विज्ञान दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं! साथियो, आज ही के दिन 28 फरवरी, 2008 को इस ब्लॉग की शुरूआत ' तस्लीम ' के रूप में हुई थी, जो अब ...
विज्ञान दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं! साथियो, आज ही के दिन 28 फरवरी, 2008 को इस ब्लॉग की शुरूआत 'तस्लीम' के रूप में हुई थी, जो अब 'साइंटिफिक वर्ल्ड' के रूप में आपके सामने है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इन 6 सालों में 'साइंटिफिक वर्ल्ड' एक ब्रांड के रूप में विज्ञान की दुनिया में जाना—पहचाना जाने लगा है। इसे यहां तक पहुंचाने में निश्चय ही आप सबका अमूल्य योगदान रहा है। इसके लिए 'साइंटिफिक वर्ल्ड' परिवार अपने लेखकों (उत्कृष्ट लेखों के लिए) एवं अपने पाठकों (2000 हिट प्रतिदिन पहुंचाने के लिए) का आभार व्यक्त करता है। आशा है भविष्य में भी हमें आप सबका स्नेह इसी प्रकार प्राप्त होता रहेगा। इसी आशा के साथ आप सबका एक बार पुन: आभार। 'विज्ञान दिवस' के उपलक्ष्य में आप सबकी सेवा में प्रस्तुत है चर्चित लेखक एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप जी का एक चिंतनपरक आलेख—
कल्पना और बालविकास
-ओमप्रकाश कश्यप
आपका बच्चा खोया-खोया रहता है! देर तक आसमान ताकना उसकी आदत में शुमार है! अकेला बैठा हुआ न जाने क्या सोचता रहता है! आप उसको समझा चुके हैं. इसके बावजूद स्कूल की काॅपी में न जाने क्या-क्या लिख आता है. पढ़कर ‘मेम’ का दिमाग भी चकरा जाता है. वह डांटती हैं. पर वह मानता ही नहीं. जरूर कोई बीमारी है. इलाज के लिए आप उसे डाॅक्टर के पास ले जाते हैं. वह किसी नई बीमारी का नाम लेता है-‘डिप्रेसन’....‘फोबिया’ या कुछ ऐसा ही भारी-भरकम. नए जमाने की बीमारी!
छोटे बालक को जिसने अभी सपने देखना शुरू ही किया है. जीवन की चुनौतियों के बारे में जो जानता तक नहीं है, उसे भला कैसा अवसाद! कैसी चिंता! कैसा फोबिया! कैसी घबराहट! फोबिया है भी तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है. डिप्रेसन यदि है तो इसलिए कि आपने अपनी अंतहीन अपेक्षाओं का बोझ उसपर लाद दिया है. नन्हा शिशु सांप को रस्सी समझकर खेल सकता है, और बड़ा होते ही यदि रस्सी को सांप मानकर भय से चिल्लाने लगता है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आप, आपका समाज, या शायद दोनों ही.
साफ है कि उम्र के साथ आपने उसे बड़ा नहीं होने दिया. उसका मन बचपन में जितना मजबूत था, उतना अब नहीं है. प्रकृति ने तो उसके साथ पूरा न्याय किया. शरीर अपनी गति से बढ़ता गया. ठीक समय पर लाकर देह खिला दी. मगर बौद्धिक परिपक्वता, मन का विश्वास, संघर्ष-चेतना, अपना निर्णय आप लेने की कूबत सब पीछे छूटते गए. तो जरूरत आपके इलाज की है. समाज के इलाज की है, मगर आप अपना दोष तो मानेंगे नहीं. न समाज को दोष देने का साहस आपके भीतर है. बचता है अकेला बालक. जो अपनी विशिष्ट शारीरिक अवस्था के कारण आपके ऊपर निर्भर है. या आपने जो समाज-व्यवस्था बनाई हुई उसमें साधारण को स्वतंत्रता के इसलिए आप सारी जिम्मेदारी बालक के मत्थे मढ़ देते हैं.
