काला जादू, टोना टोटका और आत्माओं की दुनिया का जायजा लेता बेबाक चित्रण।
जब से मनुष्य ने समाज बनाना आरंभ किया, सामाजिक व्यवस्था लागू की, रोगों से बचाव के बारे में सोचा, तभी से उसने अताकिर्कता के काले सायों के कारण खोजना भी शुरू कर दिया। रोगों और विकारों से बचाव के उपाय जब मनुष्य को अपनी समझ से परे प्रतीत होने लगे संभवतः तभी जादू टोने, शामानी धर्म और अन्य चमत्कारिक उपचार विधियां पनपने लगीं। मानसिक रोगों की गुत्थियां सलुझाने की दिशा में चाहे अभी अधूरी ही क्यों न हो अदभुत पग्रति हुई है। फिर भी विश्व के अनेक भागों में स्त्री-पुरूष अब तक अतीन्दिय्र प्रभावों की छाया में जी रहे हैं।
इसी सदंर्भ में नीचे चार रोग विवरण दिए जा रहे हैं जिनसे शामानी धर्म और टोना-टोटका की कार्य प्रणाली पर पक्राश पडत़ा है। इन विवरणों का अध्ययन करने के पश्चात् हम यह साचेंगे कि प्रेत जगत के ये पोंगापंथी विश्वास आज की प्रगतिशील दुनिया में आखिऱ क्यों मौजूद हैं और यह भी कि आज का आदमी इन प्रेत छायाओं से निजात पाने में लाचार क्यों है।

सीधी दूरी के हिसाब से, दिल्ली से लगभग 160 किलामीटर दूर एक छोटा गांव है। गांव के मुखिया सुरेन्द्र चौधरी हैं। आज गांव का हर व्यक्ति उनके घर पहुंच रहा है। उनकी बहू मीरा की देह में एक बुरी आत्मा ने प्रवेश कर लिया है। मीरा पूरी तरह उसके प्रभाव में है। उसकी देह झूल रही है, चेहरा सुरमई हो गया है, बाल बिखरे हैं और आखें लाल हैं। वह अनर्गल प्रलाप कर रही है, क्रोध में चीख रही है और पूरी तरह आपे से बाहर हो गई है। गांव का एक बजुर्ग उससे पूछता है कि वह कौन है उसने मीरा को वशीकृत क्यों किया है और उसकी मंशा क्या है।
सवाल से चौंक कर आत्मा जोंरों से अट्टहास करती है और कहती है ‘अच्छा तो तुम यह जानना चाहते हो कि मैं कौन हूं? मैं रत्ना हूं, मीरा की सहेली’ एकत्रित लोगों में सन्नाटा छा जाता है। रत्ना की मृत्यु हो चुकी है। सात माह पूर्व उसने कुएं में कूद कर अपनी जान दे दी थी। वही बुजुर्ग फिर सवाल करता है, ‘तुम यहां क्यों आई हो?’ रत्ना की आत्मा मुस्कराती है और कहती है, ‘मैं मीरा के पति को ले जाने के लिए आई हूं। वह आदमी बुरा है वह मेरी सहेली को पीटता है, उसे खाना-पानी ठीक से नहीं देता है और उसके साथ जानवरों जैसा सुलूक करता है। उसमें आत्मा नहीं है उसे मरना ही होगा।’
सवाल से चौंक कर आत्मा जोंरों से अट्टहास करती है और कहती है ‘अच्छा तो तुम यह जानना चाहते हो कि मैं कौन हूं? मैं रत्ना हूं, मीरा की सहेली’ एकत्रित लोगों में सन्नाटा छा जाता है। रत्ना की मृत्यु हो चुकी है। सात माह पूर्व उसने कुएं में कूद कर अपनी जान दे दी थी। वही बुजुर्ग फिर सवाल करता है, ‘तुम यहां क्यों आई हो?’ रत्ना की आत्मा मुस्कराती है और कहती है, ‘मैं मीरा के पति को ले जाने के लिए आई हूं। वह आदमी बुरा है वह मेरी सहेली को पीटता है, उसे खाना-पानी ठीक से नहीं देता है और उसके साथ जानवरों जैसा सुलूक करता है। उसमें आत्मा नहीं है उसे मरना ही होगा।’
पूरा एकत्रित जनसमूह स्तब्ध रह जाता है। आत्मा का प्रलाप जारी रहता है, ‘जाओ मेरी सहेली की सास को लाओ, डायन है वो। वही है जिसके उकसाने पर मेरी सहेली के आदमी के सिर पर शैतान सवार हो जाता है। लाओ मैं उसकी जब़ान खींच लूंगी।’ लोगों की कानाफूसी बढ़ जाती है। भीड़ में ऐसी अनेक स्त्रियां हैं जिन्हें मीरा की सास से अपने हिसाब चुकता करने हैं। वे भीतर ही भीतर यह चाहती हैं कि आत्मा जो भी कह रही है, कर दिखाए। वातार्लाप करने वाला बजुर्ग सयाना है। वह कहता है, ‘अगर तुम मीरा के पति और सास को मार डालोगी तो मीरा अकेली पड़ जाएगी। ऐसा तो तुम भी नहीं चाहोगी। हम इस बात का ध्यान रखेगे कि वो तुम्हारी सहेली के प्रति आगे से दुव्यवहार न करें। अगर उन्होने फिर भी अपना रवैया नहीं बदला तो जो तुम्हारे मन में आए वह करना।’
[post_ads]
[post_ads]
