`क्या आप शाकाहारी हैं और मानव प्रोटीन का लुत्फ उठाना चाहते हैं? हम लाये हैं आपक लिये एक ऐसी दाल, जो आपको देगी मानव प्रोटीन।` चौंकिए नहीं, ...
`क्या आप शाकाहारी हैं और मानव प्रोटीन का लुत्फ उठाना चाहते हैं? हम लाये हैं आपक लिये एक ऐसी दाल, जो आपको देगी मानव प्रोटीन।`
चौंकिए नहीं, भविष्य में ऐसे अनेक विज्ञापन आपके सामने आने वाले हैं। आने वाले समय में आपके सामने कई ऐसे खाद्य उत्पाद होंगे, जो जेनेटिकली मॉडीफाइड (जी0एम0) जीन संवर्धित होंगे। फिर बात मानव प्रोटीन की ही क्यों न हो, आपको वह भी दाल और सब्जियों के माध्यम से मिला करेगी।
जी0एम0 तकनीक फसलों के आनुवांशिक गुणों में फेरबदल अर्थात जेनेटिक मॉडीफिकेशन को संभव बनाती है। एक ओर जहां यह तकनीक फसलों में आनुवांशिक सुधार का कार्य करती है, वहीं जंगली फसलों को उपयोगी प्रजातियों में बदलने में भी काफी उपयोगी है।
जेनेटिक इंजीनियरिंग का कमाल देखिये, पिछले दिनों अमरीका की एक कम्पनी ने एक धान तैयार किया है, जिसके दानों में मानव दूध में पाये जाने वाले प्रोटीन पाए जाएंगे। अमेरिका के कृषि विभाग ने इसे उगाने की मंजूदी भी दे दी है। धान की यह नई किस्म अमेरिकी कंपनी वेद्रिया बायोसाइन्स ने तैयार की है। इसकी विशेषता यह है कि इसके बीज में लायसोजाइम, लैक्टोफोरिन और मानव सीरम का एल्ब्यूमिन पाया जाता है। ये तीनों पदार्थ औषधीय गुणों वाले हैं और इंसानी दूध में पाये जाते हैं।
कई लोगों ने आशंका व्यक्त की थी कि इस धान के बीच पर्यावरण में बिखर जाएंगे। हो सकता है कि ये अन्य फसलों के साथ हानिकारक सिद्ध हों। इस विशय में वहां के कृषि विभाग ने कहा कि कम्पनी इस बारे में पर्याप्त सावधानी बरतेगी और इस धान को किसी भी व्यावसायिक धान के खेल से 480 किमी0 दूर लगाएगी।
जी0एम0 फसलों के विकास और विस्तार के बारे में दुनिया का रूख काफी आशावादी लगता है। यदि देखा जाए तो जी0एम0 फसलें न केवल वित्तीय लाभ की दृष्टि से मुख्य हैं, बल्कि ये कीटों के हमले के विरूद्ध तैयार होने के कारण किसानों को खतरनाक रसायनों के सम्पर्क में आने से बचाती हैं और पर्यावरण के साथ कृषि के मैत्रीपूर्ण सम्बंध बना रहता है।
जी0एम0 फसलें बोने वाले 23 देशों में जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर, स्विटजरलैण्ड, रूस, मलेशिया और थाईलैण्ड सहित लगभग 29 प्रमुख खाद्य आयातक देशों में खाद्यान्न, पशुओं के चारा और रेशों आदि के उत्पादन के लिए विभिन्न जी0एम0 फसलों के आयात को नियमन सम्बंधी स्वीकृति प्रदान की है। उल्लेखनीय है कि नियमन संस्थाओं द्वारा स्वीकृति मिलने से पहले जी0एम0 की किस्मों का कई स्तरों पर विश्लेषण और कम से कम 9 वैज्ञानिक जांचें होती हैं। इस प्रक्रिया में 5 से 10 साल तक का समय लगता है। लेकिन आरोप यह लगाया जाता है कि इतने समय तक कोई इंतजार नहीं करता है और जी0एम0 फसलों को परीक्षण के लिए सीधे मानव को परोस दिया जाता है।
वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों ने इस सम्बंध में अपनी आशंकाएं यह कहकर व्यक्त की हैं कि परजीनी फसलें भविष्य में पर्यावरण और जैव विविधता को प्रभावित कर सकती हैं। जो भी हो यदि देश में इस तरह की फसलों के उपयोग की बात आये, तो इस ओर जल्दी नहीं करनी चाहिए, बल्कि थोड़ा सोच-समझकर सावधानीपूर्वक व्यापक परीक्षणों के उरांत ही कोई कदम उठाने की आवश्यकता है। शायद यही मानव हित में सही होगा।