मान लेते हैं (न मानने का आपके पास कुछ आधार भी नहीं है?) कि डाॅक्टर ने कहा है तो जरूर सच होगा. आप इलाज शुरू कर देते हैं. डाॅक्टरी इलाज में चूक हो जाए तो दिमाग ठिकाने रखने के लिए दूसरा इंतजाम भी है. इसके लिए आप उसे नियमित मंदिर ले जाते हैं. हनुमानजी का भोग, अघोरी का झाड़ा लगवाते हैं. सुबह-शाम महीने, दो महीने, छह महीने....नियमित इलाज, पाठ-पूजा और सत्संग. इलाज का असर होता है. अब वह अकेला नहीं रहता. आसमान नहीं ताकता. ‘अच्छा बच्चा’ बन चुका है. आप खुश हैं. अध्यापक खुश होकर अच्छे नंबर देने लगे हैं. क्योंकि अब बालक सवालों के वही उत्तर देता है, जो उसे रटाए जाते हैं. पाठ्य पुस्तकों के बाहर भी ज्ञान की दुनिया है, इसका उसे अंदाजा तक नहीं है....दिमाग को उड़ान भरने का अभ्यास जो नहीं रहा. ‘अच्छा बच्चा’ बनने के लिए इस काम को वह कभी का छोड़ चुका है.
पर जरा सोचिए, अल्बर्ट आइंस्टाइन (Albert Einstein) की मां या उनका सगा-संबंधी उन्हें लाइन पर लाने के लिए उन्हें इसी प्रकार खुद के वजूद से काट देता तो क्या हम सापेक्षिकता के सिद्धांत तक पहुंच पाते? जेम्स वाट की चाची यदि उसको प्रयोग करने से रोकतीं तो क्या वह भाप का इंजन बना पाता? थाॅमस अल्वा एडीसन (Thomas Alva Edison) या माइकेल फैराडे (Michael Faraday) के परिजन यदि उन्हें ‘अच्छा बच्चा’ बनाने के लिए उनके साथ मनमानी करते और जिज्ञासा से काट कर ‘परम विश्वास’ की दुनिया में ले जाते तो क्या हम बल्व और बिजली की मोटर जैसे आविष्कारों से रू-ब-रू हो पाते? शायद हो भी जाते, मगर तब जब किसी और अल्बर्ट आइंस्टाइन, एडीसन, फैराडे या जेम्स वाट के परिजनों को उन्हें वह करने की छूट देनी पड़ती, जिससे वे अपनी मनोसृष्टि को वास्तविक सृष्टि में ढाल पाते.
मनोसृष्टि या कल्पना पर बाकी चर्चा आगे. पहले 1954 के आसपास की एक घटना. बताया जाता है कि एक स्त्री आइंस्टाइन से मिलने पहुंची. नोबल पुरस्कार विजेता, विलक्षण प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक होने के कारण उनका मान-सम्मान पहले भी कम न था. मगर 1952 में इजरायल के राष्ट्रपति पद का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक ठुकरा देने के बाद तो वे पूरी दुनिया पर छा चुके थे. मिलने पहुंची औरत आइंस्टाइन की प्रशंसक थी. वह चाहती थी कि आइंस्टाइन उसके बेटे को समझाएं. उन पुस्तकों की जानकारी दें, जिन्हें पढ़कर उसका बेटा उन जैसा महान वैज्ञानिक बन सके.
उत्तर में आइंस्टाइन का कहना था- ‘आप इसे परीकथाएं, अधिक से अधिक परीकथाएं पढ़ने को दीजिए.’ महिला चैंकी. उसको लगा आइंस्टाइन ने कोई मजाक किया है. उसने वैज्ञानिक से गंभीर होने की विनती की. बताया कि वह अपने बेटे से बहुत प्यार करती है तथा उसे जीवन में सफल देखना चाहती है. इसके बावजूद आइंस्टाइन का उत्तर पहले जैसा ही था. उनका कहना था कि रचनात्मक कल्पनाशक्ति सच्चे वैज्ञानिक के लिए उसका अनिवार्य बौद्धिक उपकरण है. परीकथाएं बालक की कल्पनाशक्ति को प्रखर करती हैं. उन्होंने जोर देकर कहा था, ‘मैंने अपने सोचने-समझने के तरीके की पड़ताल की है. काफी सोच-विचार के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मेरे लिए मेरी अद्भुत कल्पनाशक्ति वस्तुजगत संबंधी किसी भी बोध, यहां तक कि सकारात्मक सोच से भी कहीं अधिक लाभकारी है.’
