ, वह क्या रचा गया? या वह न रचा गया? परम आकाश में जो नियामक है, सर्वदर्शी है, वह जानता होगा, न भी जानता होगा।।’’
ऋग्वेद के सूक्त की यह एकाकी स्वावलंबी शक्ति, निर्वात सिद्धांत के अनुसार और कुछ नही बल्कि ‘ब्रह्मांडीय निर्वात’ है, जो ‘कुछ नही’ (रिक्तता) के कारण स्वतः शाश्वत है और निर्वात, गति के सिवाय और कुछ नही, जो स्वयं को भरने की कोशिश करता, लेकिन भरा नही जा सकता, इसलिए यह सदैव गतिशील रहता है। निर्वात जितना प्रबल होगा, वह उतनी ही तीव्र आंतरिक गति में होगा। लेकिन ब्रह्मांडीय निर्वात अनंत है इसीलिए वह परम गति का केन्द्र है, जिसकी केन्द्रहीन आंतरिक गति के घर्षण से उसमें लगातार मूल ऊर्जा पैदा होती है, जिसके संपीडन से साकार ब्रह्मांड (पदार्थ) का सृजन हुआ। इसलिए निर्वातीय ब्रह्मांड स्वचालित है जिसे गति के लिए किसी सहारे की जरूरत नही बल्कि उसका अनंत निर्वात ही उसकी परम गति है। इसके अतिरिक्त उसमें और कुछ नही, न उससे कोई ऊपर है, न उसमें कुछ बाहर से आ सकता है, न उसमें पहले से कुछ भौतिक अस्तित्व हो सकता है। अतः ब्रह्मांड उत्पत्ति की खोज में इससे परे जाने की जरूरत नही, सब कुछ उसी में है और सब उसी से संभव है। (निर्वात सिद्धांत का विस्तार अध्ययन ‘ब्रह्मांडः एक अंतिम खोज’ पुस्तक में दिया गया है)
अब सूक्त की निर्वात सिद्धांत से तुलना करने पर, जहां- एक ऋषि इस बात पर सुनिश्चित है कि परम निर्वात गति (एकाकी स्वावलंबी शक्ति) जिससे ऊर्जा उत्पन्न (श्वसित) हो रही थी, वही ऊर्जा निर्वात गति में संपीडित होकर साकार पदार्थ (प्रारंभिक सृष्टि) का बीज बनी। लेकिन दूसरा ऋषि असमंजस में था कि इस शक्ति से ऐसा क्या कुछ उत्पन्न हो सकता है... जो प्रारंभिक सृष्टि का बीज बने। शायद व्यवहारिक विज्ञान के अभाव में यह ऋषि इस बात से अनजान था कि ऊर्जा, गति से ही पैदा होती है और ऊर्जा से ही पदार्थ बनता है, क्योंकि आइंस्टीन के अनुसार भी पदार्थ ऊर्जा का ही रूप है। जबकि अन्य ऋषि की बात का अर्थ है कि, क्या यह सृष्टि उस मूलस्रोत (ऊर्जा) से योजनाबद्ध तरीके से बनाई गई या यह अनुकूल स्थिति में अपने आप रची। इसके बारे में वह परम आकाश जो इस सबका संविधान है, सर्वदर्शी है, शायद! वही इसे अपने तरीके से जानता होगा या न जानता होगा, ये उसी पर निर्भर है।
अतः सृष्टि के संबंध में ऋग्वेदिक ऋषियों ने ऐसी कोई कल्पना नही की जिसपर प्रश्नचिन्ह उठे बल्कि उन्होंने एकाकी स्वावलंबी शक्ति के बारे में सही सोचा, जो इतना प्रमाणिक तथ्य है, जिसे गलत सिद्ध नही किया जा सकता। आगे चलकर इसी सूक्त की एकाकी स्वावलंबी शक्ति ने उपनिषदकारों को भी प्रभावित किया, जिसे उन्होंने ‘ब्रह्म’ कहा। क्योंकि, जब उपनिषदकार याज्ञवल्क्य से पूछा गया कि ब्रह्म क्या है? तो उन्होंने कहा- नेति! नेति! अर्थात् ‘नही-नही’ यानि जो ‘कुछ नही’, वही ब्रह्म है। इसलिए आदि शंकाराचार्य ने भी कहा है- ब्रह्म सभी में है और सभी ब्रह्म में हैं।
गौतम बुद्ध और बौद्ध आचार्य नागार्जुन ने इसी परमसत्ता को शून्य कहा, तो अन्य दार्शनिकों ने इसे परमात्मा कहा। अर्थात् जो अपने आप में परम आत्म है वही परमात्मा (निर्वात) है, और इससे उत्पन्न आत्म ‘आत्मा’ (ऊर्जा) है, जिससे ‘भूत’ (शरीर, पदार्थ) निर्मित हैं। क्योंकि सीधे तौर पर कोई पदार्थ पैदा हो नही सकता, इसलिए उस परमात्मा के आत्म में जो उससे उत्पन्न है उसे ही आत्मा (ऊर्जा) कहा गया। इसलिए गीता में कहा है- आत्मा को न मारा जा सकता है, न काटा जा सकता बल्कि ये एक शरीर से दूसरे शरीर में रूपांतरित होती है। और विज्ञान भी यही कहता है कि ऊर्जा नष्ट नही होती बल्कि रूपांतरित होती है। जब भी पदार्थ (शरीर) का क्षय होता है तब ऊर्जा (आत्मा) निर्वात (परमात्मा) में विलीन हो जाती है, जिसे आध्यात्म में आत्मा का परमात्मा से मिलन कहा जाता है। गीता में भगवान कृष्ण ने अपने को ‘मैं’ बताते हुए कहा है- मैं सभी में हूं और सभी मुझमें है। उनका तात्पर्य निर्वात से ही है जो सभी में है और सभी उसी में हैं।
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भारतीय खगोलज्ञ् आर्यभट (चौथी सदी) जिन्होंने सर्वप्रथम खगोलीय वैज्ञानिक पद्धति को खोजा, ने भी ब्रह्म को ही ब्रह्मांड का सैद्धांतिक सृजनकर्ता मानते हुए अपने ‘आर्यभटीय’ ग्रंथ के ‘दशगीतिका’ के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा है-
‘‘जो ब्रह्म कारण रूप से एक होते हुए भी कार्य रूप से अनेक है, जो सत्य देवता परमब्रह्म अर्थात् जगत का मूल कारण है उसको मन, वाणी और कर्म से नमस्कार करके आर्यभट गणित, कालक्रिया और गोलपाद इन तीनों का वर्णन करता हूं।’’