आत्मा कुछ नरम पडती है, ‘तुम वचन देते हो?’ ‘हां!’, बजुर्ग की इस आवाज़ के साथ भीड़ में बहुत सारे लोग हामी भर देते हैं। आत्मा लौट जाती है। मीरा चेतना खोकर धरती पर गिर जाती है। दो प्रौढ़ महिलाएं उस पर ठंडे पानी के छींटे देती हैं। तीसरी उसकी बांह में पूजा का धागा बांध देती है। मीरा धीरे से अपनी आखें खोलती हैं वह अपने चारों तरफ़ लोगों की भीड़ देखकर भौचक्की रह जाती है। वह धीमे स्वर में पूछती है, ‘क्या हो गया? मैं कहां हूं?’ उसका पूरा बदन पसीने से भीगा है और उसे जोरों की प्यास महससू हो रही है। औरतें उसकी देखभाल में जुट जाती हैं। धीरे धीरे मीरा का चेहरा सामान्य होने लगता है। किस्सा खत्म हो जाता है। भीड़ छितराने लगी है।
र.स. 45 वर्षीय व्यापारी हैं। उनका भरापूरा परिवार है। र्वद्ध माता, समर्पित पत्नी एवं दो बच्चे। उनका व्यवसाय भी खूब पनप रहा है और लोगों में उनकी साख है। वे नियमित रूप से मंदिर जाते हैं, गरीबों की मदद करते हैं और समाज में उनका सम्मान है। इतना होने पर भी पिछले दो महीनों से वे अपने आप ही में डूबे रहते हैं। कामकाज मे उनका मन नहीं लगता और न किसी से मिलने जुलने का मन करता है। वे हर वक्त बस गहरी उदासी से घिरे रहते हैं। बिना बात रोने लगते हैं, अपने कर्तव्यों और जरू़रतों से विमुख हो गए हैं, हर वक्त दर्द और तकलीफ़ की शिकायत करते हैं, आराम करने पर भी गहरी थकान महससू करते हैं। पारिवारिक चिकित्सक ने उनका शारीरिक परीक्षण करने पर उनमें किसी तरह की खराबी नहीं देखी। जब सभी नैदानिक परीक्षणों का भी कोई नतीजा नहीं निकला तो उनकी घरवाली को पड़ोस की एक भली महिला ने सुझाया, ‘जरू़र तुम्हारे पति को किसी की बुरी नजऱ लगी है। किसी तांत्रिक की मदद लो।’
बेचारी घबराई हुई पत्नी के पास और कोई चारा नहीं था। उसने एक तांत्रिक की मदद ली जिसने नजऱ उतारने का आश्वासन दिया। तांत्रिक उनके घर आया। उसने कुछ क्रियाएं कीं और लोगों से थोड़ा इंतजा़र करने के लिए कहा। वह एक खुरपी लेकर घर के पिछवाडे़ गया और मोर्चा जीतकर हाथ में एक लकडी की गुडिया लेकर लौट आया। लोगों के बीच उसने गुडिया को तोड़ डाला, अपनी दक्षिणा ली और यह कहकर चलता बना कि र.स. शीघ्र ही ठीक हो जाएंगे। र.स. का परिवार आज भी उनके ठीक होने का इतंज़ार कर रहा है। उनकी हालत दिन पर दिन बिगडती जा रही है।
उत्तराखंड के पहाड़ों में रूदप्रयाग शहर में एक सरकारी अस्पताल है। डॉ. राज ने हाल ही में वहां बाल रोग विशेषज्ञ के रूप में कार्य आरंभ किया है। एक दिन रोगियों को देखने के दौरान उन्होंने अगले शिशु को बुलवाया। एक स्त्री भीतर आई और आंसू भरी आंखों से अनुनय करती हुई अपने बच्चे को लेकर स्टूल पर बैठ गई। बच्चा बुखार में तप रहा था। डॉ. राज ने उसे परीक्षण के लिए पलंग पर लिटाया और जैसे ही उसके वस्त्र हटाए, वे देखकर सन्न रह गए। बच्चे के पेट पर आग से दागे जाने के ताजा़ निशान थे। उन्होंने प्रश्न सूचक निगाहों से मां को देखा। वह रोने लगी। बच्चे के पिता ने हादसा बयान किया कि मोहन नाम के इस बच्चे को दौरे पडते थे। गांव के ओझा ने उसका इलाज गरम लोहे की सलाखों से किया। फायदा कुछ नहीं हुआ। ‘डॉक्टर साहब, मेरे बच्चे को बचा लो, कहता हुआ वह डॉक्टर के चरणों में लोट गया।
मैं अपने अस्पताल में रोगियों को देख रहा था। काम समाप्त होने ही वाला था कि एक व्यक्ति ने हिचकिचाते हुए मेरे कक्ष में प्रवेश किया। उसके चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी। ‘डॉक्टर, क्या मैं आपसे कुछ देर अकेले में बात कर सकता हूं?’ मैंने मुस्कराकर उससे बैठने के लिए कहा, उसे भरोसा दिलाया। कुछ देर के इंतजा़र के बाद वह बोला, ‘डॉक्टर, मेरी हालत बहुत खऱाब है मैं अपनी मर्दानगी गवां चुका हूं। रात में जब मैं गहरी नींद में होता हूं मुझे एक कामुक स्त्री अपने बस में कर लेती है वह मुझसे यौन सम्बंध बनाती है और मेरी मर्दानगी को हर लेती है। मेरे परिवार ने मेरा विवाह भी तय कर दिया है। उन्हें सच्चाई का पता नहीं है मुझे चिंता है कि मैं अपनी पत्नी को कभी संतुष्ट भी कर पाऊंगा? क्या आपके पास कोई ऐसी दवा है जो मेरी मर्दानगी वापस लौटा दे?’
