आपने इतिहास की पुस्तकों में पढ़ा होगा कि आदि मानव गुफाओं में रहते थे और जंगल के कंद मूल खाकर अपना जीवन बिताया करते थे। लेकिन आपको जानकर आश्च...
आपने इतिहास की पुस्तकों में पढ़ा होगा कि आदि मानव गुफाओं में रहते थे और जंगल के कंद मूल खाकर अपना जीवन बिताया करते थे। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी एक ऐसी जनजाति है, जो आज भी गुफाओं में ही रहती है। पढ़िए एम० सुचित्रा और अजीब कोमाची की एक रोचक रिपोर्ट।
कोझीकोड से 100 किमी० का बस का सफर तय करके हम केरल के मालाप्पुरम जिले के छोटे से नगर निलांबर पहुंचे। कोझीकोड-उटी मार्ग पर स्थित इस नगर से कृष्णन, जो राज्य के आदिवासी विभाग में अधिकारी हैं, भी करूलाई संरक्षित वन में जाने के लिए साथ हो लिए। हम सब चोलानाईकल एशिया में बची ऐसी एकमात्र जनजाति शेष है, जो अभी भी गुफाओं में ही रहती है, से मिलने जा रहे थे।
करूलाई वर्षा वन पश्चिमी घाट सिथत उस नीलगिरी जीवन मंडल वन का हिस्सा है, जो अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है। हमें बताया जाता था कि इस घने वन में ११ अलाई अथार्त गुफा बिखरी हुई हैं। उबड़-खाबड़ कच्ची सड़क जो 20 किमी० लम्बे इमारती लकडियों के जंगल से गुजरती है, ने हमें स्थानीय निवासी मोईनकुट्टी हमारे साथ हो लिए।
काफी दूरी तय करने के बाद हमने एक पहाड़ पर चढ़ना शुरू किया। इसके बाद हम बेलों, खुली जड़ों और बांस के झुरमुटों के सहारे नीचे उतरे। अब हम एक प्राक़तिक गुफा बसाहट के नजदीक पहुंच गये थे। उस वक्त वहां केवल दो परिवार मौजूद थे। मोईनकुट्टी का कहना था कि ये बसाहटें तुलनात्मक रूप से छोटी हैं। इन गुफाओं में सात परिवार तक साथ रह सकते हैं। चोलानाईकल जनजाति कन्नड़, तमिल और मलयालम की मिश्रित बोली बोलती है, जिसमें दो से पांच परिवार एक समूह के रूप में रहते हैं, जिसे चेम्मन कहा जाता है। वृक्ष, नदियां और चट्टानों से इनकी सीमा का निर्धारण होता है।
बारिश के मौसम में यह समूदाय स्वयं को गुफा में समेट लेता है। ठंड और गर्मी में वे बाहर आकर कंद, जड़ें, सूखे मेवे, फल, शहद, अदरक, जंगली काली मिर्च और रीठा इकट्ठा कर इसे मंजीरी स्थित सहकारी समिति को देकर इसके बदले में चावल, नमक, तेल और मिर्ची ले आते हैं। सन 2002 में निलांबर में इस आदिम जनजाति के लिए एक विशेष विद्यालय खोला गया था। चोलानाईकन समुदाय ने बच्चों को इसमें पढ़ने भी भेजा था, लेकिन आधे बच्चे तो प्राथमिक शिक्षा पूरी होने के पहले ही लौट गए। उनका कहना था कि जब वे जंगल में अपनी आदिम जीवन शैली में लौटेंगे, तो इस विद्यालय की पढ़ाई उनके किसी काम नहीं आएगी।
अब चूंकि वन की अर्थव्यवस्था भी बाजार आधारित व्यवस्था में बदल रही है, तो ये भी मजदूरी करने लगे हैं। इस व्यवस्था के मकड़जाल बर्तनों, कपड़ों और शराब के रूप में स्पष्ट रूप से दिखाई भी देने लगा है। पहले ये न तो कभी शराब पीते थे और न ही कर्जे में रहते थे। अब ये विभ्रम में रह रहे हैं।
सरकार द्वारा इस समुदाय के अट्ठारह परिवारों को जंगल के छोर पर बसाया गया था। परंतु केवल पांच ही वहां पर बसे और बाकी अपने गुफा घरों में लौट आए। ये लौटने का कारण हाथियों द्वारा लगातार किये जा रहे हमले बताते हैं। परंतु सच्चाई यही है कि उन्हें अपने प्राक़तिक आवास में ही अच्छा लगता है। हालांकि आधुनिक समाज के प्रति उनमें कुछ आकर्षण भी पैदा हुआ है।