आर्यभट ने इस श्लोक में परमब्रह्म सत्ता को वैज्ञानिक आधार पर स्वीकार किया है, जो जानते थे कि इसके बिना न सृष्टि संभव है, न उसका कोई भी कार्य-रूप। आर्यभट के अनुसार ब्रह्म (निर्वात) ही जगत का मूल कारण है, भले ही वह एकल परमसत्ता है लेकिन उसके द्वारा ही सभी की अलग-अलग प्रकार से गति आदि कार्य-प्रक्रियाएं संपन्न हो रही हैं, जैसे आकाशीय पिंड, जीव-जंतु, वनस्पति आदि सब कुछ ब्रह्मांडीय निर्वात में ही है, जिनमें अलग-अलग गति कार्य इसी ब्रह्म अर्थात निर्वात द्वारा हो रहे हैं, स्वतः नही। और यदि, ब्रह्म का आशय निर्वात सत्ता से न होता तो आर्यभट इसे कभी स्वीकार नही करते क्योंकि उन्होंने चंद्र-सूर्यग्रहण का कारण बताने वाले राहू-केतु जैसे अवैज्ञानिक मत को अस्वीकार कर दिया था। किन्तु, कालांतर में इस ब्रह्म को सृष्टि का निर्माता ‘ब्रह्मा’ कहकर मानवीकरण कर दिया गया।
जिस प्रकार आर्यभट ने ब्रह्म (शून्य) को सृष्टि की परमसत्ता माना, उसी प्रकार महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन ने भी गणित में इसकी सैद्धांतिकता को माना। रामानुजन ‘शून्य’ को परमसत्ता मानते थे जिसकी विविधता को ‘अनंत’ सुस्पष्ट करता है। इसका तात्पर्य है कि शून्य एक परमसत्ता है, जिसकी ऊर्जा से विविध (अनिश्चित) पदार्थ निर्मित हैं और यह विविधता अनंत है जो इसी परमसत्ता में है। क्योंकि शून्य परमसत्ता न होता तो इतनी विविधता उसमें नही आ सकती थी। इसलिए साकार ब्रह्मांड की विविधता की अनंतता उसकी परमसत्ता को सुस्पष्ट करती है। गणित में शून्य और अनंत के गुणनफल को अनिश्चित ( 0 X ¥ = अनिश्चित) माना जाता है जिसका परिणाम कोई भी संख्या हो सकती है। रामानुजन इसे ब्रह्म और सृष्टि से जोड़ते थे, और उनका कहना था कि ‘‘यह गुणनफल केवल अनिश्चित संख्या ही नही है, वास्तम में यह सभी संख्याओं के बराबर है, और सभी अलग-अलग संख्याएं सृजन-क्रिया के अलग-अलग क्रमों के प्रतिरूप हैं।’’
उपरोक्त गणितीय सूत्र का सैद्धांतिक आधार यह है कि शून्य, ब्रह्मांडीय निर्वात गति और अनंत, इससे उत्पन्न मूलऊर्जा है। जिसके गुणनफल से ही पदार्थ बनता है, जैसे
0 X ¥ = अनिश्चित संख्या
या
ब्रह्मांडीय निर्वात गति X मूल ऊर्जा = संपीडित (केन्द्रित) पदार्थ, उदाहरणार्थ सूर्य-तारे। लेकिन यह सैद्धांतिक सूत्र अलग-अलग पदार्थ अलग-अलग के लिए होगा। यहां ये सिर्फ सूर्य-तारों के लिए है।
अतः उनके इस रहस्यमयी तथ्य का अर्थ है कि शून्य जो निर्वात और ऊर्जा जो अनंत है, के गुणनफल से ही जैसे सूर्य, तारे, ग्रह, पिंड, जीव, जंतु, वनस्पति आदि के अनिश्चित परिणाम प्राप्त हुए हैं और हो रहे हैं, जो अपनी अनुकूलता में हैं। क्योंकि सृजन-क्रिया से अलग-अलग प्रकार के विविध साकार परिणाम (द्रव्य, पदार्थ) अलग-अलग क्रमों के प्रतिरूप अथवा अलग-अलग क्रमों में अलग-अलग पदार्थ बनते हैं। जबकि पदार्थों की संख्या भले ही असंख्य हो, वह हमेशा शून्य और ऊर्जा के गुणनफल के बराबर ही रहेगी, क्योंकि पदार्थ लगातार बनते रहते हैं तो उन्हें बनाने वाली ऊर्जा भी लगातार उत्पन्न होती है।
इसी परमसत्ता को ‘ईश्वर’ भी कहा गया है, क्योंकि किसी से पूछो कि क्या तुमने ईश्वर को देखा है, वह कहां है? तो वो इसका एक ही उत्तर देगा- ईश्वर एक अदृश्य परमशक्ति है जिससे सृष्टि उत्पन्न है, और उसी से चल रही है और वही कण-कण में व्याप्त है। तो ऐसा सर्वव्यापी ईश्वर परम निर्वात के अतिरिक्त और क्या हो सकता है, जिससे सृष्टि उत्पन्न है, और परमसूक्ष्म से परमस्थूल इकाइ में बसा जीवन उसी से गतिमान और श्वसनशील है। जबकि संतों ने इसी परमब्रह्म सत्ता को ‘निर्गुण’ कहा, जो सत्त्व, रज तथा तम तीनों गुणों से परे है, यानि बिल्कुल रिक्त, जो कि निर्वात है। लेकिन इसी निर्गुण में साकार (पदार्थ) भी विकसित हुआ है जिसे ‘सगुण’ या साकार ब्रह्म कहा गया।
इसके अतिरिक्त भारतीय तत्ववेत्ताओं ने ये भी प्रमाणिक आधार दिया कि साकार रूप पंचतत्वों (भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर) से बना है, और प्रकृति के इस साकार पंचतत्व को ही ‘भगवान’ की संक्षिप्त संज्ञा दी गई, जैसे भ = भूमि, ग = गगन, व = वायु, या अ = अग्नि और न = नीर, यानि भगवान। इसलिए हमने जब भी किसी विशेष व्यक्ति को प्रकृति के प्रति सहज पाया तो उसे भी भगवान की उपाधि दे दी गई।
