मुम्बई भारत की आर्थिक राजधानी होने के साथ-साथ बॉलीवुड के कारण भी सदैव चर्चा का विषय रहती है। किन्तु इस गणेशचतुर्थी पर मुम्बई की मेयर ने...
मुम्बई भारत की आर्थिक राजधानी होने के साथ-साथ बॉलीवुड के कारण भी सदैव चर्चा का विषय रहती है। किन्तु इस गणेशचतुर्थी पर मुम्बई की मेयर ने एक सराहनीय काम करके मुम्बई को एक बार फिर चर्चा के केन्द्र में ला दिया है। मूर्ति विजर्सन से होने वाले जल प्रदूषण को मद्देनजर रखते हुए उन्होंने धर्मभीरू जनता को एक नयी राह दिखाई है। उन्होंने मूर्ति विसर्जन के लिए 12 फिट गहरे 22 कृत्रिम जलाशयों का निर्माण कराया। इनमें से दो जलाशय तो स्वयं उनके आवास में थे। इन जलाशयों में मूर्ति विसर्जन के बाद उसके अवशेषों का पुनर्चक्रण कर उन्हें विभिन्न उपयोगों में ले लिया गया। सिर्फ पर्यावरणवादियों ने ही नहीं बल्कि बौद्धिक वर्ग ने भी मेयर साहिबा के इस कदम की भूरि भूरि प्रशंसा की है।
हिन्दुस्तान एक धर्म प्रधान देश है। प्रत्येक माह यहॉं पर कोई न कोई पर्व या त्यौहार मनाया जाता है। अभी पिछले दिनों देश वासियों ने गणेश चतुर्थी और और दुर्गा पूजा जैसे पर्वों को धूमधाम के साथ मनाया है। पूजा के बाद भक्तजन गणेश जी और दुर्गा जी की मूर्तियों को श्रद्धा के साथ नदियों में विसर्जन करते हैं। यह एक प्राचीन परम्परा है, जो सदियों से मनायी जाती रही है। लेकिन दिनों दिन संकरी होती जाती नदियों और पानी की किल्लत के चलते मूर्ति विसर्जन के कारण नदियों का यह प्रदूषण काफी दिक्कतें उत्पन्न करने लगा है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार उत्सवों के दौरान नदियों में पारे की मात्रा काफी बढ़ जाती है। इसके साथ साथ पानी में क्रोमियम, तॉंबा, निकेल, जस्ता, लोहा और आर्सेनिक की मात्रा भी बढ़ जाती है। किन्तु सबसे ज्यादा समस्या पैदा करता है मूर्तियों को बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाला प्लास्टर आफ पेरिस। इसके साथ दिक्कत यह होती है कि यह पानी में देर से घुलता है और वह पानी में आक्सीजन की मात्रा को भी प्रभावित करता है। इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव मछलियों के मरने के रूप में हमारे सामने आता है।
अगर हम लखनऊ शहर की ही बात करें, तो एक मोटे अनुमान के मुताबिक यहॉं पर लगभग 1000 मूर्तियॉं इस दौरान गोमती में विसर्जित की जाती हैं। इससे नदी का पानी जो पहले से ही कम आक्सीजन और प्रदूषण के कारण काफी चर्चा में रहता है, उसमें ठोस पदार्थों की मौजूदगी, पानी की चालकता (कन्डक्टिविटी), जैव रासायनिक आक्सीजन (बायो आक्सीजन) की मॉंग और पानी में घुले हुए आक्सीजन की मॉंग खतरनाक स्तर तक बढ़ जाती है।
इस प्रदूषण से बचने का एक रास्ता जहॉं मुम्बई ने दिखाया है, वहीं दूसरी राह केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी सुझाई है। उनका सुझाव है कि यदि पूजा की मूर्तियों को प्लास्टर ऑफ पेरिस के बजाए चिकनी मिट्टी से बनाया जाए और मूर्तियों का आकार थोड़ा छोटा रखा जाए, तो इस समस्या को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में भगवान गणेश और मॉं दुर्गा के भक्तजन नदियों के उद्धार के लिए इन उपायों पर ध्यान देंगे और अपनी भक्ति को नया आयाम प्रदान करेंगे।
