सूक्ष्म सिंचाई प्रणालीः कृषि में बेहतर जल प्रबंधन का विकल्प -इं. अंशू गंगवार पानी हमारे जीवन के साथ साथ कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्रों के लि...
सूक्ष्म सिंचाई प्रणालीः कृषि में बेहतर जल प्रबंधन का विकल्प
-इं. अंशू गंगवार
पानी हमारे जीवन के साथ साथ कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्रों के लिये बहुत ही उपयोगी है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। कृषि में पानी का उपयोग व्यापक स्तर पर फसलों की बुवाई से लेकर उसकी कटाई से पहले तक, सिंचाई, कीटनाशक छिड़काव तथा बीज बिस्तर तैयार करने में किया जाता है। इन सब क्रियाओं में सिंचाई एक प्रमुख क्रियाकलाप है जिससे सबसे अधिक मात्रा में पानी का प्रयोग किया जाता है। जल पौधों के अंदर होने वाली समस्त चयापचय क्रियाओं के संचालन में नितांत आवश्यक है क्योंकि यह प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया के लिये बहुत आवश्यक है। एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार कृषि में लगभग 80 प्रतिशत भूमिगत जल का प्रयोग किया जाता है। भूमिगत जल स्रोत जो कि 8.062 मिलियन घन कि0मी0 की मात्रा में उपलब्ध है जिसकी मात्र 9.86 प्रतिशत भाग ही उपयोग में लाया जा सकता है। यदि ऐसा ही रहा तो यह एक विकराल समस्या का रूप ले सकती है। क्योंकि अगर भूमिगत जल इसी दर से दोहन होता रहा हाते यह एक सूखे जैसी भयानक स्थिति पैदा कर सकता है। जिससे हमारा जनजीवन एवं कृषि दोनों ही बड़े स्तर पर प्रभावित हो सकते हैं। सभी स्रोतों को मिलाकर विश्व में कुल 1384 मि.घन कि0मी0 जल उपलब्ध है। उक्त जल का लगभग 97.16 प्रतिशत भाग समुद्र के लवणीय जल के रूप में पाया जाता है, जो सिंचाई के लिये अनुपयुक्त है। मात्र 2.84 प्रतिशत जल सिंचाई के लिये उपयुक्त है। विश्व के शुद्ध जल स्रोतों का भी मात्र 0.52 प्रतिशत भाग ही सतही स्रोत के रूप में पाया जाता है और सिंचाई के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
इन समस्याओं का समाधान करने के लिये सिंचाई की नई तकनीकियां ईजाद की गई हैं जो पानी के उपयोग की दक्षता बढ़ाते हुये फसल की पैदावार में बढ़ावा भी करती है। इस तकनीक को सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली कहा जाता है जिसमें बूंद-बूंद सिंचाई तथा फव्वारा सिंचाई विधि प्रमुख है। इनमें बूंद-बूंद सिंचाई (Drip irrigation) विधि प्रमुख रूप से बागवानी, सब्जियों तथा पंक्ति में बोयी गई फसलों में अपनायी जा सकती है। इस विधि द्वारा किसान अपने खेत में पानी के उपयोग को बहुत हद तक कम करके अधिक पैदावार ले सकता है। बूंद-बूंद सिंचाई विधि में पानी के उपयोग की दक्षता 90-95 प्रतिशत तक मानी गयी है तथा इस विधि के द्वारा हम सतह तथा उप-सतह दोनों तरीकों से फसल में सिंचाई कर सकते हैं। यह विधि पानी को पौधे की जड़ पर बूंद-बूंद करके पानी उपलब्ध कराती है। इसी प्रकार फव्वारा विधि में फसलों को कृत्रिम विधि के पानी के प्रयोग की दक्षता 80-85 प्रतिशत तक मानी जाती है। यह विधि किसी भी प्रकार की फसलों में अपनायी जा सकती है। जैसे- बागवानी, दलहन, तिलहन, अनाज वाली फसलों (गेहूं, धान मक्का आदि)। ये दोनों विधियां फसलों में लगने वाली कीटनाशक तथा घास नाशक को मारने वालों दवाइयों के प्रयोग को लगभग 30 प्रतिशत तक कम कर देती हैं तथा फसलों की पैदावार को भी 20 प्रतिशत तक बढ़ा देती है।
