क्या है जीएम फसलों की सच्चाई?

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जीएम अथवा जीनांतरित फसलें क्या हैं, ये कैसे तैयार की जाती हैं, इनकी शुरूआत कैसे हुई तथा इनके क्या लाभ हैं? इन सभी के बारे में विस्तार से बताता उपयोगी आलेख।


कल्पना करें कि ऐसा गुलाब का ऐसा पौधा हो जिसे रोजाना पानी देने के बजाय सिर्फ महीने में एक बार पानी देने से वह बढ़ता रहे या फिर ऐसा टमाटर का पौधा हो जिससे उपजे टमाटर बिना सड़े लंबे समय तक ताजा रहें, या आलू का ऐसा पौधा हो जिसमें कीट न लगें और जिससे अधिक मात्रा में आलू मिलें या फिर चावल का ऐसा पौधा हो जिसमें कुछ औषधीय गुण भी हो। ...तो पौधों में ऐसा सिर्फ उन पौधों में हो सकता है जो जीनांतरित हों। पौधों में किया जाने वाला यह जीनांतरण क्या है और कैसे किया जाता है, जानते हैं इसके बारे में विस्तार से।
जीनांतरित फसलें: एक विवेचना

-नवनीत कुमार गुप्ता

जीनांतरित या जीएम फसलों को बॉयोटेक फसलों (Biotec crops) के नाम से भी जाना जाता है। जीएम फसल लंबे समय से विवादों में रही हैं। इसलिए भी आज जीएम फसलों के विकास के बारे में जानना प्रासंगिक होगा।

जीएम फसलें क्या हैं ?
जैनेटिक इंजीनियरिंग यानी जीनियागरी के द्वारा किसी भी जीव या पौधों के जीन को दूसरे पौधों में डाल कर एक नई फसल प्रजाति विकसित कर सकते हैं। मतलब यह कि अब दो अलग-अलग प्रजातियों में भी संकरण किया जा रहा है। वैसे प्रकृति में जीनों का जोड़-तोड़ चलता रहता है। इधर के जीन उधर और उधर के इधर। पर प्रकृति में यह बड़ी धीमी प्रक्रिया है, कई हजारों लाखों वर्षों में
ये बदलाव आते हैं। क्योंकि प्रकृति पूरी तरह तसल्ली करके ही किसी पौधे या जानवर या सूक्ष्मजीव को पनपने देती है, वरना उसे खत्म कर देती है। लेकिन आज जैनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से जीनों को एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में डाला जा रहा है। इस प्रकार प्राप्त फसलों को पारजीनी फसलें यानी जैनेटिकली मोडिफाइड क्रॉप (Genetically modified crops) कहा जाता है।

हालांकि इन फसलों का विचार नया लगता है लेकिन इनके संबंध में मानव समाज में सदियों से विचार पनपते रहे हैं। मानव अपने जीवन को सुविधाजनक करने के लिए समय-समय पर अनेक वस्तुओं का विकास करता रहता है। इसी प्रकार फसलों को उगाने के दौरान फसलों को अनेक बीमारियों के प्रति प्रतिरोधी बनाने या उनमें कम पानी में विकास करने की क्षमता को विकास करने के लिए प्रयास किए जाते रहे हैं । साथ ही फसलों से अधिक उत्पादन के लिए भी अनेक प्रयास किए गए हैं। जीनांतरित फसलें इसी दिशा में एक और कदम हैं।

जीनांतरण के लाभ:
कल्पना करें कि यदि ऐसा गुलाब का ऐसा पौधा हो, जिसे रोजाना पानी देने के बजाय सिर्फ महीने में एक बार पानी देने से वह बढ़ता रहे या फिर ऐसा टमाटर का पौधा हो, जिससे उपजे टमाटर बिना सड़े लंबे समय तक ताजा रहें या आलू का ऐसा पौधा हो, जिसमें कीट न लगें और जिससे अधिक मात्रा में आलू मिले या फिर चावल का ऐसा पौधा हो, जिसमें कुछ औषधीय गुण भी हों। ...तो ऐसा सिर्फ उन पौधों में हो सकता है जो जीनांतरित हों।

