आज फिर शहीद हो गया एक पेड़ सुबह पांच बजे जैसे ही गेट खोलकर मैं बाहर निकला, नज़र सामने की सड़क पर जाते हुए लड़कों के एक झुण्ड पर जाकर ठह...
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आज फिर शहीद हो गया एक पेड़ |
सुबह पांच बजे जैसे ही गेट खोलकर मैं बाहर निकला, नज़र सामने की सड़क पर जाते हुए लड़कों के एक झुण्ड पर जाकर ठहर गयी। वे लोग एक वृक्ष की हत्या के उपरांत उसके शव को घसीटते हुए लिए जा रहे थे। जाहिर सी बात है कि उनकी मंजि़ल थी, मुहल्ले में बनाई गयी होलिका की वेदी। इस दृश्य को देखने के बाद मेरा मन बेचैन हो उठा। साथ ही मन में एक विचार कौंधा कि आज और कल न जाने ऐसे कितने पेड़ अकाल मृत्यु के शिकार हो जाऍंगे।
ग्लोबल वार्मिंग के इस भयानक दौर में जब हमारे पास न तो पेड़ लगाने के लिए स्थान बच रहे हैं और न ही हम अपनी पूरी जिन्दगी में ‘धरती माता’ (काश, कभी तो हम माता को लेकर संजीदा होते) और स्वयं के अस्तित्व की रक्षा के लिए एक पेड़ तक नहीं लगा पा रहे हैं, ऐसे में धार्मिक त्यौहारों के ‘विकृत स्वरूप’ के बहाने हम कब तक इस तरह से धरती के बचे-खुये वृक्षों का ‘सफाया’ करते रहेंगे?
ग्लोबल वार्मिंग के इस भयानक दौर में जब हमारे पास न तो पेड़ लगाने के लिए स्थान बच रहे हैं और न ही हम अपनी पूरी जिन्दगी में ‘धरती माता’ (काश, कभी तो हम माता को लेकर संजीदा होते) और स्वयं के अस्तित्व की रक्षा के लिए एक पेड़ तक नहीं लगा पा रहे हैं, ऐसे में धार्मिक त्यौहारों के ‘विकृत स्वरूप’ के बहाने हम कब तक इस तरह से धरती के बचे-खुये वृक्षों का ‘सफाया’ करते रहेंगे?
क्या है असली होली?
पता नहीं यह जड़ों से कटते जाने का प्रभाव है, अथवा दिखावे की संस्कृति का कुप्रभाव कि होली के लिए चंदा मांगने वाले और बाद में शराब के नशे में धुत होकर गली-गली घूमने वाली शोहदों की टोली को तो छोडिए अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग भी होली की प्राचीन परम्पराओं से भिज्ञ नहीं हैं। और शायद यही कारण है कि हम हर साल होली के नाम पर इस तरह लाखों वृक्षों का सफाया करके आनन्दित हो रहे हैं।
होली मुख्य रूप से एक ‘कृषि यज्ञ’ है, जिसमें गेहूं की फसल के पकने पर उसे गाय के गोबर से बने कंडे पर भूनकर प्रसाद के रूप में बॉंटे जाने का उल्लेख वेदों में मिलता है। ‘यज्ञ’ से जुड़ाव होने के कारण ही होली में आम की सूखी लकड़ी डाले जाने का वर्णन मिलता है। वैदिक काल से चली आ रही इस परम्परा में बाद में प्रह्लाद और होलिका जैसी ‘घटनाओं’ के जुड़ने से इसमें गर्मी के मौसम की शुरूआत में घर की साफ-सफाई के दौरान निकले कबाड़ आदि को भी होलिका के रूप में जलाने का चलन बढ़ता गया।
इन परम्पराओं के पीछे मुख्य उद्देश्य यही था कि इस बहाने घर की साफ-सफाई हो जाए और घर के लोग बीमारियों से मुक्त रहें। लेकिन धीरे-धीरे इन परम्पराओं में दिखावे के घुन लग गये और होली का तात्पर्य येन-केन-प्रकारेण पेड़ों की लकडि़यां जुटाना मात्र रह गया। जाहिर सी बात है कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए या तो चोरी से दूसरों के पेड़ों को निशाना बना लिया जाता है, अथवा सार्वजनिक स्थल पर खड़े वृक्ष इस आयोजन के शिकार होते हैं। क्या यह उचित है?
आइए हम होली के पावन पर्व को सही अर्थों में समझें और समय को मॉंग को समझते हुए इसे दूसरों को भी समझाएं। शायद इसी बहाने दो-चार पेड़ अकाल मौत मरने से बच जाएं।
अगर आपको 'तस्लीम' का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ। |
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सहमत हूँ आपसे.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक पोस्ट.