अतः ऋग्वेदिक सूक्त की एकाकी स्वावलंबी शक्ति, ब्रह्म और शून्य आदि का आशय परम शाश्वत सत्ता ब्रह्मांडीय निर्वात से ही है, जिसकी उत्पन्न ऊर्जा ही साकार सृष्टि की उत्पत्ति का आधारभूत कारण साबित होती है। साथ ही परमात्मा, आत्मा तथा भूत का रहस्य निर्वात, ऊर्जा तथा पदार्थ से तुलना करने पर हमारे सामने होता है। क्योंकि ब्रह्मांड के ‘कुछ नही’ को जो अनंत निर्वात (वायड) है, उसी को प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ब्रह्म, शून्य परमात्मा, ईश्वर, निर्गुण कहा, जिनके गूढ़ रहस्य को समझना ब्रह्मांडीय निर्वात को समझे बिना संभव नही था। इसलिए इनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण अबतक एक रहस्य बना रहा।
क्या परमशून्य के इस प्रमाण के बाद भी कोई दूसरी सत्ता संभव है? जिससे सृष्टि उत्पन्न हुई हो और जिसके कारण ये चलायमान हो...? क्या इसे उपेक्षित करके हम सृष्टि के वास्तविक आधार को जान सकते हैं...? क्या इसके बाद भी ईश्वर आदि को जानने की जिज्ञासा शेष रह जाती है...? तो, शून्य अपनी परमसत्ता का अंतिम प्रमाण इस प्रकार भी दे देता है कि यदि शून्य में रहना है तो शून्य का ही पालन करना पड़ेगा। इसीलिए सभी आकाशीय ग्रह-पिंड लगातार घूमकर शून्य बनाते हैं और पृथ्वी के घूमने के साथ हम भी शून्य बना रहे हैं।
यदि इसमें जिसकी गति जहां रुकी वहीं उसका क्षय निश्चित है। क्या शून्य की महत्ता का इससे बड़ा और कोई प्रमाण है, जिसमें सभी शून्य (निर्वात) का पालन कर रहे हों। यह है परमशून्य होने का प्रमाण और उसमें हमारे जीवित होने का प्रणाम यह है कि, यदि हम अपनी नाक-मुह बंद करके श्वास रोक दें तो बिना श्वास के हम या कोई भी जीवित नही रह सकता क्योंकि श्वास गति निर्वात से होती है जो ऑक्सीजन को अंदर ले जाने और कार्बन को बारह लाने का कार्य करती है। और जिसके साथ इसका प्रवाह बना रहता है वह तो जीवित है और जिसमें यह रुक गया है वही निर्जीव-मृत है। इसलिए निर्वात ही परमब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर है, जो ब्रह्मांड तक ही सीमित नही बल्कि उसी से हम सभी का जीवन चलता है। और जब हमारा जीवन इसके बिना नही चल सकता तो सृष्टि कैसे चलती।
हालांकि, वैज्ञानिक जगत व्यवहारिक दक्षता में परिपूर्ण है और ब्रह्मांडीय निर्वात से परिचित होने के बावजूद भी उसने इसकी भौतिकी को नही समझा बल्कि इसे यह सोचकर उपेक्षित कर दिया कि इससे कुछ भी उत्पन्न नही हो सकता, जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हो। लेकिन भारतीय दार्शनिक इस बात पर सुनिश्चित थे कि सृष्टि का मूलाधार ब्रह्म (निर्वात) ही है, और कुछ नही। क्योंकि ‘ब्रह्म (निर्वात) $ अंड (केन्द्र)’ को ‘ब्रह्मांड’ कहा गया, जिसकी परम गति से साकार सृष्टि (पदार्थ) का सृजन करने वाली ऊर्जा लगातार उत्पन्न होती है। क्योंकि ब्रह्मांडीय निर्वात ही एकमात्र मूलगति है और अन्य समस्त गतियां इसी का रूपांतरण हैं। फिर भी वैज्ञानिकों ने गति की इस भौतिकी को नही समझा और न माइकल फैराडे के इस इशारे को कि गति ही ऊर्जा पैदा करती है। तब वैज्ञानिकों को ब्रह्मांडीय निर्वात पर ध्यान देना चाहिए था या नही। आखिरकार उसमें भी परम गति किसी प्रयोजन से है।
जबकि आधुनिक वैज्ञानिक सृष्टि की उत्पत्ति बिग-बैंग से मानते हैं। जिनके अनुसार लगभग 14 अरब वर्ष पूर्व, कोई अंतरिक्ष (रिक्तता) नही था बल्कि एक विचित्रबिंदू (सिंगुलैरिटी) था, जिसके महाविस्फोट (बिग-बैंग) से अंतरिक्ष, ऊर्जा, मूलकण और हिग्स-बोसोन जैसे कणों की उत्पत्ति के साथ ब्रह्मांड का सृजन हुआ, जो आज तक फैल रहा है। जिसकी पुष्टि के लिए सर्न में एलएचसी के महाप्रयोग से ‘ईश्वरी कण’ हिग्स-बोसोन की खोज का दावा भी कर दिया गया और जल्दबाजी में पीटर हिग्स को नोबल पुरस्कार दे दिया गया ताकि उनका दावा मजबूत हो जाए। लेकिन विज्ञान वही है जो प्रश्नचिन्ह से परे हो, इसीलिए आज भी विज्ञान के जिज्ञासू यही जानना चाहते हैं कि बिग-बैंग और हिग्स-बोसोन कण की खोज तभी वैज्ञानिक उपलब्धि मानी जा सकती है, जब वैज्ञानिक पहले सिर्फ ये बताएं कि वो विचित्रबिंदू कहां से आया था और बिना अंतरिक्ष के वह कहां रहा था? जिसमें महाविस्फोट हुआ।
इस प्रश्न का जबाव तो अभी तक वैज्ञानिकों ने दिया नही और हिग्स-बोसोन कण की खोज का दावा कर दिया। इसलिए बिग-बैंग और मूलकण भौतिकी जो शुरु से अंत तक प्रश्नचिन्हों से घिरे हैं, उनसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उसके साकार क्रमिक विकास को कभी पूर्ण परिभाषित नही किया जा सकता बल्कि इसके लिए वैज्ञानिकों को भविष्य में ब्रह्मांडीय निर्वात सिद्धात की शरण में आना पडे़गा, जो किसी भी भौतिकी को परमसूक्ष्मता से परमस्थूलता में परिभाषित कर सकता है।।
