मैं इस दुनिया को अक्सर देखकर हैरान होता हूँ न मुझसे बन सका छोटा सा घर दिन रात रोता हूँ ख़ुदाया तूने कैसे ये जहां सारा बना डाला ? म...
मैं इस दुनिया को अक्सर देखकर हैरान होता हूँ
न मुझसे बन सका छोटा सा घर दिन रात रोता हूँ
ख़ुदाया तूने कैसे ये जहां सारा बना डाला ?
न मुझसे बन सका छोटा सा घर दिन रात रोता हूँ
ख़ुदाया तूने कैसे ये जहां सारा बना डाला ?
महेश भट्ट की फिल्म 'आवारगी' के लिए गाई गयी ग़ुलाम अली की यह एक लाजवाब ग़ज़ल है, जिसमें आज के महानगरीय हालात को बहुत ही सुंदर ढ़ंग से बयां किया गया है।
भारत में जिस तेजी से गाँवों में लाभ के साधन समाप्त हो रहे हैं, उतनी ही तेजी से लोगों का शहरों की ओर पलायन हो रहा है। इसी क्रम में कस्बों का नगरों में, नगरों का महानगर में परिवर्तन होता जा रहा है। वास्तव में देखा जाए तो यक एक ऐसी वैश्विक प्रक्रिया है, जो न तो कभी बंद थी और न ही जिसे आने वाले दिनों में बाधित किया जा सकता है।
वाशिंगटन आधारित एक गैर सरकारी संगठन 'वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट' की वर्ष 2007 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले पाँच दशकों में विश्व की नगरीय आबादी में चार गुना वृद्धि हो चुकी है। यह आबादी जहां 1950 में सिर्फ 73 करोड़ के आसपास थी, अब 03 अरब से अधिक हो चुकी है।
अगर हम आँकड़ों की बात करें तो जहां 1850 में कुल विश्व की आबादी का सिर्फ 30 प्रतिशत जनता नगरों में निवास करती थी, वहीं सन 2000 तक आते-आते यह प्रतिशत 47 तक पहुंच चुका है और वर्ष 2030 तक इस प्रतिशत के 60 के आसपास पहुंच जाने की सम्भावना है। तेजी से बढ़ते हुए इस नगरीकरण के कारण जहाँ अनेक तरह के अवसर उपलब्ध होते हैं, वहीं तमाम तरह की समस्याएँ भी उत्पन्न होती हैं, जिनमें निवास, खान-पान, मूलभूत आवश्यकताएं, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार जैसे बिन्दु मुख्य रूप से उभरते हैं।
एक ओर जहाँ नगरों में मल्टीप्लेक्स कल्चर तेजी से बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर स्लम का आकार भी दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ता जा रहा है। आंकड़ों की बात की जाए तो पूरे विश्व में कुल शहरी आवासों में से 18 प्रतिशत आवास लगभग 12.5 करोड़ स्थायी प्रकृति के नहीं हैं। और इन समस्त आवासों में से लगभग 25 प्रतिशत आवास शहरी निर्माण मानकों को पूरा नहीं करते हैं। अगर विकासशील देशों की बात की जाए, तो ऐसे हर 10 गैरस्थायी आवासों में से लगभग ४ ऐसे आवास हैं, जो बाढ़ Flood, भूस्खलन, तूफान, भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील स्थानों पर रहते हैं।
महानगरीय जीवन एक ऐसी जटिल संरचना के समान है, जो अनियंत्रित गति से बढ़ती जा रही है। और नतीजतन बढ़ रहे हैं उसी क्रम में अव्यवस्थाएं और चुनौतियाँ। इन चुनौतियों को समझने में सहायक हो सकती है टी0वी0 जयन की सद्यप्रकाशित पुस्तक 'महानगर'। विज्ञान प्रसार द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक, शहरीकरण, उसकी प्रक्रिया, उसकी जटिलताओं एवं उसकी समस्याओं को समझने का एक अच्छा माध्यम है। सिर्फ समाज विज्ञानियों ही नहीं, जीवन को नजदीक से समझने के इच्छुक लोगों और विद्यार्थियों के लिए यह एक अत्यंत उपयोगी पुस्तक है।
पुस्तक- महानगर
लेखक- टी0 वी0 जयन
अनुवाद- वसीम हादी
प्रकाशक- विज्ञान प्रसार, ए-50, इंस्टीटयूशनल एरिया, सेक्टर-62, नोएडा-201307 फोन- 0120-2404430/35
मूल्य- 110 रूपये।
Kuchh jyotish vyotish ki bat lijho to padhne men bhi maja aaye....
जवाब देंहटाएंaur log isko vikas kahte hain
जवाब देंहटाएंअगर गाँव में सुविधा मिले तो लोग पलायन क्यों करेंगे
जवाब देंहटाएंNice Book.
जवाब देंहटाएंbadhiya likha hai.
जवाब देंहटाएंPrayas Shandar hai!
जवाब देंहटाएं"RAM"
gaavon me subheedha badana hogaa taakee palayan rookee
जवाब देंहटाएंकिताब तो ढंग की लग रही है देखें हमारे हाथ कब लगती है !
जवाब देंहटाएंऔर हाँ ये महानगर वगैरह तो 'बनाने वाले' के 'बनाये हुए' ने बनाये हैं ! वैसे इन दोनों के दरमियान ज्यादा नहीं बस लोन सुविधा और इंजीनियरों / ठेकेदारों पर डिपेंडेंसी का फ़र्क है जी :)
जंगल छोड़ कर शहर में रहने आये ...मगर एक जंगल यहाँ भी बसा है इंसानों का ...
जवाब देंहटाएंखुदाया तूने ये कैसा सारा जहाँ बना डाला ...ग़ज़ल के सन्दर्भ के साथ महानगर का चित्रण अच्छा रहा ...!!