होली की शुभकामनायें.
सही कहा जी
जवाब देंहटाएंऔर पुराने जमाने में सर्दियां काटने के लिये लकडी, कंडे वगैरा स्टोर करके रखे जाते थे, सर्दियां बीतते ही उनका उपयोग खत्म हो जाता है। इसलिये भी उस सारे सामान को एक साथ जला दिया जाता होगा।
हरे-भरे पेड नहीं, बल्कि घर का कबाड, मन का मैल जलाना चाहिये।
प्रणाम
आप का लेख काफी प्रेरणादायक है| हर एक को पेड़ काटने के बजाय लगाना चाहिए|
जवाब देंहटाएंप्रिय जाकिर भाई,
जवाब देंहटाएंमौके पर जो बात उठायी है कि असली होली क्या है :-
क्या पेड़ो की कुर्बानी?
पानी की बर्बादी?
रंगों के स्थान पर रसायनों(जो कि घातक भी हो सकते हैं) का प्रयोग?
एक बहुत ही अच्छी और ज्ञानवर्द्धक जानकारी भी दी इस पोस्ट ने " होली मुख्य रूप से एक ‘कृषि यज्ञ’ है, जिसमें गेहूं की फसल के पकने पर उसे गाय के गोबर से बने कंडे पर भूनकर प्रसाद के रूप में बॉंटे जाने का उल्लेख वेदों में मिलता है। ‘यज्ञ’ से जुड़ाव होने के कारण ही होली में आम की सूखी लकड़ी डाले जाने का वर्णन मिलता है "
हम सभी यह सबक जरूर लें कि होली सूखी हो ताकि पानी के अपव्यय को रोका जा सकता है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
आपने समसामयिक के साथ सार्वभौमिक मुद्दे की बात की है होली पर हरे पदों का जलाया जाना निहायत ही इस त्यौहार की पवित्रता और उद्देश्य पर ग्रहण है
जवाब देंहटाएंकबाड आदि दिमागी तौर पर दिवालिया लोगों द्वारा जलाए जाते हैं.यह वास्तव में सामूहिक हवन ही था न की आज जैसा खुराफाती ऊधम.
जवाब देंहटाएंलकड़ी चाहे बाज़ार से लाएं या पेड़ काटकर, कुछ तो
जवाब देंहटाएंहोलिका में जलेगा ही...परंपरा के नाम पर युवक एक ही दिन ऐसी गुस्ताखी करते हैं...लेकिन विकास के नाम पर, महापुरुषों के पार्कों के नाम पर जो ग्रीन बेल्ट की ग्रीन बेल्ट उड़ा दी जाती है...कॉरपोरेट घरानों के लिए एसईज़ेड के नाम पर ग्रामीणों-आदिवासियों के जंगल के जंगल साफ कर दिए जाते हैं, असली ख़तरा वहां है...खैर किस किस को रोइए...फिलहाल तो होली मनाइए...
तन रंग लो जी आज मन रंग लो,
तन रंग लो,
खेलो,खेलो उमंग भरे रंग,
प्यार के ले लो...
खुशियों के रंगों से आपकी होली सराबोर रहे...
जय हिंद...
आपका लेख मानव और समाज के हित में होता है.अच्छा लगता है.
जवाब देंहटाएंहफ़्तों तक खाते रहो, गुझिया ले ले स्वाद.
मगर कभी मत भूलना,नाम भक्त प्रहलाद.
होली की हार्दिक शुभकामनायें.
होली की हार्दिक शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंvery well said,I too agree with you, we should save the trees. wishing you a very happy holi
जवाब देंहटाएंregards
सार्थक लेख ..होली की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआप को सपरिवार होली की हार्दिक शुभ कामनाएं.
जवाब देंहटाएंसादर
शुक्रिया जाकिर भाई ! होली की शुभकामनायें स्वीकार करें !
जवाब देंहटाएंछोटे शहरों में स्थिति अधिक विकट है। एक दिन का उत्साह पर्यावरण के लिए साल भर के नुकसान का सबब बनता है।
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ आपसे....
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनायें.
बहुत सही कहा है..होली की हार्दिक शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंachchhi sikh deti hui post..... holi ki hardik shubhkamnayen.
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंये गलत है पेड़ नहीं काटने चाहिए ...हर होली में एक पेड़ लगाकर क्यू न होली मनाई जाये ....आपको होली की शुभकामनायें .....हैप्पी होली....