वह व्यक्ति रूंआसा हो गया था। मैंने उससे पूछा, ‘तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारी मर्दानगी नहीं रही?’ उसका चेहरा लाल हो गया। वह एक मिनट चुप रहा। फिर मानो कुछ निश्चय करके कहने लगा, ‘लगभग चार हफ्ते पूर्व एक दोस्त की सलाह पर मैं पहली बार किसी स्त्री के पास गया। वह देखने में सुंदर थी, उसने मुझे उकसाने की कोशिश की, काफी़ धीरज भी रखा लेकिन मैं तैयार नहीं हो सका। ढीला पड़ गया। मैंने कई बार कोशिश की पर कुछ नहीं कर पाया। मैंने उस बार इस बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। दुबारा अपने दोस्त से मिला। वह मुझे एक तांत्रिक के पास ले गया। तांत्रिक ने थाड़ी झाड़ फूंक की और बताया कि मुझ पर एक जवान स्त्री का साया है इसीलिए मुझे स्वप्न दोश होते हैं। वह स्त्री नहीं चाहती कि मेरा विवाह हो। तांत्रिक ने मेरे लिए अनुष्ठान किया पर उससे कुछ हुआ नहीं। अब बस आप ही मेरा एक मात्र सहारा हैं।’
इस प्रकार की घटनाएं दुनिया भर में आम हैं। कवच और ताबीज़, आत्माएं, काला जादू और झाड फूंक का आसरा मानव सभ्यता शताब्दियों से लेती रही है। सामुदायिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि मनुष्य अक्सर, विकारों और दिमागी बीमारियों से राहत पाने के लिए प्रार्थना, अतीन्द्रिय शक्तियों के आह्वान, आस्था उपचार तथा तंत्र का सहारा लेते हैं। हालांकि इस प्रकार के तौर-तरीके विकासशील समाजों में अधिक दिखाई देते हैं किंतु ऐसा नहीं है कि औद्योगिक रूप से समृद्ध समाज में ये नहीं मिलते। पश्चिमी गोलार्द्ध में पांच में से एक परिवार इनकी शरण लेता है।
अशिक्षा के चलते गरीब तो इनकी चपटे में आते ही हैं पर अमीर भी इनसे नहीं बच पाते। पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं न होने और होने पर भी उनसे मदद न मिल पाने पर लोग बाग इन पिछडी़ मान्यताओं का सहारा लेने लगते हैं। इन पिछडी़ मान्यताओं का अध्ययन करने से पहले, चलिए उन लोगों की तरफ लौट चलें जिनका हमने शरूआत में जिक्र किया था। आइए इनका विश्लेशण करें।
अशिक्षा के चलते गरीब तो इनकी चपटे में आते ही हैं पर अमीर भी इनसे नहीं बच पाते। पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं न होने और होने पर भी उनसे मदद न मिल पाने पर लोग बाग इन पिछडी़ मान्यताओं का सहारा लेने लगते हैं। इन पिछडी़ मान्यताओं का अध्ययन करने से पहले, चलिए उन लोगों की तरफ लौट चलें जिनका हमने शरूआत में जिक्र किया था। आइए इनका विश्लेशण करें।
मीरा के बारे में थोड़ी गहराई से सोचें तो हम समझ जाएंगे कि उस पर किसी भूत वूत का साया नहीं था, बल्कि वह तो डिसोसिएटिव सोमेटाइजेशन यानी वियोजित कायिक विकार का दौरा झेल रही थी। उसका मस्तिष्क उसकी जटिल परिस्थितियों के कारण चकरा गया था। वह अपने माता-पिता की एकमात्र लाड़ली बेटी थी किंतु उसकी शादी के तुरतं बाद दोनों का स्वर्गवास हो गया था।
मीरा समझदार थी पर उसे विवाह के बाद कभी अपनी काबिलियत दिखाने का मौका ही नहीं मिला। उल्टे उसे अपनी सास और पति से बार-बार गहरी मानसिक यंत्रणा मिलती थी जिसके सामने वह लाचार थी। एक दिन उसे अपनी सहेली रत्ना की मौत के बारे में पता चला। जाने अनजाने उसने रत्ना की पहचान को खुद पर ओढ़ लिया जिसके सहारे उसका बरसों का गुबार बाहर निकलने लगा और बदले में उसे अप्रत्याशित रूप से जिन लोगों को वह जानती भी नहीं थी, उन सबकी सहानुभूति मिल गई।
गांव के बड़े बुजुर्ग जो जब तक उसके कष्टों के प्रति आंख मूंदे थे उन्हें उसके सास-ससुर को समझाने बुझाने का बहाना मिल गया। यह सब कुछ मीरा के अवचेतन में घटा। चेतनावस्था में तो वह जानती ही नहीं थी कि क्या कुछ घट चुका है। यह एक इस प्रकार की स्थिति है जिसमें किसी समुदाय के सामाजिक सांस्कृतिक विश्वास कष्ट में घिरी स्त्री की सुरक्षा के काम आए। वैसे अधिकांश स्थितियों में नतीजा़ इतना खुशग़वार नहीं भी होता। इस प्रकार के रूढ़िवादी आचारों से कैसे दुष्परिणाम निकलते हैं यह अन्य तीन दृष्टांतसें से स्पष्ट हो जाता है।
