यूं तो स्कूलों को बच्चों के वर्तमान और भविष्य गढ़ने का केन्द्र माना जाता है. लेकिन बीते कुछ सालों से स्कूलों के भीतर से बच्चों के शोषण ...
यूं तो स्कूलों को बच्चों के वर्तमान और भविष्य गढ़ने का केन्द्र माना जाता है. लेकिन बीते कुछ सालों से स्कूलों के भीतर से बच्चों के शोषण और उत्पीड़न की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मुताबिक बीते तीन सालों में स्कूलों के भीतर बच्चों के साथ होने वाले शारारिक प्रताड़ना, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, हत्या जैसे मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है. मौजूदा परिस्थितियां भी कुछ ऐसी हैं कि बच्चों के लिए हिंसामुक्त और भयमुक्त माहौल में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने का सवाल अब बहुत बड़ा सवाल बन चुका हैं.
बीते साल स्कूलों में बच्चों के उत्पीड़न के दर्ज हुए मामलों में अगर तमिलनाडू के 12 मामले अलग रखे जाए तो अधिकतर मामले हिंदी भाषी राज्यों से हैं. इसमें 27 मामलों के साथ जहां उत्तरप्रदेश अव्वल है, वहीं उसके बाद दिल्ली 9, मध्यप्रदेश 9, बिहार 4, राजस्थान 4 और हरियाणा 4 का स्थान आता है.
2007 में केन्द्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा बच्चों की सुरक्षा की स्थिति को लेकर देश भर में किये गए सर्वेक्षण के मुताबिक हर दो बच्चों में से एक को स्कूल में यौन शोषण का शिकार बनाया जा रहा है. बीते साल राष्ट्रीय बाल अधिकार पैनल को स्कूलों में बच्चों के उत्पीड़न की तकरीबन 100 शिकायतें मिली. इसके बहुत बाद में केन्द्रीय महिला व बाल विकास मंत्री ने भी स्कूलों में बच्चों के बढ़ते उत्पीड़न के ग्राफ को स्वीकारते हुए चिंता जाहिर की.
अनुशासनात्मक कार्रवाई के नाम पर खास तौर से सरकारी स्कूलों में आज भी ‘गुरूजी मारे धम्म-धम्म विद्या आये छम्म-छम्म’ जैसी कहावतें प्रचलित हैं. गौर करने लायक तथ्य है कि अनुशासनात्मक कार्रवाई की आधी से अधिक घटनाएं केवल सरकारी स्कूलों में होती हैं. ऐसी घटनाओं को अंजाम देते समय इस बात को नजरअंदाज बना दिया जाता है कि किसी भी तरह के दुर्व्यवहार से बच्चे में झिझक, संकोच और घबराहट की भावना घर कर सकती है. बच्चों के भीतर की ऐसी भावनाओं को ड्राप आउट की दर अधिक होने के पीछे की एक बड़ी वजह के तौर पर देखा जाता है. लेकिन सामान्य तौर से हमारे आसपास बच्चों के साथ होने वाले दुराचारों को गंभीरता से नहीं लिए जाने की मानसिकता है. इस तरह से बच्चों पर होने वाले अत्याचारों पर चुप रहकर हम उसे जाने-अनजाने प्रोत्साहित कर रहे हैं. जबकि बच्चों को दिये जाने वाली तमाम शारारिक और मानसिक प्रताड़नाओं को तो उनके मूलभूत अधिकारों के हनन के रुप में देख जाने की जरूरत है, जिन्हें कायदे से किन्हीं भी परिस्थितियों में बर्दाश्त नहीं किए जाने चाहिए लेकिन क्या किया जाए आलम यह है कि सरकार ने स्कूलों में सुरक्षित बचपन से जुड़े कई तरह के सवालों के साथ-साथ उनसे जुड़ी मार्गदर्शिका को तैयार किये जाने की मांग को भी लगातार अनदेखा किया जाता रहा है.
वहीं बच्चों का भोलापन ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी समझी जाती है. एक तरफ बच्चे अपने डर, अवसाद और अकेलेपन को खुलकर कह नहीं पाते तो दूसरी तरफ बच्चों के परिवार वाले भी उनकी बातों को कोई खास अहमियत नहीं देते. बच्चों के भोलेपन के शिकारी ऐसी स्थिति का चुपचाप फायदा उठाते हुए अपनी कुंठाओं को पूरा करते हैं. अक्सर देखा गया है कि बच्चों के उत्पीड़न में वहीं लोग शामिल होते हैं जिनके ऊपर उनकी सुरक्षा की जवाबदारी होती है. ऐसे में बच्चों के परिवार वालों के लिए यह जरूरी है कि वह कुछ समय बच्चों के साथ बिताएं और उनसे खुलकर बातचीत करते रहें.