हिन्दुस्तान एक धर्म प्रधान देश है। प्रत्येक माह यहॉं पर कोई न कोई पर्व या त्यौहार मनाया जाता है। अभी पिछले दिनों देश वासियों ने गणेश चतुर्थी और और दुर्गा पूजा जैसे पर्वों को धूमधाम के साथ मनाया है। पूजा के बाद भक्तजन गणेश जी और दुर्गा जी की मूर्तियों को श्रद्धा के साथ नदियों में विसर्जन करते हैं। यह एक प्राचीन परम्परा है, जो सदियों से मनायी जाती रही है। लेकिन दिनों दिन संकरी होती जाती नदियों और पानी की किल्लत के चलते मूर्ति विसर्जन के कारण नदियों का यह प्रदूषण काफी दिक्कतें उत्पन्न करने लगा है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार उत्सवों के दौरान नदियों में पारे की मात्रा काफी बढ़ जाती है। इसके साथ साथ पानी में क्रोमियम, तॉंबा, निकेल, जस्ता, लोहा और आर्सेनिक की मात्रा भी बढ़ जाती है। किन्तु सबसे ज्यादा समस्या पैदा करता है मूर्तियों को बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाला प्लास्टर आफ पेरिस। इसके साथ दिक्कत यह होती है कि यह पानी में देर से घुलता है और वह पानी में आक्सीजन की मात्रा को भी प्रभावित करता है। इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव मछलियों के मरने के रूप में हमारे सामने आता है।
अगर हम लखनऊ शहर की ही बात करें, तो एक मोटे अनुमान के मुताबिक यहॉं पर लगभग 1000 मूर्तियॉं इस दौरान गोमती में विसर्जित की जाती हैं। इससे नदी का पानी जो पहले से ही कम आक्सीजन और प्रदूषण के कारण काफी चर्चा में रहता है, उसमें ठोस पदार्थों की मौजूदगी, पानी की चालकता (कन्डक्टिविटी), जैव रासायनिक आक्सीजन (बायो आक्सीजन) की मॉंग और पानी में घुले हुए आक्सीजन की मॉंग खतरनाक स्तर तक बढ़ जाती है।
इस प्रदूषण से बचने का एक रास्ता जहॉं मुम्बई ने दिखाया है, वहीं दूसरी राह केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी सुझाई है। उनका सुझाव है कि यदि पूजा की मूर्तियों को प्लास्टर ऑफ पेरिस के बजाए चिकनी मिट्टी से बनाया जाए और मूर्तियों का आकार थोड़ा छोटा रखा जाए, तो इस समस्या को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में भगवान गणेश और मॉं दुर्गा के भक्तजन नदियों के उद्धार के लिए इन उपायों पर ध्यान देंगे और अपनी भक्ति को नया आयाम प्रदान करेंगे।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब गोमती नदी की दुर्दशा पर आपने पोस्ट लिखी थी। मुम्बई की मेयर ने जो राह दिखाई है, इससे नदियों का वास्तव में उद्धार हो सकेगा।
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर पोस्ट के लिए आपको हार्दिक साधुवाद।
सच्ची पूजा वही है जो प्रदूषण न अधिक करे ..सोच विचार कर अब यह सब करना चाहिए ..दिल्ली में यमुना नदी का जो हाल है वह देख कर दुःख होता है
जवाब देंहटाएंsundar post agar jan sankhya khud bhi jag jaye to is se behtar kya ho sakta he...
जवाब देंहटाएंउन्होंने मूर्ति विसर्जन के लिए 12 फिट गहरे 22 कृत्रिम जलाशयों का निर्माण कराया। इनमें से दो जलाशय तो स्वयं उनके आवास में थे।
जवाब देंहटाएं'very intellectual thought and commendable effort. thanks for the awareness through this artical'
regards
achcha lekh aur achche vichar
जवाब देंहटाएंसच में सराहनीय कदम.