मीरा समझदार थी पर उसे विवाह के बाद कभी अपनी काबिलियत दिखाने का मौका ही नहीं मिला। उल्टे उसे अपनी सास और पति से बार-बार गहरी मानसिक यंत्रणा मिलती थी जिसके सामने वह लाचार थी। एक दिन उसे अपनी सहेली रत्ना की मौत के बारे में पता चला। जाने अनजाने उसने रत्ना की पहचान को खुद पर ओढ़ लिया जिसके सहारे उसका बरसों का गुबार बाहर निकलने लगा और बदले में उसे अप्रत्याशित रूप से जिन लोगों को वह जानती भी नहीं थी, उन सबकी सहानुभूति मिल गई।
गांव के बड़े बुजुर्ग जो जब तक उसके कष्टों के प्रति आंख मूंदे थे उन्हें उसके सास-ससुर को समझाने बुझाने का बहाना मिल गया। यह सब कुछ मीरा के अवचेतन में घटा। चेतनावस्था में तो वह जानती ही नहीं थी कि क्या कुछ घट चुका है। यह एक इस प्रकार की स्थिति है जिसमें किसी समुदाय के सामाजिक सांस्कृतिक विश्वास कष्ट में घिरी स्त्री की सुरक्षा के काम आए। वैसे अधिकांश स्थितियों में नतीजा़ इतना खुशग़वार नहीं भी होता। इस प्रकार के रूढ़िवादी आचारों से कैसे दुष्परिणाम निकलते हैं यह अन्य तीन दृष्टांतसें से स्पष्ट हो जाता है।
र.स. के आचरण में जो परिवर्तन लक्षित हुआ वह किसी तांत्रिक क्रिया का परिणाम नहीं था। र.स. डिप्रेशन यानी अवसाद ग्रस्त मानसिकता से जूझ रहे थे। उनके रोग लक्षण सुस्पष्ट थे। यदि परिजन उन्हें किसी मनोविशेशज्ञ के पास ले जाते तो उनकी हालत समझने में चिकित्सक को देर न लगती। चिकित्सक, निदान के बाद अवसाद रोधी दवाएं देता जिससे दो तीन सप्ताह में ही उनकी हालत में सुधार शुरू हो जाता।
रूद्रप्रयाग के बेचारे बच्चे को सिर्फ तेज बुखार के इलाज की जरूरत थी। शरीर का तापमान असामान्य स्तर तक बढ़ जाने के कारण उसे दौरे पड़ रहे थे। बुखार के कारण होने वाले ऐसे आक्षेप या ज्वर सम्बंधी दौरे बच्चों में आम हैं। ऐसे दौरों में सबसे बढ़िया तरीका है ज्वर को शीघ्रातिशीघ्र कम करने की कोशिश करना। बुखार में राहत देने वाली दवाएं जैसे पैरासिटामोल देने और गीले कपडे़ की पट्टी रखने से स्थिति पर काबू पाया जा सकता है। फिर भी बहुत से लोग दौरा पड़ने पर रोगी के शरीर की बेकाबू गतिविधियां देखकर इतना घबरा जाते हैं कि वे उसे अतीन्द्रिय लोक का अभिशाप समझने लगते हैं।
अंत में उस व्यक्ति की बात जो मुझे सन 1982 में मिला था। आज वह एक सुखी विवाहित व्यक्ति है और दो किशोर बच्चों का पिता भी। उसकी समस्या गलत सामाजिक धारणाओं की भी थी और साथ ही जैविक क्रियाओं सम्बंधी अज्ञान की भी। उसका चित्त अत्यंत व्यग्र था और यही उसकी तबाही का कारण बन रहा था। स्वप्न दोष पुरूषों में एक सामान्य प्रक्रिया है, उसे वह किसी आत्मा का साया समझ रहा था और यही बात उसे खाए जा रही थी। उसे जरूरत थी तो बस व्यग्रतारोधी उपचार और सरल परामर्श की जो सामान्य होने में उसकी मदद कर सके।
विश्वास, व्यवहार और उनका प्रभाव प्राचीनकाल से ही मनुष्य सभ्यता एवं सामाजिक व्यवस्था में जादू टोना जैसे संरक्षक आत्माओं के प्रति आभार प्रदर्शन या ताबीज धारण करना मानव जीवन की सामान्य प्रकृति रही है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो ऐसा व्यवहार, अतीन्दिय्र जगत के सम्बंध में जनसामान्य के विश्वासों का समन्वयन करते हैं जिससे सामाजिक सम्बंध मजबूत होते हैं।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर ऐसा व्यवहार आचार हमें प्रकृति पर नियंत्रण का अहसास दिलाते हैं जिससे मौसम के बदलते मिजाज प्राकृतिक आपदाओं एवं रोगों से उपजने वाली व्यग्रता कम होती है। जब इस प्रकार की स्थितियां सामने आती हैं तो लोग उनकी व्याख्या शैतानी प्रकोप या काला जादू के रूप में करने लगते हैं। अनुष्ठान से बुरी ताकतों का मुकाबला करना, उनकी पहचान करना और उन्हें जीतकर भगा देना तथाकथित तांत्रिक या ओझा का काम माना जाता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर ऐसा व्यवहार आचार हमें प्रकृति पर नियंत्रण का अहसास दिलाते हैं जिससे मौसम के बदलते मिजाज प्राकृतिक आपदाओं एवं रोगों से उपजने वाली व्यग्रता कम होती है। जब इस प्रकार की स्थितियां सामने आती हैं तो लोग उनकी व्याख्या शैतानी प्रकोप या काला जादू के रूप में करने लगते हैं। अनुष्ठान से बुरी ताकतों का मुकाबला करना, उनकी पहचान करना और उन्हें जीतकर भगा देना तथाकथित तांत्रिक या ओझा का काम माना जाता है।
