खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने की तकनीकों एवं इस दिशा में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी देता विशेष आलेख।
खाद्य सुरक्षा में प्रौद्योगिकी का महत्व
नवनीत कुमार गुप्ता
आजकल बाजार में नए-नए तरह के पैकेज्ड फूड आ रहे हैं। जिसका कारण खाद्य प्रौद्योगिकी का निरंतर होता विकास है। असल में इसके पीछे दो टेक्नोलॉजी यानी प्रौद्योगिकियां हैं एक है भोजन की प्रक्रिया या प्रोसेसिंग और दूसरी है पैकेजिंग। वैसे फूड पैकेजिंग तो प्राचीन काल से प्रचलित है। किण्वन यानी फरमन्टेशन (Fermentation), धूप में सुखाना, नमक मिलाकर संरक्षित रखना आदि सभी भोजन को सुरक्षित रखने के तरीके हैं जिससे भोजन कुछ समय तक ठीक-ठाक रहता है।
इसके अलावा पकाने के कई तरीके जैसे भूनना, तलना और भाप से पकाना आदि भी प्रचलित हैं। इसके अलावा नमक मिलाकर रखने से भी खाने की कई चीजों को संरक्षित रखा जाता है ताकि वे खराब न हो। जैसे अचार और मुरब्बे बनाए जाते हैं। वैसे तो अचार बनाने में विनेगर का उपयोग होता है जो कि अम्लीय विलयन होता है जो जीवाणुओं का खात्मा कर देता है। फिर अचार की बरनी को कसकर बंद किया जाता करते है ताकि हवा और नमी उसके अंदर न जा पाए। वैसे आज भी ऐसी ही प्रक्रियाएं अपनायी जाती हैं। यानी अब विनेगर मिलाया जाता है। इसके अलावा अनेक तकनीकें विकसित की गई जिससे खाने की वस्तुएं लंबे समय तक ताजी रहे और जल्द खराब न हों।
इन नई तकनीकों में स्प्रे ड्राइंडिग या छिड़काव से सुखाव, फ्रीज ड्राइंडिग या ठंड से सुखाना और अल्ट्रावायलेट ट्रीटमैंट (Ultraviolet treatment) यानी पराबैंगनी उपचार शामिल हैं। इन सभी में एक बात यह आवश्यक होती है कि नमी को हटाया जाए ताकि जीवाणु पनप न सके। यानी खाने की सामग्री को निर्जल यानी डिहाइड्रेटेड (Dehydrate) किया जाता है जिसे निर्जलीकरण भी कहते हैं।
खाने की सामग्री को समयावधि, तापमान, नमी और ऑक्सीजन भी प्रभावित करती है। नमी अधिक हो तो खाने की सामग्री का कुरकुरापन यानी खस्तापन चला जाता है और वह सामग्री नर्म हो जाती है। जैसे पैकट से बाहर रखने पर चिप्स सील जाते हैं और उनका करारापन खत्म हो जाता है। ऑक्सीजन के कारण ऑक्सीकरण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है जिससे खाने से बदबू आने लगती है और उसका स्वाद भी बदल जाता है। इन समस्याओं को उचित पैकेजिंग से दूर किया जा सकता है। बहुत हद तक अच्छी पैकेजिंग से इन समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है।
पैकिंग से खाना ताजा बना रहता है। असल में पैकेजिंग मटैरियल काफी प्रभावी होता है। पैकेजिंग मटैरियल काफी मजबूत होना चाहिए, जिससे खाद्य सामग्री को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के दौरान लगने वाले झटकों और हिलने-डुलने का अच्छी तरह से प्रतिरोध कर सके। पैकेजिंग मटैरियल काफी भारी नहीं होना चाहिए साथ ही उसकी लागत भी कम होनी चाहिए है ताकि खाद्य सामग्री की लागत में कोई विषेष फर्क न पड़े। पैकेजिंग मटैरियल साफ और किटाणुरोधक होना भी आवश्यक है।
धात्विक कैनस् और प्लास्टिक कंटेनर्स सबसे अच्छे पैकेजिंग मटैरियल होते हैं। क्योंकि ये एयर-टाइट होने के साथ ही प्रकाशरोधी भी होते हैं जिससे इनमें नमी और ऑक्सीजन प्रवेश नहीं कर पाती है। साथ ही इन्हें आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है। हालांकि सभी प्रकार की खाद्य सामग्रियां धात्विक कैनस् और प्लास्टिक कंटेनर्स में पैक नहीं की जाती। कुछ निर्माता थोड़े कम सख्त पैकेजिंग मटैरियलस् जैसे गत्ते के डब्बों और थैलों का भी उपयोग करते हैं ताकि जब उत्पाद को खोला लाए तब तक उसका ताजापन बना रहे।