जवाब देंहटाएंएक सार्थक आलेख. इस तरह फैल रहे प्रदूषण पर धार्मिक भावनाओं से उपर उठ कर सोचना बहुत जरुरी हो गया है.
जवाब देंहटाएंnice post
जवाब देंहटाएंअत्यन्त सराहनीय प्रयास है . इससे एक तो सदियों पुरानी परम्परा कायम रही , आस्था भी बरकरार रही और प्रदुषण भी नही हुआ .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन तहरीर है...लिखते रहें...
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार पोस्ट है.
जवाब देंहटाएंआस्था को नए आयाम देने की बहुत बड़ी ज़रूरत है. आख़िर हमारे देश में नदियों की, पेड़ों की, पहाड़ों की भी तो पूजा होती है. ऐसे में हमारी जिम्मेदारी है कि जीवन की रक्षा करने वाली नदियों, पेड़ों और पहाड़ों को बचाएं. मुम्बई में मूर्ति विसर्जन के बारे में किए गए नए इंतजाम के बारे में जानकारी के लिए धन्यवाद. हमें आशा है कि हमारे शहर में भी दुर्गा पूजा में मूर्ति विसर्जन का ऐसा ही नया इंतजाम किया जायेगा.
शिव कुमार जी, मेरी समझ से इस तरह के इंतजाम के लिए सरकार के ही भरोसे नहीं रहा जाना चाहिए। अगर इस दिशा में लोग स्वयं आगे आएं, तो ज्यादा अच्छी बात है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल इस समाज का प्रत्येक व्यक्ति जब तक भागीदारी नही लेगा इस समाज का विकास नही हो सकता
जवाब देंहटाएंbikl sahi bat hai ....aap kabhi kamare blog par bhi aao
जवाब देंहटाएंkabhi hamare yaha bhi aayi ee
जवाब देंहटाएंkabhi hamare yaha bhi aayi ee
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रयास है, लेकिन अंधविशवास मै फ़ंसी जनता इसे मानेगी भी???
जवाब देंहटाएंआप का लेख पढ कर लोगो के कर्त का पता चलता है, हम कब सोचेगे???
धन्यवाद
Bahut hi sundar vichar hain. Is par awashya dhyan diya jana chahiye.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंSubh vichar, evmastu.
जवाब देंहटाएंआपका सुझाव तो उत्तम है, पर क्या इससे लोगों के कानों पे जूं रेंगेगी?
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पहल !
जवाब देंहटाएंaap ki rai se me sahamat hu
जवाब देंहटाएंis tarah ki vichar shakti kai bar vichardhara badal deti he
regards
इस जानकारी के लिए धन्यवाद! सचमुच एक सराहनीय प्रयास है. इसके साथ ही यदि मूर्तिकारी मे प्रयुक्त होने वाले पदार्थों के प्रति भी जागरूकता फैलाई जाए और सटीक क़ानून बनाए जाएँ तो हर्षोल्लास की हमारी प्राचीन परम्पराओं को बनाए रखते हुए भी पर्यावरण-रक्षण किया जा सकेगा.
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा, यदि चिकनी मिटटी की मूर्ति छोटे आकार की बनाई जाए और उसकी साज सज्जा के लिए प्राकृतिक रंगों को उपयोग में लाया जाए, तो भी इस समस्या से काफी हद तक बचा सकता है।
जवाब देंहटाएंSubh Vichar.
जवाब देंहटाएंऐसा ही होना चाहिए, इसके लिए सबको मिलकर जन-चेतना जगानी चाहिए,लोग जानेंगे तो मानेंगे भी।
जवाब देंहटाएंसराहनीय आलेख. पर्यावरण-रक्षण का एक सचमुच सराहनीय प्रयास. इस सुन्दर पोस्ट के लिए हार्दिक धन्यवाद!
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