Hunger Problem in India in Hindi
ग्लोबल हंगर इंडेक्स द्वारा भुखमरी और कुपोषण की स्थिति को लेकर अक्टूबर 2016 के द्वितीय सप्ताह में जारी रिपोर्ट में 118 देशों की सूची में भारत 97वें पायदान पर है। आश्चर्य का विषय है कि भारत में व्याप्त इस भुखमरी को नियंत्रित करने के लिए महज 200 लाख टन खाद्यान्न की आवश्यकता है, जबकि गोदामों में 620 लाख टन खाद्यान्न भरा पड़ा है! यह मात्रा आवश्यकता से 3 गुना ज्यादा है, इसके बावजूद तरीकबन 30 करोड़ भारतीय भूखे और कुपोषित हैं।
बढ़ती ही जा रही है भूख की विकरालता !
-शिरीष खरे
भारत में भूख अब विकराल रुप धारण कर चुकी है. सामान्य (प्रोटीन ऊर्जा) कुपोषण की स्थिति गरीब अफ्रीकी देशों से भी बदतर है. यहां 50 फीसदी व्यस्क औरतों को खून की कमी ने जकड़ लिया है. आधिकारिक आकड़ों के अनुसार स्कूल जाने वाले देश का हर दूसरा बच्चा सामान्य या फिर अति कुपोषण का शिकार है.
देश की 44 प्रतिशत जनता अंतर्राष्ट्रीय मानक (1 डालर प्रतिदिन) से कम कमा पाती है. 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी में कुपोषण और भूख की मात्रा ज्यादा है. खासकर पिछड़ी अनुसूचित जातियों, जनजातियों, महिलाओं और 5 साल तक के बच्चों में. कुुपोषण के कारण देश का भविष्य समझे जाने वाले 47 प्रतिशत बच्चों का अपनी उम्र के अनुपात में लंबाई और वजन नहीं बढ़ पाता है. कुपोषण के कारण ही 20 से 49 साल की 50 फीसदी महिलाएं खून की कमी महसूस करती है.
दाल की उपलब्धता सलाना प्रति व्यक्ति महज 10 किलोग्राम है. यदि 200 लाख टन खाद्यान्न गोदामों में हो तो कहते हैं खाद्य की स्थिति काबू में रहती हैं. जबकि गोदामों में 620 लाख टन खाद्यान्न भरा पड़ा है. यह मात्रा आवश्यकता से 3 गुना ज्यादा है. इसके बावजूद तरीकबन 30 करोड़ भारतीय भूखे और कुपोषित हैं. जाहिर है भोजन गोदामों से गरीबों की थाली तक नहीं पहुंच रहा है.
सालाना प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता एक सौ पैंतालीस किलोग्राम थी, अब वह मात्रा लगातार घटने की ओर है. झारखंड के संथाल परगना में आदिवासी समूहों को साल में कई बार भूख सताती है. ‘राष्ट्रीय प्रतिदर्श संस्थान’ के अनुमानों के अनुसार इस राज्य में लगभग 10.4 प्रतिशत परिवारों को मौसमी भूख तथा 25 प्रतिशत परिवारों को लगातार भूख का सामना करना पड़ता हैं. पूरी खाद्य सुरक्षा 3 से 4 महीने तक ही रहती है. यहां वर्षा की अनिश्चितता, एक फसलीय खेती, सिंचाई की अल्प सुविधा, घटते हुए वन, बढ़ती आबादी, भूमि की कम उत्पादकता एवं मुख्य निर्भरता भुखमरी का असली कारण हैं.
अन्नपूर्णा योजना झारखंड में बहुत देर से शुरू हुई. इस योजना के तहत वृद्ध और गरीब लोगों को 10 किलोग्राम अनाज निशुल्क दिया जाता है. लेकिन आंवटित अनाज का महज 60 प्रतिशत उठाव ही हो पाता है. यही हाल दूसरी योजनाओं का भी है.