जवाब देंहटाएंसहमत हूं आपसे।
जवाब देंहटाएंहोली की शुभकामनाएं।
aap ka sndesh thik hai pr aisi hi kuriti bkrid pr hoti hai
जवाब देंहटाएंbejban aur beksoor jin bkron ko jibh yani dhire 2 gla kat kat kr hlal kiya jata hai kbhi use bhi rokne kee ya rukvane kee ghoshna to kro bhai hm to vriksh ko sjiv mante hain pr bkre to schl bhi hai gay kee kurbani ke virooddh bhi aavaj uthao bhai
ज़ाकिर अली जी अधिकतर जगहों पर गोबर के उपले, घर की पुरानी लकड़ी की वस्तुएं भी होलिका दहन में प्रयोग की जाती हैं| ध्यान देने की बात बात यह भी है कि पूरा या आधा पेड़ नहीं, बल्कि पेड़ कि कुछ सूखी या दोनों तरह की टहनियां ही काटी जाती हैं. जो कुछ समय बाद पुनः बढ़ जाती हैं| अतः पर्यावरण को कोई दीर्घावधि नुक्सान नहीं होता| दीर्घावधि नुक्सान तो तब होता है जब पूरे पेड़ ही नहीं पूरे के पूरे खेत ही विकास के नाम पर, उद्योग-धंधों के नाम पर काट दिए जाते हैं और इनमे पुनः कोई वृद्धि भी नहीं होती| क्योकि उस जगह पर बड़ी-बड़ी इमारतें उद्योग-धंधे खड़े हो चुके होते हैं| पर्यावरण का जितना ह्रास एक साल में विकास के नाम पर होता है, उसका दशमलव आधा प्रतिशत भी होली दहन के समय नहीं होता|
जवाब देंहटाएंलेकिन आपकी बात भी अपनी जगह ठीक है, दरअसल, कुछ नासमझ लोग अपने एरिया में होलिका दहन में हरी टहनियों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं| जो की सरासर पाप है| आपने इस और ध्यान दिलाया इसका धन्यवाद| लेकिन ज्यादा बेहतर होता कि आप अपने एरिया के लोगों को ऐसा अपराध करने से रोकते| उनको जागरूक करना जयादा बेहतर होता बजाये ब्लॉग लिखने के|
होली की बहुत बहुत शुभकामनाये
आपसे पूर्ण सहमत.
जवाब देंहटाएंहोली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ...
सार्थक लेखन के साथ विचारणीय भी ......
जवाब देंहटाएंआपको रंगपर्व होली पर असीम शुभकामनायें !
सौ फीसदी सहमत !
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया लेख
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फीसदी सहमत
लो अब होलिका दहन पर नज़र लग गई विद्वानों की..! बड़ी मुसीबत है। होलिका के लिए हरे पेड़ नहीं वृक्षों की सूखी टहनियाँ काटी जाती हैं। यदि आपके सामने हरा पेड़ काटा गया तो आपको कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए थी न कि होलिका के विरूद्ध लेख लिखना। मुझे तो हरे पेड़ काटे जाते नहीं दिखे।
जवाब देंहटाएंक्षमा करें मुझे आपका यह आलेख अच्छा नहीं लगा।
आदरणीय देवेन्द्र जी, सम्भवत: आपने पूरी पोस्ट नहीं पढी! यह लेख होलिका के विरोध में नहीं है! इसमें होलिका के असली स्वरूप को बताने का प्रयास किया गया है और पेड न काटे जाएं, इस लिए जागरूक किया गया है!
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख .
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी बात कही आपने...मैंने ऐसे कभी सोचा नहीं था..
जवाब देंहटाएंज़ाकिर अली जी अधिकतर जगहों पर गोबर के उपले, घर की पुरानी लकड़ी की वस्तुएं भी होलिका दहन में प्रयोग की जाती हैं| ध्यान देने की बात बात यह भी है कि पूरा या आधा पेड़ नहीं, बल्कि पेड़ कि कुछ सूखी या दोनों तरह की टहनियां ही काटी जाती हैं. जो कुछ समय बाद पुनः बढ़ जाती हैं| अतः पर्यावरण को कोई दीर्घावधि नुक्सान नहीं होता| दीर्घावधि नुक्सान तो तब होता है जब पूरे पेड़ ही नहीं पूरे के पूरे खेत ही विकास के नाम पर, उद्योग-धंधों के नाम पर काट दिए जाते हैं और इनमे पुनः कोई वृद्धि भी नहीं होती| क्योकि उस जगह पर बड़ी-बड़ी इमारतें उद्योग-धंधे खड़े हो चुके होते हैं| पर्यावरण का जितना ह्रास एक साल में विकास के नाम पर होता है, उसका दशमलव आधा प्रतिशत भी होली दहन के समय नहीं होता|
जवाब देंहटाएंऔर आपका ईद पर हजारों बेजुबान जानवरों का मारा जाना क्या शि है.........!!!!!!!!!!!!!!