लेखक-कुमार नरेन्द्र सिंह पिछले दिनों एक न्यूज चैनल पर देखा कि तिरूअनंतपुरम के एक मंदिर में, जहाँ अपार भीड़ है, अबोध बच्चों को...
लेखक-कुमार नरेन्द्र सिंह
पिछले दिनों एक न्यूज चैनल पर देखा कि तिरूअनंतपुरम के एक मंदिर में, जहाँ अपार भीड़ है, अबोध बच्चों को 15 फीट की ऊँचाई से फेंका जा रहा है और नीचे एक कपड़े का टुकड़ा पकड़े कुछ लोग उसे पकड़ रहे हैं। इसी तरह यह भी देखने में आया कि कर्नाटक के गुलबर्गा जिले में एक जगह बच्चों को सीने और गर्दन तक जमीन में गाड़ा जा रहा है। लोगों का मानना है कि इससे बच्चों को बीमारी नहीं होती। बनारस के एक मंदिर में तो बकैंया चलने वाले बच्चों को खौलते दूध से नहलाया जा रहा था। दुर्भाग्य यह कि समाज से लेकर सरकार तक को इसमें कोई बुराई नजर नहीं आई। ड्यूटी पर तैनात पुलिस वाले श्रद्धा से सर झुकाए न क्रूरताओं को होते देखते रहे। उनके मन में कोई मलाल नहीं था, बल्कि वे धन्य हो रहे थे कि उन्होंने दैवीय चमत्कार का साक्षात्कार किया।
आस्था के नाम पर इन क्रूरताओं को राजनेताओं और राजनीतिक दल भी शह देते हैं। हमारे राजनेता आस्था की ऐसी गुलामी के खिलाफ आवाज बुलंद करने के बजाय खुद आस्था के ऐसे मेंले में पहुंचकर उसे बैधता प्रदान करते हैं। हमारा संविधान भले ही लोगों में वैज्ञानिक चेतना पैदा करना नागरिकों के मूल कर्तव्यों में शुमार करता हो, लेकिन सच्चाई यही है कि आस्था के नाम पर हर जगह वैज्ञानिक चेतना को कुंद करने के प्रयास किये जाते हैं।
जब बच्चों को क्रूर आस्था के हवाले किया जा रहा था, तो वे चिल्ला-चिल्ला कर रो रहे थे। उनके रूदन में उनकी बेबसी और लाचारी करूणा और गुस्सा एक साथ पैदा कर रही थी। लेकिन आश्चर्य कि जनसमूह से लेकर उन बच्चों के माता पिता तक को बच्चों की पीड़ा, बेबसी और यहाँ तक कि जान की परवाह नहीं थी। पुलिस प्रशासन काकहना है कि यह तो आस्था का मामला है, इसमें प्रशासन कैसे दखल दे सकता है?
सवाल है कि आस्था के नाम पर बच्चों के साथ किए जा रहे इन अत्याचारों के खिलाफ कोई कानून है कि नहीं? और अगर है, जोकि है, तो फिर पुलिस और प्रशासन कैसे कह सकते हैं कि वे आस्था में दखल नहीं दे सकते? ऐसा कहने वाले पुलिस अधिकारी को तो अविलंब निलंबित कर दिया जाना चाहिए। आखिर हमारे देश के संविधान और कानून के बच्चों को अनेक अधिकार प्रदान कर रखे हैं, जिसका उल्लंघन सजा को नियंत्रित करता है।
दुधमुँहे बच्चों की कोमल त्वचा पर खौलता हुआ दूध डालने पर उनकी क्या हालत होती होगी, इसका हम महज अंदाजा ही लगा सकते हैं। ऐसे में यह सवाल मौजूं हो जाता है कि आखिर क्या कारण है, बच्चों के माता-पिता भी अपने मासूमों पर अत्याचार और क्रूरता होते हुए देखकर विचलित नहीं होते। दरअसल, इसके पीछे सामूहिक विश्वास का मनोविज्ञान काम करता है। इस मनोविज्ञान के लिए किसी ठोस प्रमाण या सबूत की जरूरत नहीं होती, बल्कि किसी का कहना ही काफी हो सकता है।
उदाहरण क लिए घुटने के बल चलने वाले बच्चे पर खौलता दूध डालने से बच्चे को कौन सा लाभ मिलेगा, इसके बारे में कोई यकीन के साथ कुछ भी नहीं कह सकता। यकीन के साथ तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि यह बच्चों पर अमानवीय अत्याचार है और अव्वल दर्जे की क्रूरता थी।
लेकिन आस्था का साम्राज्य तो कनफुसकी के जोर से चलता है, जिसके लिए न तो किसी प्रमाण की आवश्यकता होती है और न किसी सत्यापन की। कल्पित भय और कल्पित लाभ हमारे विवेक को कुंद कर देते हैं, जिसके चलते सामूहिक विवेक सामूहिक उन्माद में बदल जाता है और इस उन्माद में क्रूरता भी पवित्र और कल्याणकारी कार्य नजर आने लगती है। जिस तरह उन्माद में दंगा करने वालों को किसी की जान लेने के बावजूद कोई ग्लानि नहीं होती, उसी तरह आस्था के नाम पर होने वाली इन क्रूरताओं से भी लोग निरपेक्ष रहते हैं।
आस्था का सबसे वीभत्स, विद्रूप और क्रूर स्वरूप तब देखने को मिलता है, जब इसकी रक्षा में तालिबानी तत्व सक्रिय हो उठते हैं। वैसे यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे तो हमेशा ही आस्थाओं की तलवार से विवेक का सर काटने को तैयार रहते हैं।
जब तक आस्था वैयक्तिक रहती है, तब तक तो गनीमत है, लकिन जब इससे सामूहिकता जुड़ जाती है, तो आस्था उद्दंड, अविवेकी, आक्रामक और असहिष्णु हो जाती है। लेकिन उसक यह असली चेहरा भीड़ में गुम हो जाता है और लोगों के साथ जुड़ने के कारण उसे एक तरह की सामाजिक मान्यता मिल जाती है। तब कोई भी उसके खिलाफ जाने से कतराने लगता है, क्योंकि आस्थावानों की सेना आस्था के विरोध में उठने वाली हर आवाज को गुम करने को तत्पर रहती है।
आस्था की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वहबहुधा बुद्धि विरोधी और सच से परे होती है। अकारण नहीं कि आस्थावानों की भृकुटी विवेक और विद्धता पर ही सबसे ज्यादा टेढ़ी होती है। लेकिन सवाल तो यह है कि क्या आस्था के नाम पर मूर्खतापूर्ण क्रूरताओं को वाजिब ठहराया जा सकता है?