उन्होंने महिला को पुनः समझाया- ‘यदि तुम्हें अपने बेटे को प्रतिभाशाली बनाना है तो उसको परीकथाएं पढ़ाओ. यदि तुम उसे और ज्यादा प्रतिभाशाली बनाना चाहती हो तो उसे और अधिक परीकथाएं पढ़ने को दो.’2
उपर्युक्त प्रसंग का उल्लेख अनेक विद्वानों ने किया है. कितना सच है यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. यदि यह सच है तो आइंस्टाइन ने उस स्त्री से क्या सचमुच परिहास किया था? क्या शोध एवं कल्पना का कोई अंतःसंबंध है? क्या परीकथाओं को पढ़कर कोई बालक सचमुच वैज्ञानिक बन सकता है? यदि नहीं तो आइंस्टाइन ने ऐसा क्यों किया था? यदि हां, जो यह कैसे संभव है कि परीकथा जैसे निहायत कल्पनाशील किस्सों को पढ़कर कोई बालक वैज्ञानिक बन सके? ऐसी पहेलियां हम जैसे साधारण बौद्धिकों की उलझन होती हैं. जो विलक्षण मेधावी हैं, वैज्ञानिक प्रविधियों की जानकारी रखते हैं, जिन्हें विज्ञान और उसके इतिहास की समझ है, वे जानते हैं कि यह असंभव भी नहीं है. ज्ञान-विज्ञान एवं कल्पना का रिश्ता बड़ा करीबी है. तीव्र कल्पनाशक्ति संभावनाओं के नए वितान खोलकर वैज्ञानिक बोध को रचनात्मक दिशा देने में मददगार सिद्ध होती है.

आइंस्टाइन सहित उस समय के भौतिक विज्ञानी एक जटिल पहेली से जूझ रहे थे. पहेली थीµ‘मान लीजिए कोई अंतरिक्ष यात्री प्रकाशवेग जैसे असंभव वेग से अंतरिक्ष यात्रा पर है. उसके हाथ में एक दर्पण है. तो क्या उस दर्पण में वह अपना प्रतिबिंब देख पाएगा? कोई और होता तो उस पहेली पर कुछ देर माथापच्ची करता. तीर-तुक्का चलाता. फिर हाथ झाड़कर आगे बढ़ जाता. जब से वह पहेली बनी थी, तब से यही होता आया था. साधारण मनुष्यों की भांति यदि आइंस्टाइन भी यही करते तो उन्हें ‘जीनियस’ कौन कहता! कौन उन्हें याद रखता! उस पहेली का हल ढूंढने में आइंस्टाइन एक-दो दिन, महीने या वर्ष नहीं, पूरे दस वर्ष लगा दिए. 1895 से 1905 तक. 1895 में सोलह वर्ष का किशोर आइंस्टाइन पहेली पर दांव लगाते-लगाते छबीस वर्ष का युवा हो गया. इस बीच जो भी उन्हें मिला उससे पहेली के बारे में चर्चा की. उसका समाधान करना चाहा. मित्रों-गुरुजनों-परिजनों को पत्र लिखकर संवाद किया. मगर नाकामी हाथ लगी.
आखिरकार उनकी तीव्र कल्पनाशक्ति ही उनके काम आई. मनोसृष्टि ने सृष्टि के गूढ़तम रहस्य से पर्दा हटाकर नए सिद्धांत के निर्माण की राह खोल दी. उस समय तक प्रकाशवेग को परिवर्तनशील माना जाता था. मान्यता थी कि प्रेक्षक के अनुसार प्रकाश का वेग भी बदलता रहता है. आइंस्टाइन ने पारंपरिक उद्भावनाओं को किनारे कर दिया. कल्पना की ऊंची छलांग लगाते हुए उन्होंने प्रकाश वेग को प्रकृति का सबसे उच्चतम वेग माना. साथ ही परिकल्पना की कि वह प्रेक्षक की स्थिति पर निर्भर नहीं करता. प्रकाश का वेग हर अवस्था में एक समान होता है. प्रेक्षक चाहे जिस अवस्था में हो वह कभी नहीं बदलता. यानी अंतरिक्ष में हाथ में दर्पण लिए प्रकाशवेग से गतिमान प्रेक्षक और कुछ चाहे कर सके या नहीं. दर्पण में अपना चेहरा अवश्य देख सकता है. ‘प्रकाशवेग की प्रेक्षक निरपेक्षकता’, जिसपर इस सिद्धांत की नींव रखी गई को हम सापेक्षिकता के सिद्धांत का आंतरिक विरोधाभास भी कह सकते हैं.
