अगर आपने 'डिस्कवरी' आदि पर आने वाले जंगली जानवरों पर आधारित कार्यक्रम देखा होगा, या फिर आपको धरती पर पाए जाने वाले प्राणियों में ज...
अगर आपने 'डिस्कवरी' आदि पर आने वाले जंगली जानवरों पर आधारित कार्यक्रम देखा होगा, या फिर आपको धरती पर पाए जाने वाले प्राणियों में जरा भी रूचि होगी, तो आपको पता होगा कि जंगल का राजा शेर एक पारिवारिक प्राणी होता है। लेकिन उसके परिवार का नेता (शेर ही क्यों प्रायः सभी जानवरों के झुण्ड का नेता) नर ही होता है, बावजूद इसके कि शेरनी नर के मुकाबले अधिक खुंख्वार और फुर्तीली होती है और वह परिवार के लिए शिकार का काम स्वयं करती है। आपको यह भी पता होगा कि प्रत्येक शेर के परिवार में दो से तीन मादाएं होती हैं। और शायद आप यह भी जानते होंगे कि एक नर बाघ अपने आसपास भी किसी दूसरे नर को बर्दाश्त नहीं कर पाते, फिर चाहे वह उनका अपना बच्चा ही क्यों न हो। इसीलिए मौका मिलते ही नर बाघ अपने नर शावक को मार डालता है।
शेर और बाघ को तो छोडिए आप मनुष्यों के सबसे निकट रहने वाले बंदरों को देख लीजिए। उनके दल का नेता वही होता है, जो दल का सबसे शक्तिशाली बंदर होता है। (और वह एक सौ एक प्रतिशत नर ही होता है।) और मनुष्य उसी बंदर से विकसित हुआ प्राणी है। भले ही मनुष्य के इस विकास क्रम ने एक लम्बा सफर तय कर लिया है, फिर भी उसके अंदर से वे पशुता वाले गुण (जींस) समाप्त नहीं हुए हैं। यही कारण है कि जरा सी असुविधाजनक स्थिति आते ही पुरूष सारे सम्बंध सारी प्रगाढ़ता भूल कर जानवरों वाली हरकत पर उतर आता है। और उस क्रोध के जुनून में वह कभी-कभी अपनी जान से ज्यादा प्यारे लोगों (बच्चे और बीवी) और खून के प्रगाढ़ रिश्तों से जुड़े सगे सम्बंधियों के साथ भी ऐसी हरकत कर जाता है, जिसके लिए उसे जिंदगी पछताना पड़ता है।
मानव समाज में पाए जाने वाले समस्त अपराधों चाहे वह बलात्कार हो, चाहे दहेज हत्या/हत्या हो और चाहे आत्मरक्षा के लिए किये जाने वाले जानलेवा प्रहार सभी के लिए यह हमारी पशुता और श्रेष्ठता(सही मामले में जींस) ही तो जिम्मेदार है। ऐसा नहीं है कि पशुता के इस खेल में पुरूष ही महारत हासिल रखते हैं, कई मामलों में अक्सर महिलाएं पुरूषों के भी कान काटती हुई नजर आती हैं। और यह सब उस स्थिति में है, जब हम स्वयं को सभ्य, सुशिक्षित और आधुनिक होने का दावा करते नहीं अघाते हैं।
पशुता के यह जींस मानव समाज की सिर्फ कानून व्यवस्था ही नहीं बल्कि अपने समय की हर आदर्शवादी व्यवस्था (माक्र्सवाद, समाजवाद और आज नारीवाद) के लिए चुनौती बने रहे हैं। ये जींस हमें अपराध के लिए ही नहीं उकसाते, अपनी श्रेष्ठता और प्रभुत्व के लिए भी प्रेरित करते हैं। यही कारण है कि परिवार के मुखिया अक्सर अपने को श्रेष्ठ दिखाने के चक्कर में अक्सर ऐसे निर्णय लेते पाए जाते हैं, जो किसी भी कोण से न तो सही होते हैं और न ही व्यवहारिक। लेकिन इसके बावजूद उस परिवार में रहने वाले लोग अपने मुखिया का निर्णय मानने के लिए बाध्य होते हैं, ठीक बंदरों के उस शक्तिशाली नेता की तरह, जो अपनी आज्ञा न मानने वाले बंदर को बुरी तरह से प्रताड़ित करके झुण्ड से निकाल देता है। चाहे बंदरों का झुण्ड हो अथवा मनुष्यों का परिवार कोई व्यक्ति अपने नेता की दादागीरी तभी तक बर्दाश्त करता है, जबतक वह अपने पैरों पर न खड़ा हो जाए। और जैसे ही प्रताड़ित व्यक्ति इस लायक होता है, वह अपने मुखिया को धता बताते हुए अपना अलग राज्य बना लेता है। यही कारण है कि हमारे समाज में संयुक्त परिवारों का अस्तित्व बड़ी तेजी से समाप्त हो रहा है।
लेकिन संयुक्त परिवारों के विखण्डन के बावजूद न तो मनुष्यों के वह पशुता वाले जींस समाप्त हुए हैं और न ही बढ़ती हुई सामाजिक चेतना के कारण उसके एकाधिकार को मिलने वाली चुनौती ही कम हुई है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि अब वह चुनौती परिवार के नेता की सहधर्मिणी की ओर से मिलने लगी है। यह बढ़ती हुई शैक्षिक चेतना का सकारात्मक पहलू है। इसीलिए नारी अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ी है। अब उसके हाथ में नारीवाद का झण्डा है। उसे पता है कि जब संविधान ने उसे समान अधिकार दे रखे हैं, तो फिर वह पुरूषों का अत्याचार क्यों सहे?