सूक्ष्म सिंचाई के गुण
1. इस प्रणाली में 40-60 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत होती है।
2. फसल की उत्पादकता में 40-60 प्रतिशत वृद्धि होती है।
3. पोषक तत्वों, पानी एवं हवा का पौधों की जड़ों में समुचित सम्मिश्रण संभव, अतः उत्पाद की गुणवत्ता उच्च होती है।
4. पानी देने के लिये मेढ़े व नालियाँ बनाने की आवश्यकता समाप्त, अतः श्रम के साथ-साथ पैसे की बचत।
5. यह खरपतवार नियंत्रण पर अत्यंत ही सहायक होती है, क्योकि सिमित सतह नमी के चलते खर-पतवार कम उगते है।
6. रोगों के प्रकोप में कमी आ जाती है।
7. पाले और अत्यधिक गर्मी से फसल की गुणवत्ता कम हो जाती है। इस सिंचाई से फसल को बचाया जा सकता है।
8. इस पद्धति से यदि खेत समतल नहीं है अर्थात ऊबड़-खाबड़ है, तब भी पौधों की सिंचाई भली प्रकार से की जा सकती है।
9. सिंचाई जल के साथ घुलनशील रसायनों एंव उर्वरकों का उपयोग आसानी से किया जा सकता है। इस प्रणाली को अपनाकर यदि उर्वरक दिया जाए तो इससे काफी बचत होती है।
सूक्ष्म सिंचाई पद्धति के मुख्य घटक
पम्प और मोटरः जल स्रोत से जल उठाने के लिए मोटर और पम्प का प्रयोग किया जाता है।
मुख्य पाइपः मुख्य पाइप लाइन जो पी.वी.सी. या एच.डी.पी.ई. से बना होता है, जमीन से सामान्यतः 60 से.मी. की गहराई में रहता है। इसका कार्य पानी के मुख्य स्रोत से प्रक्षेत्र तक लाने का होता है।
उप-मुख्य पाइप लाइनः यह पी.वी.सी. या एच.डी.पी.ई. से बना होता है, मुख्य पाइप लाइन की तरह ही 60 से.मी. की गहराई में रहता है। सबमेन या उपमुख्य पाइप का मुख्य कार्य मुख्य पाइप से पानी लेकर लैटरल पाइप को पानी पहुँचाना होता है।
लैटरल पाइपः उप-मुख्य पाइप से पतले काले प्लास्टिक के पाइप पौधों की कतारों के साथ-साथ डाले जाते हैं जिन्हें लैटरल पाइप कहा जाता है।
ड्रिपर्सः यह पॉली-प्रोपीलीन प्लास्टिक से बने होते हैं जिसको लैटरल पाइप से जोड़ दिया जाता है। इसके माध्यम से पौधे की जड़ में सीधे पानी पहुँच जाता है। सिंचाई हेतु विभिन्न प्रकार के ड्रिपर्स का प्रयोग किया जाता है।
कप्लर्सः कप्लर्स का उपयोग दो पाइपों को सरलता से जोड़ने और अलग करने के लिए किया जाता है।
फिल्टर्सः फिल्टर्स ड्रिप सिंचाई प्रणाली का एक अति आवश्यक घटक है। फिल्टर का मुख्य कार्य जल स्रोत से आने वाले पानी को मेन पाइप लाइन में भेजने से पूर्व साफ करना होता है।
स्प्रिंकलर हेडः स्प्रिंकलर हेड बिना अपवाह या गहरे रिसाव के कारण अत्यधिक नुकसान के बिना खेत में समान रूप से पानी वितरित करता है। घूर्णन या निश्चित प्रकार के स्प्रिंकलर उपलब्ध हैं। घूर्णन प्रकार को आवेदन दरों और रिक्ति की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए अनुकूलित किया जा सकता है। फिक्स्ड हेड स्प्रिंकलर आमतौर पर छोटे लॉन और बगीचों की सिंचाई के लिए उपयोग किए जाते हैं।
बाई पास यूनिटः यदि जलस्रोत से आवश्यकता से अधिक जल प्राप्त हो रहा है तो बाई पास यूनिट के माध्यम से अवशेष जल का अन्यन्त्र प्रयोग किया जा सकता है।
फल्श वाल्वः इसका मुख्य कार्य मुख्य और उप-मुख्य पाइपों में जल के साथ आकर जमी गन्दगी को साफ करना होता है।
