जॉन डॉल्टन (John Dalton) के जन्म वर्ष के 250 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में परमाणु की रोमांचक दास्तान।
2016 को महान वैज्ञानिक जॉन डॉल्टन के जन्म वर्ष के 250 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में 'साइंटिफिक वर्ल्ड' की विशेष प्रस्तुति:
कणाद से परमाणु तक का सफर
-नवनीत कुमार गुप्ता
पुराने जमाने में लोगों को अक्सर ये सवाल परेशान करते थे कि चीजें बनी कैसे हैं। एक पेड़ कैसे बड़ा हो जाता है? बादल अपने आप कैसे बन जाते हैं। कुछ तो बीच में है जो आपस में जुड़कर किसी न किसी चीज में बदल जाता है।
आज से लगभग ढाई हजार साल पहले एक ऋषि हुआ करते थे, जिनका नाम था कणाद, (Kanada Rishi)। अक्सर चिंतन मनन करते थे। इनके भोजन इकटठा करने का ढ़ंग बड़ा निराला था। ये खेतों में जाते और वहीं रुक जाते। जब सुबह किसान अपना अनाज काट कर ले जाते तो बचा हुआ अनाज चिड़ियों के पेट में जाता। और अब जो अनाज बच जाता उसे ये चुनते थे। लोगों ने इन्हें कणाद कहना शुरु कर दिया क्योंकि ये कण चुनते थे।
कण चुनने की इस प्रक्रिया में उन्होंने कणों की प्रकृति पर गौर करना शुरु कर दिया। वे अक्सर सोचा करते कि अगर इन कणों को और छोटा किया जाए तो क्या बनेगा। तब एक ऐसी स्थिति आएगी जब इस कण को और छोटा नहीं किया जा सकेगा। कैसा होगा पदार्थ का वो परम अणु? प्राचीन ग्रीक में डेमोक्रीटस (460-370 ईसा पूर्व) नाम के दार्शनिक (Democritus Philosopher) ने इसे एटम (Atom) कहा था।
परमाणु की खोज:
उस समय तक पानी, हवा, मिटटी और आग को ही लोग तत्व समझते थे। काफी बाद में मानव ने सोने, लोहे, चांदी और पीतल में फर्क करना शुरु कर दिया था। अठारवी सदी की शुरुआत में कई और तत्वों का पता चला। उन दिनों इंग्लैंड के महान वैज्ञानिक जॉन डॉल्टन John Dalton (1766-1844) मौसम पर काम कर रहे थे। वे हर दिन के तापमान को रिकार्ड करते और एक दिन ऐसा करते हुए उनके दिमाग में विचार आया कि पानी हवा के रुप में भी मौजूद रह सकता है लेकिन अगर ये ठोस अवस्था यानी बर्फ के रुप में रहे तो हवा के साथ नहीं मिल सकता। यह क्यों होता है कि, पानी गैसीय, द्रवीय और ठोस अवस्था में भी उपलब्ध हो सकता है।
इस बात से वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सारे पदार्थ छोटे-छोटे कणों से बने हैं। गैसीय अवस्था में ये कण आसानी से इधर-उधर विचरण कर सकते थे तथा अन्य गैसों में मिल सकते हैं। द्रवीय अवस्था में इन कणों का विचरण गैसीय अवस्था की तुलना में कम तथा ठोस अवस्था की तुलना में ज़्यादा होता है। ठोस अवस्था में यह कण ना के बराबर विचरण कर सकते हैं कुछ इसी तरह हाइड्रोजन (Hydrogen) और ऑक्सीजन (Oxygen) मिलकर पानी बनाते हैं। इस आधार पर उन्हें लगा कि हर तत्व के परमाणु की प्रकृति अलग-अलग होनी चाहिए। डेमोक्रीटस और कणाद की तरह वे भी यही मानते थे कि परमाणु के और टुकड़े नहीं हो सकते।