आइंस्टाइन ने जो कहा उसको वैज्ञानिक प्रणाली के अनुसार सिद्ध करने में तो पूरे बीस वर्ष लग गए. कल्पना के सहारे हुए इस खोज के फलस्वरूप खगोलीय पिंडों की स्थिति की सटीक व्याख्या के लिए क्षण को महत्ता प्राप्त हुई. समय को चैथे आयाम के रूप में स्वीकारा जाने लगा. न केवल आइंस्टाइन बल्कि न्यूटन, आर्कीमिडीज (Archimedes), लियोनार्दो दा विंसी (Leonardo Da Vinci), गैलीलियो (Galileo), थाॅमस अल्वा एडीसन, जेम्स वाट (James Watt) आदि अनेक वैज्ञानिक हुए हैं, जिनकी सफलता के पीछे उनकी विलक्षण कल्पना-शक्ति का योगदान था. पृथ्वी में कोई शक्ति है यह विचार न्यूटन को कथित रूप से सेब के जमीन पर गिरने की घटना से सूझा था. ‘कथित’ इसलिए क्योंकि फल गिरने से आकर्षण शक्ति की परिकल्पना का उल्लेख न्यूटन से करीब नौ सौ वर्ष पहले लिखित ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ (Brahmasphutasiddhanta) में भी मिलता है, जो मध्यकालीन आचार्य ब्रह्मगुप्त (Brahmagupta) की रचना है. उनसे भी पहले वाराहमिहिर (Varahamihira) ने लिखा था-‘पृथ्वी उसी को आकृष्ट करती है, जो उसके ऊपर हो. क्योंकि यह सभी दिशाओं में नीचे है और आकाश सभी दिशाओं में ऊपर है.’
ब्रह्मगुप्त इसे और भी स्पष्ट कर देते है- ‘चारों तरफ आकाश बराबर रहने पर पृथ्वी ही के ऊपर बहुत पके हुए फल को गिरता हुआ देखकर भूपृष्ठ स्थित प्रत्येक बिंदू में आकर्षण शक्ति है-यह अनुमान किया गया.’3
तात्पर्य है कि वैज्ञानिक शोध के लिए कल्पना का आश्रय प्राचीनकाल से लिया जाता रहा है. शोध क्षेत्र में कामयाबी भी प्रायः उन्हीं वैज्ञानिकों के हाथ लगी, जिनकी कल्पना-शक्ति मौलिक एवं प्रखर थी. यह न्यूटन की कल्पनाशक्ति ही थी जिसने उसको चेताया कि यदि पृथ्वी में आकर्षण बल है तो उसका कुछ न कुछ परिमाण भी होना चाहिए! अपनी विलक्षण मेधा से उसने गुरुत्वाकर्षण बल की संकल्पना को नए सिरे न केवल स्थापित किया, बल्कि उसकी परिगणना भी की. एक नई संकल्पना ने जन्म लिया कि पृथ्वी सहित ब्रह्मांड के सभी ग्रह एक-दूसरे को आकर्षित करते है. आकर्षण बल की मात्रा उनके द्रव्यमान तथा बीच की दूरी पर निर्भर करती है.
न्यूटन (Newton) के पूर्ववर्ती वैज्ञानिक जिनमें भारतीय गणितज्ञ भी सम्मिलित हैं, इस दिशा में आगे न बढ़ सके तो इसलिए कि उनके धार्मिक आग्रह प्रबल थे. आस्था से बोझिल उनकी कल्पना अपनी मौलिकता गंवा चुकी थी. जैसे ब्रह्मगुप्त ने लिखा कि सभी भारी वस्तुएं प्रकृति के नियमानुसार नीचे पृथ्वी पर गिरती हैं. क्योंकि वस्तुओं को अपनी ओर आकृष्ट करना और उन्हें रखना पृथ्वी का धर्म है. उसी प्रकार जैसे जल का धर्म है बहना, अग्नि का जलना और वायु का गति प्रदान करना. इस सोच के पीछे एक पवित्र विश्वास झलकता था, एक ऐसी धारणा इसके पीछे थी जो कौतूहल को जिज्ञासा में बदलने के बजाय आस्था की ओर ले जाती है. परिणामस्वरूप आदमी दिमाग के बजाय, पूर्व-निष्पत्तियों से काम चलाने लगता है. श्रद्धा विवेक की राह रोक देती है.
वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में कल्पनाशक्ति का योगदान लक्ष्य की पूर्वपीठिका तैयार करने का है, जिसके बिना किसी यात्रा का शुभारंभ असंभव है. किसी भी वैज्ञानिक शोध के प्रायः दो रास्ते होते हैं. पहली आगमनात्मक प्रणाली. यह वैज्ञानिक शोध की सबसे लोकप्रिय प्रणाली है, जिसमें उपस्थित विशिष्ट तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धांत का अन्वेषण किया जाता है. न्यूटन का जड़त्व का सिद्धांत, एडवर्ड जेनर (Edward Jenner) द्वारा चेचक की वैक्सीन, अलेक्जेन्डर फ्लेमिंग (Alexander Fleming) द्वारा बादलों में बिजली इसी प्रकार के शोध हैं.
