डायन : औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका: स्वयम्बरा वे बचपन के दिन थे. मोहल्ले में दो बच्चों की मौत होने के बाद काना-फूसी शु...
डायन : औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका:
वे बचपन के दिन थे. मोहल्ले में दो बच्चों की मौत होने के बाद काना-फूसी शुरू हो गयी और एक बूढी विधवा को 'डायन' करार दिया गया. हम उन्हें प्यार से 'दादी' कहा करते थे. लोगों की ये बातें हम बच्चों तक भी पहुंचीं और हमारी प्यारी-दुलारी दादी एक 'भयानक डर' में तब्दील हो गयीं. उनके घर के पास से हम दौड़ते हुए निकलते कि वो पकड़ न लें. उनके बुलाने पर भी पास नहीं जाते. उनके परिवार को अप्रत्यक्ष तौर पर बहिष्कृत कर दिया गया. आज सोचती हूँ तो लगता है कि हमारे बदले व्यवहार ने उन्हें कितनी 'चोटें' दी होंगी. और ये सब इसलिए कि हमारी मानसिकता सड़ी हुई थी. जबकि हमारा मोहल्ला बौद्धिक(?) तौर पर परिष्कृत(?) लोगों का था!
वक़्त बीता, हालात बदले. पर डायन कहे जाने की यातना से स्त्री को आज भी मुक्ति नहीं मिली है. बिहार के एक दैनिक समाचार-पत्र में इसी माह की 7 से 12 तारीख के बीच, ऐसी चार खबरें छपीं. यानी की छह दिनों में चार बार ऐसी घटना हुई, जिनमे से दो में 'हत्या' कर दी गयी. पर इससे ये कतई न सोचें कि बिहार में ही ऐसी अमानवीय प्रथाएं हैं. ये बेशर्मी यहीं तक ही सीमित नहीं. संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2003 में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 1987 से लेकर 2003 तक, 2 हजार 556 महिलाओं को डायन कह कर मार दिया गया.
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में 2008-2010 के बीच डायन कहकर 528 औरतों की हत्या की गयी. क्या ये आंकडे चौंकाने के लिए काफी नहीं कि मात्र एक अन्धविश्वास के कारण इतनी हत्याएं कर दी गयी?
राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक भारत में विभिन्न प्रदेशों के पचास से अधिक जिलों में डायन प्रथा सबसे ज्यादा फैली हुई है. मीडिया के कारण (भले ये उनके लिए महज टी. आर. पी. या सर्कुलेशन बढ़ने का तमाशा मात्र हो) कुछ घटनायें तो सामने आ जाती हैं पर कई ऐसी कहानियां दबकर रह जाती होंगी. बेशक ये बातें आपके-हमारे बिलकुल करीब की नहीं, गांव-कस्बों की हैं. किसी खास समुदाय या वर्ग की हैं, पर सिर्फ इससे, आपकी-हमारी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती.
ध्यान दें, ये महज़ खबरें नहीं, जिन्हें एक नज़र देखकर आप निकल जाते हैं. इनमें एक स्त्री की 'चीख' है, उसका 'रुदन' है, उसकी 'अस्मिता' के तार-तार किये जाने की कहानी है, अन्धविश्वास का भंवर जिसका सब कुछ डुबो देता है और हमारा 'सभ्य' समाज इसे 'डायन' कहकर खुश हो लेता है.
'डायन', क्या इसे महज अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीति मान लिया जाये या औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका. आखिर डायन किसी स्त्री को ही क्यूँ कहा जाता है? क्यूँ कुएं के पानी के सूख जाने, तबीयत ख़राब होने या मृत्यु का सीधा आरोप उसपर ही मढ़ दिया जाता है? असल में औरतें अत्यंत सहज, सुलभ शिकार होती हैं क्यूंकि या तो वो विधवा, एकल, परित्यक्ता, गरीब,बीमार, उम्रदराज होती हैं या पिछड़े वर्ग, आदिवासी या दलित समुदाय से आती हैं, जिनकी जमीन, जायदाद आसानी से हडपी जा सकती है. ये औरतें मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से इतनी कमजोर होती हैं कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार की शिकायत भी नहीं कर पातीं. पुलिस भी अधिकतर मामलों में मामूली धारा लगाकर खानापूर्ति कर लेती है.