चौंकिए नहीं, भविष्य में ऐसे अनेक विज्ञापन आपके सामने आने वाले हैं। आने वाले समय में आपके सामने कई ऐसे खाद्य उत्पाद होंगे, जो जेनेटिकली मॉडीफाइड (जी0एम0) जीन संवर्धित होंगे। फिर बात मानव प्रोटीन की ही क्यों न हो, आपको वह भी दाल और सब्जियों के माध्यम से मिला करेगी।
जी0एम0 तकनीक फसलों के आनुवांशिक गुणों में फेरबदल अर्थात जेनेटिक मॉडीफिकेशन को संभव बनाती है। एक ओर जहां यह तकनीक फसलों में आनुवांशिक सुधार का कार्य करती है, वहीं जंगली फसलों को उपयोगी प्रजातियों में बदलने में भी काफी उपयोगी है।
जेनेटिक इंजीनियरिंग का कमाल देखिये, पिछले दिनों अमरीका की एक कम्पनी ने एक धान तैयार किया है, जिसके दानों में मानव दूध में पाये जाने वाले प्रोटीन पाए जाएंगे। अमेरिका के कृषि विभाग ने इसे उगाने की मंजूदी भी दे दी है। धान की यह नई किस्म अमेरिकी कंपनी वेद्रिया बायोसाइन्स ने तैयार की है। इसकी विशेषता यह है कि इसके बीज में लायसोजाइम, लैक्टोफोरिन और मानव सीरम का एल्ब्यूमिन पाया जाता है। ये तीनों पदार्थ औषधीय गुणों वाले हैं और इंसानी दूध में पाये जाते हैं।
कई लोगों ने आशंका व्यक्त की थी कि इस धान के बीच पर्यावरण में बिखर जाएंगे। हो सकता है कि ये अन्य फसलों के साथ हानिकारक सिद्ध हों। इस विशय में वहां के कृषि विभाग ने कहा कि कम्पनी इस बारे में पर्याप्त सावधानी बरतेगी और इस धान को किसी भी व्यावसायिक धान के खेल से 480 किमी0 दूर लगाएगी।
जी0एम0 फसलों के विकास और विस्तार के बारे में दुनिया का रूख काफी आशावादी लगता है। यदि देखा जाए तो जी0एम0 फसलें न केवल वित्तीय लाभ की दृष्टि से मुख्य हैं, बल्कि ये कीटों के हमले के विरूद्ध तैयार होने के कारण किसानों को खतरनाक रसायनों के सम्पर्क में आने से बचाती हैं और पर्यावरण के साथ कृषि के मैत्रीपूर्ण सम्बंध बना रहता है।
जी0एम0 फसलें बोने वाले 23 देशों में जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर, स्विटजरलैण्ड, रूस, मलेशिया और थाईलैण्ड सहित लगभग 29 प्रमुख खाद्य आयातक देशों में खाद्यान्न, पशुओं के चारा और रेशों आदि के उत्पादन के लिए विभिन्न जी0एम0 फसलों के आयात को नियमन सम्बंधी स्वीकृति प्रदान की है। उल्लेखनीय है कि नियमन संस्थाओं द्वारा स्वीकृति मिलने से पहले जी0एम0 की किस्मों का कई स्तरों पर विश्लेषण और कम से कम 9 वैज्ञानिक जांचें होती हैं। इस प्रक्रिया में 5 से 10 साल तक का समय लगता है। लेकिन आरोप यह लगाया जाता है कि इतने समय तक कोई इंतजार नहीं करता है और जी0एम0 फसलों को परीक्षण के लिए सीधे मानव को परोस दिया जाता है।
वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों ने इस सम्बंध में अपनी आशंकाएं यह कहकर व्यक्त की हैं कि परजीनी फसलें भविष्य में पर्यावरण और जैव विविधता को प्रभावित कर सकती हैं। जो भी हो यदि देश में इस तरह की फसलों के उपयोग की बात आये, तो इस ओर जल्दी नहीं करनी चाहिए, बल्कि थोड़ा सोच-समझकर सावधानीपूर्वक व्यापक परीक्षणों के उरांत ही कोई कदम उठाने की आवश्यकता है। शायद यही मानव हित में सही होगा।
- इरफ़ान ह्यूमन
(सम्पादक- साइंस टाइम्स: न्यूज़ ऐण्ड व्यूज़)
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इसका भी इंतजार रहेगा। देखें क्या होता है आगे।
जवाब देंहटाएंab to inzaar hi baaki hai..aese naye pryog ka.
