विज्ञान से जुड़ा है विज्ञान कथा का भविष्य!

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(तस्‍लीम द्वारा आयोजित ' क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान कथा लेखन ' दो दिवसीय (26-27 दिसम्‍बर, 2011) कार्यशाला में दिया गया वक...

(तस्‍लीम द्वारा आयोजित 'क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान कथा लेखन' दो दिवसीय (26-27 दिसम्‍बर, 2011) कार्यशाला में दिया गया वक्‍तव्‍य) 

विज्ञान से जुड़ा है विज्ञान कथा का भविष्य-विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी

विज्ञानकथा के महत्व की बात करने से पूर्व कथा (कहानी) के महत्व की चर्चा करना उपयुक्त होगा। कथा प्राचीनकाल से ही सम्पूर्ण विष्व में विचार संप्रेषण का एक प्रमुख माध्यम रही है। विभिन्न लोककथाओं के इतिहास को जानने का प्रयास करें तो हमारे को काल में कितना पीछे जाना पड़ेगा कहा नहीं जा सकता। कथा का महत्व आज भी बना हुआ है। आज भी प्रत्येक पत्र-पत्रिका कथा को अपने में सम्मानजनक स्थान देती है। 

कथा का महत्व केवल लिखित रूप में नहीं वार्ता के रूप में भी बना हुआ है। वार्ता को प्रभावशाली बनाने के लिए, अच्छे वक्ता, विषय वस्तु के बीच में छोटी छोटी कथाओं का प्रयोग आज भी किया करते हैं। बड़े हो या बच्चे, पुरुष हो या नारी कथा सभी को प्रिय है। पंचतन्त्र की कहानियों ने जो इतिहास रचा उससे सभी परिचित हैं। कक्षा में रोचक कथाओं का प्रयोग करने वाला शिक्षक आज भी लोकप्रिय होता है। कथा विचार संप्रेषित करने का एक सषक्त माध्यम है। जैसे पात्र में रख कर किसी तरल का संवहन भी आसान हो जाता है उसी प्रकार कथा के माध्यम से किसी विचार को प्रभावी रूप में संप्रेषित किया जा सकता है। कथा के माध्यम से जब धर्म का संप्रेषण होता है तो वह धार्मिक कथा होती है। जब कथा का कंकाल विज्ञान का बना होता है तो वह विज्ञान कथा होती है। 

भारत में विज्ञान की परम्परा सनातन काल से चली आ रही है। यह तय है कि विज्ञान का प्रारम्भ सृष्टि के सत्य को जानने के प्रयास के रूप में हुआ होगा। मनुष्य ने प्रकृति के अवलोकन व चिन्तन-मनन के द्वारा सृष्टि के रहस्यों उदघाटन का उदघाटन करना प्रारम्भ होगा। आकाश में चमते सूर्य, चन्द्रमा, सितारों ने प्राचीन विचारकों का ध्यान खींचा होगा। तड़ित-विद्युत, तूफान वर्षा आदि घटनाओं ने भी आदि विचारकों को सोचने के लिए मजबूर किया होगा। इस सब के फलस्वरूप आकाषीय पिण्डों के सन्दर्भ में काल-गणना के रूप में विज्ञान बनना शुरू हुआ होगा। इस ज्ञान को आम लोगों तक पहुँचाने लिए जिस सरल शैली का उपयोग किया गया होगा उससे ही प्रारम्भिक विज्ञान कथाओं का जन्म हुआ होगा। 

ध्रुव-तारा न उदय होता है और न अस्त, एक स्थान पर स्थिर रहता है। अवलोकनों के आधार पर खोजा यह तथ्य अपने समय का एक बड़ा वैज्ञानिक अनुसंधान था। इसे आम जनता तक पहुँचाने के लिए ही राजकुमार ध्रुव की कथा रची गई होगी। ऐसे ही अन्य प्राचीन विज्ञान कथा कथाओं की उत्पत्ति हुई होगी है। भास्कराचार्य का अपनी पुत्री लीलावती से वार्तालाप के रूप में समझाए गए वैज्ञानिक तथ्य विज्ञान कथा का ही रूप है। 