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कुछ वैज्ञानिक जैसे विलियम परोत (William Parrott) और नोर्मन लोकेयर (Norman Lockyer) का मानना था कि परमाणु अपने से और छोटी इकाई से बना है और उन्होंने इसका आकार उस समय के ज्ञात सबसे छोटे परमाणु हाइड्रोजन के बराबर बताया था।
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कुछ वैज्ञानिक जैसे विलियम परोत (William Parrott) और नोर्मन लोकेयर (Norman Lockyer) का मानना था कि परमाणु अपने से और छोटी इकाई से बना है और उन्होंने इसका आकार उस समय के ज्ञात सबसे छोटे परमाणु हाइड्रोजन के बराबर बताया था।
कैथोड किरण की खोज:
जब बिजली का आविष्कार हुआ तो वैज्ञानिकों को लगता था कि तारों के अंदर बिजली को कौन ले जाता है? जब लोग दो तारों को एक साथ सटाते तो अक्सर एक चिंगारी सी निकलती। उन्हें लगा कि जब बिजली हवा के संपर्क में आती है तो उसमें से चिंगारी फूटती है। अगर हवा को हटा दिया जाए तो क्या होगा? तब वैज्ञानिकों को विचार आया कि एक कांच की नली यानी ग्लास ट्यूब में इसे परख कर देखते हैं। ग्लास ट्यूब में बिजली प्रवाहित की गई तो ट्यूब के अंदर चमक की एक परत दिखाई दी।
उन्हें लगा शायद इसके अंदर हवा रह गई हो, इसलिए उन्होंने बेहतर ट्यूब बनायी जिसमें हवा ही न हो। जब इसमें बिजली प्रवाहित की गई तो ट्यूब में अंधेरा था लेकिन ट्यूब के आखिरी सिरे पर एक हल्की सी चमक दिखाई दे रही थी। इसका मतलब था कि एक अदृश्य किरण थी जो खाली जगहों से गुजर रही थी। पर ये हो क्यों रहा था। क्या ये पॉजिटव (Positive) सिरे यानी एनोड (Anode) से आ रही थी, या फिर ऋणात्मक (Negative) सिरे यानी कैथोड (Cathode) की तरफ से आ रही थी?
जब बिजली का आविष्कार हुआ तो वैज्ञानिकों को लगता था कि तारों के अंदर बिजली को कौन ले जाता है? जब लोग दो तारों को एक साथ सटाते तो अक्सर एक चिंगारी सी निकलती। उन्हें लगा कि जब बिजली हवा के संपर्क में आती है तो उसमें से चिंगारी फूटती है। अगर हवा को हटा दिया जाए तो क्या होगा? तब वैज्ञानिकों को विचार आया कि एक कांच की नली यानी ग्लास ट्यूब में इसे परख कर देखते हैं। ग्लास ट्यूब में बिजली प्रवाहित की गई तो ट्यूब के अंदर चमक की एक परत दिखाई दी।
उन्हें लगा शायद इसके अंदर हवा रह गई हो, इसलिए उन्होंने बेहतर ट्यूब बनायी जिसमें हवा ही न हो। जब इसमें बिजली प्रवाहित की गई तो ट्यूब में अंधेरा था लेकिन ट्यूब के आखिरी सिरे पर एक हल्की सी चमक दिखाई दे रही थी। इसका मतलब था कि एक अदृश्य किरण थी जो खाली जगहों से गुजर रही थी। पर ये हो क्यों रहा था। क्या ये पॉजिटव (Positive) सिरे यानी एनोड (Anode) से आ रही थी, या फिर ऋणात्मक (Negative) सिरे यानी कैथोड (Cathode) की तरफ से आ रही थी?