दूसरी ‘निगमनात्मक प्रणाली’ है. इसमें पहले सामान्य सिद्धांत की परिकल्पना कर ली जाती है, तदनंतर उसकी पुष्टि हेतु प्रमाण खोजे जाते हैं. इनमें से पहली यानी ‘आगमनात्मक प्रणाली’ का उपयोग प्रायः वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में किया जाता है. इसका आशय यह नहीं है कि ‘निगमनात्मक प्रणाली’ विज्ञान के लिए सर्वथा वर्जित है. बल्कि ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें प्रमाणों के अभाव में वैज्ञानिक अपने बोध अथवा अनुभव के आधार पर सामान्य परिकल्पना कर लेते हैं. बाद में विभिन्न प्रयोगों, अन्वीक्षण आदि के आधार पर उस परिकल्पना को जांचा-परखा जाता है.
न्यूटन के गुरुत्त्वाकर्षण और आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज में आगमनात्मक और निगमनात्मक दोनों प्रणालियों का योगदान दिखाई पड़ता है. तीसरी श्रेणी आकस्मिक रूप से होने वाली खोजों; यानी उन आविष्कारों की है जो किसी दूसरे प्रयोग अथवा घटना के दौरान अकस्मात हाथ लग जाते हैं-जैसे मैग्नीशिया के चरवाहों द्वारा चुंबक की खोज, मेडम क्यूरी (Madam Query) द्वारा रेडियम, फीनीशिया के समुद्रतट पर सीरियाई व्यापारियों द्वारा कांच की खोज वगैरह. उनमें भी ऐसी सूझ का होना जरूरी है जो नएपन को तत्क्षण पकड़ सके तथा उसके आधार पर सामान्य परिकल्पना गढ़कर आगे बढ़ सके.
बुदापेस्ट विश्वविद्यालय (Budapest University) के प्रोफेसर डाॅ. के. स्टेलजेर ने शोधकर्ता में अपेक्षित जिन आठ गुणों को जरूरी बताया है, वे हैं-तत्परता(5%), खुला मन(10%), दृष्टि की विशालता(15%), कल्पनाशक्ति(30%), निर्णय दक्षता(15%), विषय का सांकेतिक ज्ञान(10%), अनुभव(10%) तथा दायित्वबोध(5%).
इस विश्लेषण को ध्यान से देखें तो नवीन शोध के लिए कल्पना को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है. इससे यह निष्कर्ष सामने आता है कि कल्पना और विज्ञान में न तो कोई स्पर्धा है और न कोई वैर. बल्कि उच्च कल्पनाशक्ति वैज्ञानिक शोधों में मददगार सिद्ध होती है.

कल्पनाएं आसमानी चीज हैं. परंतु सीधे आसमान से नहीं उतरतीं. उनकी जड़ें जमीन में होती हैं. बालक की कल्पना और उसके परिवेश में अनिवार्य संगति होती है. कुछ शताब्दी पहले तक, जब बारूद और बंदूक का आविष्कार नहीं हुआ था, बालक अपना युद्ध-कौशल प्रकट करने के लिए तलवार, भाला, बरछी जैसे उन हथियारों की ही कल्पना कर सकता था. लेकिन अब इस तकनीक के दौर में बालक की युद्धक कल्पनाएं बगैर बम, सैटेलाइट, मिसाइल, रिमोट तकनीक के बगैर संभव ही नहीं है.साधारण मनुष्य असंभव कल्पना कर सकता है, मगर असंभव कल्पना को विशेषीकृत करना, उसके लिए संभव नहीं होता. उदाहरण के लिए हम पचास हजार भुजाओं तथा पचास हजार एक भुजाओं वाले दो अलग-अलग बहुभुजों की कल्पना तो कर सकते हैं. मगर यदि उनमें अंतर बताने, विशेषीकृत करने के लिए कहा जाए तो हम सिवाय उस अंतर के, जो इन दो संख्याओं के बीच है, कुछ और बता पाने में शायद ही सफल हो पाएं.