आमतौर पर सरकार भूख से होने वाली मौतों के मामलों को छिपाती है. जैसे सितम्बर 2004 को मोहनपुर प्रखंड के विभिन्न गांवों में 7 दिनों के अंदर भूख से 3 लोगों की मौत हुई. बतरूवाहीड गांव वालों का कहना है कि मृतक चमरू सिंह चारवाहे का काम करता था. खेती लायक थोड़ी जमीन भी थी जो उसने अपनी बेटी की शादी के चलते गिरवी रख दी. उसके घर में दो जवान बेटिया और हैं. उन्हीं की शादी की चिंता में वह कमजोर होता गया. घरवालों ने बताया कि मरने के पहले तक वह ‘भूख-भूख’ कह कर तड़प रहा था. इस समय घर में खाने के लिए एक दाना तक नहीं है.
वहीं चरकी पहड़ी में 60 साल की वंशी मांझी ने भूख से लड़ते हुए दम तोड़ दिया. वह नि-संतान था. घर में कमाने वाला कोई नहीं था. तीसरी मौत जगरनाथी गांव में हुई जहां जागेश्वर महतो पानी भरने का काम करता था. घटना के दिन वह चावल लाने गया था. बहुत भूख था इसलिए रास्ते में ही बेहोश होकर गिर गया. बाद में उसकी मौत हो गई. इन मौतों की खबर सुनते ही कई राजनैतिक दलों के नेता आए. सबने प्रशासन की लापरवाही बताया. इसी साल संताल परगना में 10 लोगों की मौत हुई. चुनावी साल नहीं है इसलिए मामला ठण्डे बस्ते में है.
झारखंड सहित पूरे भारत में भूख से जुड़ी शब्दावली को लेकर कोई तर्कसंगत परिभाषाएं नहीं बनी हैं. यहां भूख से मौतों के वैज्ञानिक मापदंड खोजने और उन्हें तय करने की कोशिश भी नहीं हुई हैं. आज भुखमरी एक तकनीकि सवाल है, लेकिन यह सामाजिक और आर्थिक असमानता से गहराई से जुड़ा हुआ है। जिसे समझने की जरूरत है।
दरअसल, आर्थिक विकास का संतुलित ढ़ांचा और उचित वितरण का तरीका ही भूख की समस्या को सुलझा सकता है. रोजगार के अवसरों, आर्थिक साधनों की प्राप्ति और भोजन की सामग्री पर रियायत बरतना जरूरी हो गया है. बच्चों को फायदा पहुंचाने वाले भोजन की डिलावरी के खास तरीकों को अपनाना होगा. लेकिन इन बातों को कहने से अधिक लागू करने की जरूरत है.
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शिरीष खरे का यह लेख हमें ईमेल से प्राप्त हुआ है। वे 'चाईल्ड राईटस एण्ड यू', मुबंई के ‘संचार विभाग’ में कार्यरत हैं।
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ispar gambheer vimarsh i aawasyakta hai.
जवाब देंहटाएंपहले मीनू खरे अब शिरीष खरे ? :)
जवाब देंहटाएंप्रभावी लेख.
परन्तु तस्वीर मुझे विदेशियों की लगा रही है !
लेख की प्रमाणिकता के लिए सही तस्वीर होनी चाहिए, शायद...
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंओम भाई आपकी सलाह सिर माथे पर। फोटो बदल दी गयी है।
जवाब देंहटाएंऔर हाँ, जहाँ तक "खरे" लोगों की बात है। तस्लीम हमेशा खरी-खरी बात ही करता है।
समस्या यही है - हमारे यहां कहने को ही करना मान लिया जाने लगा है । जिन्हें करना होता है, वे भी कह कर रह जाते हैं ।
जवाब देंहटाएंपुलिस विभाग में लोकप्रिय एक वाक्यावली इस प्रकार है -
काम मत कर । काम की फिक्र कर । फिक्र का जिक्र कर । तेरा प्रमोशन पक्का ।
हम सब 'फिक्र के जिक्र' के मारे हुए हो गए हैं ।
'खरी-खरी' कहने वाले 'तस्लीम-परिवार' में 'खरे' कहीं नजर नहीं आते :)
जवाब देंहटाएंलेख बहुत सार्थक है।
जवाब देंहटाएंअति चिन्तनिय पोस्ट !