जब एनोड और कैथोड का स्थान बदल दिया गया तब पता चला कि ये कैथोड से निकल रही थी। इसलिए इसका नाम कैथोड किरण (Cathode Ray) रखा गया। पर ये कैथोड किरण थी क्या? क्या सिर्फ रौशनी थी या कण? उस समय वैज्ञानिक के लिए ये बड़ा सवाल था। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में वैज्ञानिकों को ये लगा कि कैथोड में ऋणात्मक आवेष है। कैथोड रे की प्रकृति समझते हुए वैज्ञानिक जे जे थॉमसन JJ Thomson (1856-1940) ने पाया कि ये कण हाइड्रोजन परमाणु से भी हज़ार गुना हल्के थे। उन्होंने इस उपपरमाण्विक कण को र्कोपसेल कहा जिसे बाद में इलेक्ट्रॉन (Electron) का नाम दिया गया। उस समय वैज्ञानिक यह भी जानना चाहते थे कि क्या कैथोड किरणों में मुड़नें की क्षमता है।
इस सवाल से जूझते हुए सन 1987 में वैज्ञानिक जे जे थामसन ने अपना प्रसिद्ध कैथोड ट्यूब (Cathod Rays Tube) प्रयोग किया। उन्होंने एक ऐसा उपकरण बनाया जिसमें हवा का दबाव न के बराबर था। ऐसा करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। जब उन्होंने बिजली प्रवाहित की, तो उन्होंने साफ देखा कि दो आवेशित प्लेटों के बीच कैथोड रे मुड़ी थी।
उन्हें विश्वास हो चला था कि ये कण हैं। अब वे दो चीज जानना चाहते थे। कैथोड रे इलेक्टॉन का द्रव्यमान और इसमें विद्युत आवेश कितना है। उन्होंने इस ट्यूब में एक मेग्नेटिक क्षेत्र (Magnetic field) बनाया ताकि एक दिशा में कैथोड रे को मोड़ा जा सके। साथ ही दूसरी दिशा में मोड़ने के लिए उन्होंने एक विद्युत क्षेत्र बनाया।
उन्हें विश्वास हो चला था कि ये कण हैं। अब वे दो चीज जानना चाहते थे। कैथोड रे इलेक्टॉन का द्रव्यमान और इसमें विद्युत आवेश कितना है। उन्होंने इस ट्यूब में एक मेग्नेटिक क्षेत्र (Magnetic field) बनाया ताकि एक दिशा में कैथोड रे को मोड़ा जा सके। साथ ही दूसरी दिशा में मोड़ने के लिए उन्होंने एक विद्युत क्षेत्र बनाया।
जब दोनों क्षेत्रों का समन्वय हुआ तो कैथोड रे एक सीधी रेखा में चली गई। इससे उन्होंने केथोड रे के एक इलेक्ट्रॉन के द्रव्यमान और इलेक्टिक आवेश पता कर लिया। इस बात से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि कैथोड रेस के इलेक्ट्रोन का आवेश तथा द्रव्यमान का एक अनुपात होता है। अब उन्होंने लगभग हर धातु के साथ यह प्रयोग दोहराया। सबके नतीजे एक जैसे थे। इस प्रयोग से उन्हें एक बात समझ आ गई कि ये इलेक्टान परमाणु का हिस्सा थे इस आधार पर थामसन ने परमाणु की संरचना से संबंधित अपना मॉडल प्रस्तुत किया, जो एक क्रिसमस केक की तरह था।
इस मॉडल के अनुसार परमाणु एक धनात्मक आवेश वाला गोला था जिसमें इलेक्ट्रॉन क्रिसमस केक में लगे ड्राई फ्रूटस की तरह थे। इसे प्लम पुडिंग मॉडल (Plum Pudding Model) भी कहा जाता है। इसे तरबूज के उदाहरण से और भी आसानी से समझा जा सकता है। इसके अनुसार परमाणु में धनात्मक आवेश, तरबूज के खाने वाले लाल भाग की तरह बिखरा है, जबकि इलेक्ट्रॅान ऋणात्मक आवेश वाले गोले में तरबूज के बीज की तरह धंसे हैं।
इलेक्टॉन की खोज एक महान उपलब्धि थी जिसने अब तक की उन प्रचलित धारणाओं को गलत साबित कर दिया। इस प्रकार पदार्थ के सबसे छोटे कण, परमाणु से भी छोटे कण की खोज की जा चुकी थी। यह एक ऐसा काल था जब विज्ञान की गुत्थियां एक एक कर सुलझती जा रही थी। जर्मन वैज्ञानिक विल्हेम रोंटजन (Wilhelm Roentgen) ने एक्स रे (x-ray) की खोज कर ली थी।
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रेडियोसक्रियता की खोज:
