नि:संदेह यह भौतिक विज्ञान के इतिहास की अति महत्वपूर्ण घटना है, जिसके कारण इस वक्त पूरी दुनिया रोमांचित है। लेकिन भारत में इस खोज को ले...
नि:संदेह यह भौतिक विज्ञान के इतिहास की अति महत्वपूर्ण घटना है, जिसके कारण इस वक्त पूरी दुनिया रोमांचित है। लेकिन भारत में इस खोज को लेकर जो रोमांच देखने को मिल रहा है उसकी एक वजह है हिग्स बोसॉन के साथ 'गॉड पार्टिकल' अर्थात 'ईश्वरीय कण' के नाम का जुड़ाव होना। संभवत: इसीलिए भारतीय मीडिया हिग्स बोसोन की खोज को 'ईश्वर की खोज' के रूप में प्रचारित कर रही है, जोकि गलत है।
अंग्रेज भौतिकशास्त्री पीटर हिग्स, जिसने सन 1960 के आसपास 'हिग्स फील्ड' की परिकल्पना रखी थी, के मुताबिक हिग्स फील्ड सारी दुनिया में व्याप्त है। क्वांटम भौतिकी के अनुसार किसी भी उर्जा क्षेत्र में उर्जा के पुंज मौजूद रहते हैं। हिग्स फील्ड के कण ही 'हिग्स बोसॉन' कहलाते हैं। पीटर हिग्स के अनुसार कोई सूक्ष्म कण अपने मार्ग में जितने हिग्स बोसोन जुटा लेता है, उसका उतना ही वजन हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि सारी दुनिया में जो भी वजन है, वह हिग्स बोसॉन की वजह से ही है।
लेकिन इसके बावजूद इतने महत्वपूर्ण कण को प्रमाणित कर पाना सम्भव नहीं था। जिस प्रकार ईश्वर के बारे में मान्यता है कि वह सर्वत्र व्याप्त है, उसी प्रकार हिग्स बोसॉन को भी सर्वव्यापी माना गया है। पर चूंकि उसे भी ईश्वर की तरह देखना/प्रमाणित कर सम्भव नहीं था, इसलिए उसे मुहावरे के रूप में 'गॉड पार्टिकल' कहा जाने लगा। अब गॉड पार्टिकल की खोज से ईश्वर की खोज का क्या वास्ता है, यह मीडियावाले ही बेहतर बता सकते हैं।
भले ही हिग्स बोसॉन की परियोजना पीटर हिग्स ने तैयार की थी, पर इस अतिसूक्ष्म कण की पहली पहचान जिस व्यक्ति ने की थी, वे थे भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बसु। सन 1921 में ढा़का विश्वविद्यालय में रीडर के रूप में नियुक्त होने के बाद बसु ने प्लैंक के विकिरण के नियमों को पढ़ने के दौरान महसूस किया कि प्लैंक ने जो परिणाम निकाले हैं, वे पूरी तरह से सही नहीं हैं। इस विषय पर उन्होंने मेघनाथ साहा से विचार-विमर्श करने के बाद उनकी तर्कसंगत व्याख्या प्रस्तुत की। इस शोध लेख को प्रकाशन हेतु उन्होंने ‘फिलोसॉफिकल मैग्जीन’ सहित कई जगह भेजा, लेकिन वह कहीं प्रकाशित नहीं हो सका। अन्त में उन्होंने उसे आइंस्टाइन के पास भेजने का निश्चय किया।
आइंस्टाइन ने बोस के लेख को न सिर्फ गम्भीरता से लिया, वरन स्वयं उसका जर्मन भाषा में अनुवाद भी किया। वह लेख 1924 में एक जर्मन जर्नल में ‘प्लैंकस गेसेट्ज लिफ्ट क्वाँटेंथ हाइपोथिसिस’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अंग्रेजी में उस लेख का शीर्षक ‘प्लैंक्स लॉ एण्ड लाइट क्वाँटम हाइपोथिसिस’ (Planck's Law and Light Quantum Hypothesis) रखा गया था। इस लेख के साथ आइंस्टा्इन की एक टिप्पणी भी प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने बोस के निष्कर्षो को सराहा था और उसे भविष्य में दर्शाने का वचन दिया था। आगे चलकर यही सिद्धांत 'बसु-आइंसटाइन साँख्यिकी सिद्धाँत' (Bose Einstein Statistics) के नाम से जाना गया और क्वांटम मैकेनिक्स का मूल आधार बना।
बसु-आइंसटाइन साँख्यिकी सिद्धाँत:
गैसों में असंख्य प्रकार के अणु पाए जाते हैं, जो सदैव गतिशील रहते हैं। इनकी गतिशीलता का गैस के दाब और ताप से एक खास सम्बंध होता है। गैसों के इन अणुओं की गति को समझने के लिए गणित के औसत के नियम का सहारा लिया जाता है। इसे समझने के लिए मैक्सवेल और बोल्ट्जमैन ने जिस गणितीय सिद्धांत की व्युत्पत्ति की, उसे साँख्यिकी के नाम से जाना जाता है। साँख्यिकी औसत के गणित की बात करती है। आधुनिक भौतिक विज्ञान में इसकी आवश्यकता कदम-कदम पर पाई जाती है।
मैक्सवेल तथा वोल्ट्जमैन द्वारा आविष्कृत ये नियम तब तक सही से काम करते रहे, जब तक वैज्ञानिकों को सिर्फ परमाणुओं के बारे में जानकारी थी। लेकिन जैसे ही वैज्ञानिकों को यह पता चला कि परमाणु के भीतर भी अनेक प्रकार के परमाणु-कण पाए जाते हैं और उनकी गतियाँ बहुत अनोखी होती हैं, उनका यह नियम फेल हो गया। ऐसे में डॉ. बसु ने नये नियमों की खोज की, जो आगे चलकर ‘बसु-आइंसटाइन साँख्यिकी’ के नाम से जाने गये। इस नियम के सामने आने के बाद वैज्ञानिकों ने परमाणु-कणों का गहन अध्ययन किया और पाया कि ये मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं। इनमें से एक का नामकरण डॉ. बसु के नाम पर ‘बोसॉन’ रखा गया और दूसरे का नाम प्रसिद्ध वैज्ञानिक एनरिको फर्मी के नाम पर ‘फर्मिऑन’।
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Excellent!