हालांकि स्कूलों में उत्पीड़न के मामले में पीड़ित बच्चों को किसी उम्र विशेष में नहीं बांधा जा सकता लेकिन दर्ज हुए अधिकतर मामलों से साफ हुआ है कि यौन उत्पीड़न से पीड़ित बच्चों में 8 से 12 साल तक आयु-समूह के बच्चों की संख्या सर्वाधिक रहती है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक शारारिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, दुर्व्यवहार, लैंगिक असामानता इत्यादि बाल उत्पीड़न के अंतर्गत आते हैं. फिर भी बच्चों के उत्पीड़न के कई प्रकार अस्पष्ट हैं और उन्हें परिभाषित करने की संभावनाएं अभी तक बनी हुई हैं. दूसरी तरफ राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो बच्चों के उत्पीड़न से जुड़े केवल वहीं मामले देखता है, जो पुलिस-स्टेशनों तक पहुंचते हैं. जबकि सर्वविदित है कि प्रकाश में आए मामलों के मुकाबले अंधेरों में रहने वाले मामलों की संख्या हमेशा से ही कई गुना तक अधिक रहती है.
हालांकि बच्चों के सुरक्षित बचपन के लिए सरकार ने जहां बजट में 0.03 प्रतिशत बढ़ोतरी की है वहीं इसके लिए देश में पर्याप्त कानून, नीतियां और योजनाएं हैं. लेकिन इन सबके बावजूद महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा किये गए सर्वेक्षण में 65 प्रतिशत बच्चे महज शारारिक प्रताड़नाएं भुगत रहे हैं. जाहिर है समस्या का निपटारा केवल बजट में बढ़ोतरी या सख्ती और सहूलियतों के प्रावधानों भर से मुमकिन नहीं हैं बल्कि इसके लिए मौजूदा शिक्षण पद्धतियों को नैतिकता और सामाजिकता के अनुकूल बनाये जाने की भी जरूरत है. इसी के साथ बच्चों के सीखने की प्रवृतियों में सुरक्षा के प्रति सचेत रहने की प्रवृति को भी शामिल किये जाने की जरूरत है.
अगर आपको 'तस्लीम' का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ। |
---|
स्थिति भयावह है, ऐसा चलता रहा तो बहुत दिक्कत आ जायेगी |
जवाब देंहटाएंमाता-पिता यदि जागरूकता बरतें और बच्चों के साथ मित्रवत पेश आयें तो फायदा हो सकता है
अब कोई ब्लोगर नहीं लगायेगा गलत टैग !!!
हम्म्म्म अगर माँ बाप आपने बच्चो को समजाये की वो केसी अन्जान से बात न करे और बे बफी बाते है ! अगर उन सब बातो पर अमल किया जाये तो सब कुछ सही है!हवे अ गुड डे ! मेरे ब्लॉग पर जरुर आना ! ही ही ही ही ही
जवाब देंहटाएंMusic Bol
Lyrics Mantra
Shayari Dil Se
Latest News About Tech
अब कुछ स्कूलों में इसलिए इस तरह की शिक्षा दी जाति है माता पिता कि भी काउंसेलिंग कि जाती है.परन्तु छोटे इलाकों के स्कूल या सरकारी स्कूलों में स्थिति सच में चिंताजनक है.
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख शिरीष जी!
इस टिप्पणी को लेखक ने हटा दिया है.
जवाब देंहटाएंसरकारें अब बच्चों की शिक्षा पर इसलिए ध्यान नहीं दे रही हैं की उनसे वोट नहीं मिलना है.भविष्य की चिंता अब नहीं हो रही है.यह चिंतनीय दुर्भाग्य है.
जवाब देंहटाएंसरकारी स्कूलों में स्थिति सच में चिंताजनक है|
जवाब देंहटाएंhaalat kaa shi chitrn kr logon ko sochne pr mjbur kiya he . akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख
जवाब देंहटाएंचिंतनपरक आलेख !
जवाब देंहटाएंye such hai , ki aaj lagbhag har sarkari school ki yahi dasha hai. kewal sarkaar hi nahi aam janmanas ko bhi ab is disha main kuch to karna hi hoga. vastav main sochane layak lekh hai.
जवाब देंहटाएंहोली: कितने पेड़ों को अकाल मौत से बचा सकते हैं आप ?
जवाब देंहटाएंभारत पाक समझौते पर हार्दिक बधाई। समझौता कब तक लागू रहेगा ?............. चन्दन
किसी सरकारी कार्यालय की नोटशीट हो गयी कि अधिकारी का अनुमोदन आवश्यक है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा है, किसी को बोलने से प्रतिबन्ध लगाना कतई अनुचित है। अध्यक्ष महोदय करें तो लीला हम कहें तो करेक्टर ढीला्.... चन्दन
जवाब देंहटाएं