रांटजन (1845-1923) के एक्स रे को जब फ्रांस के वैज्ञानिक हेनरी बैकरेल Henry Bakrell (1852-1908) चमकीली चीजों पर परख रहे थे तो उन्हें एक अलग तरह की ही किरण का बोध हुआ जो एक्स रे से बिल्कुल अलग थी। उन्हे बाद में पता चला कि यह चमकीली चीज यूरेनियम (Uranium) थी जो एक रेडियोसक्रिय तत्व (Radioactive element) है। उन दिनों मेरी क्यूरी (Marie Query) और पियरे क्यूरी (Pierre Query) भी बैकरेल के इस नए प्रयोग को परख रहे थे और जानना चाहते थे कि इस तरह के और कितने तत्व रेडियोसक्रिय हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने पोलोनियम (Polonium) और रेडियम (Radium) को खोज निकाला।
उन दिनों न्यूजीलैंड के वैज्ञानिक अर्नेस्ट रदरफोर्ड Ernest Rutherford (1871-1937) थॉमसन की प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। उनका ध्यान भी रेडियोसक्रियता की तरफ गया और उन्होंने इस दिशा में काम करना षुरु कर दिया। किसी तत्व को रेडियोसक्रिय तब कहते हैं जब उसमें से खास किस्म की तरगें या कण निकलते हैं और वह तत्व खुद ही अन्य तत्वों में टूट जाता है। ये तत्व अब तक के ज्ञात सारे तत्वों से भारी हैं। प्राकृतिक तत्वों में सबसे भारी तत्व यूरेनियम इसी श्रेणी में आता है।
सन 1898 में अर्नेस्ट रदरफोर्ड ने रेडियोसक्रिय तत्व रेडियम की प्रकृति समझने की कोशिश की। उन्होंने एक चैम्बर में रेडियो एक्टिव पदार्थ रखा। चेम्बर के दोनों तरफ उन्होंने दो आवेशित प्लेटें रखी, जिनमें से एक का आवेश धनात्मक और दूसरे का आवेश ऋणात्मक था। अब उन्होंने सामने एक फोटोग्राफिक प्लेट लगाई। जब चैम्बर से रेडियोसक्रिय कण निकले तो उन्होंने फोटोग्राफिक प्लेट पर तीन धब्बे देखे जिनमें से दो निशान काफी पास थे, और तीसरा निशान उन दोनों से दूर था।
अब उन्हें इस बात का अंदाज़ा हो गया था कि रेडियोसक्रिय चैम्बर से तीन प्रकार के कण निकले थे जिनमें से कुछ कण धनात्मक प्लेट की तरफ विचलित हुए। कुछ कण ऋणात्मक प्लेट की तरफ मुड़े तथा कुछ सीधे निकल गए। ऋणात्मक प्लेट की तरफ मुड़े कणों को अल्फा (Alpha) कहा तथा यह भी बताया कि उनमें धनात्मक आवेश होता है। धनात्मक प्लेट की तरफ मुड़े कणों को बीटा (Bita) बताया तथा जिनका आवेश ऋणात्मक था। जो कण सीधे चले गए उन्हें गामा (Gamma) कहा गया। और इन कणों की प्रकृति समझाई बीटा कणों में इलेक्ट्रॉन होता हैं, हल्के होने के कारण ये बहुत ही तेज गति से भागते हैं। इन्हें सिर्फ एल्यूमीनियम की पटटी से रोका जा सकता है। वहीं अल्फा कणों के बारे में उन्होंने यह कहा कि इसमें धनात्मक आवेश होता है। भारी होने के कारण इनकी गति तेज नहीं होती और इन्हें सिर्फ कागज से रोका जा सकता है।
अब उन्हें इस बात का अंदाज़ा हो गया था कि रेडियोसक्रिय चैम्बर से तीन प्रकार के कण निकले थे जिनमें से कुछ कण धनात्मक प्लेट की तरफ विचलित हुए। कुछ कण ऋणात्मक प्लेट की तरफ मुड़े तथा कुछ सीधे निकल गए। ऋणात्मक प्लेट की तरफ मुड़े कणों को अल्फा (Alpha) कहा तथा यह भी बताया कि उनमें धनात्मक आवेश होता है। धनात्मक प्लेट की तरफ मुड़े कणों को बीटा (Bita) बताया तथा जिनका आवेश ऋणात्मक था। जो कण सीधे चले गए उन्हें गामा (Gamma) कहा गया। और इन कणों की प्रकृति समझाई बीटा कणों में इलेक्ट्रॉन होता हैं, हल्के होने के कारण ये बहुत ही तेज गति से भागते हैं। इन्हें सिर्फ एल्यूमीनियम की पटटी से रोका जा सकता है। वहीं अल्फा कणों के बारे में उन्होंने यह कहा कि इसमें धनात्मक आवेश होता है। भारी होने के कारण इनकी गति तेज नहीं होती और इन्हें सिर्फ कागज से रोका जा सकता है।
अब तक थामसन के परमाणु का माडल सर्वमान्य हो गया था लेकिन रदरफोर्ड को अक्सर लगता कि अगर इसमें सिर्फ ऋणात्मक आवेश वाले इलेक्टॉन हैं तो फिर अल्फा किरणों में धनात्मक आवेश कहां से आया?