जवाब देंहटाएंराम राम !
आज भुखमरी एक तकनीकि सवाल है, लेकिन यह सामाजिक और आर्थिक असमानता से गहराई से जुड़ा हुआ है।
जवाब देंहटाएं"भूख का विकराल रुप सच में बडा ही भयावह है....एक विचारणीय लेख "
Regards
भुखमरी -सच में ही एक गंभीर समस्या है और भारत में ही नहीं वरण शोध के अनुसार पूरे विश्व में पानी और अनाज की कमी हो रही है.
जवाब देंहटाएंहमारे देश में ,राजनेता सिर्फ़ चुनाव के वक्त इन समस्याओं को याद करते हैं.
एक तरफ़ -कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए स्कूलों में मिड-डे मील का कार्यक्रम चलाया जा रहा है.लेकिन वह तो ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है.कल ही ndtv पर punjab के किसानो की बदहाली पर एक कार्यक्रम आ रहा था जिस में बच्चे भी रोटी को तरसते दिखाए गए. अन्न उपजाने वाले राज्य..या कहिये देश की यह भयावह स्थिति है --समय रहते अगर नहीं चेते तो समस्या विकराल रूप ले लेगी.
लेख के लिए आभार.
समस्या वाकई गम्भीर है,छ्त्तीसगढ भी इससे जूझ रहा है,हालाँकि सरकार इसकी दर मे कमी आने का दावा करती है मगर सरकारी आँकडो पर कितना भरोसा किया जा सकता है.अच्छी पोस्ट.
जवाब देंहटाएंगम्भीर समस्या है। इस पर चिन्तन जरूरी है । जागरूक लेख के लिए आभार
जवाब देंहटाएंइसके लिए कौन जिम्मेवार है? ज़ाहिर है, सरकारें. एक उदाहरण उत्तर प्रदेश का लें. स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी शहर कों इतना कुरूप नहीं किया गया, जितना मायावती सरकार ने लखनऊ को अपने अलग अलग कार्यकाल में किया है. कारगिल के शहीदों की याद में बने स्मृति उपवन में उन्होंने अपनी बेतुकी मूर्तियाँ लगवायीं, जिसे बाद में ख़ुद हटवाया. फिर वहां दशहरा मेला और लखनऊ महोत्सव का आयोजन किया गया. जेल रोड पर आंबेडकर पार्क था, उसे तोड़कर कांशीराम मेमोरियल बनवाया जा रहा है, जिसकी लागत ४०० करोड़ से बढ़कर ७५० करोड़ तक जा चुकी है. आप जानते हैं ७५० करोड़ में दो चंद्रयान भेजे जा सकते हैं. ऐसे एक नहीं दर्जनों मामले हैं.
जवाब देंहटाएं२. इस बीच उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों से भूख से हुई मौतों की ख़बर आ रही है. पश्चिंमी उ.प्र., बुंदेलखंड और पूर्वी उ.प्र. गरीबी, बेरोजगारी, पिछड़ेपन और अभाव की समस्या से जूझ रहे हैं. दूसरी ओर पूरे प्रदेश का सारा धन लखनऊ में खिंचा चला आ रहा है, जिसे मायावती बेकार के कामों में ऐसे खर्च कर रही हैं, जैसे वह पैसे उन्होंने ख़ुद नौकरी करके या मेहनत से कमाया हो.