जवाब देंहटाएंसत्येन्द्रनाथ बोस के योगदान को भारतीय याद रखे या नहीं, पश्चिमी वैज्ञानिकों ने याद रखा है, उन्होंने बाकायदा बलावाहक कणों को 'बोसान' नाम दे दिया. उन्हें प्रतिभाओं का सम्मान आता है, सुब्रमनियन चंद्रशेखर के नाम पर चंद्रा अवरक्त अंतरिक्ष वेधशाला बना दी. भारतीयों को उनकी याद केवल पश्चिमी मिडिया के याद दिलाने पर या नोबेल पुरस्कार मिलाने पर ही याद आती है.
जवाब देंहटाएंहिग्ग्स बोसान की की खोज पर लोगो ने उसे वेदों में पुराणों में खोज निकाला, कह रहे हैं कि हम तो हजारो वर्ष से जानते है….. कुछ कह रहे है कि अरबो रूपये ऐसे ही बर्बाद कर दिए…. कौन समझाये इन्हें कि यही खोजे कालान्तर में आम नागरिको के काम आती है…
जनता यह नहीं जानती कि हिग्ग्स बोसान और ईश्वर का कोई संम्बध ही नहीं है, उसे तो गोडामन पार्टिकल कहा गया था , प्रकाशक ने उसे गाड पार्टिकल कर दिया…. मीडिया ने हिग्स बोसान को ही भगवान बना दिया…..
पीटर हिग्ग्स तो नास्तिक ठहरे, उनका तो खून जल रहा होगा!
आशीष जी, भारतीय मीडिया जो न करवाए कम है।
हटाएंसत्येन्द्र नाथ बोस को नोबल पुरस्कार न दिया जाना सचमुच आश्चर्यजनक है जबकि ‘बोस आइन्स्टीन सांख्यिकी‘ पर आधारित नई वैज्ञानिक खोजों के लिए अब तक दुनिया भर के 21 वैज्ञानिकों को भौतिकी का नोबल पुरस्कार दिया जा चुका है।
जवाब देंहटाएंमहेन्द्र जी, इस जानकारी को शेयर करने का शुक्रिया।
हटाएंनोबेल पुरस्कार अजीब तरीके से दिया जाता है. स्वयं आइन्स्टाइन को नोबेल उनकी एक छोटी सी खोज "फोटो वाल्टिक प्रभाव" के लिए दिया गया था, उनकी मुख्य विश्व को हिला देने वाली खोजो(सापेक्षवाद) के लिए नहीं. सत्येन्द्रनाथ बोस ही क्यों, जार्ज सुदर्शन की खोज पर अब तक तीन नोबेल दिए जा चुके है, जार्ज सुदर्शन को अब तक नहीं मीला
हटाएंवैसे इस पुरस्कार से किसी की महानता सिद्ध होती तो अलग बात थी, ओबामा, यासर अराफात, इत्जाक राबीन को शान्ति का नोबेल मिलता है … महात्मा गांधी को नहीं ...
आशीष जी, पुरस्कारों की राजनीति जगजाहिर है। चाहे साहित्य जगत के पुरस्कार हों या फिर विज्ञान जगत के, इस राजनीति से कोई नहीं बच पाया है।
हटाएंइतने महत्वपूर्ण विषय पर आपका सारगर्भित आलेख प्रशंशनीय है. आपका आभार.
जवाब देंहटाएंगूढ़ विषय की अत्यंत रोचक सहज सरल प्रस्तुति -बधाई !
जवाब देंहटाएंभारत की मीडिया -याहन के लोग कितने अधकचरे हैं यह मामला इस बात का दस्तावेजी प्रमाण है
सहेज लें ताकि वक्त पर काम आये !
बिलकुल।
हटाएंसही कहा आपने। शुक्रिया।
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