हम जानते हैं कि अतीत में हमारे देश में आस्था के नाम पर नरबलि और सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयाँ प्रचलित थीं। अगर आस्थावानों का वश चलता, तो आज भी देश में सती प्रथा, बाल विवाह जैसी बुराइयाँ कायम रहतीं। जाहिर है कि आस्थाएँ मिटती हैं, उन्हें मिटना होता है, क्योंकि वे विवेक का प्रतिकार करती हैं।
हमारे देश में सिर्फ आस्था को चोट पहुंचती है, विवेक को नहीं। आस्था के नाम पर हमारे विवेक को चाहे जितना रौंदा जाए, हमें ऐतराज जताने का अधिकार नहीं है, लेकिन आस्थाके विरूद्ध कोई बात हुई नहीं कि आस्थावानों को चोट पहुंचने लगती है।
अजीब तो यह है कि आस्था को चोट तभी पहुँचती है, जब तर्क की बात होती है। जबकि कुतर्क के वितान पर तनी आस्था हमारी तर्कशीलता और विवेक पर चाहे रंदा चलाती हरे, मगर इससे हमें चोट महसूस नहीं करनी चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि आस्था का चरित्र बहुधा फांसीवादी होता है। उसके आगे ज्ञान, विज्ञान और तर्क कोई मायने नहीं रखता। यही कारण है कि ऐसी आस्थाओं के खिलाफ हमें खड़ा होना होगा और उसका प्रतिकार करना होगा, अन्यथा हम आस्थाओं के गुलाम बनकर रह जाएँगे। (जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ, 07 अप्रैल, 2012 से साभार)
अगर आपको 'तस्लीम' का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ। |
---|
यह जड़ आस्था का नमूना है, जो धर्म से जुड़ी वह अवस्था है जब आदमी तर्क को किनारे कर केवल भीड़ की मानसिकता से सोचने लगता है. किसी शराबी से पूछा जाए तो वह तपाक से यही कहेगा कि नहीं, वह इतना बड़ा लती नहीं है. पीते समय अपने होशोहवास बनाए रखता है. लेकिन आप उसको हर बार नशे की हालत में सुध—बुध खोए देख सकते हैं. जड़ आस्था शराब से भी घातक है. शराब किसी एक व्यक्ति या परिवार को तबाह करती है, जबकि आस्था का जड़त्व पूरे समाज को अपनी चपेट में ले लेता है. दु:ख की बात यह है कि धर्म के सामूहिकीकरण से जुड़े अधिकांश मामलों में प्राय: यही होता है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया विवेचना ।
जवाब देंहटाएंआभार डाक्टर ।।
i always tried to help the people but sometime we are also helpless.
जवाब देंहटाएंfewdays ago my student kamal kumar died due to mantra and jhadfunk .
it happens .but we must be SAWADHAN
FOR OUR MORAL DUTY.
सार्थक और जरुरी पोस्ट आँखें खोलने में सक्षम
जवाब देंहटाएंजन विश्वास और 'सुनी सुनाई 'और कथित आश्था के बीच फासला बहुत कम है .जिसे आश्था मान लिया जाता है वह अंध -आसक्ति है .
जवाब देंहटाएंऊटों की दौड़ के अरब मुल्कों में जहां ऊँट की पीठ पर बच्चा बाँध दिया जाता है हम विरोधी हैं और यहाँ अपने मुल्क में इन नैन सुखों का क्या करें जिन्होनें अपना विवेक बेच खाया है ,मुल्ला मौलवियों पंडों ने जिन्हें भरमाया है ..
Jaroorat samajik chetna lane ki hae tabhi aisi andhi aasthaon se mukti mil sakti hae.
जवाब देंहटाएं