('सच्ची-मुच्ची एक प्रयास' से साभार)
कोझीकोड से 100 किमी० का बस का सफर तय करके हम केरल के मालाप्पुरम जिले के छोटे से नगर निलांबर पहुंचे। कोझीकोड-उटी मार्ग पर स्थित इस नगर से कृष्णन, जो राज्य के आदिवासी विभाग में अधिकारी हैं, भी करूलाई संरक्षित वन में जाने के लिए साथ हो लिए। हम सब चोलानाईकल एशिया में बची ऐसी एकमात्र जनजाति शेष है, जो अभी भी गुफाओं में ही रहती है, से मिलने जा रहे थे।
करूलाई वर्षा वन पश्चिमी घाट सिथत उस नीलगिरी जीवन मंडल वन का हिस्सा है, जो अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है। हमें बताया जाता था कि इस घने वन में ११ अलाई अथार्त गुफा बिखरी हुई हैं। उबड़-खाबड़ कच्ची सड़क जो 20 किमी० लम्बे इमारती लकडियों के जंगल से गुजरती है, ने हमें स्थानीय निवासी मोईनकुट्टी हमारे साथ हो लिए।
काफी दूरी तय करने के बाद हमने एक पहाड़ पर चढ़ना शुरू किया। इसके बाद हम बेलों, खुली जड़ों और बांस के झुरमुटों के सहारे नीचे उतरे। अब हम एक प्राक़तिक गुफा बसाहट के नजदीक पहुंच गये थे। उस वक्त वहां केवल दो परिवार मौजूद थे। मोईनकुट्टी का कहना था कि ये बसाहटें तुलनात्मक रूप से छोटी हैं। इन गुफाओं में सात परिवार तक साथ रह सकते हैं। चोलानाईकल जनजाति कन्नड़, तमिल और मलयालम की मिश्रित बोली बोलती है, जिसमें दो से पांच परिवार एक समूह के रूप में रहते हैं, जिसे चेम्मन कहा जाता है। वृक्ष, नदियां और चट्टानों से इनकी सीमा का निर्धारण होता है।
बारिश के मौसम में यह समूदाय स्वयं को गुफा में समेट लेता है। ठंड और गर्मी में वे बाहर आकर कंद, जड़ें, सूखे मेवे, फल, शहद, अदरक, जंगली काली मिर्च और रीठा इकट्ठा कर इसे मंजीरी स्थित सहकारी समिति को देकर इसके बदले में चावल, नमक, तेल और मिर्ची ले आते हैं। सन 2002 में निलांबर में इस आदिम जनजाति के लिए एक विशेष विद्यालय खोला गया था। चोलानाईकन समुदाय ने बच्चों को इसमें पढ़ने भी भेजा था, लेकिन आधे बच्चे तो प्राथमिक शिक्षा पूरी होने के पहले ही लौट गए। उनका कहना था कि जब वे जंगल में अपनी आदिम जीवन शैली में लौटेंगे, तो इस विद्यालय की पढ़ाई उनके किसी काम नहीं आएगी।
अब चूंकि वन की अर्थव्यवस्था भी बाजार आधारित व्यवस्था में बदल रही है, तो ये भी मजदूरी करने लगे हैं। इस व्यवस्था के मकड़जाल बर्तनों, कपड़ों और शराब के रूप में स्पष्ट रूप से दिखाई भी देने लगा है। पहले ये न तो कभी शराब पीते थे और न ही कर्जे में रहते थे। अब ये विभ्रम में रह रहे हैं।
सरकार द्वारा इस समुदाय के अट्ठारह परिवारों को जंगल के छोर पर बसाया गया था। परंतु केवल पांच ही वहां पर बसे और बाकी अपने गुफा घरों में लौट आए। ये लौटने का कारण हाथियों द्वारा लगातार किये जा रहे हमले बताते हैं। परंतु सच्चाई यही है कि उन्हें अपने प्राक़तिक आवास में ही अच्छा लगता है। हालांकि आधुनिक समाज के प्रति उनमें कुछ आकर्षण भी पैदा हुआ है।
('सच्ची-मुच्ची एक प्रयास' से साभार)
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Rochak Jaankari.