एक उदाहरण लिए- लीलावती पूछती है पिता जी यह पृथ्वी जिस पर हम निवास करते है किस पर टिकी हुई है? भास्कराचार्य कहते हैं, बाले लीलावती, कुछ लोग जो यह कहते हैं कि यह पृथ्वी शेषनाग, कुछ कछुआ या हाथी या अन्य किसी पर आधारित है तो वे गलत कहते हैं। यदि यह मान लिया जाए कि पृथ्वी किसी पर टिकी हुई है तो भी यह प्रश्‍न बना रहता है कि वह वस्तु किस पर टिकी हुई है। इस प्रकार कारण का कारण और फिर उसका कारण... यह क्रम चलता ही रहता है तो न्यायशास्त्र इसे अनवस्था दोष कहते हैं। 

लीलावती ने कहा पिता जी मेरा प्रश्‍न तो अभी बना हुआ है कि पृथ्वी किस पर टिकी हुई है? तब भास्कराचार्य ने कहा, क्यों नहीं हम यह मान सकते कि पृथ्वी किसी पर भी आधारित नहीं है। ...यदि हम यह कहें कि पृथ्वी अपने ही बल से टिकी है और इसे धारणातिमका शक्ति कह दें तो क्या दोष है? तब लीलावती पूछती है यह कैसे सम्भव है? 

भास्कराचार्य कहते हैं पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी आकर्षण शक्ति से प्रत्येक भारी वस्तु अपनी ओर खींचती है और प्रत्येक वस्तु पृथ्वी पर गिरती है। पर आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगती है तो पृथ्वी कैसे गिरे? अर्थात आकाश में ग्रह निरावलम्बन क्यों रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरूत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती है। यह विज्ञान कथा न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम के 550 वर्ष पूर्व की है। एक अचल प्रसव से प्राप्त पिण्ड के सौ टुकडों को सौ कुल्लड़ों में रख कर उनसे सौ कौरवों की उत्पति की कथा किसी आधुनिक विज्ञान कथा से कम रोमांचक है। ऐसे अनेकानेक उदारहण भारतीय प्राचीन साहित्य भरे पड़े हैं। 

फिल्म अवतार से स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय विज्ञान कथाओं ने विश्‍व विज्ञान कथाओं को प्रभावित किया है। हाँ हम विज्ञानकथा की जिस शैली पर चर्चा कर रहे हैं, वह शब्द साइंस फिक्‍शन का हिन्दी अनुवाद है। आसीमाव ने कहा है कि साइन्स फिक्‍शन साहित्य की वह विधा है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी में सम्भावित परिवर्तनों के प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्ति देती है। इसे किसी एक शैली विशेष को प्रमाणिक नहीं माना जा सकता है। अतः इसका फलक बहुत विशाल है। मगर विज्ञान कथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पुष्ट करने वाली होनी चाहिए। 

पीछे मुड़ कर देखने पर विज्ञान के साथ ही विज्ञान कथा का इतिहास प्रारम्भ होता दिखाई देता है। जब पश्चिम में प्रयोग आधारित विज्ञान का बोलबाला प्रारम्भ हुआ तो विज्ञान कथा भी उभरने लगी। ज्यों ज्यों जनता का जुड़ाव विज्ञान के साथ बढ़ता गया विज्ञान कथा के प्रशंसक भी बढ़ते गए। मेरा मानना है कि इस जुड़ाव के कारण ही वहाँ विविध विषयों को लेकर विज्ञान कथाएं लिखि गईं तथा उसी जुड़ाव के कारण वहाँ के लोगों ने उन्हें पढ़ा। विज्ञानकथा उनके जीवन का एक भाग बनती गई। 

31 अक्टूबर 1938 को रात 8 बजे जब कोलंबिया ब्राँडकास्टिग सिस्टम ने एच.जी.वेल्स के नाटक ‘दी वार ऑफ दी वर्ल्डस’ का रेडियो रूपान्तरण का, बिना पूर्व घोषणा के, प्रसारण प्रारम्भ किया तो चारों ओर खलबली मच गई। पूरा अमेरिका दहल गया। इसका कारण यह नहीं था कि वहाँ के लोग नासमझ या डरपोक थे। मेरा मानना है कि उस घटना का अमेरिका लोगों का यह विश्‍वास था कि पृथ्वी के बाहर विकसित जीव हैं और वे कभी पृथ्वीवासियों पर हमला कर सकते हैं। वह विश्‍वास विज्ञान के प्रसार के कारण ही पैदा हुआ होगा। 