गोल्ड फॉइल प्रयोग: 1911 में रदरफोर्ड के सहयोगी हंस गाईगर Hans Geiger (1882-1945) ने प्रसिद्ध गोल्ड फॉइल प्रयोग (Gold foil experiment) किया। दरअसल अब इस बात का पता चल चुका था कि अल्फा कणों को मात्र एक कागज़ की सहायता से रोका जा सकता है। इसीलिए एक ऐसी चीज़ की जरूरत थी जो कागज़ से भी पतली हो तथा जिसे अल्फा कण आंशिक से पार कर सके। गीगर का ध्यान सोने की ओर गया। सोना तो बहुत नाज़ुक होता है तथा इसे आसानी से किसी भी रूप में ढाला जा सकता है। इसी गुण के कारन सोने की बहुत ही पतली पन्नी बनाई जा सकती है।
यही कारण था कि गाईगर ने अपने प्रयोग के लिए गोल्ड फोइल का इस्तेमाल किया। उन्होने धनात्मक आवेश वाले अल्फा कणों के एक बीम की बौछार की। उस बीम को उन्होंने फ्लोरोसेंस की एक गोला आकार की स्क्रीन पर छोड़ा। अल्फा कणों की बीम जैसे ही सीधे स्क्रीन से टकराई तो स्क्रीन चमक उठी। अब उन्होने कणों की बीम के बीच में एक पतली सोने की फोइल को रखा। रदरर्फोड ने देखा की ज्यादातर कण उसी तरह फोइल से आरपार हो गए लेकिन कुछ कण फोइल से टकराकर अपने पथ से विचलित हो गए।
यही कारण था कि गाईगर ने अपने प्रयोग के लिए गोल्ड फोइल का इस्तेमाल किया। उन्होने धनात्मक आवेश वाले अल्फा कणों के एक बीम की बौछार की। उस बीम को उन्होंने फ्लोरोसेंस की एक गोला आकार की स्क्रीन पर छोड़ा। अल्फा कणों की बीम जैसे ही सीधे स्क्रीन से टकराई तो स्क्रीन चमक उठी। अब उन्होने कणों की बीम के बीच में एक पतली सोने की फोइल को रखा। रदरर्फोड ने देखा की ज्यादातर कण उसी तरह फोइल से आरपार हो गए लेकिन कुछ कण फोइल से टकराकर अपने पथ से विचलित हो गए।
उस समय गाईगर के साथ उनके बीस वर्षीय शिष्य अर्नेस्ट भी प्रयोगशाला में काम करते थे। उन्हें ये देखने के लिए कहा गया कि क्या अल्फा कण अपने पथ से विचलित हो रहे थे । दो दिन बाद उन्होंने रदरफोर्ड को आकर बताया कि उन्होंने कभी-कभी अल्फा कणों को अपने पथ से विचलित होते देखा है। रदरफोर्ड के लिए ये अविश्वसनीय था। उन्होंने फौरन इसकी तुलना एक गोली से कर दी। ये ठीक वैसा ही है अगर किसी कागज पर गोलियां चलाई जाए और उनमें से एक वापस आकर आपको लगे। लेकिन उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि कण सोने की पन्नी से टकराकर कभी-कभी अपने पथ से विचलित क्यों हो रहे हैं?