आजकल लंच पैक करने के लिए एल्युमिनियम फॉइल (Aluminium foil) उपयोग करते हैं यानी एल्युमिनियम फॉइल का उपयोग पैकेजिंग मटैरियल के रूप में भी किया जाता है। वैसे मैटेलिसेड पोलिस्टर, कम घनत्व की पॉलीथिन, जूट के झोले आदि सामग्रियों का उपयोग भी पैकेजिंग मटैरियल के रूप में किया जाता है। खाद्य उत्पादों को इस प्रकार पैक करने पर वह लंबे समय तक ठीक-ठाक रहते हैं। इनकी शेल्फ लाइफ यानी इनके फ्रेश रहने की अवधि खाद्य उत्पाद, उनके निर्माण की प्रक्रिया और पैकेजिंग जैसे अनेक कारकों पर निर्भर करती है। जिसके बारे में अधिकतर पैकेट के ऊपर लिखा जाता है कि यह कितने दिनों तक खराब नहीं होगा।
मिल्क पावडर एक प्रोसेस्ट फूड ही तो है। सन् 1950 तक हमारे देश में बच्चों को दिए जाने वाले सभी प्रकार के मिल्क पावडर आयात किए जाते थे। इसलिए भारत ने कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से यहां पर मिल्क पावडर का निर्माण करने वाली इकाईयों को स्थापित करने की प्रार्थना की। लेकिन उन कम्पनियों ने यह कहकर इनकार कर दिया कि भारत में गाय का पर्याप्त दूध उपलब्ध नहीं है।
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Central food technological research institute |
इस विधि से तैयार मिल्क पावडर से बच्चों को दूध आसानी से पच जाता था। इस प्रकार तैयार दूध बहुत हल्का था और आसानी से पच जाता था। सबसे अच्छी बात यह थी कि भैंस के दूध से तैयार ‘इन्फन्ट फूड’ यानी बच्चों के लिए फूड की यह विधि पूरे विश्व में सबसे पहले हमारे यहां विकसित हुई। और इस अनुसंधान ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार को खत्म कर दिया। इसी संस्थान की प्रौद्योगिकी के आधार पर अमूल बेबी फूड (Amul baby food) पूरे देश के बाजारों और घरों में बच्चों को दिए जाने वाले आहार के रूप में छा गया। इस उपलब्धि ने हमारे देश का करोड़ों रूपया विदेशी विनिमय से बचाया। असल में सीएफटीआरआई के वैज्ञानिकों ने अनेक फूड प्रोसेसिंग विधियों का विकास किया जिससे मसालों, आलू चिप्स, फिश कटलेट्स, बिरयानी मिक्स और अनेक प्रकार की खाद्य सामग्रियों का विकास हुआ।
‘केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी एवं अनुसंधान संस्थान’ या CFTRI की स्थापना देश के उपलब्ध खाद्य संसाधनों का विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की मदद से संरक्षित, सुरक्षित, संसाधित एवं वितरित करके खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए की गई थी। आज CFTRI खाद्य एवं खाद्य संसाधन के क्षेत्र में सक्रिय होकर इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय संस्था के रूप में कार्यरत है। यह संस्था फसल के बाद उत्पाद के संरक्षण, सुरक्षा और प्रोसेसिंग के लिए प्रौद्योगिकी को विकसित करने के साथ ही रोपण एवं बागवानी फसलों से प्राप्त होने वाले उत्पादों को निर्यात की दृष्टि से उत्पादों के अनुकूल प्रौद्योगिकियों का विकास कर रही है।
CFTRI के वैज्ञानिकों द्वारा फूड सप्लिमेंट यानी खाद्य पूरक आहारों को विकसित किया गया है जिनमें ऊर्जा आहार, भारत बहुउद्देशीय आहार, मिल्टोन, बाल आहार और अन्य ऐसे आहार विकसित किए हैं जिन्होंने कुपोषण से छुटकारा दिलाने के लिए एक आशा की किरण जगाई है। ये आहार परंपरागत भारतीय नाश्ते, संतरा, नीबू और कोला के पेय प्रदार्थों के रूप में विकसित किए गए। और साथ ही संस्थान द्वारा स्वदेशी प्रौद्योगिकी के द्वारा विकसित कोला पेय ‘डबल सेवन’ को भी काफी पसंद किया गया। संस्था अपने उत्पादों में सरल प्रक्रिया द्वारा फलों और सब्जियों की ताजा रहने की अवधि बढ़ाती है और साथ ही काफी, चाय, मसालों और अन्य संभावित उत्पादों को बाजार और निर्यात की दृष्टि से अनुकूल बनाने की कोशिश करती है।