उर्वरक (मिश्रण) यूनिटः इस यूनिट के द्वारा जल के साथ-साथ उर्वरकों को भी सीधे पौधे की जड़ के पास तक पहुँचाया जाता है।
राइजर पाइपः पानी उठाने वाली नली जिसे राइजर पाइप कहते है। यह पाइप मुख्य पाइपलाइन से स्प्रिंकलर हेड तक पानी की आपूर्ति करने का कार्य करता है। इसकी लम्बाई फसल की लम्बाई पर निर्भर करती है। क्योंकि फसल की ऊंचाई जितनी रहती है राइजर पाइप उससे ऊंचा हमेशा रखना पड़ता है। इसे सामान्यतः फसल की अधिकतम लम्बाई के बराबर होना चाहिए।
दबाव नापने का यंत्रः सिस्टम के ऑपरेटिंग दबाव जानने के लिए और यदि फिल्टर किसी कारणवश बंद हो गया है तो उसकी जांच करने के लिए दबाव मापन यन्त्र का प्रयोग किया जाता है जिससे सिस्टम सुचारू रूप से चल सके।
रखरखाव एवं सावधानियाँ
1. फिल्टरों की रबड़, वाल्व और विभिन्न फिटिंग्स की जाँच नियमित रूप से करते रहना चाहिए यदि उनमें किसी भी प्रकार का रिसाव हो तो उसको तुरन्त ठीक करें।
2. लैटरल पाइपों को खेत से हटाते समय बड़े गोले के आकार में मोड़ना चाहिये।
3. कटाई के समय, ट्रैक्टर या बैलगाड़ी खेत में नहीं लाना चाहिये। ये पाइपों को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
4. यदि कुछ ड्रिपरों से जल की फुहार निकल रही है तो इसका कारण चकती या दाब अतिपूरक ड्रिपर्स से रबर का डायाफ्राम गिर जाना हो सकता है जिसे तुरन्त लगाना चाहिये।
5. यदि ड्रिपर कुछ दिनों के लिए बन्द रहें तो सम्भव है कि मकड़ी या अन्य कीट अपना जाले बना ले जिससे जल का स्राव कम हो जाता है। इसलिए नियमित रूप से ड्रिपर्स को खोल कर साफ करना चाहिये।
6. बरसात के मौसम में खेत में बिछे सभी लेटरल पाइप को हटा देना चाहिये। हटाते समय उन्हें सही तरीके से मोड़ना चाहिये जिससे पाइप मुड़ें नहीं।
7. प्रति सप्ताह एक बार बलुई फिल्टर का ढक्कन खोल कर फिल्टर के भीतर की रेत को हाथ से मसलकर कूड़ा-कचरा बाहर निकाल देना चाहिये।
8. जालीदार फिल्टर का ढक्कन खोलकर अन्दर का (छन्नक) फिल्टर - बेलन साफ करना चाहिये। उर्वरकों, फफूंदी व खरपतवारनाशी आदि दवाओं के प्रयोग के पश्चात सम्पूर्ण प्रणाली को स्वच्छ पानी से सफाई कर लेना चाहिए।
9. लैटरल पाइपों के अवांछित छेदों को गूफ प्लग के द्वारा बन्द किया जा सकता है। यदि लैटरल पाइप कटा हुआ है तो सीधे जोड़क द्वारा जोड़ा जा सकता है।
10. सिंचाई में प्रयोग होने वाला जल साफ युक्त होना चाहिए।
11. प्लास्टिक वाशरों को आवश्यकतानुसार निरीक्षण करते रहना चाहिए और बदलते रहना चाहिए। रबर सील को साफ रखना चाहिए तथा प्रयोग के बाद अन्य फिटिंग भागों को अलग कर साफ करने के उपरान्त शुष्क स्थान पर भण्डारित करना चाहिए।
हमारी आज की जलवायु परिवर्तन तथा पानी की समस्या को सुलझाने में इन विधियों का एक बहुत बड़ा योगदान हो सकता है। इन दोनों विधियों को लगने वाले खर्च का 90 प्रतिशत योगदान भारत सरकार तथा राज्य सरकार वहन भी करती है। इन विधियों को अपना कर किसान सिंचाई में लगाई लागत को कम कर सकता है तथा पानी की बचत कर अधिक पैदावार ले सकता है।
लेखक परिचय:
इं. अंशू गंगवार विषय वस्तु विशेषज्ञ (मृदा एवं जल अभियांत्रिकी) हैं और कृषि विज्ञान केंद्र, परसौनी, पूर्वी चंपारण -।। (डॉ.रा.प्र.के.कृ.वि.वि., पूसा), बिहार में कार्यरत हैं।
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