लेकिन नारी चेतना की यह लहर वहीं तक सीमित है, जहां पर नारी स्वयं अपने पैरों पर खड़ी है। अनपढ़ और गांव देहात की औरतों को अगर छोड़ भी दिया जाए, तो शहरों में भी ज्यादातर महिलाएं (इनमें नौकरी पेशा महिलाएं भी बड़ी तादात में शामिल हैं) आज भी पुरूषों के अत्याचार सह रही हैं। इसका एक कारण जहां उनके भीतर दबी असुरक्षा की भावना है, वहीं दूसरा कारण उनके भीतर सदियों से जमा वह दब्बूपने का जींस भी है, जो उन्हें अपनी आवाज उठाने से रोकता है। अपवाद स्वरूप जहां पर नारियों ने इस जींस पर विजय पा ली है, वहीं पर नारीवाद की सुगबुगाहट सुनाई हमें सुनाई पड़ती है।
आज भले ही नारियां बहुत तेजी से आगे बढ़ रही हैं और अपने दब्बूपने के जींस को धता बताते हुए तेजी से आगे बढ़ रही हैं, पर पुरूष आज भी स्वयं को ‘नर की श्रेष्ठता‘ के जींस से पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाया है। हमारे समाज में ऐसे पुरूषों की संख्या आज भी बहुत कम है, जो नारी को स्वयं से आगे निकलता हुआ देख सकें। यही कारण है कि जैसे-जैसे नारीवाद का स्वर जोर पकड़ रहा है, नारी उत्पीड़न के मामले उतने ही बढ़ते जा रहे हैं।
ऐसे में नारीवादियों के सामने एक अहम सवाल यह है कि जब महिलाएं अंधविश्वास के दलदल को पार करने में सक्षम नहीं हो पा रही हैं, तो फिर वे पुरूषों के भीतर मौजूद ‘श्रेष्ठता के जींस‘ से कैसे निपटेंगी? और भारत जैसे देश में इतना तो तय है कि चाहे नारीवादी मानें या ना मानें बिना इसका इलाज खोजे नारीवाद के सफल होने की संभावना न के बराबर ही है।
दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि जहां पर नारी स्वयं अपने पैरों पर खड़ी है .. वहां वह पुरूष के शोषण का शिकार नहीं है .. और गांव देहात में शोषण की शिकार हैं ही .. वास्तव में हर जगह दोनो प्रकार की स्थितियां हैं .. बच्चों और परिवार के मोह में कभी कभी पढी लिखी और काम करनेवाली महिलाएं भी शोषण की शिकार बनीं रहती .. पुरूषों को अपनी मानसिकता बदलनी चाहिए और समाज को अपनी सोंच .. क्यूंकि समाज का भय भी महिलाओं को सबकुछ सहने को विवश कर देता है .. दूसरे बहनों का विवाह नहीं हो पाएगा या मां पिताजी को बातें सुननी पडेगी .. इस चिंता में महिलाएं परेशान रहा करती हैं !!