झाड़ फूंक में भी लगभग यही बात होती है। शामान या विशेष पुजारी लोगों या स्थानों को ग्रसने वाले या उन पर बुरी नजर रखने वाले शैतानों और बुरी आत्माओं को भगाने के लिए अनुष्ठान करते हैं। वे अटकी और ग्रसित आत्मा को बचा लेते हैं और दैवी शक्तियों तथा सहायक आत्माओं का आह्वान करते हैं। काला जादू करने वाले तांत्रिक, ओझा और उन्हीं की श्रेणी के अन्य लोग अनेक प्रकार के जटिल नकारात्मक अनुष्ठान सम्पन्न करके लोगों को बरगला देते हैं। वे मिट्टी या मामे की किसी कील ठुंकी मूरत को जमीन में दबा देते हैं और मंत्र पढ़कर बुरी आत्माओं का आह्वान करते हैं। लोग अपने दुश्मनों को हानि पहुंचाने या उनका ख़ात्मा करने के लिए ऐसे लोगों की मदद लेते हैं।
यह धारणा कि आत्माओं का अस्तित्व है युगों से हमारे भीतर रच बस गई है। इसे समझना कठिन भी नहीं कि ऐसी धारणा बनी कैसे होगी। हमारे किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु पर हम सुधबुध खो बैठते हैं। गहन दुःख के क्षणों में कभी-कभार हमें मृत व्यक्ति को देखने या उसकी आवाज सुनने का आभास होता है। यादें दुःख की वेला में अजीब खेल खेलती हैं। इस प्रकार के विभ्रमों से ही यह विश्वास पनपता है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा रूप में व्यक्ति का कोई अंश विद्यमान रहता है और जिस तरह लोग भले बुरे होते हैं आत्माएं भी भली-बुरी हो सकती हैं।
यह धारणा कि आत्माओं का अस्तित्व है युगों से हमारे भीतर रच बस गई है। इसे समझना कठिन भी नहीं कि ऐसी धारणा बनी कैसे होगी। हमारे किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु पर हम सुधबुध खो बैठते हैं। गहन दुःख के क्षणों में कभी-कभार हमें मृत व्यक्ति को देखने या उसकी आवाज सुनने का आभास होता है। यादें दुःख की वेला में अजीब खेल खेलती हैं। इस प्रकार के विभ्रमों से ही यह विश्वास पनपता है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा रूप में व्यक्ति का कोई अंश विद्यमान रहता है और जिस तरह लोग भले बुरे होते हैं आत्माएं भी भली-बुरी हो सकती हैं।
शैतान या बुरी और कुटिल आत्माएं रोग ग्रस्त मन की विचित्र एवं असंतत मनः स्थिति में जगह बनाने लगती हैं। लगभग सभी बड़ी बीमारियों में खास तौर पर मन की रूग्णता में लोग कहते पाए गए हैं कि उन्होंने जो देखा और सुना है उसे दूसरे नहीं समझ सकते।
मीडिया, सिनेमा, यहां तक कि हैरी पॉटरों, बेतालों का भी लगातार यही जोरदार प्रयास है कि हम अविश्वसनीय में विश्वास करते रहें। झाड़ फूंक करने वाले, आस्था उपचारक और ओझा सभी मानसिक रोगों के निवारण के लिए जटिल अनुष्ठानों, आहवान और मंत्रोच्चारण का सहारा लेते हैं। इनमें से बहुत से लोग मानव आचरण की गहरी समझ और अध्ययन के कारण मानसिक रोगों को समझने में भी सक्षम होते हैं। रोग यदि मध्यम स्तर पर होता है तो ये उसे दूर करने में भी काफी स्थितियों में कामयाब होते हैं और इनकी सख्त हिदायतें भी अपना काम करती हैं।
झाड़ फूंक भी कभी-कभार काम कर जाती है, बशर्ते रोग अपनी सीमा में हो और इसलिए भी कि रोगी को जो ध्यान और सहानुभूति मिलती है उससे दिमाग शांत होने लगता है। जहां ये तरीके असिद्ध हो जाते हैं, वहीं वे काल्पनिक ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव और भाग्य को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। कुछ चतुर आस्था उपचारक रोगी को यह कह कर अस्पताल भेजते हैं कि उसके भाग्य में अमकु स्थान (अस्पताल) से ही स्वस्थ होना बदा है। ऐसा सुझाव, चाहे घुमा-फिरा कर ही क्यों न दिया गया हो रोगी के हित में हो सकता है।
कई बार जब खुद को उपचार करने वाला कहने वाले ऐसे लोग अपने विचारों की पुष्टि के लिए या मानसिक रोगी को बस में करने के लिए अमानवीय तरीके काम में लाते हैं तब परिणाम दुःखद हो जाता है। अनेक मानसिक रोगियों की ‘चिकित्सा’ हेतु प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों में शारीरिक हिंसा अपनाई जाती है या जंजीरों से पीटा जाता है। कभी-कभी यह त्रासदी अपने चरम रूप में पहुंच जाती है कुछ वर्ष पूर्व, तमिलनाडु में दस मानसिक रोगियों को जंजीरों से बांधकर एक छोटे से कमरे में बंद कर दिया गया था। अचानक आग लगी और वे बेचारे दस के दस उसमें भस्म हो गए। (साभार: ड्रीम 2047, सितम्बर 2010)