आज भी उड़न तश्‍तरी आने की अधिकांश घटनाओं की सूचनाएं पश्चिम से ही आ रही हैं तो उसका कारण अन्तरिक्ष के विस्तार तथा उसमें जीवन उपस्थिती को लेकर जुटाई जा रही नित्य नई जानकारी के प्रति उनकी दिलचस्पी है। 

भारत में विज्ञान कथा की दशा: 
उपरोक्त तथ्य को ध्यान में रख कर बात करें तो भारत में विज्ञान कथाओं की स्थिति को अच्छा नहीं कहा जा सकता। देश में प्रकाशित कथा साहित्य में विज्ञान कथा की भागीदारी मेरे अनुमान से एक प्रतिशत से भी कम होगी। एक शताब्दि से अधिक पुरानी विधा में अब तक जो प्रोफेशनलिज्म आ जाना चाहिए, वह नहीं आ पाया है। 

श्री मनोज पटेरिया ने हिन्दी विज्ञान कथा की शुरूआत उन्नीसवीं शताब्दि से मानते हुए हिन्दी में अच्छे विज्ञान कथा लेखक होने तथा उनके द्वारा बहुत सी अच्छी विज्ञान कथा लिखी जाने कह बात तो स्वीकारी है साथ ही विज्ञान कथा विधा के आशानुरूप विकसित नहीं हो पाने पर दुःख प्रकट किया है। श्री पटैरिया ने अपने आलेख में हिन्दी विज्ञान कथा के अपने स्तर तक विकसित नहीं हो पाने का कारण नहीं गिनाया है। 

हम विज्ञान के विद्यार्थी कार्य और कारण के आपसी रिश्‍ते में विश्‍वास करते हैं। अतः यदि विज्ञान कथा विकसित नहीं होपाई तो उसका कारण तो होगा ही। हमारे राजस्थान में एक कहावत है। माँ तो है नहीं मासी के लिए रोए। वह बात भारत में विज्ञान कथा की स्थिति पर लागू होती है। विज्ञान के पीछे विज्ञान कथा का अस्तित्व है। भारत में विज्ञान ही नहीं पनपा तो विज्ञान कथा कैसे विकसित हो सकती है। 

प्राचीन भारत में विज्ञान उन्नत रहा। उस समय विज्ञान को लेकर जो सोच थी उनके अनुरूप विज्ञान कथाएं भी लिखि गईं। सदियों से चलते चलते विज्ञान कथाओं में विज्ञान कम मिथक जाता रह गए। शायद इसी के लिए प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक कार्ल सांगा ने कहा कि मिथक में विज्ञान ढ़ूढ़ना हो तो भारतीय पुराणों को पढ़ना चाहिए। हम इस बात पर संतोष कर सकते है कि भारत ने सी.वी.रमन, प्रफुल्लचन्द्र राय, जगदीश चन्द्र बोस, मेघनाथ साहा, शान्ति स्वरूप भटनागर, विक्रम साराभाई, होमी भाभा जैसे कई विश्‍व स्तरीय वैज्ञानिक दिए। 

कई भारत वंशियों ने विदेश में जाकर वैज्ञानिक प्रतिभा दिखाई मगर यह भारत के प्राचीन गौरवशाली इतिहास के साथ नहीं जुड़ता। वर्तमान भारत में लिखि गई अधिकांश विकास कथाओं की जड़ें भी भारत नहीं यूरोप या अमेरिका में गड़ी नजर आती है। भारत में लगभग 1000 वर्ष की राजनैतिक उथल-पुथल के दौर में विज्ञान अध्ययन की जिस परम्परा को छोड़ा, उसे आज तक नहीं अपनाया है। संख्याबल की दुहाई देकर हम अपने मन में महाराजा बन जावें, मगर विज्ञान के नाम पर अभी भी सन्नाटा है। 

