आज के भारत में सबसे तेजी से बढ़ता सेक्टर कौन सा है- आईटी, मोबाइल टेलेफोनी, आटोमोबाइल, इन्फ्रास्ट्रक्चर, आईपीएल। जहां तक मेरा ख्याल है त...
आज के भारत में सबसे तेजी से बढ़ता  सेक्टर कौन सा है- आईटी, मोबाइल टेलेफोनी, आटोमोबाइल, इन्फ्रास्ट्रक्चर,  आईपीएल। जहां तक मेरा ख्याल है तो भूख की रफ़्तार के आगे ये सारे सेक्टर  बहुत पीछे हैं। आजादी के 62+ सालों के बाद, भारत के पास दुनिया की दूसरी  सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का दावा है। मगर अमेरिका की कुल आबादी से  कहीं अधिक भूख और कुपोषण से घिरे पीड़ितों का आकड़ा भी यहीं पर है। अब  चमचमाती अर्थव्यवस्था पर लगा यह काला दाग भला छिपाया जाए भी तो कैसे ?
वैसे भी अपनी सरकार मंहगाई को कम नहीं  करने की बात जब खुलेआम कह रही है तो उसके मंशूबों से ताल्लुक रखने वाली  चुप्पियों के भेद भी खुल्लमखुल्ला हो ही जाए। ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा  अधिनियम’ के होहल्ला से पहले, सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को याद कीजिए, जो  गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को 2 रूपए किलो की रियायती दर से  35 किलो खाद्यान्न दिये जाने की बात कहता है। इसके बाद केन्द्र की यूपीए  सरकार के ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ का मसौदा देखिए, जो गरीबी रेखा  के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती दर से महज 25 किलो खाद्यान्न की  गारंटी ही देता है। मामला साफ है, मौजूदा खाद्य सुरक्षा का मसौदा तो  सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही कतरने (गरीबों के लिए रियायती दर से 10 किलो  खाद्यान्न में कमी) वाला है। 
अहम सवाल यह भी है कि मौजूदा मसौदा अपने  भीतर कितने लोगों को शामिल करेगा ? इसके जवाब में जो भी आकड़े हैं, वो आपस  में मिलकर भ्रम फैला रहे हैं। अगर वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क देखा  जाए तो जो परिवार रोजाना 1 यूएस डालर (मौजूदा विनियम दर के हिसाब से 45  रूपए) से कम कमाता है, वो गरीब है। भारत में कितने गरीब हैं, इसका पता  लगाने के लिए जहां पीएमओ इकोनोमिकल एडवाईजरी कौंसिल की रिपोर्ट ने गरीबों  की संख्या 370 मिलियन के आसपास बतलाई है, वहीं घरेलू आमदनी के आधार पर, सभी  राज्य सरकारों के दावों का राष्ट्रीय योग किया जाए तो गरीब रेखा के नीचे  420 मिलियन लोगों की संख्या दिखाई देती है। यानि गरीबों को लेकर केन्द्र और  राज्य सरकारों के अपने-अपने और अलग-अलग आकड़े हैं। इसके बावजूद गरीबों की  संख्या का सही आंकलन करने की बजाय केन्द्र सरकार का यह मसौदा, केवल केन्द्र  सरकार द्वारा बतलाये गए गरीबों को ही शामिल करेगा।
यहां अगर आप वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का  बेंचमार्क रोजाना 1 यूएस डालर से 2 यूएस डालर (45 रूपए से 90 रूपए) बढ़ाकर  देंखे तो देश में गरीबों का आकड़ा 80 मिलियन तक पहुंच जाता है। यह आकड़ा यहां  की कुल आबादी का तकरीबन 80% हिस्सा है। अब थोड़ा देशी संदर्भ में सोचिए,  महज 1 यूएस डालर का फर्क है, जिसके कम पड़ जाने भर से आबादी के इतना भारी  हिस्सा वोट देने भर का अधिकार तो पाता रहेगा, नहीं पा सकेगा तो भोजन का  अधिकार।
केन्द्र सरकार ने 2010-11 में, भूख से  मुकाबला करने के लिए 1.18 लाख करोड़ रूपए खर्च करने का वादा किया है। अगर  यूपीए सरकार गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती तौर से 35  किलो खाद्यान्न दिये जाने पर विचार करती है तो उसे अपने बिल में अतिरिक्त  82,100 करोड़ रूपए का जोड़ लगाना होगा।