जवाब देंहटाएंजब पता लग ही गया है कि श्रेष्ठता का कोई जीन है तो उस से निपटने का मार्ग भी तलाश लिया जाएगा। वैंसे जीन्स क्या स्थाई संरचना है? यदि नहीं तो उस में भी परिवर्तन होते ही होंगे। परिवर्तनकारी कारण क्या हैं, उन्हें खोजा जा सकता है। वैसे मानव नरों में अन्य चौपाया नरों जैसी आक्रामकता तो नहीं ही है। अब तक वह जीन बहुत कुछ बदल भी चुका होगा।
जवाब देंहटाएंitni nirasha kyon baanti ja rahi hai. jo aurten apne liye sapne bun rahi hain, unhe poora karne ka raasta bhi talash lengi. Aur dabna hamesha kamzor hone ki nishani nahi hota. parivar ko banane ke liye wo chup laga jaati hain to ise uski kamzori nahi taakat samjho.
जवाब देंहटाएंबहुत धाँसू लिखा है जाकिर आपने मगर यह कैसे हो सकता है की एक ही काल खंड में दीगर महिलाओं में जींस बदल गए हों ! क्या मनुष्य की भी कई अलग अलग उप प्रजातियाँ विकसित हुयी है क्या ?
जवाब देंहटाएंमनुष्य प्रजाति मात्र में जींस बदलेगें तो यह बदलाव सभी जीवित नारी पुरुषों में तो सामान ही होना चाहिए ना !
Rajneesh ji sabse pehle to shukriya kehna chaahungi jo aap mere blog par aaye jiske thru me aap tak aur aapke is lekh tak pahuch paayi.
जवाब देंहटाएंme aapke pure lekh se shat-pratishat sehmat hu...kahin. kahi.n apne vichar dena chaahti hu..
तो शहरों में भी ज्यादातर महिलाएं (इनमें नौकरी पेशा महिलाएं भी बड़ी तादात में शामिल हैं) आज भी पुरूषों के अत्याचार सह रही हैं। इसका एक कारण जहां उनके भीतर दबी असुरक्षा की भावना है, वहीं दूसरा कारण उनके भीतर सदियों से जमा वह दब्बूपने का जींस भी है, जो उन्हें अपनी आवाज उठाने से रोकता है।
- baat dabbu pan ki hone k sath sath unke us swabhaav ki hai jo use purush jati se uper uthata hai aur vo hai uska apne bachho ke prati, apne mayke aur sasural ki izzet ke prati jiske baare me vo koi bhi kadam uthane se pehle sochti hai aur vivek se kaam leti hu chup reh jati hai...ek pita us bander ki tareh apne bibi bachho ko chhod sakta hai, maar peet sakta hai lekin ek maa apne baccho ko nahi chhod sakti, maa apne baccho ke liye vo asmanjas ki sthiti aur unka bhavishye kharaab nahi karna chaahti. iske sath sath use apne khandaan ki izzet ka khayaal hota hai. apne budhe sas-sasur ki samaj me position/rutbe ki chinta hoti hai..aur ye sach he ki ek padhi likhi mahila in sab baato ka khayaal kar ke vo sab seh jati hai jo use nahi sehna chaahiye.
पर पुरूष आज भी स्वयं को ‘नर की श्रेष्ठता‘ के जींस से पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाया है। हमारे समाज में ऐसे पुरूषों की संख्या आज भी बहुत कम है, जो नारी को स्वयं से आगे निकलता हुआ देख सकें।
- itna aasaan bhi nahi hai purush ke in jeens ka khatam hona...kyuki iske peechhe kuchh had tak vo nari, vo maa, vo nani, vo dadi hi jimmedaar hai jo hamare pariwaro me paida hone se lekar byaahne tak ladke ko ladki se jyada mehetev deti hai. ladko ko mukhiya banNe wale sanskaro se bharti hai, unhe ladkiyo se jyada takatwar samajhne ki soch janam se di jati hai.to kyu nahi karenge purush shoshan. ye soch nari ki pehle badalni hogi tabhi to ham purush jaati ke in jeens ke kam hone ki umeed rakh payenge.
यही कारण है कि जैसे-जैसे नारीवाद का स्वर जोर पकड़ रहा है, नारी उत्पीड़न के मामले उतने ही बढ़ते जा रहे हैं।
ऐसे में नारीवादियों के सामने एक अहम सवाल यह है कि जब महिलाएं अंधविश्वास के दलदल को पार करने में सक्षम नहीं हो पा रही हैं, तो फिर वे पुरूषों के भीतर मौजूद ‘श्रेष्ठता के जींस‘ से कैसे निपटेंगी? और भारत जैसे देश में इतना तो तय है कि चाहे नारीवादी मानें या ना मानें बिना इसका इलाज खोजे नारीवाद के सफल होने की
apki ye andhwishwas ki baat kis or ingati karti hai me samajh nahi pa rahi hu.
thanks for this article.