विज्ञान करने का विषय है मगर हम विज्ञान रटा रहे है। रटने का प्रभाव यह हो रहा कि कक्षा सात तक आते आते बच्चे की अभिव्यक्ति की क्षमता समाप्त हो जाती है। आज का विद्यार्थी विज्ञान कथा तो क्या सामान्य बाल साहित्य भी नहीं पढ़ पा रहा। उसे कोई प्रोत्साहित भी नहीं कर रहा। विद्यालय के पुस्तकालय व वाचनालयों पर ताले पड़े हैं। कहीं कोई विद्यार्थी पुस्तकालय में पहुँच भी गया तो परीक्षा उपयोगी सामग्री की मांग करता है। परिणाम हमारे सामने है आज भी विज्ञान विदेशों में ही रचा जा रहा है। हम उनके द्वारा जुटाई जा रही सूचनाओं को रट कर प्रसन्न हैं। 

केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश द्वारा आई.आई.टी. तथा आईआई.एम संस्थानों को विश्‍व स्तरीय नहीं स्वीकारना उनके साथी मंत्री कपिल सिबल को अच्छा नहीं लगा, मगर इस घटना के दूसरे दिन ही प्रोफेसर यशपाल द्वारा विश्‍व विद्यालयों में नए सोच का विकास होने देने के लिए उन्हें स्वतन्त्र करने की मांग के गहरे अर्थ निकलते हैं। जब इन उच्च संस्थानों में ज्ञान का सृजन नहीं हो रहा हो तो अन्य से उम्मीद कैसे की जा सकती है। विज्ञान के सजृन से ही विज्ञानकथा के सजृन रास्ता मार्ग निकलता है। 

क्या हो विज्ञान कथा की दिशा? 
मैंने पूर्व में अनुरोध किया है कि विज्ञान होगा, तो विज्ञान कथा होगी। अतः हमारा प्रथम प्रयास देश में वैज्ञानिक संस्कृति का विकास करना होना चाहिए। भारत में आज भी वैज्ञानिक सोच वाला समाज नहीं बन पाया है। कहने को तो हम विश्‍व में सर्वाधिक विज्ञान स्नातक बनाते हैं मगर इन्हें विज्ञान नहीं सिखाते, विज्ञान रटाते हैं। इस प्रवृति के चलते विज्ञान प्रसार व राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद के अच्छे प्रयास भी अपना असर नहीं दिखा पा रहे। 

बाल विज्ञान काँग्रेस बच्चों को वैज्ञानिक विधि से परिचित कराने का बहुत अच्छा कार्यक्रम है मगर विद्यालय उसे उसके सही स्वरूप में चलाने में असफल रहे हैं। देश में वैज्ञानिक प्रतिभावों को उभारने के लिए इंस्पायर्ड अवार्ड योजना के अर्न्तगत प्रत्येक विद्यालय से एक विद्यार्थी को 5000 हजार रूपए इसलिए दिए जाते हैं कि बच्चा अपने मन के किसी विज्ञान प्रोजेक्ट पर कार्य कर सके या उसके मन आए किसी मॉडल को साकार कर सके। मगर हैरानी तब होती है जब प्रस्तुत मॉडल में 99 प्रतिशत निर्धारित मानदण्ड को पूरा नहीं करते। इसमें बच्चों का दोष नहीं। दोष तो उस शिक्षा व्यवस्था का है जो उसे विज्ञान कराती नहीं विज्ञान रटाती है। 

प्रतियोगी परीक्षा आधारित शिक्षा व्यवस्था में मेरिट में आने के लिए विज्ञान के विद्यार्थी प्रयोगिक कक्षा छोड़ कोचिंग कक्षा में जाते हैं। कहावत है करेला और नीम चढ़ा। बच्चों की अभिव्यक्ति क्षमता वैसे ही समाप्त होती जारही है और अंग्रेजी के प्रति आशक्ति उसे और पलीता लगा रही है। गुरुवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस बात को बहुत जोर देकर कहा है कि सृजन मातृभाषा में ही सकता है, सृजन चाहे साहित्य का हो या विज्ञान का। 