जब कभी देश को युद्ध या प्राकृतिक  आपदाओं का सामना करना पड़ता है तो हमारे देश के हुक्मरानों का दिल अचानक  पसीज जाता है। उस दौरान के बुरे हालातों से निपटने के लिए बहुत सारा धन और  राहत सुविधाओं को मुहैया कराया जाता है। मगर भूख की विपदा तो देश के कई बड़े  इलाकों को खाती जा रही है। वैसे भी युद्ध और प्राकृतिक आपदाएं तो थोड़े समय  के लिए आती हैं और जाती हैं, मगर भूख तो हमेशा तबाही मचाने वाली परेशानी  है। इसलिए यह ज्यादा खतरनाक है। मगर सरकार है कि इतने बड़े खतरे के खिलाफ  पर्याप्त मदद मुहैया कराने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है। 
भूख का यह अर्थशास्त्र न केवल हमारे  सामाजिक ढ़ाचे के सामने एक बड़ी चुनौती है, बल्कि मानवता के लिए भी एक गंभीर  खतरा है। जो मानवता को नए सिरे से समझने और उसे फिर से परिभाषित करने की ओर  ले जा रहा है। उदाहरण के लिए, आज अगर भूखे माता-पिता भोजन की जुगाड़ में  अपने बच्चों को बेच रहे हैं तो यह बड़ी अप्राकृतिक स्थिति है, जिसमें मानव  अपनी मानवीयता में ही कटौती करके जीने को मजबूर हुआ है। यह दर्शाती है कि  बुनियादी तौर पर भूख किस तरह से मानवीयता से जुड़ी हुई है। इसलिए क्यों न  भूख को मिटाने के लिए यहां बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) की बजाय बीएचएल  (मानवीय रेखा से नीचे) शब्द को उपयोग में लाया जाए ?
एक तरफ भूखा तो दूसरी तरफ पेटू वर्ग तो  हर समाज में होता है। मगर भारत में इन दोनों वर्गों के बीच का अंतर  दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। एक ही अखबार के एक साईड में कुपोषण से बच्चों की  मौत की काली हेडलाईन हैं तो उसी के दूसरी साईड में मोटापन कम करने वाले  क्लिनिक और जिमखानों के रंगीन विज्ञापन होते हैं। भारत भी बड़ा अजीब देश है,  जहां आबादी के एक बड़े भाग को भूखा रहना पड़ता है, वहीं डायबटीज, कोरोनरी और  इसी तरह की अन्य बीमारियों के मरीज भी सबसे अधिक यही पर हैं, जिनकी  बीमारियां सीधे-सीधे ज्यादा खाने-पीने से जुड़ी हुई हैं।
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जानकारीपरक आलेख। वैसे हमारा मानना है कि देश से भूख मिटाई जा सकती है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या ये हैं कि अनाज के उत्पादन पर सरकार का ध्यान नहीं है. कैसे किसानों को आधुनिक खेती से परिचित कराया जाए। इस पर कोई पहल नहीं हो रही है। ऐसे में हम कैसे उम्मीद करें कि भूख का अर्थशास्त्र इस देश से समाप्त हो जाएगा।
जवाब देंहटाएंइस आलेख में विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है।
जवाब देंहटाएंवहीं डायबटीज, कोरोनरी और इसी तरह की अन्य बीमारियों के मरीज भी सबसे अधिक यही पर हैं, जिनकी बीमारियां सीधे-सीधे ज्यादा खाने-पीने से जुड़ी हुई हैं।..
जवाब देंहटाएंयह तस्वीर का दूसरा पहलू है.
नहीं ...बिलकुल भी नहीं ! अगर इलाज की इच्छा हो तो !
जवाब देंहटाएंपहले कुछ लोगों के लालच के अर्थशास्त्र का इलाज खोजना होगा
जवाब देंहटाएंकमी अनाज की नहीं पर वो गोदामों में सड़ता रहता है ताकि उसके दाम ना गिर जाएँ और मुनाफे पर असर ना पड़े
गरीबों की भूख लाइलाज ही होती है भाईजान...
जवाब देंहटाएंअमीरों द्वारा छोडा गया खाना उनका शोक होता है।
भूख का अर्थशास्त्र ! समझ से परे नही है !निश्चित रूप से वहाँ की व्यवस्था पथराई हुई है !जाँच पड़ताल जरुरी है ! इस भीषण समस्या की ओर आपने ध्यान खींचा ! आपकाबहुत बहुत धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंभूख का यह अर्थशास्त्र ....आकड़ों का बेमिसाल संग्रह ........ बेहद झकझोरने वाला लेख .....
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