ऐसे ही अंतरिक्ष में दो ग्रहों की कल्पना करना हमारे लिए आसान है. लेकिन यदि उन दोनों के बीच के सूक्ष्म अंतर की कल्पना करनी हो तो वह हमारे लिए संभव नहीं है. इसलिए कि पृथ्वी के बाहर के ग्रहों का हमारा अनुभव शून्य है. उस अवस्था में हमारे लिए उतनी ही कल्पना संभव है, जो सुनी-पढ़ी घटनाओं के प्रभाव से बनी हो. उससे आगे की कल्पना के लिए सृजनात्मक क्षमता की जरूरत होती है. सामान्य नागरिक होने के नाते सुदूर ग्रहों की कल्पना हमारे लिए भले असंभव हो, किंतु सृजनात्मक प्रतिभा से युक्त लेखक, कवि और कलाकारों के लिए यह असंभव नहीं है. वे वहां के वातावरण को लेकर अच्छा-खासा रूपक खड़ा कर सकते हैं. अतः यह बालक और समाज दोनों के हित में है कि उसका कल्पना-सामथ्र्य मुक्त रचनात्मक विस्तार ले. परंतु प्रायः ऐसा हो नहीं पाता. धर्म, समाज, संस्कृति, जाति, परंपरा आदि के नाम से शुरू से उसके चारों ओर ऐसे घेरे बना दिए जाते हैं, जिनमें फंसकर वह एक दायरे के बाहर सोचना बंद कर देता है. आस्था और अंध-विश्वास तो ऐसे घेरे हैं, जो मनुष्य के विवेक और प्रकारांतर में उसके रचनात्मक कौशल को मंद कर देते हैं.
बालक कल्पना के बारे में ऐसी शास्त्रीय बातें भले ही न जाने, मगर वह उन्हें जीना बाखूबी जानता है. उसकी आरंभिक कल्पनाओं को किसी खास रूपाकार में बांधना असंभव होता है. नन्हा शिशु अपने संपर्क में आने वाली प्रत्येक वस्तु को एक जिज्ञासा एवं कौतुहल की दृष्टि से परखना चाहता है. वस्तु के बारे में बंधा-बंधाया ‘सच’ उसे स्वीकार्य नहीं होता. नएपन की खोज वह उतावलेपन की सीमा तक जाकर कर सकता है. माता-पिता उसे खिलौना लाकर देते हैं. वह कुछ देर उससे खेलता है. मगर थोड़ी ही देर बाद उसकी आंतरिक संरचना को जानने के लिए उद्यत हो जाता है. खिलौने के बारे में दूसरों के दिए ज्ञान से उसको संतोष नहीं होता. अपने सजग-सक्रिय-चैतन्य मष्तिष्क से वह स्वयं उसका अन्वीक्षण करना चाहता है.
बालक अपने कल्पना जगत को अपनी ही तरह गढ़ता है. इसलिए वह नाकुछ वस्तुओं से खेल सकता है, विचित्र से विचित्र प्राणी को अपना सकता है. परंतु अधिक देर तक नहीं, जैसे ही उसको भरोसा जमता है कि उसने उस वस्तु या प्राणी में जानने योग्य जान लिया है, उसका कौतूहल समाप्त हो जाता है और वह उकताने लगता है. उसके बाद उसे खुद से दूर करते, उपेक्षा करते उसे देर नहीं लगती. हां, कोई खिलौना या वस्तु बालक की संवेदना को छू जाए तो वह उसको सोते-जागते, उठते-बैठते अपने साथ भी रख सकता है.
उम्र के साथ बालक के बुद्धि-सामथ्र्य का विकास होता है. मगर सीखने की रफ्तार लगातार कमजोर पड़ती जाती है. इसके लिए बालक जिम्मेदार नहीं होता. जिम्मेदार वे लोग या समाज होता है, जो उसके आसपास का परिवेश रचते हैं. किस्से-कहानियों में भी वह रुचि लेता है क्योंकि वे उसे उसके कल्पनाजगत के नजदीक ले जाकर उसको और भी समृद्ध करते हैं. अपने माता-पिता और परिवार के बाहर बालक यदि किसी के सर्वाधिक सन्निकट होता है तो उसका कल्पनाजगत ही है. उसमें वह बड़ों द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं चाहता.
चूंकि बालक का मस्तिष्क बड़ों की अपेक्षा अधिक सक्रिय होता है, इसलिए जो भी उसके आरंभिक संपर्क में आता है, जिसके भी साथ वह समानता के स्तर पर संवाद करने में खुशी का अनुभव करता है, और जिसके बारे में उसको लगता है अपने बड़प्पन द्वारा वह उसकी अस्मिता को आहत करने वाला नहीं है, वही उसका मीत-सखा बन जाता है. पशु-पक्षी बालक को आकर्षित करते हैं तो इसलिए कि बालक को लगता है कि उनसे अपनी बात मनवा सकता है. वे न तो उपदेश देते हैं न अपने बड़ेपन का रौब गांठते हैं. बल्कि छोटे बनकर बालक को बड़ेपन का एहसास कराते हैं. उनके साथ खेलते-बतियाते हुए बालक अपनी नैसर्गिक स्वतंत्रता का आनंद ले सकता है. इस कारण बालक के अस्मिता जगत में वे बहुत जल्दी जगह बना लेते हैं.