K. P. Singh, Nagla Radhey Lal, Tundla, Firozabad- (U.P.),
Email- almitmission2013@gmail.com,
उपरोक्त आलेख सिक्के का एक पहलू है। इसके दूसरे पहले को जानने के लिए यह लेख अवश्य पढ़ें: ईश्वर एक अवैज्ञानिक अवधारणा! |
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बहुत सटीक बातें कहता , विचारणीय लेख
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रस्तुति कल शुक्रवार (08.08.2014) को "बेटी है अनमोल " (चर्चा अंक-1699)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंशब्दो का मायाजाल!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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हटाएंआशीष जी, भारत में लाखो प्रतिभाएं हैं लेकिन आप जैसों की वजह से उनका ज्ञान दब के रह जाता है क्योंकि आर्यभट और रामानुजन के ज्ञान को तुम जैसे परख नही पाए थे. जबकि पाश्चात्य विद्वान अपने लोगों के ज्ञान का ही नही़ दूसरे के ज्ञान का भी आदर करते हैं उन्होंने ही आर्यभट के खगोलीय और रामानुजन के गणितीय ज्ञान से दूनिया को परिचय कराया था. वे भी आपकी तरह होते तो आप और हम कभी भी आर्यभट और रामानुजन की प्रतिभा को नही जान पाते। मैं मानता हूं कि पाश्चात्य विद्वान किसी भी खोज में गंभीर होते हैं लेकिन अभी उन्हें भी ब्रह्मांड के रहस्य को जानने का सही सिद्धांत नही पता और वे एक दिन मेरे निर्वात सिद्धांत को समझेंगे और दूनिया को उससे परिचय भी कराएंगे और तब आपको भी यह सिद्धांत मानना पडेगा।
हटाएंइंग्लैंड के खगोलज्ञ विलियम हर्शेल (1738-1822) ने कहा था कि "एक भी नया तथ्य सामने आए तो हमें अपने पुराने सिद्धांत को संशोधित कर लेना चाहिए"
और ये बात पाश्चात्य विद्वान समझते हैं, आप नही।
महाशय, जीस तरह से आप व्यक्तिगत टिप्पणी पर उतर आये है उससे आप अपना परिचय दे रहे है। आपका लेख और आपकी टिप्पणीयाँ से आपके ज्ञान का दर्शन हो रहा है। आप अपनी 'महान' उपलब्धियों पर गर्व किजीये और 'मेरे' जैसे को मेरे हाल पर छोड़ दिजीये। शुभकामनायें!
हटाएंआशीष जी, इस दूनिया में दो प्रकार के इंसान होते है एक बहुत ही सभ्य और दूसरा बहुत ही असभ्य। सभ्य को जबाव देना जरूरी नही लेकिन असभय को उसी की भाषा में जबाव दिए बिना रहना भी नही चाहिए। क्योंकि यदि उन्हें जबाव न दिया जाए तो वो दूनिया को चैन से नही जीने देंगे। और इस बात का प्रमाण भी है कि भगवान कृष्ण ने महाभारत के कुरूक्षेत्र युद्ध में ऐसे अनेक असभ्यओं को जिस प्रकार का जबाव दिलवाया था, उसे आप भी जानते होंगे। इसलिए आपकी ‘‘शब्दों का मायाजाल’’ टिप्पणी पर दिया जबाव शायद सही था। क्योंकि आपको अपने ज्ञान पर जितना अहंकार है, उसी ने तो आपके सोचने-समझने की क्षमता तोड़के रख दी है। और आपको एक लेख ‘‘शब्दों का मायाजाल’’दिखाई दे रहा था।
हटाएंजानकारी से परिपूर्ण अच्छा आलेख।
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग पढ़कर अच्छा लगा. अंतरजाल पर हिंदी समृधि के लिए किया जा रहा आपका प्रयास सराहनीय है. कृपया अपने ब्लॉग को “ब्लॉगप्रहरी:एग्रीगेटर व हिंदी सोशल नेटवर्क” से जोड़ कर अधिक से अधिक पाठकों तक पहुचाएं. ब्लॉगप्रहरी भारत का सबसे आधुनिक और सम्पूर्ण ब्लॉग मंच है. ब्लॉगप्रहरी ब्लॉग डायरेक्टरी, माइक्रो ब्लॉग, सोशल नेटवर्क, ब्लॉग रैंकिंग, एग्रीगेटर और ब्लॉग से आमदनी की सुविधाओं के साथ एक सम्पूर्ण मंच प्रदान करता है.
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हटाएंआलेख से हर मोड़ पर सहमति बनती है लेकिन हम अज्ञानी हैं कि इन सूक्ष्मताओं को आत्मसात करने की क्षमता नहीं रखते
जवाब देंहटाएंदेव संस्कृत की महानता का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से किया गया है/ ईश्वर की परिकल्पना और ईश्वर के अस्तित्वा की वास्तविकता में सही सही व्याख्या करना सरल नहीं है. किन्तु यदि अध्यात्म , दर्शन , और विज्ञानं के यूनिक द्रिस्टिकोड में देखे तो शायद किसी निर्णय पर पंहुचा जा सकता है.//
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की शनिवार ०९ अगस्त २०१४ की बुलेटिन -- काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को याद करते हुए– ब्लॉग बुलेटिन -- में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...
जवाब देंहटाएंएक निवेदन--- यदि आप फेसबुक पर हैं तो कृपया ब्लॉग बुलेटिन ग्रुप से जुड़कर अपनी पोस्ट की जानकारी सबके साथ साझा करें.
सादर आभार!
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जवाब देंहटाएंक्या ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है?