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है जीनांतरित फसलें ऐसी फसलें हैं जिनको जैवप्रौद्योगिकी और जैव अभियांत्रिकी गतिविधियों के द्वारा जीन स्तर तक परिवर्तित किया गया है। इस प्रक्रिया में पौधे में नए जीन यानी डीएनए को डालकर उसमें ऐसे मनचाहे गुणों का समावेश किया जाता है जोकि प्राकृतिक रूप से उस पौधे में नहीं होते हैं। इस तरह से ऐसा पौधे जो कीटों के प्रति, सूखे जैसी पर्यावरण परिस्थिति और बीमारियों के प्रति कम प्रतिरोधी हों उसे प्रतिरोधी बनाया जा सकता है। या फिर हम जीनांतरित फसलों से उत्पादन क्षमता और पोषक क्षमता को बढ़ा सकते हैं।

जीनांतरण की प्रक्रिया:
इसके लिए शोधकर्ता टिश्यू कल्चर, उत्परिवर्तन द्वारा और नए सूक्ष्मजीवों की मदद से पौधों में नए जीनों का प्रवेश कराते हैं। इस तरह की एक बहुत ही समान्य प्रक्रिया में पौधे को एगारेबेटेरियम टुमुफेसियन् () नामक सूक्ष्मजीव से सक्रंमित कराया जाता है। यह सूक्ष्मजीव एक विशिष्ट जीन जिसे टी-डीएनए () कहा जाता है, से पौधे को सक्रंमित करके पौधे में डीएनए का प्रवेश कराकर एक गठान बनाता है। शोधकर्ता इस एगा्रेबेटेरियम के टी-डीएनए को वांछित जीन जो बीमारी या कीट प्रतिरोधक होता है उससे सवाधानी से प्रतिस्थापित कर देते हैं जिससे वह कीट फसल को प्रभावित न कर सके और फसल उत्पादन में वृद्धि हो सके।

बैक्टीरिया से संक्रतिम वांछिन जीन को टी-डीएनए के स्थान पर प्रतिस्थापित करके पौधे के जीनोम में बदलाव लाकर मनचाहे गुणों की जीनांतरिक फसल प्राप्त की जाती है। वैज्ञानिक डीएनए बंध के लिए बहुत ही सूक्ष्म सोने और टंगस्टन के कणों का उपयोग करते हैं जिनको उच्च दाब पर पौधे के जीनोम में कोशि‍का नाभिक में छोड़ा जाता है।

हमने अक्सर बीटी कॉटन, बीटी बैंगन और बीटी आलू नाम सुना होगा। इसमें आगे वाला शब्द बीटी को एग्रोबेक्टेरियम () के संक्षिप्त नाम के रूप में उपयोग किया जाता है। इसका दूसरा बैक्टीरिया बेसिलस थुरेंजिनेसिस है ()। इस बेक्टीरिया में उपस्थित विशेष जीन जिसे सीआरवायी () जीन कहते हैं की मदद से यह एक प्राकृतिक कीटनाशक जिसे सीआरवाय टॉक्सिन () कहते हैं बनाया जाता है। जब इस जीन को पौधे में डाला जाता है तो पौधा कीटनाशक उत्पन्न करता है जिससे वह कीटों के प्रति प्रतिरोधक हो जाता है।

जीनांतरण का इतिहास:
पहला जीनांतरित पौधा सन् 1982 में उत्पन्न किया गया था। यह पौधा एक प्रतिजैविक प्रतिरोधक तम्बाकू पौधा था। इसके बाद तो अनेक प्रकार के ऐसे जीनांतरिक पौधों का विकास हुआ जो कीटनाशक और पीड़कनाशक होने के साथ ही पोषक तत्वों की अधिक मात्रा रखने के साथ ही अधिक उपज भी देते हैं। सन् 1994 में अमेरिका में ऐसा जीनांतरिक टमाटर बाजार में आया जो काफी समय तक खराब नहीं होता था। सन 2000 में वैज्ञानिकों ने अधिक पोषक तत्वों को रखने वाले जीनांतरिक ‘सुनहरे चावलों’ का विकास किया।