जवाब देंहटाएंaapki lekh jaankarion ka bhandaar hai..nit naye naye jaankari
badhiya lagata hai...
dhanywaad
good post. my felicitations to the author for providing information about this innovative thing.
जवाब देंहटाएंzamaana badi tezi se karvaten badal raha hai
जवाब देंहटाएंrozana koi naya faarmoola nikal raha hai
DEKHTE HAIN AAGE AAGE HOTA HAI KYA
विज्ञान का यही एक सबसे बडा दोष है कि उसमें प्रारम्भ से ही दूरदर्शिता की कमी रही है। जब भी कोई नई खोज की जाती है तो उसके भविष्य में होने वाले हानि-लाभ पर बिना विचार किए हुए ही।
जवाब देंहटाएंआज फसलों के आनुवांशिक गुणों में फेरबदल किया जा रहा है, कल को जब इसके जरिए पर्यावरण को होने वाले नुक्सान सामने आने लगेंगे तब जाकर उसका ईलाज ढूँढा जाएगा।
बहुत अच्छी जानकारी मिली हमें
जवाब देंहटाएंBhavishy ki jarurat hain aisi fasalein, magar swasthya sanbandhi chintaon ko bhi najarandaaj nahin kiya jana chahiye.
जवाब देंहटाएंआज फ़सलों के आनुवन्सिक परिवर्तन,व कल मानव के---वत्स का व अन्य लोगो का डर ठीक ही है ,
जवाब देंहटाएं------ पुरा-वेदिक काल में स्रष्टा, ब्रह्मा के अतिरिक्त एक अन्य रिषि --त्वष्टा थे,जो यग्यों से विभिन्न प्रकार के जीव, हाथी का सिर+मानव धड;
शेर+मानव; शेर+गाय --आदि आनुवन्शिक परिवर्तनों से ,संकर-जीव की संरचना करने लगे थे,जिनका पुत्र त्रिशिरा था।प्रक्रति व मानव विरोधी कार्यों से नाराज़ होकर ब्रह्मा व विष्णु ने त्वष्टा से रिषित्व-शक्ति
छीन कर उन्हें शक्तिहीन कर दिया था।
Utsaahjanak samaachaar, Jeevan ko sundar aur suvidhapoorn banane men Vaigyaaniko ka jo yogdan hai, wah atulneey hai.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
नयी जानकारी देने के लिये धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंहमे भी इन्तजार रहेगा नयी दाल का ।
Achchi jaankari mili..par ye bhi sach hai begyanik unnatti ki aad main ham ye bhool jate hain ki aage jakar isse haniyan kya ho sakti hain .global wormming ..ese hi begyanik avishkaron ka nateeja hai...kher dekhte hain aage aage hota hai kya.
जवाब देंहटाएंवत्स जी और डॉ गुप्ता के विचारों से यहाँ सहमत -कहीं ये भस्मासुरी भोज्य पदार्थ न बन जाएँ !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है आपने! आपका हर एक पोस्ट उम्दा है और सबसे बड़ी बात की मुझे बहुत अच्छी जानकारी मिलती है! धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी जानकारी दी आपने..
जवाब देंहटाएंचलिए ये भी देख लेंगे, जब खेतों में मानव प्रोटीन उगने लगे हैं तो कभी न कभी खेतों में मानव भी उग ही जायेंगे..
बहुत बहुत बधाई..
सोचो तो लगाम कैसे कसी जाये
जवाब देंहटाएंCaption is excellant.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी ...
जवाब देंहटाएंये तो नई खबर है.
जवाब देंहटाएंशाकाहारी बेचारे तो धर्म संकट में पड़ जायेंगे.
जवाब देंहटाएंउपयोगी जानकारी । थोड़ी एहतियात तो विज्ञान को बरतनी ही चाहिये स्वाभाविकता को परिवर्तित करने में ।
जवाब देंहटाएंयही नहीं प्रत्येक खोज का सावधानीपूर्वक प्रचालन होना चाहिए. एक समय था जब कीटनाशकों को खेती के लिए वरदान समझा गया. आज वही कीटनाशक सर दर्द बन गया है. अनेक दवाएं जो प्रारंभ में रोगशमन के लिए रामबाण समझी गयीं बाद में प्रतिबंधित कर दी गयीं.
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