हैरानी होती है कि लगभग हर गाँव या कस्बे में किसी न किसी औरत को 'डायन' घोषित कर दिया जाता है. मैंने कहीं नहीं देखा कि कभी किसी पुरूष को डायन कहा गया हो. या इस आधार पर उसकी ह्त्या कर दी गयी हो. क्यूंकि ऐसे में अहम् की संतुष्टि कहां हो पाएगी. और यह बात कहने-सुनने तक ही कहां सीमित होती है. जब भीड़ की 'पशुता' अपनी चरम पर पहुंचती है तब डायन कही जानेवाली औरत के कपडे फाड़ दिए जाते हैं... तप्त सलाखों से उन्हें दागा जाता है... मैला पिलाया जाता है... लात-घूसों, लाठी-डंडों की बौछारें की जाती है ...नोचा-खसोटा जाता है और इतने पर मन न माने तो उसकी हत्या कर दी जाती है. उनमें से कोई अगर बच भी जाये तो मन और आत्मा पर पर लगे घाव उसे चैन से कहा जीने देते हैं. 'आत्महत्या' ही उनका एकमात्र सहारा बन जाता है.
औरतों पर अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ घिनौने अपराधों को लेकर अक्सर आवाज़ उठाई जाती है. लेकिन ऐसी घटनायें हमें हमारा असली चेहरा दिखाती हैं. हम स्वयं को 'सभ्य' कहते और मानते हैं पर इनमें हमारा खौफनाक 'आदिम' रूप ही दीखता है. हमने इसकी आदत बना ली है. ये शर्मनाक है....पर हम भी, पूरे बेशर्म हैं! (साभार: खबरगंगा)
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में 2008-2010 के बीच डायन कहकर 528 औरतों की हत्या की गयी. क्या ये आंकडे चौंकाने के लिए काफी नहीं कि मात्र एक अन्धविश्वास के कारण इतनी हत्याएं कर दी गयी?
राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक भारत में विभिन्न प्रदेशों के पचास से अधिक जिलों में डायन प्रथा सबसे ज्यादा फैली हुई है. मीडिया के कारण (भले ये उनके लिए महज टी. आर. पी. या सर्कुलेशन बढ़ने का तमाशा मात्र हो) कुछ घटनायें तो सामने आ जाती हैं पर कई ऐसी कहानियां दबकर रह जाती होंगी. बेशक ये बातें आपके-हमारे बिलकुल करीब की नहीं, गांव-कस्बों की हैं. किसी खास समुदाय या वर्ग की हैं, पर सिर्फ इससे, आपकी-हमारी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती.
ध्यान दें, ये महज़ खबरें नहीं, जिन्हें एक नज़र देखकर आप निकल जाते हैं. इनमें एक स्त्री की 'चीख' है, उसका 'रुदन' है, उसकी 'अस्मिता' के तार-तार किये जाने की कहानी है, अन्धविश्वास का भंवर जिसका सब कुछ डुबो देता है और हमारा 'सभ्य' समाज इसे 'डायन' कहकर खुश हो लेता है.
'डायन', क्या इसे महज अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीति मान लिया जाये या औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका. आखिर डायन किसी स्त्री को ही क्यूँ कहा जाता है? क्यूँ कुएं के पानी के सूख जाने, तबीयत ख़राब होने या मृत्यु का सीधा आरोप उसपर ही मढ़ दिया जाता है? असल में औरतें अत्यंत सहज, सुलभ शिकार होती हैं क्यूंकि या तो वो विधवा, एकल, परित्यक्ता, गरीब,बीमार, उम्रदराज होती हैं या पिछड़े वर्ग, आदिवासी या दलित समुदाय से आती हैं, जिनकी जमीन, जायदाद आसानी से हडपी जा सकती है. ये औरतें मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से इतनी कमजोर होती हैं कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार की शिकायत भी नहीं कर पातीं. पुलिस भी अधिकतर मामलों में मामूली धारा लगाकर खानापूर्ति कर लेती है.
हैरानी होती है कि लगभग हर गाँव या कस्बे में किसी न किसी औरत को 'डायन' घोषित कर दिया जाता है. मैंने कहीं नहीं देखा कि कभी किसी पुरूष को डायन कहा गया हो. या इस आधार पर उसकी ह्त्या कर दी गयी हो. क्यूंकि ऐसे में अहम् की संतुष्टि कहां हो पाएगी. और यह बात कहने-सुनने तक ही कहां सीमित होती है. जब भीड़ की 'पशुता' अपनी चरम पर पहुंचती है तब डायन कही जानेवाली औरत के कपडे फाड़ दिए जाते हैं... तप्त सलाखों से उन्हें दागा जाता है... मैला पिलाया जाता है... लात-घूसों, लाठी-डंडों की बौछारें की जाती है ...नोचा-खसोटा जाता है और इतने पर मन न माने तो उसकी हत्या कर दी जाती है. उनमें से कोई अगर बच भी जाये तो मन और आत्मा पर पर लगे घाव उसे चैन से कहा जीने देते हैं. 'आत्महत्या' ही उनका एकमात्र सहारा बन जाता है.
