(Ek Thi Daayan : एक थी डायन) यूं तो कन्नन अय्यर निर्देशित फिल्म 'एक थी डायन' एक मसाला फिल्म है, जो लगभग 35-36 वर्ष पूर्व मुकु...
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(Ek Thi Daayan : एक थी डायन) |
यूं तो कन्नन अय्यर निर्देशित फिल्म 'एक थी डायन' एक मसाला फिल्म है, जो लगभग 35-36 वर्ष पूर्व मुकुल शर्मा की लिखी एक लघु कथा पर आधारित है। मुकुल शर्मा यानी कि अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा के पिता। इस फिल्म के संगीत निर्देशक विशाल भारद्वाज मुकुल शर्मा के पुराने मित्रों में से हैं। उन्होंने जब इस लघुकथा को पढ़ा था, तभी से उनके दिमाग में इसे लेकर फिल्म बनाने का आइडिया गूंज रहा था। और जब पिछले दिनों उनकी मुलाकात 'दौड़' और 'विक्टरी' जैसी फिल्मों के लेखक कन्नन अय्यर से हुई, तो 'एक थी डायन' के वजूद में आने का मार्ग प्रशस्त हो गया।
यूं तो यह फिल्म पूरी तरह से एक काल्पनिक कहानी पर आधारित है, और रूटीन फार्मूलों पर आधारित होने के कारण बोर ही करती है। फिल्म की कहानी का सत्य से कोई वास्ता नहीं है, और फिल्म के निर्देशक अय्यर ने इस तथ्य को स्वीकार भी किया है। फिल्म में भारतीय समाज में प्रचलित उन अंधविश्वासों/मिथकों का जमकर प्रयोग किया गया है, जो देश के अनेक पिछड़े इलाकों में बहु प्रचलित हैं। ये मिथ/अंधविश्वास हैं डायन का शक्तिशाली होना, उसका रूप बदलना, उसके बालों का घना होना, उसके उल्टे पैर होना आदि।
फिल्म में दिखाया गया है कि डायन की चोटी में उसकी शक्ति होती है। गौरतलब है कि इस अंधविश्वास के चलते झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ एवं यहां तक की नेपाल में प्रतिवर्ष हजारों महिलाओं के बाल काट दिये जाते हैं और उन्हें गंजा कर दिया जाता है। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि डायन के पैर उल्टे होते हैं। इस अंधविश्वास की वजह से उन सैकड़ों महिलाओं को प्रताड़ना का शिकार होना पडता है, जिनके पैर पोलियो आदि के कारण पैर टेढ़े हो जाते हैं। इन अंधविश्वासों के चलते ऐसी महिलाओं को सरेआम प्रताड़ना का शिकार होना पडता है। अक्सर स्थिति यहां तक बिगड जाती है कि उनको समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है और कभी-कभी तो उनकी हत्या तक कर दी जाती है।
समाज में प्रचलित इन अंधविश्वासों को दूर करने के लिए अनेक वर्षों से अनेकानेक संस्थाएं समर्पण के साथ कार्य कर रही हैं, जिनमें 'तस्लीम' से सम्बद्ध डॉ0 दिनेश मिश्र की अंधश्रृद्धा निर्मूलन समिति प्रमुख है। इन प्रयासों की वजह से अब इन स्थितियों में कुछ सुधार आया है। लेकिन ऐसे में इस तरह की फिल्म का आना, इस सामाजिक बुराई को फिर से फैलने का सबब बन सकता है। इस वजह से अनेक स्थानों पर सामाजिक एवं वैज्ञानिक संस्थाएं इस फिल्म का विरोध कर रही हैं। उनका कहना है कि यह फिल्म अवास्तविक, गैर तार्किक व अंधविश्वास को फैलाने वाली है, इससे समाज में अवैज्ञानिक धारणाओं का प्रसार होगा और ग्रामीण महिलाओं की स्थिति खराब होगी तथा उनकी प्रताड़ना की घटनाएं बढने लगेगीं। इन दुष्परिणामों को दृष्टिगत रखते हुए संस्थाओं ने प्रदेश एवं केन्द्र सरकार वरन सेंसर बोर्ड, महिला आयोग तथा मानव अधिकार आयोग को भी पत्र भेजा है और फिल्म पर रोक लगाने की मांग की है।
समाज में वैज्ञानिक चेतना जगाने एवं अंधविश्वास मिटाने के लिए प्रतिबद्ध संस्था 'तस्लीम' इस फिल्म की भर्त्सना करती है और अपने पाठकों से अपील करती है कि वे समाज में नारी की स्थिति को दयनीय बनाने वाली स्थितियों को महिमामंडित करने वाली इस फिल्म को न सिर्फ देखने से परहेज करें, वरन अपने शुभेच्छुओं को भी इसके लिए प्रेरित करें।
ध्यान रहे, हम हर काम के लिए सरकार पर निर्भर नहीं कर सकते, समाज को बदलने के लिए हमें स्वयं आगे आना होगा। जब हम बदलेंगे, हमारी सोच बदलेगी और फिल्म को अपेक्षित दर्शक नहीं मिलेंगे तो फिल्म निर्माता/निर्देशक भी इस तरह के बेसिरपैर के कथानकों पर फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे।
'इंटरनेशनल बॉब्स अवार्ड-2013' की दौड़ में अभी तक आपका प्रिय ब्लॉग 'तस्लीम' सबसे आगे है। इसे विजेता बनाने के लिए कृपया यहां पर क्लिक करें और अपना आशीर्वाद प्रदान करें। |
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....मुझे तो डायन को नारी से जोड़ने पर ही एतराज़ है।
जवाब देंहटाएंभूत प्रेत, पिशाच डायन आदि पर केंद्रित हर फ़िल्म या धारावाहिक का जमकर विरोध होना ही चाहिए.