इस सब से निराश होने की आवष्यकता नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में नवाचारों को अपनाया जा रहा है। स्कूल स्तर तक एक बोर्ड परीक्षा कर दी गई है। विश्‍व विद्यालय की स्वतन्त्रता पर जोर दिया जा रहा उसका असर विद्यालयों तक भी आएगा। भारत एक विश्‍व शक्ति बनने की राह पर है। बिना विज्ञान के कोई भी देश विश्‍व शक्ति नहीं बन सकता है। अतः यह आशा की जा सकती है कि देश में विज्ञान शिक्षा का स्वरूप तेजी से बदलेगा। विद्यार्थी रटने की जगह विज्ञान को समझने का प्रयास करने लगेगा। 

आवश्‍यकता हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में प्रचुर मात्रा में प्रभावी विज्ञान साहित्य लिखने की आवष्यकता है। बच्चों तक बाल साहित्य पहुँचाने की व्यवस्था की जाए। बच्चा खरीद नहीं सकता। बच्चों को ध्यान में रखकर लिखने की अधिक आवश्‍यकता है। बच्चों को वैज्ञानिक विधि से परिचित कराया जाय। विज्ञान को समझने के लिए उसे अच्छी विज्ञान कथा के विकल्प की आवश्‍यकता होगी। 

मैं अपनी बात राष्ट्रकवि डॉ. रामधारी सिंह दिनकर की निम्न पंक्तियों के साथ समाप्त करना चाहूँगा-
 ओ जगज्जयी तुम शास्त्रकार! ओ वैज्ञानिक! 
 संघर्ष प्रकृति की लीला से करने वाले। 
विज्ञान-शिखर पर दीप्त भूमि का अंधकार हरने वाले। 
 यदि तुम्हें ज्ञात हो गई मनुज की सहजवृति 
 यदि जाग गई तुममे शुभ सर्गात्मक प्रवृति 
लो इससे बढ़ सौभाग्य दूसरा क्या होगा? 
नीचे भू नव, ऊपर आकाश नया होगा। 
................................. 
पूर्व प्रधानाचार्य 2 तिलक नगर पाली (राजस्थान) सम्पर्क: 9829113431
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विज्ञान कथाओं पर कुछ अन्य महत्वपूर्ण आलेख:

क्‍या है विज्ञान कथा? -डॉ. अरविंद मिश्र (What is Science Fiction?)
विज्ञान कथा के 100 साल -डॉ. जाकिर अली रजनीश
समकालीन बाल विज्ञान कथाएं : एक अवलोकन -डॉ. जाकिर अली रजनीश
विज्ञान कथाओं का अनुवाद : समस्याएँ एवं  निवारण -बुशरा अलवेरा
विज्ञान कथाएं : क्‍या सोचते हैं विज्ञान कथाकार ? (अनिल मेनन, डॉ. सुबोध महंती, डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय, डॉ. अरविंद मिश्र, देवेन्द्र मेवाड़ी, डॉ. विनीता सिंघल, शुकदेव प्रसाद, सी.एम. नौटियाल एवं मनीष मोहन गोरे के विचार)
Keywords: Vigyan Prasar, National Book Trust, Science Fiction Workshop, Science Fiction in India, science fiction stories, science fiction books, science fiction authors, indian science fiction writers, Vishnu Prasad Chaturvedi
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COMMENTS