औरतों पर अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ घिनौने अपराधों को लेकर अक्सर आवाज़ उठाई जाती है. लेकिन ऐसी घटनायें हमें हमारा असली चेहरा दिखाती हैं. हम स्वयं को 'सभ्य' कहते और मानते हैं पर इनमें हमारा खौफनाक 'आदिम' रूप ही दीखता है. हमने इसकी आदत बना ली है. ये शर्मनाक है....पर हम भी, पूरे बेशर्म हैं! (साभार: खबरगंगा)
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प्रस्तुति बुधवार के चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंभारत ही क्या शिक्षित और विकसित कहे जाने वाले देशों में भी औरतों को डायन कहने की परम्परा थी बल्कि वहाँ तो उन्हें जिन्दा भी जला दिया जाता था।
जवाब देंहटाएंSharm se doob marna chahiye aisa karne walon ko.
जवाब देंहटाएंई-पंडित जी,
जवाब देंहटाएंये कहना कि ऐसा हमारे यहां ही नही, कहीं और भी था, सच्चाई से मुख मोड़ना है। इस तरह की घटनाये शर्म का विषय है, कहीं हो ना हो, लेकिन हमारे समाज मे है। और इसे दूर होना चाहिये। सम्पूर्ण वैज्ञानिक शिक्षा ही एकमात्र उपाय है!
jaayaj chinta aur saraahaneey prayaas
जवाब देंहटाएंये हमें आज भी अपने अन्धविश्वासी और शिक्षित होने के बाद भी पिछड़ी सोच का बतलाते हैं और इसमें शिक्षित जब छुप होकर तमाशा देखते हैं तो इससे अधिक शर्म की बात और कुछ भी नहीं हो सकती है.
जवाब देंहटाएंसामाजिक वैषम्य- रोज़ रचती है, ये कुरीत ,नागर भाव का अभाव है ,सिविलिती का अभाव है ये तमाम घटनाएं ,तभी शिक्षा चाहिए सबको ,दिल दहलाने वाली घटनाएं होतीं हैं ये तमाम लेकिन दिल है कि दहलता ही नहीं है प्रशासन को सांप सूंघ जाता है ,वोट -जोड़ की फ़िक्र रहती है इसीलिए चाहे बात खाप पंचायतों की हो या इस वहशीपन की परिदृश्य एक ही है ,हम बहुत ज़हीन (इसे कमीं पढ़ें )लोग हैं .
जवाब देंहटाएं.कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
बुधवार, 22 अगस्त 2012
रीढ़ वाला आदमी कहलाइए बिना रीढ़ का नेशनल रोबोट नहीं .
What Puts The Ache In Headache?
दायाँ कह के कई बार अपना व्यक्तिगत मतलब भी सिद्ध करते हैं लोग ... प्रताडित करने के लिए ... इसलिए सावधान रहने की जरूरत भी है ...
जवाब देंहटाएंरेखा जी की बात से सहमत.
जवाब देंहटाएंऐसी घटनाएँ बेहद शर्मनाक हैं.सावधानी की आवश्यकता है.
नि:संदेह यह ण्क घ्रणित कुप्रथा है, जिसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है। यह कुप्रथा किन सामाजिक कारणों से चल रही है और इसका कैसे निवारण हो सकता है, इस पर 'साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन' पर डॉ0 दिनेश मिश्र जी का लेख भी प्रकाशित हुआ है। कृपया उसे भी जरूर पढ़ें।
जवाब देंहटाएंNice post.
जवाब देंहटाएंआभार जो आप सबने इसे समय दिया...असल में परिस्थितियों ने इतनी तेज़ी से करवट लिया कि कई दिनों तक सोचने, पढने का होश नहीं रहा...आज नेट पर आयी तो पाया कि रचना को 'तस्लीम' पर लिंक किया है...अच्छा लगा..ये प्रथा इक्कीसवी सदी के भारत के लिए सबसे घृणित है...आपलोगों की 'टिप ' से महसूस हुआ कि इसके खिलाफ आवाज़ उठाने में 'आप' हमारे साथ है .बहुत बहुत शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंyha ek buri pratha haior ish gunha ka dand stick hona chahia
जवाब देंहटाएंyha ek buri pratha haior ish gunha ka dand stick hona chahia
जवाब देंहटाएंyha ek buri pratha haior ish gunha ka dand stick hona chahia
जवाब देंहटाएंyha ek buri pratha haior ish gunha ka dand stick hona chahia
जवाब देंहटाएंa
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