जवाब देंहटाएंसच में, पता नहीं क्यों इस तरह की फिल्म और धारावाहिक बनाए जाते हैं. उद्देश्य हीन.मनोरंजन हीन. सिर्फ गलत राह दिखलाते हैं.बरगलाते हैं लोगों को.
जवाब देंहटाएंAfsosnaak-
जवाब देंहटाएंऐसी बेकार पिक्चरें देखने लाएक नहीं होतीं ...
जवाब देंहटाएं'रजनीशजी', आपके पोस्ट को पढकर कई नयी बातों से अवगत हुआ जैसे कि आज भी समाज में ऐसी कुरीतियाँ प्रचलित हैं जो नारी को डायन के रूप में देखती हैं और उसपर अत्याचार करती हैं. पर इन कुरीतियों कि जड़ अशिक्षा है न की कोई किस्सा या कहानी. कहानी सुनते समय एक लेखक को एक खुला आकाश चाहिए होता है जहाँ वो अपनी कल्पना के रंग भर सके. ऐसे में अक्सर बहुत सारी ऐसी कल्पनाएँ सामने आती हैं जो हकीक़त में नहीं होती. पर इसका ये अर्थ नहीं कि ये पात्र पूर्ण रूप से निरर्थक हैं. कभी कभी ये किसी बुराई या मानव् स्वभाव कि किसी कमी के प्रतीक मात्र होते हैं. मैंने ये फिल्म तो नहीं देखी पर इस तरह से किसी कि कला पर सिर्फ इसलिए अंकुश लगाना कि कुछ नासमझ लोग इसका सही तात्पर्य नहीं समझ सकते किसी भी कलाकार के साथ नाइंसाफी है. ये मेरा व्यक्तिगत नजरिया है. इसपर आपकी राय जानना चाहूँगा.
जवाब देंहटाएं-Abhijit ( Reflections)
अभिजीत जी, साहित्य वह होता है, जिसमें समाज केहित की भावना छिपी हो। किन्तु अक्सर साहित्यकार अपनी रचनाओं को चटपटा बनाने के लिए और कभी-कभी अंजाने में अपनी रचनाओं में अंधविश्वासपरक घटनाओं का उपयोग कर लेते हैं, जिसके परिणाम बेहद भयावह हो जाते हैं।
हटाएंउदाहरण के लिए प्रेमचंद की कहानी 'मंत्र' को लेते हैं, जो परोक्ष रूप में यह बताती है कि मंत्र के द्वारा सांप के काटे का इलाज संभव है, जबकि वास्तव में यह बिलकुल मिथ्या धारणा है। अब सोचिए किसी कमपढे लिखे व्यक्ति ने,जो प्रेमचंद का भक्त भी हो, उसने इस कहानी के मंत्र को गांठ बांध लिया। दुर्योग से कहीं उसके इकलौते बच्चे को सांप ने काट लिया, तो वह तो चूंकि प्रेमचंद का भक्त है, उन्हें महान सहित्यकार मानता है, तो उसके दिमाग में मंत्र से इलाज वाली बात बैठी रहेगी और वह उसके चक्कर में अपने लडके की जान गंवा देगा। ऐसे पचासों मामले हुए हैं। हमारे लखनऊ में ही एक परिवार है, जिसने इस अंधविश्वास के चक्कर में अपने दो बच्चों को गंवा दिया। इसी प्रकार डायन वाला मामला है। तो जब इस तरह के अंधविश्वास वाले विषयों पर फिल्में आती हैं, तो वे अंजाने में लोगों की इन पुरातनपंथी धारणाओं को मजबूत करती हैं और उसके दुष्परिणाम स्वरूप सैकडों लोगों को उनका दुष्परिणाम भुगतना पडता है।
अब आते हैं कला/साहितय के मुद्दे पर। मेरे विचार में कला/साहित्य समाज के हित के लिए होना चाहिए। जिस व्यक्ति/कला में अच्छे और बुरे की पहचान न हो, उसे अपने विचारों के द्वारा समाज में जहर फैलाने की अनुमति देना कहां से उचित होगा, वह भी ऐसे में जब भारत सरकार अरबों रूपये का बजट प्रतिवर्ष वैज्ञानिक सोच के प्रचार प्रसार के लिए खर्च कर रहा है। सिर्फ अभिव्यक्ति के नाम पर सैकड़ों लोगों की जिंदगी को दांव परलगा देने की छूट किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। यह समाज के हित का मुददा है, इसलिए इसपर गम्भीरता से सोचे जाने की जरूरत है।
जाकिर जी से पूरी सहमति...
हटाएंजाकिर जी से पूरी सहमति...
हटाएंवोट कर दिया है सर्प संसार और तस्लीम के लिए .अलग अलग वर्गों के लिए .
जवाब देंहटाएंसमीक्षा लिखना ज्यादा समीचीन होगा विरोध लोकप्रियता को बढ़ाएगा फिल्म ज्यादा देखी जायेगी .
जवाब देंहटाएंठीक ठाक फिल्म थी | कुछ खास नहीं लगा | सब कुछ फिक्शन ही था तो इससे किसी के साथ जोड़ने का कोई मतलब नहीं बनता |
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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