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  1. पठनीय आलेख. हालांकि उत्साहवश, लगभग एक फैशन की तरह लिखे जा रहे विज्ञान—कथा विषयक अन्य लेखों की भांति वापस लौट—लौटकर देखने की प्रवृत्ति इस लेख में भी है. व​ही पुरानी रट कि हम ये थे, हम वो थे. अगर आप विज्ञान पर लिख/बोल रहे हैं तो 'सनातन' जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों? विज्ञान इस तरह के आस्थावादी दृष्टिकोण से आगे नहीं बढ़ता. यह हमारा अतीतमोह और आस्थावादी दृष्टिकोण ही है जो 'एक अचल प्रसव से प्राप्त पिण्ड के सौ टुकडों को सौ कुल्लड़ों में रख कर उनसे सौ कौरवों की उत्पति' मिथक कथा को विज्ञानकथा से जोड़ता है. भास्कराचार्य और लीलावती की कहानी सच है. भास्कराचार्य निस्संदेह विलक्षण वैज्ञानिक थे. हम आज उन्हें याद करते हैं. पर उन लोगों को कतई दोष नहीं देते जिन्होंने उनके ज्ञान को दबाये रखा. उसपर कोई अनुसंधान नहीं किया. यहां तक कि पांच सौ वर्ष बाद जब न्यूटन को यह श्रेय दिया जा रहा था, तब भी उसका विरोध करते हुए भास्कराचार्य का हवाला नहीं दिया गया. आप कहेंगे कि किसको दोष देते. जो लोग इसके लिए दोषी हैं वे तो अजाने लोग हैं. जरूर हैं. दरअसल एक पूरी परंपरा है. लौट—लौटकर पीछे देखने की परंपरा. ज्ञान—विज्ञान का तिरस्कार कर, परंपरा और अनुसरण को थोपने की परंपरा. सार्वजनिक रूप से अपनी पीठ आप थपथपाने और घर लौटते ही अपनी केंचुल में समा जाने की परंपरा. वे लोग भास्कराचार्य के समय में भी थे. आज भी हैं.
    एक व्यावसायिक फिल्म के आधार पर यह कहना कि'प्राचीन भारतीय विज्ञान कथाओं ने विश्वन विज्ञान कथाओं को प्रभावित किया है' अपने आप में बहुत बड़ा धोखा है. इस लेख की कमजोरी है कि यह आस्था से आरंभ होता और वहीं पर समाप्त होता है. जबकि विज्ञान प्रश्नाकुलता से जन्मता और संदेह के साथ आगे बढ़ता जाता है. साहित्य के लिए कोरा विज्ञान केवल फंतासी गढ़ सकता है. रचना में साहित्यत्व तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आता है.

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  2. भारतवर्ष की आज की रटंत शिक्षा पद्धति जिज्ञासुओं को बाधा पहुंचाती है .. दरअसल शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों में ही चिंतन करने वाले विद्वानों की कमी है .. प्रायोगिक शिक्षा की कमी नई सोंच वाले बच्‍चों को आगे नहीं बढने देती .. किसी अन्‍य क्षेत्र में मौलिक सोंच रखने वाले विद्वानों को समाज में पहचान बनाना मुश्किल होता है .. यही कारण है कि भारतवर्ष में वैज्ञानिक उपलब्धियां नहीं हैं .. देश पुराने ढर्रे पर या विदेशों से प्राप्‍त नए तकनीकों पर ही चल रहा है ..

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  3. पठनीय आलेख. हालांकि उत्साहवश, लगभग एक फैशन की तरह लिखे जा रहे विज्ञान—कथा विषयक अन्य लेखों की भांति वापस लौट—लौटकर देखने की प्रवृत्ति इस लेख में भी है. वही पुरानी रट कि हम ये थे, हम वो थे. अगर आप विज्ञान पर लिख/बोल रहे हैं तो 'सनातन' जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों? विज्ञान इस तरह के आस्थावादी दृष्टिकोण से आगे नहीं बढ़ता. यह हमारा अतीतमोह और आस्थावादी दृष्टिकोण ही है जो 'एक अचल प्रसव से प्राप्त पिण्ड के सौ टुकडों को सौ कुल्लड़ों में रख कर उनसे सौ कौरवों की उत्पति' मिथक कथा को विज्ञानकथा से जोड़ता है. भास्कराचार्य और लीलावती की कहानी सच है. भास्कराचार्य निस्संदेह विलक्षण वैज्ञानिक थे. हम आज उन्हें याद करते हैं. पर उन लोगों को कतई दोष नहीं देते जिन्होंने उनके ज्ञान को दबाये रखा. उसपर कोई अनुसंधान नहीं किया. यहां तक कि पांच सौ वर्ष बाद जब न्यूटन को यह श्रेय दिया जा रहा था, तब भी उसका विरोध करते हुए भास्कराचार्य का हवाला नहीं दिया गया. आप कहेंगे कि किसको दोष देते. जो लोग इसके लिए दोषी हैं वे तो अजाने लोग हैं. जरूर हैं. दरअसल एक पूरी परंपरा है. लौट—लौटकर पीछे देखने की परंपरा. ज्ञान—विज्ञान का तिरस्कार कर, आस्था और अनुसरण को थोपने की परंपरा. सार्वजनिक रूप से अपनी पीठ आप थपथपाने और घर लौटते ही अपनी केंचुल में समा जाने की परंपरा. वे लोग भास्कराचार्य के समय में भी थे. आज भी हैं.
    हर नए वैज्ञानिक आविष्कार के बीजतत्व भारतीय पुराकथाओं से जोड़ने की बीमारी इसी लेख में नहीं दिखी है. बीते रविवार को जनसत्ता के कॉलम लेखक ने 'हिग्स बोसोन' को 'देवकण' की संज्ञा देते हुए उसको शिव से जोड़ दिया. जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि हिंग्स बोसोन जैसे कण की खोज वैज्ञानिकों का उद्देश्य नहीं है. वे जानना चाहते हैं कि वस्तुओं में भार कहां से आता है. अत: हिग्स बोसोन की खोज के बाद भी यदि इस रहस्य का पता नहीं चलता है तो यह खोज, यदि ऐसा सचमुच हुआ है तो, वर्तमान प्रयोग के वास्तविक लक्ष्य को देखते हुए अपर्याप्त ही मानी जाएगी.
    एक व्यावसायिक फिल्म के आधार पर यह कहना कि'प्राचीन भारतीय विज्ञान कथाओं ने विश्वन विज्ञान कथाओं को प्रभावित किया है' अपने आप में बहुत बड़ा धोखा है. इस लेख की कमजोरी है कि यह आस्था से आरंभ होता और वहीं पर समाप्त होता है. जबकि विज्ञान प्रश्नाकुलता से जन्मता और संदेह के साथ आगे बढ़ता जाता है. साहित्य के लिए कोरा विज्ञान केवल फंतासी गढ़ सकता है. रचना में साहित्यत्व तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आता है.