रदरफोर्ड के गुरु थॉमसन के प्लम पुडिंग मॉडल को रदरफोर्ड ने भी मान लिया था लेकिन अल्फा कणों की वापसी को यह मॉडल व्याख्यायित नहीं कर पा रहा था। रदरफोर्ड इतने उलझन में पड़ गए कि उन्होंने दिन रात इस प्रयोग को दोहराना शुरु कर दिया। अचानक एक दिन आकर उन्होंने गाईगर से कहा कि उन्हें पता चल गया है कि परमाणु कैसा होता है।
उनके अनुसार परमाणुओं के बीच आमतौर पर खाली जगह होती है। लेकिन वहां क्या था कि जिससे टकराकर अल्फा कण वापस जा रहे थे। हालांकि पलट कर वापस आने वाले कणों की संख्या काफी कम थी- लगभग दस हजार में एक। उन्हें बात समझ में आ गई कि परमाणु के बीच में कुछ है तो जरूर?
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नाभिक की खोज: रदरफोर्ड ने जब बार-बार इस एक्सपेरिमेंट को दोहराया तो उन्हें पता चला कि अंदर धनात्मक आवेश वाली कुछ चीज है उनके अनुसार परमाणु का एक केंद्र है जिसके चारों तरफ इलेक्ट्रॉन चक्कर लगा रहे हैं। इसके केंद यानी नाभिक का आवेश धनात्मक है जो इलेक्ट्रान के ऋणात्मक आवेश के साथ एक संतुलन बनाए रखता है। परमाणु का सारा भार उसके नाभिक (Nucleus) में होता है, और नाभिक का आकार परमाणु से हजारों गुना छोटा होता है। अगर एक परमाणु का आकार फुटबाल स्टेडियम जितना है तो उसके नाभिक का आकार स्टेडियम के अंदर रखे फुटबाल के आकार का होगा।
सन 1903 में जापान के वैज्ञानिक हंतारो नागाओका Hantaro Nagaoka (1865-1950) पहले ही इस निष्कर्ष पर पहुंच गए थे कि परमाणु इलेक्ट्रॉन से बना है जो नाभिक के चक्कर लगाता है। तब रदरफोर्ड की क्या खोज में निराली बात क्या थी? रदरफोर्ड ने दरअसल इसे अपने लगातार प्रयोगों से साबित किया था।
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होंने यह पता लगाया कि एक परमाणु के अंदर का ज्यादातर हिस्सा खाली होता है यानी 99.9 प्रतिषत हिस्सा खाली और इसके नाभिक से इलेक्टॉन इस तरह बंधे होते हैं मानों कोई चुम्बक हो। अब पदार्थ के सबसे छोटी इकाई की गुत्थी सुलझ गई थी। यानी दुनिया की सारी चीजें एक ऐसे न दिखाई देने वाले कण से बनी हैं जिसका अघिकतर हिस्सा खाली होता है।
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होंने यह पता लगाया कि एक परमाणु के अंदर का ज्यादातर हिस्सा खाली होता है यानी 99.9 प्रतिषत हिस्सा खाली और इसके नाभिक से इलेक्टॉन इस तरह बंधे होते हैं मानों कोई चुम्बक हो। अब पदार्थ के सबसे छोटी इकाई की गुत्थी सुलझ गई थी। यानी दुनिया की सारी चीजें एक ऐसे न दिखाई देने वाले कण से बनी हैं जिसका अघिकतर हिस्सा खाली होता है।
प्रोटॉन और न्यूट्रान की खोज: परमाणु के नाभिक की खोज तो हो गई थी लेकिन क्या नाभिक भी छोटे छोटे कणों से बना है? ये सवाल अभी भी रदरफोर्ड को परेशान कर रहा था। एक बार जब वे नाइट्रोजन गैस के अंदर अल्फा कणों की बौछार कर रहे थे तो उन्होंने वहां अजीब चीज देखी। वहां हाइड्रोजन गैस के परमाणु का नाभिक था। यह क्या हो रहा था? क्या सारे तत्वों के परमाणु में हाइड्रोजन के नाभिक होते हैं? जब उन्होंने ऑक्सीजन गैस पर अल्फा कणों की बौछार की तो वहां भी यही नतीजे मिल रहे थे। सारे तत्वों में हाईड्रोजन के परमाणु के नाभिक क्यों होंगे।