कई बार जब खुद को उपचार करने वाला कहने वाले ऐसे लोग अपने विचारों की पुष्टि के लिए या मानसिक रोगी को बस में करने के लिए अमानवीय तरीके काम में लाते हैं तब परिणाम दुःखद हो जाता है। अनेक मानसिक रोगियों की ‘चिकित्सा’ हेतु प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों में शारीरिक हिंसा अपनाई जाती है या जंजीरों से पीटा जाता है। कभी-कभी यह त्रासदी अपने चरम रूप में पहुंच जाती है कुछ वर्ष पूर्व, तमिलनाडु में दस मानसिक रोगियों को जंजीरों से बांधकर एक छोटे से कमरे में बंद कर दिया गया था। अचानक आग लगी और वे बेचारे दस के दस उसमें भस्म हो गए। (साभार: ड्रीम 2047, सितम्बर 2010)

एक झकझोरती हुयी पोस्ट, बधाई , सामाजिक विषयों पर ये एक बेहतरीन प्रयाश है, इसी तरह दूर हो सकती हैं हमारी भ्रांतियां, और उन्हें समूल नाश के लिए अथक प्रयाश करने होंगे
जवाब देंहटाएंझाड़ फूंक भी कभी-कभार काम कर जाती है, बशर्ते रोग अपनी सीमा में हो और इसलिए भी कि रोगी को जो ध्यान और सहानुभूति मिलती है उससे दिमाग शांत होने लगता है। जहां ये तरीके असिद्ध हो जाते हैं, वहीं वे काल्पनिक ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव और भाग्य को जिम्मेदार ठहरा देते हैं।
जवाब देंहटाएंsahi hai
aap ne sahi kaha hai
हटाएंjo example upar aap ne diye unake akhari result kaya rahen..?wo thik ho gaye yaa waise ke waise hai..ya aap ke hisab se treatment huyi. yah bhi batate to aur achchha hota tha.
जवाब देंहटाएंगांवो में अक्सर महिलाओ को भूत या देवी का प्रकोप रहता है कारण यही है की वो अपने कष्टों को कह नहीं पाती डिप्रेशन में रहती है या जब उन्हें परिवार में सम्मान नहीं मिलता तो देवी के रूप में सम्मान पाना चाहती है | कुछ सच में मानसिक रूप से बीमार होती है किन्तु कुछ केवल नाटक करती है | अभी हाल में ही टीवी पर देखा की अफ्रीका के एक देश में उन बच्चो को तांत्रिको के कहने पर मार दिया जा रहा है जिनको सूरजमुखी की बीमारी है और उनका पुरा शरीर सफ़ेद होता है एक संस्था ने इन बच्चो को बचाने का प्रयास शुरू किया है | ऐसी तांत्रिक तो काफी खतरनाक होते है |
जवाब देंहटाएंJakir ji apke lekh padh kar mai poorntya naastik ban gaya.
जवाब देंहटाएंlekin mere jaisa manovigyan me ruchi rakhne wale ke saath bhi aisa ho sakta hai mai soch nahi sakta tha.aastik se naastik banna shayad apko bachcho ka khel lagta hoga lekin sirf itna kahna chahunga pagal hone jaisi isthti ho gayee thi.dil dhadkne laga ,haath pair kaampne lage,baar baar dimaag ko doosri taraf lagane ki koshish karta lekin dimaag ghoomne laga tha.bas paagal hi nahi hua tha.is ghatna ke baad sab kuch rookha rookha lagta tha.yadi mere akele ke saath hota to shayad mai khud ko kamjor samajh kar chup rahta.bilkul aisi ishthti mujhse do din pahle astik se nastik banne wale ke huyee thi.maine use kamjor dil ka samjh kar doctoro jaisi salaah bhi de daali ki ardhchetan mann me jame vishwaas wala karan hai.sakratmak socho theek ho jaoge.aur mujhe nahi lagta tha mere jaise zindadil insaan ke kabhi ye samashya aa sakti hai.karan sirf itna tha lagataar aastik aur naastik ke beech 7 din bahas chalti rahi.sawaalo aur jawaabo me ulajh gaye aur hum apke lekhon ke sahaare jitte bhi chale gaye.kyunki sirf hum do logo ne apki baate dimaag ke saath saath dil se apnane ki sochi thi.lekin ab sab kuch theek hai.mai khud nahi samajh paa raha hun wo sab kyun aur kaise hua tha.sirf bahas karne ke karan???
hum aaj bhi naastik hai.lekin kya ye samashya age bhi aa sakti hai.aur aage naa aye iske liye kya karein.
ummed karta hun aap meri madad karenge.