CFTRI द्वारा उत्पादों की पैकिंग इस प्रकार की जाती है कि आहार उत्पाद लंबे समय तक चलें। साथ ही इस बात का ध्यान भी रखा जाता है कि पैकिंग खर्चीली न हो। उदाहरण के लिए कृषि अपषिष्ट उत्पादों जैसे अरहर की टहनियों और रेशों, पुर्नउपयोगी फिश कंटेनरस् और गद्देदार डिब्बों का उपयोग किया जाता है। दूध पैकिंग और खाद्य तेलों के लिए उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक पाउच भी CFTRI की प्रौद्योगिकी पर आधारित है।
आजकल हम बाजार से थैलियों वाला दूध जो लाते हैं उस पैकेट का यह रूप CFTRI के कारण ही संभव हो पाया है। CFTRI के वैज्ञानिकों ने वाकई यह एक महान कार्य किया है। बेशक यह CFTRI का काबिलेतारिफ काम है, लेकिन हमारे देश का एक अन्य संगठन भी कुछ ऐसा ही कार्य कर रहा है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (Defence Research and Development Organisation) यानी DRDO के अंतर्गत कार्यरत डिफेंस फूड रिसर्च लेबोरेटरी (Defence Food Research Laboratory) यानी रक्षा आहार अनुसंधान प्रयोगशाला देश के दुर्गम इलाकों में कार्यरत सैनिकों की सहूलियत के अनुसार फूड पैकेट्स उपलब्ध कराने के लिए कार्यरत हैं।
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Defence Food Research Laboratory |
रक्षा आहार अनुसंधान प्रयोगशाला इसके लिए कार्यरत है। उन्होंने ऐसी अनेक स्वदेशी तकनीकें विकसित की हैं जिनसे कई प्रकार के ‘रेडी टू इट फूड’ (Ready to eat food) यानी फटाफट तैयार होने वाले आहार बनाए जा सकते हैं जो जल्दी से तैयार होने के साथ ही लंबी अवधि तक ठीक रहते हैं।
रक्षा आहार अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना 28 दिसम्बर, 1961 में DRDO के अंतर्गत भारतीय सेना, जलसेना, वायु सेना और परासैनिकों की आहार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की गई। इस प्रयोगशाला का उद्देश्य सुविधाजनक और हल्के डिब्बाबंद आहार को विकसित करने एवं रूपरेखा बनाना और उन्हें विकसित करना है जिससे आहार जलवायु की विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल लंबे समय तक ठीक-ठाक रह सके।
इस संस्था के वैज्ञानिकों ने ऐसी रोटियां, आलू के पराठे और मीट् का आचार विकसित किए हैं जो छह महीनों तक आसानी से टिक जाते हैं इसके अलावा उच्च प्रोटीनयुक्त नाश्ता, फल से तैयार आहार, तत्काल बनने वाला गाजर का हलुवा कुछ ऐसी खाद्य सामग्री है जो 9 महीनों तक खराब नहीं होतीं। चिकन पुलाव, फलों के रस से बना पॉवडर, पहले से बनी निर्जलीकृत दाल और करी, तत्काल बनने वाली खिचड़ी, खीर, बासमती चावल, और उपमा तो ऐसी खाद्य सामग्रिया हैं जो एक साल से अधिक समय तक खराब नहीं होते।
इस प्रयोगशाला द्वारा हाल ही मैं ऐसी प्रौद्योगिकी विकसित की गई है जिसके द्वारा फूलगोभी, बंदगोभी, आलू, शकरकन्द, मूली, और फ्रेंच बीनस् को बिना किसी तापीय उपचार के सूक्ष्मजीवों से 14 से 28 दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इस प्रयोगशाला द्वारा डिब्बाबंद आहार के लिए ऐसी जैव अपघटनीय (Biodegradable) पैकिंग सामग्री का विकास किया गया है जो पर्यावरणीय के दृष्टि से अनुकूल हैं। जो हिमालय जैसे ऊंचाई वाले स्थानों पर पर्यावरण की दृश्टि से बिल्कुल खरी हैं। यानी भारतीय सैनिकों को उनकी आवश्यकता के अनुरूप आहार उपलब्ध कराने पर ध्यान दिया जाता है।
सैनिकों को अधिक पोषक आहार की आवश्यकता होती है। विशेषकर जब वो ऐसे दुर्गम इलाकों में तैनात किए जाते हैं जहां जीवित रहना ही चुनौती भरा होता है। वहां उनकी आहार जरूरतें भी विशेष होती हैं। ऐसे क्षेत्रों में तैनात सैनिकों को अगर पोषक भोजन उपलब्ध नहीं कराया जाएगा तो वो किस प्रकार हमारी देश की सीमाओं की सुरक्षा और निगरानी कर पाएंगे। रक्षा आहार अनुसंधान प्रयोगशाला ने ऐसे रसद डिब्बे यानी राशन पैकेट विकसित किए हैं जो थोड़े ही गर्मी से तैयार हो जाते हैं। इन पैकेटों में चपाती, सूजी हलवा, शाकाहारी पुलाव, आलू करी, चाकलेट बार और चाय होती हैं। साथ ही चम्मच, टिश्यू पेपर, माचिस आदि को विशेष रूप से डिजाइन किया जाता है।