आपकी बात से एक दम सहमत हूं, असहमत होना का तो सवाल ही नहीं उठता।
जवाब देंहटाएंऔरत का दर्द-ए-बयां
सबसे पहले तो दिनेश राय द्विवेदी से सहमत !
जवाब देंहटाएंउसके बाद ये की भैय्या हम जैसों में तो 'समर्पण वाले जींस' ही प्रभावी दिख रहे हैं ! कभी इस पर भी कुछ लिखें!
ना नारीवाद ना पुरुषवाद फ़क़त समाजवाद !
बहुत ही विचारोतेज्जक!!
जवाब देंहटाएंUmda lekh....
जवाब देंहटाएं"फिर भी उसके अंदर से वे पशुता वाले गुण (जींस) समाप्त नहीं हुए हैं"
जवाब देंहटाएंलेकिन पशु नर तो अधिकतर प्रतिद्वंदी नर के लिये ही हिंसक होते हैं।
मनुष्यों में पुरुष मुखिया और नारी मुखिया का अनुपात में अन्तर ज्यादा नही मिलेगा।
प्रणाम
Badhiya charcha chal rahee hai. Magar NAMEE GIRAMEE NAAREEWAADE kahee najar nahi aa rahe?
जवाब देंहटाएंबडा ही मौलिक लेख है । वास्तव मे यह प्रश्न जो जाकिर जी ने उठाया है अनुत्तरित रहेगा , क्योकि नारीवाद ने अपना उद्देश्य ही (प्रश्न ही ) अप्राक्रतिक बनाया है । एक बात बहुत ही स्पष्ट होनी चाहिये कि कोइ भी वाद चाहे वो नारीवाद हो या पुरुषवाद द्वन्द को पैदा करता है , और इससे कोइ हल नही मिलने वाला है , प्राक्रतिक रुप से पुरुष और नारी को अलग अलग शक्तिया प्राप्त है ,पुरुष शारीरिक रूप से अधिक बलिष्ठ और स्त्री मानसिक रूप से मजबूत होती है और यह बिल्कुल प्रकृत प्रद्त्त है और यदि आप इसे बदलने का प्रयास करते है तो आप प्रकृति के वाह्य एव आंतरिक साम्य को खो देंगे और इससे समाधान तो नही मिलेगा उल्टे क्या क्या समस्या आयेगी कह नही सकते ।ये दोनो (पुरुष और नारी) मिलकर प्रकृति को पूर्णता देते है सृजित करते है तो नारीवाद को पुरूषों के ‘श्रेष्ठता के जींस‘ से लडने का प्रश्न ही गलत है । आवश्यकता है दोनो को एक दूसरे की शक्तीयो को सम्मान देने की,और उनको अपनी शक्ति के साथ जोडने की । रही बात पुरूषों के अत्याचार की तो आप सिक्के का एक पहलू देख रहे है , अधिकतर घरेलू अत्याचार मे केवल पुरूष अकेले अत्याचार नही करता है अन्य महिलाये भी शामिल होती है , इस प्रकार के सारे मामले सबजेक्टिव होते है और सब के "कारण" और उपचार अलग अलग होंगे उन्हे विशुद्ध रूप से पुरूष अत्याचार नही माना जा सकता है
जवाब देंहटाएंजाकिर अली "रजनीश" जी,
जवाब देंहटाएंआपने जो पुरुषों में श्रेष्ठता के जींस की बात कही है. वह सच है. नारीवादी इसे पुरुषत्व का अहंकार कहते हैं. यह निश्चित ही विकास की प्रक्रिया में पुरुषों के जीन्स का हिस्सा बन गया है. पर देखा गया है कि सामाजीकरण की प्रक्रिया में सही पालन-पोषण द्वारा लड़कों के इस पुरुषत्व के अहंकार को दूर किया जा सकता है. मनोवैज्ञानिक भी ये तो मानते ही हैं कि एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण में जितना हाथ उसके आनुवंशिक गुणों का होता है उतना ही संस्कारों (यहाँ संस्कार का अर्थ है अच्छे गुण जो पालन-पोषण के दौरान बच्चों को सिखाये जाते हैं) का भी होता है. अतः हम अपने बच्चों को, विशेषतः लड़कों को सही शिक्षा देकर इस समस्या का समाधान कर सकते हैं. वूमेन स्टडीज़ में इस पर और भी शोध चल रहे हैं.
अच्छा, मामला जीन्स का है? मैं सोचता था मात्र हार्मोन्स का है।
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