Dhanyawaad.
परंपरा और अंधविश्वास आज के इस वैज्ञानिक युग में भी समाज को खोखला कर रहा है| इसके पचड़े में पड़कर लोग जान भी गवांते हैं| जो बहुत ही दुखद है| अच्छी रचना|
जवाब देंहटाएंआपकी लिखीं सभी बातें सत्य हैं, पहली बाली से में खुद रूबरू हो चूका हूँ, या ये कहूँ कि होता ही रहता हूँ,
जवाब देंहटाएंअसल में हमारा गांव बहुत ही पिछड़ा हुआ है, इस बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरे गांव में आज भी बिजली नहीं है और सड़क ३ साल पहले ही बनी है
वहाँ पर लोगों को खासकर औरतों को भूत-प्रेत बहुत आते रहते हैं, मैंने इस बारे में पढ़ा तो पता चला कि असल में उन पर दबाब बहुत ज्यादा रहता है अपनी बात को किसी से कह नहीं सकतीं, मन की बात कहीं पर निकल नहीं सकतीं तो अंत में "भूत-प्रेत" अपने ऊपर ला कर (ये तो मुझे नहीं पता कि जानबूझ हरकतें करतीं है या अनजाने में ) अपनी पूरी बात कह देतीं हैं, मन को शान्ति मिलते ही ठीक हो जातीं हैं
जब तक हमारे समाज में सभी को खुल कर व्यवहार करने की छूट नहीं मिलेगी ये चलता ही रहेगा |
aapne sahi kaha, hamare gaov me aksar aisa hota hai. magar mei kahi na kahi 5% sachai b milti hai. meine khud is cheez ke bare me pata kiya hai. mei aaj b kuch aise logo ko janta hu. jo doctri ilaz se thik nahi huy. doctor bata b nahi paye ki bimari kya hai. oe vo log aaj ek tantrik se elaz krva kr thik hai. halaki 98% tantrik chuthe hote hai. magar kuch seche b.
हटाएंsahmati
हटाएंATI-SUNDAR !!!
जवाब देंहटाएंइस बेहतरीन लेख के लिए धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअंधविश्वास जैसी सामाजिक बुराइयों पर एक बहुत सुन्दर और सार्थक पोस्ट..
जवाब देंहटाएंआपने खुद ही स्वीकार किया है -सिनेमा,उपन्यास,टी.वी.सीरियल और मीडिया इस दुष्प्रचार को बढ़ाते हैं.अर्थात धनिकों का यह ड्रामा है,पहले भी पोंगा-पंथ को अमीर ही चलते थे आज भी वही भोली जनता को लूटने के लिए इसे चलते हैं.धन कमाने का आसान नुस्खा जो ठहरा.अक्ल के अधूरे पढ़े-लिखे लोग ज्यादा जिम्मेदार हैं.
जवाब देंहटाएंजबर्दस्त पोस्ट,आभार.
जवाब देंहटाएंbahut umdaa rachnaa ... andhvishwaas ke khilaaf... kal yah post charchamanch par hogi Jakir ji ... aapkaa aabhar ..
जवाब देंहटाएंमुझे तो नहीं लगता कि झाड-फूंक किसी भी स्थिति में कोई उपचार कर पाती है ।
जवाब देंहटाएंआप ने अंधविश्वासों के विरुद्ध बहुत लिखा है और श्रेष्ठ लिखा है। कभी तो मनुष्य इन पर काबू पा ही लेगा।
जवाब देंहटाएंआसपास ऐसे लोगों को देखकर चाहते हुए भी कोई प्रतिक्रिया दिखाना मुश्किल हो जाता है और अफ़सोस तब होता है जब अच्छे खासे शिक्षित लोग मानसिक बिमारियों को साया समझ कर उसे और बढ़ाते रहते हैं ...
जवाब देंहटाएंटी वी सिरीयल देखते हुए मेरी बेटी ने एक दिन पूछा .."ये सारी भटकती आत्माएं स्त्रियों की ही क्यों होती है "??
जागरूक करती अच्छी पोस्ट !
पिछड़ापन ,अंध विश्वास औऱ अशिक्षा - मुझे लगता है ये तीन मूल कारण हैं जो इस प्रकार की मानसिकता को प्रश्रय देते हैं .
जवाब देंहटाएंसही सोच विकसित करने के लिए शिक्षा का प्रसार आवश्यक है .
jakir ji kripya meri tippani ka uttar avashya dein.
जवाब देंहटाएंDhanyawaad
बेहतरीन विचारनीय पोस्ट। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा पोस्ट. बचपन मे मैने देखा है की पड़ोस के एक भाई को देवी आती थी और तब डर सा लगता था. अब इन बातो पर यकीन तो नहीं होता पर मेरी मौसी जी आज भी ऐसी बाधा में है तमाम लोग उन पर गाहे बगाहे आती अदृश्य शक्ति को मानते है. दिमाग मानने से इंकार करता है पर फिर लगता है कुछ तो होगा ही..