इन पैकिटों के साथ फोलडेबल स्टोव (Foldable stove) और ईंधन की गोलियां भी होती हैं जिससे भोजन को गर्म किया जा सकता है। यह राशन करीब एक साल तक खराब नहीं होता है। वहां सैनिकों को खाना पकाने के लिए रसोईघर की आवश्यकता भी नहीं होती है। उन्हें पहले ही सभी चीजें उपलब्ध करा दी जाती हैं। फिर भी यदि कभी किसी कारण से यदि स्टोव कार्य न करें उस स्थिति का हल भी रक्षा आहार अनुसंधान प्रयोगशाला के पास है। उसने सेल्फ हीटिंग रेडी टू इट फूड पैकेट्स (Self heating ready to eat food packets) यानी खुद ब खुद गर्म हो जाने वाले पैकेटों को विकसित किया है।
इस भोजन के तीन भाग होते हैं, एक आहार के लिए, दूसरा विशिष्ट तरल पदार्थ के लिए और तीसरा चूर्ण। जब तरल और चूर्ण भाग को मिलाया जाता है तो रासायनिक अभिक्रिया के कारण ऊष्मा उत्पन्न होती है जो कि आहार वाले भाग में पहुंच जाती है जिससे कुछ ही मिनटों में आहार तैयार हो जाता है। इसी प्रकार इस प्रयोगशाला ने टैंक एवं सेना के वाहनों के लिए ऐसे ऑपरेशनल राशन पैक भी तैयार किए हैं जहां इन्हें दो-तीन दिन के लिए विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। पहले और दूसरे दिन के राशन पैक का वजन दो किलो होता है जो उन्हें चार हजार कैलोरी प्रदान करता है जबकि तीसरे दिन के राशन पैक का वजन डेढ़ किलो होता है जो तीन हजार कैलोरी प्रदान करता है।
ऐसी ही गंभीर परिस्थति का सामना उन सैनिकों को भी करना पड़ता होगा न जो कि बहुत ऊंचाई जैसे सियाचिन या कारगिल ग्लेशियर पर तैनात होंगे। वहां अनेक समस्याएं होती हैं। उन्हें वहां एसीडिटी भी हो जाती है जिससे उन्हें पेट हमेशा भरा-भरा सा लगता है। इससे उन्हें भूख नहीं लगती है और उनका वजन कम होने लगता है जिससे उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस समस्या से निपटने के लिए रक्षा आहार अनुसंधान प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने ऐसे आहारों और पेयों को विकसित किया है जिन्हें खाना खाने के तीस मिनट पहले खाने से भूख लगने लगती है।
रक्षा आहार अनुसंधान प्रयोगशाला ने कारगिल अभियान के दौरान अड़तालीस घंटे की सूचना अवधि में ही सेना के 50,000 राशन और 30,000 रेडी टू एट भोजन पैकेटों को तैयार कर वितरित किया था। इस प्रयोगशाला द्वारा विकसित ये प्रौद्योगिकियां दूसरे अभियानों में भी उपयोग की जाती हैं। रक्षा आहार अनुसंधान प्रयोगशाला अंट्रार्कटिका अभियानों और पर्वतारोहियों को आहार की आपूर्ति करने के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं के दौरान जैसे महाराष्ट्र के लातूर में आए भूकंप, उत्तराखंड के भूस्खलन व बाढ़ के दौरान और उड़ीसा के चक्रवात के दौरान भी खाने की आपूर्ति करती रही है।
आहार और पैकेजिंग से संबंधित अनेक रक्षा प्रौद्योगिकियां नागरिक क्षेत्र में स्थानांतरित हो गई हैं। असल में हमारे देश में सैंकड़ों टन अनाज खराब हो जाता है। आधुनिक प्रौद्योगिकीयों को अपनाकर उस अनाज से लाखों लोगों का पेट भरा जा सकता है विज्ञान के ज्ञान को जमीनी स्तर तक पहुंचाने की आवश्यकता है।
लेखक परिचय:

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CFTRI और DRDO की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय हैं।पैक्ड फूड में प्रयुक्त preservative शरीर के लिए हानिकर तो नहीं,यह जानकारी नहीं मिल पाई।
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