बीटी कॉटन को सन 2002 में कानूनी रूप से मान्यता मिली। भारत में यह पहली जीनांतरित व्यवसायिक फसल थी। उस समय माना गया था कि कपास की इस नयी किस्म से कपास का उत्पादन बढ़ेगा। आज भारत विश्व में कपास उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। भारत में बीटी बैंगन, बीटी चावल, बीटी भिंडी, जीनांतरिक टमाटरों को कानूनी मान्यता देने के तहत उनका परिक्षण चल रहा है।

जैनेटिक इंजीनियरिंग के कई फायदे भी हैं। जैसे कुछ सालों पहले पूसा के वैज्ञानिकों ने रामदाने का जीन निकालकर आलू में डाल दिया, जिससे आलू में प्रोटीन की मात्रा बढ़ गई। अब ऐसे अनुसंधान से विकासशील या गरीब देशों में होने वाली कुपोषण की समस्या से छुटकारा मिल सकता है। इसी तरह सोयाबीन की ऐसी किस्म तैयार की गई है, जो खरपतवार नाशकों को सहन कर लेती है। ऐसे ही मक्का में भी ऐसी किस्म तैयार की गई है, जिसमें कीड़ा नहीं लगता। इसी प्रकार अब अगर हम धान की ऐसी किस्म विकसित कर लें जो गेहूं जितना पानी ही उपयोग करे, तो पानी की कितनी बचत हो।

जीनांतरिक फसलें और सावधानी:
एक ओर जहां अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि विश्व स्तर पर जीनांतरिक फसलों की स्वीकार्यता बढ़ी है वहीं ऐसी फसलों को भोजन के रूप में उपयोग करने संबंधी विवाद भी बढ़ रहे हैं। जहां एक ओर जीनांतरिक फसलों की मदद से खाद्यात्रों के भंडारण से निपटने के साथ ही कुपोषण की समस्या को हल करने का दावा किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर अप्राकृतिक परिवर्तित फसलों के बढ़ते उपयोग को लेकर सुरक्षा के प्रति चिंता भी जाहिर की जा रही है।

वैसे जीनियागरी की तकनीक में कोई खराबी नहीं है, या कहें कि इस सोच में कोई कमी नहीं है। बस इसके पर्यावरण पर पड़ने वाले खतरों की ठीक से जांच की जाने की जरूरत है। हां, और इसके लिए किसी भी बीज को बाजार में बेचने से पहले, उसकी सही जांच और कई वर्षों तक उसका खेत में परीक्षण किया जाना जरूरी है।

नई-नई तरक्की, शोध, तकनीकों के साथ, नई-नई जिम्मेदारियां भी आती हैं, जिनका सही पालन करना जरूरी है। हम अगर मानक सभ्यता और मानव समाज के कल्याण को ध्यान में रखकर शोध करेंगे तो नतीजे अच्छे ही निकलेंगे।
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लेखक परिचय: 
नवनीत कुमार गुप्ता पिछले दस वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन आदि जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पर्यावरण संरक्षण जागरूकता के लिए प्रयासरत हैं। आपकी विज्ञान संचार विषयक लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाश‍ित हो चुकी हैं तथा इन पर गृह मंत्रालय के ‘राजीव गांधी ज्ञान विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार' सहित अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आप विज्ञान संचार के क्षेत्र में कार्यरत संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ से सम्बंद्ध हैं। आपसे मेल आईडी ngupta@vigyanprasar.gov.in पर संपर्क किया जा सकता है।

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वैज्ञानिक चेतना को समर्पित इस यज्ञ में आपकी आहुति (टिप्पणी) के लिए अग्रिम धन्यवाद। आशा है आपका यह स्नेहभाव सदैव बना रहेगा।

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Scientific World: क्या है जीएम फसलों की सच्चाई?
क्या है जीएम फसलों की सच्चाई?
जीएम अथवा जीनांतरित फसलें क्या हैं, ये कैसे तैयार की जाती हैं, इनकी शुरूआत कैसे हुई तथा इनके क्या लाभ हैं? इन सभी के बारे में विस्तार से बताता उपयोगी आलेख।
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