जवाब देंहटाएंइस आलेख में विद्वान लेखक श्री के. पी. सिंह के विचार तीसरे अनुच्छेद--'ऋग्वेद के सूक्त... ... ... सब उसी से संभव है' में बहुत उलझे हुए हैं। ईश्वरीय सत्ता को पारिभाषित करने के लिए 'निर्वात' शब्द का प्रयोग असंगत ही नहीं अनुचित भी है। वैदिक साहित्य में नेति-नेति से अभिप्रेत है 'न इति-न इति' अर्थात् 'जिसका कोई अंत नहीं है', ऋषि याज्ञवल्क्य ब्रह्म को ऐसा कहते हैं। लेखक ने पता नहीं क्यों "नेति-नेति के लिए 'नहीं-नहीं' अर्थात् जो 'कुछ नहीं' वही ब्रह्म है" ऐसा लिखा है।
विद्वान लेखक ने यह भी लिखा है--'सीधे तौर पर कोई पदार्थ पैदा हो नहीं सकता'। फिर आगे लिखा है--'जब पदार्थ (शरीर) का क्षय होता है तब ऊर्जा (आत्मा) निर्वात (परमात्मा) में विलीन हो जाती है।' जबकि वैज्ञानिक तथ्य है कि पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है। अर्थात् अंतिम सत्य ऊर्जा है। इसी सिद्धांत के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में पदार्थ नहीं था, केवल ऊर्जा थी और उसी से पदार्थ (ब्रह्माड) निर्मित हुआ। साथ ही उन्होंने परमात्मा के लिए 'निर्वात' (कोष्ठक में) शब्द लिखा है। 'ब्रह्म (निर्वात) ही जगत का मूल कारण है' आदि आदि ...। उन्होंने ईश्वरीय सत्ता के लिए बार-बार 'निर्वात' या फिर 'ब्रह्मांडीय निर्वात' शब्द का प्रयोग किया है जो अनुचित प्रतीत होता है। क्योंकि निर्वात का शब्दार्थ 'वात रहित' होता है। ब्रह्म के लिए 'निर्वात' असंगत है।
उनका कथन--'साकार रूप पंचतत्वों (भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर) से बना है' अर्धसत्य है। जबकि इनसे सत, रज और तम का मेल होने पर अष्टधा प्रकृति का निर्माण होता है और फिर उसी से सकल सृष्टि का।
आगे चलकर लेखक ने माइकल फैराडे को उद्धृत किया है--'गति ही ऊर्जा पैदा करती है'। इस उलटबांसी के क्या मायने हैं? गति से ऊर्जा नहीं बल्कि ऊर्जा से गति उत्पन्न होती है। जिसमें ऊर्जा (चेतन शक्ति) नहीं वह गतिशील कैसे हो सकता है, इसे जानने के लिए लेखक को आइंस्टाइन को पढ़ना पड़ेगा, जिन्होंने समय, ब्रह्मांड, गति और कारण (Time, Space, Motion and Causation) का मूल किसी ईश्वरीय सत्ता को माना है।
कुल मिला कर लेखक का यह प्रयास केवल बौद्धिक-विलास के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
श्रीमान आपकी आलोचना का स्वागत है क्योंकि दूसरे की आलोचना के बाद ही स्वयं में ज्ञान प्रकट होता है। लेकिन आपकी आलोचना में परिपक्वता का बेहद अभाव है। हालांकि आपकी आलोचना सैद्धांतिक नही है फिर भी आलोचना ज्ञान का सबसे अहम विषय होता है। इसलिए इस गुण को भी सुदृढ़ कीजिए। आपके प्रत्युत्तर में--
हटाएं1 - आप ने कहा है- ''ऋग्वेद के सूक्त------उसी से संभव है,' में बहुत उलझे हुए हैं। - इसे पढने से ज्यादा समझिए आपकी उलझन दूर हो जाएगी।
2 - आपका कहना है ''नेति-नेति” से अभिप्रेत है जिसका कोई अंत नही'' - मैं आपके इस अभिप्रेत को मान लेता हूं, लेकिन अंत में ये भी 'कुछ नही’ अर्थात परमनिर्वात ही सिद्ध होगा] जिसका भी कोई अंत नही। मुंडकोपनिषद 2. 2. 12 में लिखा है- ''ब्रह्म निश्चय ही अनश्वर है। सामने ब्रह्म है, बीच में ब्रह्म है, दाएं ब्रह्म है, बाएं भी ब्रह्म है। वही ऊपर व्याप्त है, वही नीचे व्याप्त है। ब्रह्म ही ब्रह्मांड है।” (भारतीय चिंतन परंपरा, पुस्तक से पृष्ठ- 60) अब बताइएं उनकी ऐसी अनंत व्याप्तता का आशय आज के निर्वात से नही है तो किससे है।
3 - आपने "सीधे तौर पर कोई पदार्थ पैदा नही हो सकता", - इस कथन की आलोचना की है, तो आप बताएं क्या पदार्थ सीधे पैदा हो सकता है? आगे- ''जब भी पदार्थ, (शरीर) का क्षय होता है तब ऊर्जा (आत्मा) निर्वात (परमात्मा) में विलीन हो जाती है।''---- श्रीमान इसे समझिए क्योंकि पदार्थ, ऊर्जा का ही संपीडित रूप होता है और जब पदार्थ का क्षय होगा तो ऊर्जा का ही क्षय माना जाएगा या नही। आप वैज्ञानिक तथ्य के अनुसार मानते हैं कि- ''पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है अर्थात अंतिम सत्य ऊर्जा है। इसी सिद्धांत के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में पदार्थ नही था केवल ऊर्जा थी और उसी से पदार्थ (ब्रह्मांड) निर्मित हुआ।’’ - मैं मानता हूं कि अंतिम सत्य ऊर्जा भी है लेकिन प्रारंभ में उसके होने का कारण क्या है] वह कहां से आई? श्रीमान आपने इस पर तो विचार किया ही नही।
continue.......