जवाब देंहटाएंहमने भी ऐसे ज्यादातर मामलों में घरेलु कलह और शरीका ही पाया है
जवाब देंहटाएंसमाज को खोखला कर रही ऐसी चीजो से निजात पाना आवश्यक है। ऐसी चीजो का अस्तित्व कहीं न कहीं अवश्य है पर उनसे निजात पाने का तरीका झाड फूक आदि गलत है। सही तरीका मैं बता सकता हूं। 05 दिन के अन्दर आराम न हो तो पूरे पैसे वापस;;;;; चन्दन
जवाब देंहटाएंगारण्टी के साथ इलाज कर सकता हू मैं;;;;चन्दन
जवाब देंहटाएंaap kya kar sakte hai.kisi se chhutkara dila sakte he.
हटाएंक्या इतने सारे वैज्ञानिकों में से कोई भी discovary का परामनोविज्ञान वाला कार्यक्रम नहीं देखता है ??/
जवाब देंहटाएंकुछ नकली लोगों के कारण आत्मा का अस्तित्व ही गलत सिद्ध कर दिया ???????????????????????
सही कहा अंकित.... इसे आधुनिक भाषा में परामनोविज्ञान कहो या पुरानी भाषा में ..भूत-प्रेत .... नेट रिजल्ट वही ...मानसिक- चिकित्सा, मनोवैज्ञानिक उपाय .. आज बहुत से चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक भी ऐसे होते हैं जो परामनोविज्ञान की आड़ में रोगियों/ महिलाओं से खिलवाड़ करते हैं....नकली लोग ही किसी तथ्य को गलत ठहराने के लिए जिम्मेदार होते हैं| भूत-प्रेत तो न कभी थे न होते हैं... मन की अवस्थाएं ही हैं.....परन्तु ये कहानी-कथा-सीरियल-पिक्चर वाले हैं कि मानते ही नहीं ....
हटाएंअंध विश्वास के खिलाफ सचेत करती उम्दा पोस्ट
जवाब देंहटाएंडॉ0 यतीश अग्रवाल जी को बहुत बधाई
मुझे लगता है ऐसी शिक्षाप्रद बातों का गोष्ठियों, पत्रिकाओं, ब्लॉग वगैरह से बाहर निकलकर समाज के बीच में जाने की बहुत आवश्यकता है.
अन्धविश्वास हमारे समाज का कुष्ठ है . जागरूक करती ये पोस्ट मन को भा गयी .
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया आलेख.
जवाब देंहटाएंडाक्टर कावूर की तरह ही विश्लेषण किया है आपने.
सलाम
झाड़-फूंक और टोना-टटका आत्म विश्वास कमजोर करते हैं...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी विचारणीय पोस्ट
आप भी आइए
Bahut hi badiya post. apka yeh pryas sarahniya hai jakir ji. Aaj Hamara desh ek shaktishali rashtra k roop me ubhar raha hai. lekin fir bhi samaj me andhvishwas byapt hai. bahut achee jakir ji!! well done
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया आलेख.
जवाब देंहटाएंBAHUT HIIII BADITA HAI POST
जवाब देंहटाएंBAHUT HIIIII BADIYA HAI POST
जवाब देंहटाएंBAHUT HII BADIYA HAI POST
जवाब देंहटाएंAchchhi jankari di hai aap ne,
जवाब देंहटाएंmere dadi maa bhi kisi bhut preat se humesha pareshan rahti thi,
ek din mera dimaag kharab ho gaya,
maine laathi uthaya samne baithe ojha logo ko maar bhagaya,
mai aap ne dadi maa ko hospital lekar gaya kuchh paiso mein kuchh din mein healthy ho gayi.
अंध विश्वास के खिलाफ सचेत करती उम्दा पोस्ट
जवाब देंहटाएंडॉ0 यतीश अग्रवाल जी को बहुत बधाई
अंध विश्वास के खिलाफ सचेत करती उम्दा पोस्ट
जवाब देंहटाएंडॉ0 यतीश अग्रवाल जी को बहुत बधाई
अंध विश्वास के खिलाफ सचेत करती उम्दा पोस्ट
जवाब देंहटाएंडॉ0 यतीश अग्रवाल जी को बहुत बधाई
ये सब मनोविकार ही हैं....भूत = आपके अपने भूतकाल के कर्म व विचार.....प्रेत= अन्य लोगों के विचार कर्मों, स्थितियों का आपके मन पर प्रभाव ....अब चाहे उसे झाड-फूंक से ठीक करो या परामनोविज्ञान से ...सजेशन थ्योरी से... बस लोगों को वेवकूफ न बनाएं ....कुछ चिकित्सक, मनो वैज्ञानिक भी तो लोगों को वेवकूफ बनाते हैं, ठगते हैं ....
जवाब देंहटाएंnice posts...these posts very helpful to remove bad conservatism from our society.....please carry on this job..
जवाब देंहटाएंnice posts
जवाब देंहटाएंjada tar ladkiyo or aurto ko hi kyo ate hai bhut pret.
जवाब देंहटाएंVery good ..acha likha hai..
जवाब देंहटाएंBahut acha hai
जवाब देंहटाएंKala jadu kuch nhi hota sb bakvas h
जवाब देंहटाएं