जवाब देंहटाएंकमाल की जानकारी है , शुक्रिया
जवाब देंहटाएंरोचक जनकारी से परिपूर्ण आलेख।
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी है .
जवाब देंहटाएंये गुफाओं में रहते अवश्य हैं लेकिन उन से बहुत दूर भी निकल आए हैं। आधुनिक जगत से इन का रोजमर्रा का संपर्क भी है।
जवाब देंहटाएंफिलहाल द्विवेदी जी ठीक कहते लग रहे हैं !
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी ....!!
जवाब देंहटाएंप्रकृति से नजदीकियां सदैव सुखद होती है , इसलिए उन लोगों को वही रहना भाता है ... सभ्यता ने यूँ भी दिया क्या है , उधार की जिन्दगी ?
जवाब देंहटाएंजाकिर जी ! बहुत सामयिक पोस्ट है ! आज भी बहुत सी आदिवासी जातियां है जहाँ विकास की कोई किरन नहीं पहुंची है ! वे नही चाहते कि उनके जीवन में कोई दखल हो ! पर जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनो की कमी हो रही है उनका जीवन यापन कठिन हो जायेगा ! आज सवाल है ........की उन्हें उनके अनुसार चलने दिया जाय या विकास की मुख्य धारा से जोड़ा जाये !आपका विचार चाहूंगी ! विषय उठाने के लिए बधाई !
जवाब देंहटाएंउषा जी, आपकी बात सही है। ये जनजातियां आज संक्रमण के दौर से गुजर रही हैं। कारण एक ओर इन्हें आधुनिकता से भरपूर भौतिक चीजें आकृष्ट कर रही हैं, दूसरी ओर इनके अपने प्राकृतिक संसाधन तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। ऐसे में यदि सरकार कोई गम्भीर पहल करे, तभी इनका विकास सम्भव है।
जवाब देंहटाएंबेहद रोचक जानकारी दी है जी, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंप्रणाम
nice
जवाब देंहटाएंI just wanted to thank you for your visit and comment. Come back often, the door of the Ponderosa is always open.
जवाब देंहटाएंYou have a wonderful blessed day!!!
Thank you very much for encouraging words. I was actually able to read your blog thanks to google translator. Very interesting article and a great blog. Thank you again.
जवाब देंहटाएं@ जब वे जंगल में अपनी आदिम जीवन शैली में लौटेंगे, तो इस विद्यालय की पढ़ाई उनके किसी काम नहीं आएगी।
जवाब देंहटाएंकभी कभी नहीं लगता क्या कि इनका संरक्षण नहीं होना चाहिए? ये कोई पशु तो नहीं हैं कि इन्हें अभयारण्य में बसा कर रखा जाय। बेहतर और सम्वेदनशील शिक्षा से संस्कारित कर इन्हें मुख्य धारा से जोड़ देना ही ठीक है।
यह लिख देने के बाद अब दिमाग में आ रहा है - "तू होता कौन है सब की नियति निर्धारित करने वाला?" ...बहुत कंफ्यूजन है।
दिलचस्प खबर।
जवाब देंहटाएंलेकिन असमंजस की स्थिति है। देर सबेर इनको मेनस्ट्रीम में आना ही पड़ेगा , वर्ना ये भी लुप्त हो जायेंगे कई जानवरों की तरह।
Actually, i can't read your article. But thanks for visiting my blog. Nice to meet you. i think if you write your article on english, if would be helpful to understand what you've written.
जवाब देंहटाएंBest Regard.
करूलाई वर्षा वन के बारे में रोचक जानकारी मिली
जवाब देंहटाएंregards