04 - ईश्वरी सत्ता के लिए आपने किस तर्क पर निर्वात शब्द का प्रयोग अनुचित और असंगत बताया है। जबकि मैं निर्वात को ईश्वरी सत्ता, ब्रह्म, शून्य, परमात्मा आदि भी मानता हूं तो इसमें नाम से कोई समस्या नही आनी चाहिए। क्योंकि निर्वात आधुनिक विज्ञान का दिया नाम है मेरा नही। जो प्राचीन भारतीय ग्रंथों में बताए गए ब्रह्म, शून्य आदि की परमसत्ता से ही आशय रखता है। और यदि आपके आप इसका कोई और नाम है तो वो बता दो हम उसे भी मान लेंगे। यदि आप ईश्वरी सत्ता आदि-आदि के लिए निर्वात शब्द का प्रयोग अनुचित समझते हैं जिनका मैंने बार-बार प्रयोग किया है। और उसपर आपने कहा है कि ''वात रहित'' को निर्वात कहते हैं। तो आपका ये शब्दार्थ भी सही है क्योंकि 'वात' का अर्थ होता है वायु (गैसों का मिश्रण जिसे वायुमंडल कहा जाता है)। और पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर निकलने पर हमें निर्वात ही मिलेगा। लेकिन जब ब्रह्मांड की अंतिम अवस्था में वायु भी नही होगी तो आप उसे निर्वात ही कहोगे या कुछ और। इसलिए तब भी ब्रह्मांड निर्वात की अनंत परमसत्ता में ही सिद्ध होगा। आप नाम-भेद पर मत जाओ, नाम बदलते रहते हैं बल्कि उनके आशय पर जाओ।
हटाएं5 - आपने साकार पंचतत्व को अर्धसत्य कहा और माना है कि इनसे सत, रज और तम के मेल होने से अष्टधा प्रकृति निर्मित होती है और फिर उसी से सकल सृष्टि। आपकी बात अपनी जगह सही है और गीता के अ.- 7, श्लोक- 4 में लिखा है- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - ये आठ प्रकार (अष्टधा प्रकृति) की विभक्त (पृथक) अपरा शक्तियां हैं। लेकिन सत, रज, और तम "स्वभाव को प्रकट करने वाली प्रकृतियां" मानी जाती हैं न कि साकार पदार्थ को निर्माण करने की। इसीलिए माना गया है कि सत, शुद्ध को,' रज, तृष्णा को और तम, अहंकार को पैदा करता है (देखें गीता के अध्याय 14 का श्लोक 9 व 17)। इसलिए साकार को पंचतत्व से ही निर्मित माना है- "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंचरचित यह अधम शरीरा।।" यहां आपके और मेरे समझने में अंतर है। साकार सृष्टि पंचतत्व से ही उत्पन्न होती है।
6 - जबकि ''गति ही ऊर्जा पैदा करती है'' यह उलटबांसी नही है। क्योंकि गति और ऊर्जा की बहुत सी अगल-अलग अवस्थाएं, आयाम और आधार हैं। जिनके विस्तृत भेद को मैं यहां नही बता सकता। लेकिन एक उदाहरण देता हूं - ''सन 1952 में अमेरिका के वैज्ञानिक Brook Haven ने उच्च ऊर्जा मशीन प्रयोगशाला में, प्रोटोनों की गति 1,77,000 मील प्रति सेकंड पहुंचने पर, यह पाया कि उनका द्रव्यमान 3 गुना हो गया है। इसी प्रयोगशाला में इलेक्ट्रोनों की गति 0.9,99,999 प्रकाश गति (अर्थात प्रकाश गति से केवल एक बटा दस मील कम) पहुंचने पर पाया कि उनका द्रव्यमान 900 गुना बढ़ गया है। जबकि तीव्र गतियों पर पदार्थ के द्रव्यमान में यह परिवर्तन पूरी तरह से सत्यापित एक वैज्ञानिक सच है।" अब आप सोचिए कि तीव्र गतियों पर उनका द्रव्यमान क्यों बढ़ा? द्रव्यमान पदार्थ की मात्रा को कहते हैं और पदार्थ आइंस्टीन के अनुसार ऊर्जा का ही रूप है। गति के अतिरिक्त उसमें ऐसा क्या हुआ कि उससे पदार्थ का द्रव्यमान अर्थात ऊर्जा बढ़ गई। ये गति का चमत्कार था जिससे ऊर्जा पैदा हुई।
continue......
7 - आप कहते कि "जिसमें ऊर्जा (चेतन शक्ति) ही नही, वह गतिशील नही हो सकता।" तो बताइएं अंतरिक्ष में सूर्य, तारे, ग्रह-पिंड किस ऊर्जा से तीव्र गति कर रहे हैं? उनमें कौन सी चेतन शक्ति है? जबकि विद्युत ऊर्जा भी गति से ही उत्पन्न होती है, ऊर्जा से नही।
हटाएं8 - जबकि मैं आइंस्टीन का गहन अध्ययन कर चुका हूं और उन्हें जानने के बाद पाया कि उनके कई सिद्धांत गलत है, जिन्हें लेकर आज भी वैज्ञानिक संशय में हैं। इसलिए आप निर्वात सिद्धांत का गहन अध्ययन करें। यदि आप कहते हैं कि आइंस्टीन ने समय, ब्रह्मांड, गति, और कारण के मूल को ही ईश्वरी सत्ता माना है तो यह एकमात्र सच निर्वात ही है, और कुछ नही। क्योंकि वही स्वयं में परमगति है, स्वयं में कारण है, स्वयं में समय है और वही ब्रह्मांड हैं।
9 - शायद आप मेरे लेख से इसलिए भ्रमित हैं कि मैंने लेख में ब्रह्मांडीय सत्ता का आशय ब्रह्म आदि से कर दिया है। मैंने तो लेख में विज्ञान और धर्म दोनों को एक सेतु की तरह स्पष्ट किया है।
क्योंकि, खुद आइंस्टीन का भी मानना था कि- "धर्म विज्ञान की सहयता करेगा, ताकि ब्रह्मांड की एकरूपता के बारे में छिपे हुए सत्य सामने आ सकें। ये सत्य सूक्ष्म और विराट् दोनों स्तर पर सामने आएंगे। प्रकृति के कार्य-कलाप और देखी जा रही तर्कसंगतता के पीछे अभी सारे रहस्य छिपे पड़े हैं, जिन्हें जानना शेष है।" (भारत की विज्ञान यात्रा, पुस्तक से)
के- पी- सिंह
आपने कैसे कह दिया कि- “कुल मिला कर लेखक का यह प्रयास केवल बौद्धिक-विलास के अतिरिक्त कुछ नहीं है।”
हटाएं- मुझे आशा है कि इस उत्तर से आप जैसों का बौद्धिक विकास जरूर हो जाएगा।
के- पी- सिंह
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जवाब देंहटाएंक्या ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है?
