इसे उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव कहें अथवा मानवीय स्वार्थ की अति कि आज हम जिस ढ़ंग से और जिस गति से वृक्षों और उनके सहारे जीवित रहने...
इसे उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव कहें अथवा मानवीय स्वार्थ की अति कि आज हम जिस ढ़ंग से और जिस गति से वृक्षों और उनके सहारे जीवित रहने वाले जीवों का विनाश कर रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि हम बहुत जल्दी धरती ग्रह पर पाई जाने वाली एकमात्र प्रजाति का खिताब पाने वाले हैं।
यह कोरी कल्पना नहीं, भविष्य का संकेत है, जिसे हर जिम्मेदार और पर्यावरणप्रेमी व्यक्ति साफ-साफ देख रहा है। और इसी संकेत की ओर इशारा करती है सद्य प्रकाशित पुस्तक “धरा पर जीवन”। इस पुस्तक की लेखिका हैं सुश्री सुकन्या दत्ता, जो विज्ञान लेखन के क्षेत्र में जाना-माना नाम है। यह रूचिकर “विज्ञान प्रसार” द्वारा प्रकाशित हुई है। “विज्ञान प्रसार” भारत सरकार के विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा 1989 में स्थापित एक स्वायत्तशासी संस्था है, जो देश में विज्ञान को व्यापक स्तर पर लोकप्रिय बनाने का कार्य करती है।
हाल ही में विज्ञान प्रसार ने वर्ष 2008 को अन्तर्राष्ट्रीय पृथ्वी वर्ष घोषित किये जाने के उपलक्ष्य में पृथ्वी और उसके विविध पक्षों को केन्द्र में रखकर दस रूचिकर पुस्तकों का प्रकाशन किया है। “धरा पर जीवन” उसी श्रृंखला की एक अहम कड़ी है। यह पुस्तक न सिर्फ हमारी धरा के विविध पक्षों से परिचय कराती है, वरन उसकी विविधता (जैव विविधता) के बारे में भी हमारे ज्ञान में वृद्धि करती है।
जैव विविधता हाल के दिनों का एक बेहद चर्चित शब्द है, जिसे लेकर बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन इसके बावजूद इसके बारे में आम आदमी की समझ बहुत परिपक्व नहीं है। शायद इसी महत्वपूर्ण बिन्दु को समझते हुए विज्ञान प्रसार के निदेशक महोदय ने आलोच्य पुस्तक की भूमिका में लिखा है-
“जहाँ तक हम जानते हैं पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है, जिस पर जीवन है। इस ग्रह पर जानवर, पौधे तथा सूक्ष्म जीव जीवन के अनेक रूपों के साथ नाजुक संतुलन बनाते हैं, जिन्हें हम जैव विविधता कहते हैं। हर प्रजाति अपने अस्तित्व के लिए अन्य प्रजाति पर निर्भर रहती है। निश्चित तौर पर, जब हम पृथ्वी पर जीवन की बात करते हैं तो हम मानव प्रजाति की बात भी करते हैं। यदि हम अपने पर्यावरण को समझना और उसे संरक्षित रखना चाहते हैं तो हमें प्रजातियों की एक दूसरे पर निर्भरता तथा जीवित प्राणियों के लिए हवा, जल और मृदा जैसे प्राकृतिक संसाधनों के महत्व को समझना होगा।”
निदेशक महोदय की उक्त टिप्पणी को यदि एक तरह से इस पुस्तक का निचोड़ कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। “धरा पर जीवन” हमें यह समझाने का प्रयास करती है कि जैव विविधता हमारे लिए अपरिहार्य वस्तु है। हमें इसके बारे में न सिर्फ सोचना होगा, बल्कि गम्भीर भी होना होगा। यह पुस्तक इस चेतना को जगाने में समर्थ है, जिसके लिए लेखिका बधाई की पात्र हैं।
वर्तमान समय में भारत में वैज्ञानिक चेतना जगाने के लिए यूँ तो अनेक संस्थान कार्य कर रहे हैं, पर इस तरह के उपयोगी प्रकाशनों के कारण उनमें “विज्ञान प्रसार” की भूमिका अहम हो गयी है। इसके लिए “विज्ञान प्रसार” निश्चित ही बधाई का पात्र है।
पुस्तक- धरा पर जीवन
लेखक- सुकन्या दत्ता
अनुवाद- हेमंत पंत
फोन- 0120 2404430, 35
मूल्य- 85 रूपये
जानकारी से भरा व बेहद प्रभावशाली रहा आपका लेख।
जवाब देंहटाएंहमारा पर्यावरण प्रेम जग जाहिर है, उसका उदाहरण भी है - दोहन वह चाहे जल का हो, धरा का हो या
जवाब देंहटाएंपेडों का हम केवल दोहन कर रहे है । हम सभी को सचेत हो जाना चाहिये नही तो हम बहुत जल्दी धरती ग्रह पर पाई जाने वाली एकमात्र प्रजाति का खिताब पाने वाले हैं।
बेहतरीन प्रस्तुति के लिये बधाई हो ।
बिल्कुल सही कहा आपने...कि शनै: शनै: हम लोग अन्त की ओर ही बढते चले जा रहे हैं.....ओर यदि ऎसे ही हालात रहे तो शायद ये अन्त बहुत जल्दी आने वाला है....
जवाब देंहटाएंअच्छी पुस्तक चर्चा.
जवाब देंहटाएंविचारणीय मुद्दा और अच्छी पोस्ट!
जवाब देंहटाएंअजी डरे नही.... हां विनाश तो जरुर होगा, लेकिन फ़िर भी कुछ इंसान बचेगे, ओर दुनिया फ़िर से बसेगी... लेकिन हमे सोचना चाहिये अपनी आने वाली पीढी के बारे, उन की भलाई के बारे... आप ने बहुत सुंदर लिखा. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने! अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई आपके पोस्ट के दौरान! बधाई!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब "every thing connected to each other like a single human body,
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