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  4. बहुत ही अच्छा और रूचिकर लेख है ! विज्ञानं कथा लेखन के माध्यम से भारत की जनता की विज्ञान में रुचि को बढाया जा सकता है और जटिल से जटिल टोपिक को समझाने में भी मदगार साबित हो सकता है खासकर विज्ञान से सम्बंधित जानकारी को बढावा देने में और समाज में फैले अंधविश्वास को मिटाने में !

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  5. बहुत बढ़िया जानकारी मिली,

    हम भी विज्ञान कथा लिखने की कोशिश कर रहे हैं, परंतु हमें मार्गदर्शन चाहिये, कौन दे सकता है ।

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    1. मित्र,
      आप अपने दृष्टिकोण को वैज्ञानिक सोच से संपन्न् कीजिए. इससे परिवेश को समझने की एक नई दृष्टि मिलेगी. उसके बाद मन में जो विचार आएं उन्हें 'कहन' की कला से जोड़िए. यह कला भी अभ्यास से सध जाती है. मार्गदर्शन से अधिक अभ्यास और सोच का नयापन यहां काम आएगा. यानी आप स्वयं अपना मार्गदर्शक बन सकते हैं.

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    2. मित्र,
      आप अपने दृष्टिकोण को वैज्ञानिक सोच से संपन्न् कीजिए. इससे परिवेश को समझने की एक नई दृष्टि मिलेगी. उसके बाद मन में जो विचार आएं उन्हें 'कहन' की कला से जोड़िए. यह कला भी अभ्यास से सध जाती है. मार्गदर्शन से अधिक अभ्यास और सोच का नयापन यहां काम आएगा. यानी आप स्वयं अपना मार्गदर्शक बन सकते हैं.

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  6. तक़लीफ़देह यह है कि 21वीं सदी में भी हमारा मीडिया जाने-अनजाने ऐसी चीज़ों को बढ़ावा दे रहा है जिनके कारण हमारी अवैज्ञानिकता और जड़ होती जा रही है। निरन्तर प्रयास और बहुत वक्त चाहिए।

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  7. arthpurn nhi hai ye lekh..maaf karnaa ji.

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वैज्ञानिक चेतना को समर्पित इस यज्ञ में आपकी आहुति (टिप्पणी) के लिए अग्रिम धन्यवाद। आशा है आपका यह स्नेहभाव सदैव बना रहेगा।

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Scientific World: विज्ञान से जुड़ा है विज्ञान कथा का भविष्य!
विज्ञान से जुड़ा है विज्ञान कथा का भविष्य!
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