जवाब देंहटाएंश्रीमान के. पी. सिंह साहब,
आपका आलेख विद्वतापूर्ण हो सकता है परन्तु इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं कि किसी का भी लेखन आलोचना-समालोचना के परे हो। सार्वजनिक मंच पर अभिव्यक्ति की पूरी आजादी का आनन्द आपको तभी मिल सकता है, जब उसके पक्ष-प्रतिपक्ष में लोगों के विचार आयें। यह कहाँ की शराफत है कि आप तो भारत के प्राचीन तत्ववेत्ता ऋषियों तक पर ऊंगली उठा सकते हैं-- "शायद व्यवहारिक विज्ञान के अभाव में यह ऋषि इस बात से अनजान था कि ऊर्जा, गति से ही पैदा होती है और ऊर्जा से ही पदार्थ बनता है,...।" लेकिन स्वयं के विचार को आप अपनी तरफ से सर्वमान्य मान लेते हैं। यह कैसी मानसिकता है? दूसरा--ऊर्जा, गति से ही पैदा नहीं होती, बल्कि ऊर्जा से गति उत्पन्न होती है। बल्कि गति भी एक तरह से ऊर्जा का ही स्वरूप है। तीसरा आपके आलेख में है-"वहां वह एकाकी स्वावलंबी शक्ति से श्वसित था।" इस 'श्वसित' का क्या अभिप्राय है? क्या यहाँ श्वास लेने वाले किसी जीवित प्राणी से आपका आशय है? यदि यह 'शासित' है, तब ठीक है। आपके आलेख पर मेरी टिप्पणी का आपने जिस तल्ख और आक्रामक तरीके से प्रत्युत्तर दिया है, उससे साबित होता है कि आपमें उन संस्कारों का अभाव है जिनसे विनय, शील, औदार्य आदि जैसे उदात्त भाव मनुष्य के अंतःकरण में उत्पन्न होते हैं और वह सभ्य बनता है। इसीलिए कहा भी गया है-- 'विद्या ददाति विनयम'।
1-आपने मेरी टिप्पणी के प्रत्युत्तर में लिखा--"दूसरे की आलोचना के बाद ही स्वयं में ज्ञान प्रकट होता है। लेकिन आपकी आलोचना में परिपक्वता का बेहद अभाव है। हालांकि आपकी आलोचना सैद्धांतिक नही है फिर भी आलोचना ज्ञान का सबसे अहम विषय होता है। इसलिए इस गुण को भी सुदृढ़ कीजिए।" लेकिन क्या यह बात आप अपने ऊपर भी लागू करने को तैयार हैं? आपके प्रत्युत्तर की भाषा से स्प्ष्ट है कि आप में न तो इतना साहस और धैर्य है कि अपनी आलोचना को सह सकें और न आपमें इस बात की कोई तहजीब-ओ-तमीज ही है कि दूसरों से कैसे बात-व्यवहार किया जाना चाहिए। आपने अपने सभ्य होने का परिचय श्री आशीष श्रीवास्तव जी को "तुम जैसे परख नहीं पाए थे" लिख कर दिया है। जबकि सभ्य लोग अपने से छोटों को भी आप कह कर बुलाते हैं। यहाँ आपमें विद्वानोचित विनम्रता के स्थान पर केवल दंभ दिखाई देता है। अपने प्रत्युत्तर के पहले ही वाक्य में आप एक अहंकारी उपदेशक की भूमिका में नजर आते हैं और आगे चलकर इसकी पुनरावृति भी दिखाई दी।
2- यह 'निर्वात' किसमें है? कहीं पर कभी भी निर्वात हो नहीं सकता। निर्वात अर्थात् वातरहित होने के लिए भी तो किसी स्थान, पात्र, वस्तु अथवा किसी वाह्य आवरण की आवश्यकता होगी। आप कहते हैं--"पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर निकलने पर हमें निर्वात ही मिलेगा।" और--"जब ब्रह्मांड की अंतिम अवस्था में वायु भी नहीं होगी तो आप उसे निर्वात ही कहोगे या कुछ और।" बड़ा अटपटा-सा है। जब ब्रह्मांड की अंतिम अवस्था में वायु भी नहीं होगी तो उसे केवल 'निर्वात' ही कैसे कहा जायेगा? आप ऐसा कहते हुए यह भूल गये कि हमारे सौर मंडल के बाहर अंतरिक्ष में कहीं पानी की मौजूदगी के प्रमाण वैज्ञानिकों को अभी तक नहीं मिले हैं। यदि वाह्य अतरिक्ष में जल भी नहीं होता तो फिर इस परिस्थति को सिर्फ वातरहित होना क्यों कहा जाये? यहाँ बात केवल पृथ्वी नहीं बल्कि ब्रह्मांड के सन्दर्भ में हो रही थी श्रीमान। फिर आपने कहीं यह स्पष्ट नहीं किया कि इस ब्रह्मांड की रचना की प्रारम्भिक अवस्था में यह निर्वात किसमें था? और ब्रह्मांड के विखण्डन/विलोपन/विलयन/समापन या इसके अंतिम क्षण में इस निर्वात की स्थिति क्या होगी? आपने आदेशात्मक स्वर में कहा है--"आप नाम-भेद पर मत जाओ, नाम बदलते रहते हैं बल्कि उनके आशय पर जाओ।" यदि यह ठीक ही कहा है तो स्वयं आप इस निर्वात के पूर्वाग्रह से बाहर निकलने को क्यों तैयार नहीं हैं? आपने इस छोटे से आलेख में 'निर्वात' शब्द को जबरन घुमा-फिरा कर 36 बार प्रयोग किया है।
3- "सीधे तौर पर कोई पदार्थ पैदा नहीं हो सकता" आपके इस कथन की आलोचना नहीं की गयी है। अब आप ही बताएं कि क्या पदार्थ उल्टे तौर पर पैदा हो सकता है? इस 'सीधे तौर' का क्या अर्थ है?
[ आगे जारी... ...