अपने लघु आकार और स्नेहिल व्यवहार द्वारा परियां भी यही करती हैं. बल्कि उनकी कल्पना ही बालक की मददगार के रूप में की गई. यही कारण है कि बालक के कल्पनालोक का सर्वाधिक हिस्सा पशु-पक्षी, खेल-खिलौने, बौने, परियां, पेड़-पौधे आदि घेरते हैं. उन्हीं से वह अपनी सृजनात्मकता में रंग भरता है. सिंगमड फ्रायड (Sigmund Freud) ने बालक की कल्पनाशक्ति की दो कसौटियां निर्धारित की हैं. उनमें से द्वितीयक कल्पनाशक्ति रचनात्मक अभिव्यक्ति में सहायक होती है. बालक इसका प्रदर्शन विभिन्न कलाओं एवं खेलों के माध्यम से करता है. छोटा बालक रंगों की पहचान भले न कर सके, रुपहले सपने देखना उसे खूब आता है. उसके भविष्य की नींद इन्हीं सपनों पर टिकी होती है.
तीव्र कल्पनाशक्ति शोध-वृति का अनिवार्य लक्षण है. सवाल है कि हम बालक की मौलिक कल्पनाशक्ति को उभारने के लिए क्या करते हैं. शायद कुछ भी नहीं. या इस क्षेत्रा में हमारी कोशिश होती भी है तो नगण्य. जबकि मौलिक कल्पना सामर्थय की धार को कुंद करने के लिए हर चंद कोशिश की जाती है.
धर्म के नाम पर, संस्कृति, समाज और परंपरा के नाम पर, यह कार्य योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है. सामंती आग्रहों पर बनी संस्थाएं जैसे धर्म संतोष को एक सदगुण की भांति परोसती हैं. रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पीव’ या रहीम का कथन-‘गौ धन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान, जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान.’ जैसी उक्तियां जो एक काल और परिस्थिति विशेष की उपज थीं, नैतिकता की तरह परोसी जाती थीं. उस समय संतोष और लालच के बीच के अंतर को समझाना तो दूर, कई बार उसको गड्ड-मड्ड कर दिया जाता था. भुला दिया जाता था कि संतोष का अर्थ ‘जो है, जितना है उसी से समझौता कर एक काल्पनिक सुख में जिंदगी गंवा देना है’-जबकि लालच दूसरे की सुख, संपदा पर अनैतिक दृष्टि रख उसको अनैतिक रूप से पाने की लालसा करना है. इस अंतर को समझे बिना, केवल संतोष को सर्वोच्च-निधि बताने वाली अतार्किक रचनाएं बालक को अनावश्यक रूप से अंतर्मुखी, पलायनवादी और समझौतापरस्त बनाती हैं.
जबकि सुख पाने की अभिलाषा अपराध नहीं है. अच्छा जीवन जीने के सपने देखना और उसके लिए भरसक प्रयत्न करना, प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है. इसके बावजूद बालक को यथास्थितिवादी बनाने के प्रयास हर स्तर पर तरह-तरह से किए जाते हैं. नतीजा यह होता है कि सृजनात्मक कल्पनाशक्ति जो बचपन से बाहर आने के लिए छटपटा रही थी, असमय काल-कवलित हो जाती है. उसके अभाव में बालक बड़ा होते-होते अनुसरण को अपना धर्म बना लेता है. धर्म स्वयं में बौद्धिक शैथिल्य का प्रमुख कारण है, जहां ‘सत्य’ निर्रथक आडंबरों के नीचे दबा दिया जाता है. साहित्य और दूसरी कलाओं का काम मौलिक अभिव्यक्तियों और कल्पनाओं का सरंक्षण-संवर्धन करना है.
भारत में एक-चैथाई बच्चे आज भी प्राथमिक या छठी-सातवीं कक्षा से आगे नहीं जा पाते. बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं. ऐसे बच्चे जब बड़े होकर जिंदगी के समर में उतरते हैं तो उनपर कबीर और रहीम के दोहों का असर रहता है. वे जीवन में यथास्थितिवादी और पलायनोन्मुखी बने रहते हैं. ‘तेते पांव पसारिये जेती लांबी सौर’-पांव चादर के भीतर ही रहें, इस कोशिश में वे पूरा जीवन बिता देते हैं.