ये जरुर कोई मौलिक कण हैं, जो नाभिक में मौजूद रहते हैं। उन्होंने इसका नाम ग्रीक भाषा में प्रोटॉन (Proton) रख दिया जिसका मतलब होता है प्रथम। लेकिन अभी भी एक दुविधा थी। प्रोटॉन के अंदर नाभिक का पूरा भार तो नहीं होता। इस आधार पर उन्होंने तय किया कि धनात्मक आवेष वाले प्रोटान ऋणात्मक आवेष वाले इलेक्ट्रॉन आपस में मिलकर कोई न्यूट्रल कण बना ही सकते हैं। वे इस दिशा में आगे काम नहीं कर पाए। लेकिन 1932 में रदरफोर्ड के इस विचार को आगे बढ़ाकर जेम्स चैडविक (James Chadwick) ने परमाणु के तीसरे कण की खोज कर ली जिसे आज हम न्यूटॉन (Neutron) कहते हैं।
ये जरुर कोई मौलिक कण हैं, जो नाभिक में मौजूद रहते हैं। उन्होंने इसका नाम ग्रीक भाषा में प्रोटॉन (Proton) रख दिया जिसका मतलब होता है प्रथम। लेकिन अभी भी एक दुविधा थी। प्रोटॉन के अंदर नाभिक का पूरा भार तो नहीं होता। इस आधार पर उन्होंने तय किया कि धनात्मक आवेष वाले प्रोटान ऋणात्मक आवेष वाले इलेक्ट्रॉन आपस में मिलकर कोई न्यूट्रल कण बना ही सकते हैं। वे इस दिशा में आगे काम नहीं कर पाए। लेकिन 1932 में रदरफोर्ड के इस विचार को आगे बढ़ाकर जेम्स चैडविक (James Chadwick) ने परमाणु के तीसरे कण की खोज कर ली जिसे आज हम न्यूटॉन (Neutron) कहते हैं।
अब परमाणु के अंदर क्या है पता चल चुका है। परमाणु के अंदर मौजूद इलेक्ट्रॉन उसके नाभिक का चक्कर लगाते हैं। और परमाणु का नाभिक प्रोटॉन और न्यूटॉन से मिलकर बना है। आज परमाणु के खोज ने दुनिया का हुलिया ही बदल दिया है। अब इसी पदार्थ के सबसे छोटे कण के सहारे दुनिया के बड़े-बड़े काम हो रहे हैं। एटम का शाब्दिक अर्थ होता है न टूटने वाली चीज, लेकिन रदरफोर्ड ने इसके नाभिक को खोजकर इसका अर्थ ही बदल दिया है। असल में यही विज्ञान है जो अवलोकनों एवं प्रयोगों के सत्यापन द्वारा निरंतर बदलते हुए सार्वभौमिक नियमों और सिद्धांतों तक पहुंचता है।
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लेखक परिचय:
नवनीत कुमार गुप्ता पिछले दस वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन आदि जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पर्यावरण संरक्षण जागरूकता के लिए प्रयासरत हैं। आपकी विज्ञान संचार विषयक लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा इन पर गृह मंत्रालय के ‘राजीव गांधी ज्ञान विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार' सहित अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आप विज्ञान संचार के क्षेत्र में कार्यरत संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ से सम्बंद्ध हैं। आपसे निम्न मेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है:
नवनीत कुमार गुप्ता पिछले दस वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन आदि जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पर्यावरण संरक्षण जागरूकता के लिए प्रयासरत हैं। आपकी विज्ञान संचार विषयक लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा इन पर गृह मंत्रालय के ‘राजीव गांधी ज्ञान विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार' सहित अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आप विज्ञान संचार के क्षेत्र में कार्यरत संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ से सम्बंद्ध हैं। आपसे निम्न मेल आईडी पर संपर्क किया जा सकता है:
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