जवाब देंहटाएं4- आपका यह कथन एकदम हास्यास्पद है कि "... जब पदार्थ का क्षय होगा तो ऊर्जा का ही क्षय माना जाएगा या नहीं।" महाशय, स्पष्ट है कि आपको न तो भारतीय अध्यात्म का व्यावहारिक ज्ञान है और न ही आपका कोई वैज्ञानिक अध्ययन। क्योंकि वर्तमान विज्ञान मानता है कि पदार्थ कभी खत्म नहीं होता, बल्कि उसका रूपांतरण होता है। इसीलिए यूरेनियम-235 को परमाणु ऊर्जा में बदल देने के बाद कहा जाने लगा कि पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है।
5- ‘‘जिसमें ऊर्जा (चेतन शक्ति) ही नहीं, वह गतिशील नहीं हो सकता।" मेरे इस वाक्य का आपने जिस तरह प्रतिवाद किया है, उससे स्पष्ट है कि आपमें चीजों को सही संदर्भ में समझने की सामर्थ्य नहीं है। यदि होती तो आप इस चेतनता की बात को निर्जीव सूर्य, तारकादि ग्रह-पिंडों की गतिशीलता से नहीं जोड़ते। अतः हे परमज्ञानी महाशय, यह तो बतायें कि क्या जीवधारियों की तरह ये ग्रह-पिंड भी अपनी किसी अंतश्चेतना से गतिशील होते हैं? या इन्हें कोई बाह्य शक्ति ऐसा करने को विवश करती है? यदि ये बाहरी बल से गतिशील हैं तो फिर इन्हें आपके अतिरिक्त शायद ही अन्य कोई चेतन मान लेगा। या फिर इस चेतना को लेकर हम जैसे अज्ञानी लोगों के ज्ञान-वर्द्धन के लिए आप कोई नई थ्योरी प्रस्तुत करना चाहते हैं, जो हमारी समझ के परे है।
6- यदि आपने आत्मा, परमात्मा और मोक्ष जैसे विषय अधिकारी विद्वानों के लिए छोड़ दिये होते तो यह प्राचीन भारतीय ऋषियों, वैदिक साहित्य, अन्य दार्शनिक वांङ्मय तथा अध्यात्म के व्यावहारिक पक्ष को जानने वाले तत्व-वेत्ताओं पर आपकी बड़ी कृपा होती। आप कृपया भगवद्गीता के अति गूढ़ ज्ञान को हृदयंगम करने का प्रयत्न करें जिससे आप उस श्लोक का अर्थ यथानुरूप समझ सकेंगे जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण के माध्यम से महर्षि वेद व्यास ने कहलवाया है-‘‘न जायते म्रियते वा कदाचिन्... (2/20)। यही बात कठोपनिषद (1/2/18) में भी कही गई है। आप भगवद्गीता का ही संदर्भ देते हुए लिखते हैं--"आत्मा...एक शरीर से दूसरे शरीर में रूपांतरित होती है।" परन्तु न जाने क्यों महर्षि वेदव्यास ने भगवद्गीता (2/22) में "वासांसि जीर्णानि... " कहते हुए आत्मा को पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र धारण करने वाला बताया है। जबकि आप लिखते हैं-‘‘...ये (आत्मा) एक शरीर से दूसरे शरीर में रूपांतरित होती है।’’ काश आज वेदव्यास जी होते तो आपकी इस नई थ्योरी को समझ पाते, जिसके अनुसार आत्मा का एक नये शरीर के तौर पर रूपांतरण हो जाता है। महाशय, जन्म-मृत्यु को समझ पाना आप जैसे लोगों के वश की बात नहीं है। अतः शास्त्र को तोड़-मरोड़ कर लोगों को अपनी विद्वता (?) का प्रदर्शन कर भ्रमित करने का प्रयास न करें।
7- जैसे काना बेटा भी माता को राजा बेटा ही लगता है, उसी तरह आपको भी अपनी इस रचना पर नाज होना स्वाभाविक होगा। परन्तु आपका अहंकार भरा यह दावा-‘‘वैज्ञानिकों को भविष्य में ब्रह्मांडीय निर्वात सिद्धांत की शरण में आना पड़ेगा’’ अभी तो दूर की कौड़ी तथा बौद्धिक व्यायाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। श्री आशीष श्रीवास्तव जी ने इसे शब्दों का मायाजाल ठीक कहा है, बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि चुहिया को हल्दी की गांठ मिल गई तो खुद को पंसारी समझ बैठी। बेचारी चुहिया!
अंत में आपसे बस इतना ही कहना है कि जिस मनुष्य के हृदय में दूसरों के प्रति आदर व मान-सम्मान का भाव नहीं, वह दुनिया का सबसे कंगाल व्यक्ति है।
Vacha जी, इन विद्वान लेखक महाशय से बहस करने का कोई औचित्य नही है, ये केवल सुनाना जानते है, सुनना चाहते ही नही है। इनकी नयी किताब "ब्रह्माण्ड एक अंतिम खोज" की कुछ छात्रो ने फ़ेसबुक पर धज्जीयाँ उड़ा कर रख दी है। और ये महाशय उन छात्रो (सभी १० वी -१२ वी) को अपनी विद्वता दिखाने से बाज नही आये। छात्रो से बात करने के लिये जो सभ्यता/शालीनता चाहीये वह भी भूल गये। मेरे तीन शब्दो की टिप्पणी पर इनका रोष देखिये.. यह इनकी विद्वता और सभ्यता दिखाने के लिये पर्याप्त है। :)
हटाएंसम्मानित आशीष जी,
जवाब देंहटाएंआपकी इस टिप्पणी से ऐसा लगता है कि इन महाशय के बारे में आपके पास काफी जानकारियां हैं। हम तो केवल इनका आलेख पढ़ कर जो समझ में नहीं आया उसके सम्बंध में और अधिक जानने की सहज जिज्ञासा से कुछ पूछने की धृष्टता कर बैठे। साथ ही समालोचनात्मक दृष्टिकोण से यह भी लिखा--'कुल मिला कर लेखक का यह प्रयास केवल बौद्धिक-विलास के अतिरिक्त कुछ नहीं है।' बस, इतने भर से ये हज़रत सारी शालीनता भुला बैठे। सचमुच ही शब्द किसी के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण आयाम होते हैं।
अपने विचार प्रकट करने के लिए आपका आभार।
Science ke hisab se God ko mante hai ya nahi?
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