अतींद्रिय धार्मिक विश्वासों के बहाने बालक के मौलिक सोच और कल्पनाओं को अवरुद्ध करने की घटना आज की नहीं है. वह तब की है, जब से इस सभ्यता का विकास हुआ. इस कारण भी गत सहस्राब्दियों में जन्मे बेहद प्रतिभाशाली दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, कवि, कलाकारों और चिंतकों के अमूल्य योगदान के बावजूद मनुष्य का अब तक का अर्जित ज्ञान उसके अज्ञान के आगे बौना है. जितना उपलब्ध है उससे भी समाज के बहुसंख्यक वर्ग को वंचित कर दिया जाता है. धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, पीर-औलिया, नाथ-पैगंबर वगैरह के नाम पर जो कुछ उसे सिखाया जाता है, वह सत तो क्या ‘असत’ के भी करीब नहीं होता. वह केवल और केवल भ्रम होता है, जिसमें फंसकर व्यक्ति अपना पूरा जीवन गुजार देता है.
बालपन से ही जनसाधारण को उसके कथित साधारणपन का एहसास तरह-तरह से और इतनी बार कराया जाता है कि वह अपनी सीमाओं के पर जाने की कोशिश तो दूर, कल्पना तक नहीं कर पाता. इसकी नींव बालक के कल्पना-सामथ्र्य को अवरुद्ध करने, उसके सोच के अनुकूलन के आरंभिक प्रयास के साथ ही रख दी जाती है. यह कोशिश तब की जाती है जब वह बौद्धिक स्तर पर सर्वाधिक सक्रिय और स्वतंत्र होता है; और इसलिए की जाती है ताकि समाज में व्याप्त अन्याय, असमानता और शोषणकारी स्थितियों को देखकर वह भड़के नहीं. मुक्ति के लिए खुद स्वतंत्रा निर्णय लेने के बजाय दूसरों से पहल की उम्मीद करता रहे. ऐसे में साहित्य और साहित्यकार दोनों की चुनौती बढ़ जाती है. ‘अच्छी कल्पना मनुष्य को रोकती नहीं, निरंतर आगे ले जाती है.’4 इसलिए उनकी पहली चुनौती होती है बालक के मौलिक सोच को बनाए रखकर कल्पनाशक्ति को सृजनात्मक विस्तार देने की. दूसरे उसको इस विश्वास से भर देने की कि समाज के भले के लिए उसको हर दिशा में, पहल करनी है. बदलाव की खातिर जब भी जरूरी हो आगे आना है. यह तभी संभव है जब बालक की आंखों में सुंदर भविष्य का सपना हो. अपने गढ़े हुए सपनों पर उसको पूरा-पूरा विश्वास हो.
संदर्भ:
1. Science does not know its debt to imagination. -Ralph Waldo Emerson, in Poetry and Imagination. (1872)
2. When I examine myself and my methods of thought, I come to the conclusion that the gift of fantasy has meant more to me than any talent for abstract, positive thinking....If you want your children to be intelligent, read them fairy tales. If you want them to be more intelligent, read them more fairy tales...." - ALBERT EINSTEIN, MONTANA LIBRARIES : Volumes 8-14 (1954).
3. ‘अथ सत्यपि वृक्षाग्राच्चतुर्दिक्षु समाऽकाशे भुव्येव पक्वं फलमेकं बहुत्रा पदत्वलोक्य भूपृष्ठनिष्ठाखिलबिंदुष्वाकर्षण शक्तिरस्तीत्यनुमितम्.’
4. The Quality of imagination. Is to flow and not to freeze -Ralph Waldo Emerson, in The Poet” (1844)
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन आप, Whatsapp और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Atyant upyogi lekh hai, dhanyvad.
जवाब देंहटाएंAtyant sarahneey lekh hai, dhanyvad.
जवाब देंहटाएंSargarbhit lekh hai, lekhak mahoday ko dher sari badhaiyan.
जवाब देंहटाएंlekh achchha lga Scientific outlook per jor dete hue aisa hi likhte rahe
जवाब देंहटाएंachchi jankari hai....
जवाब देंहटाएंhum jo bhi sochte hain wo sapeksha hota hai jo hamare aaspas ka vatavaran hota hai
hum uske pare soch hi nahin sakte han dekhi hui chejon ko tod marod kar naya roop zaroor de sakte hain.
Kalpana shakti ke liye hume prakriti ke zyada karib rehna hona jo intentions hui hain unke pratiroop ya model ke kendra me nature hi raha hai, Prakriti hi asli guru hai.
Achcha lekh hai..
जवाब देंहटाएंHam jo bhi sochte hain wo sapeksha hota hai jo hamare charon or hai.uske pare hum nahi soch sakte har chij ko samajhne ke liye udaharan ki zaroorat hoti hai.
Creative ya srijanshil hone ke liye humen prakriti ke zyada qarib rehna hona
sabhi inventions ke mool me nature hi hai
Nature is the best teacher.