३. दक्षिण के राज्यों कों देखिये. शिक्षा, विकास, स्वस्थ्य पर ध्यान केंद्रित करके वे कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं. केरल में साक्षरता सौ फीसद है, जबकि उ.प्र. में महज ५६ फीसद. क्या मायावती सरकार की पहली प्राथमिकता शिक्षा और स्वास्थय के क्षेत्र में सुधार नहीं होना चाहिए था? क्या हजारों करोड़ रुपये जो मूर्तियों, पार्कों, मेमोरियलों पर खर्च किए जा रहे हैं, उनसे स्कूल, पोलिटेक्निक, पुस्तकालय, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, अस्पताल नहीं खुलवाए जाने चाहिए थे? क्या उनसे हर हाथ कों रोज़गार और हर सर कों छत नहीं मुहैया करवाई जानी चाहिए थी? जाकिर भाई, एक बार तुमने खाड़ी देशों में रह रहे भारतीयों, उनकी मुश्किलों और दर्द पर कहानी लिखने का ज़िक्र किया था. उ. प्र. के ग्रामीण इलाकों से लाखों लोग मजदूर बन कर खाड़ी देशों में जाते हैं, जिनमें से ज्यादातर मुस्लिम होते हैं. वे नहीं जाते अगर उन्हें काम यहीं मिलता. करोड़ों लोगों कों भूक और गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगार देने वाले ऐसे नेता बड़े से बड़े अपराधियों से भी बुरे हैं. टाईम्स ऑफ़ इंडिया में छपे एक प्लेकार्ड का ध्यान आता है जो एक मुंबईकर के हाथ में था. उसमें लिखा था - " we would like a dog to guard our home than a politician."
झारखण्ड की समस्या(वैसे तो पुरे देश की ) को सबके सामने रखने के लिए धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंशमीम भाई आपकी बातें पूरी तरह से सत्य हैं। हम सिर्फ लोगों को जागरूक करने का काम कर सकते हैं। अगर लोग वाकई जागरूक हो जाएं, तो फिर ये सब इतिहास की बातें बन जाएंगीं।
जवाब देंहटाएंजनाब व्यवस्था बदलनी होगी जिस से सब को काम और वाजिब दाम मिलने लगे।
जवाब देंहटाएंआभार इस लेख के लिए. दुखद हालात है, संसाधनों के होते हुए वितरण व्यवस्था में खामियां और कुप्रबंधन से जब ऐसा होता है तो स्थिति और चिंतनीय हो जाती है.
जवाब देंहटाएंजाकिर भाई,
जवाब देंहटाएंएक सामाजिक और राजनितिक विषयों को समर्पित ब्लॉग शुरू होने तक तस्लीम पर समसामयिक समस्याओं से सम्बंधित लेख देते रहिये.
भाई शमीम उद्दीन और विष्णु बैरागी जी से सहमत हूँ. चावल सारे देश में आसानी से होता है. उस पर आधारित टिकने वाले सस्ते खाद्य पदार्थ जैसे की गुड-परमल की टिक्की आदि में कुछ आवश्यक खनिज-विटामिन आदि मिलाकर उनका वितरण ग्राम-सभा या स्कूल के द्वारा करने जैसे किसी योजना से भी लाभ हो सकता है. साथ ही देश में दलहन के उत्पादन बढ़ाने के बारे में भी वैज्ञानिक खोजों पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. देश की धार्मिक धारा को भी मानव-मात्र की सेवा की भावना को सचमुच के जनोत्थान आन्दोलन में तब्दील करने की आवश्यकता है. सौ बात की एक बात यह है की सरकार से किसी भी काम की ज़्यादा उम्मीद न करते हुए हमें ख़ुद ही संगठित रूप में आगे आना पडेगा. तस्लीम जैसी संस्थाओं को मेरा नमन!
जवाब देंहटाएंएक गंभीर लेख .......ओर उस पर शमीम भाई की एक विवेक पूर्ण विवेचना .....मै इस लेख को फॉरवर्ड कर रहा हूँ
जवाब देंहटाएंVery good article but if shirish is the writer of this article, his name should be given on the top not Zakir's name.The actual writer's name is given as a foot-note!
जवाब देंहटाएंइन बातों को कहने से अधिक लागू करने की जरूरत है.हमें ख़ुद ही संगठित रूप में आगे आना पडेगा.विचारणीय लेख.
जवाब देंहटाएंगंभीर लेख ! सकारात्मक सोच !
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जवाब देंहटाएंबेचैन कर देने वाला कटुसत्य है यह !
और सच में कहूँ, कि हल्के-फुल्के ब्लागरीय माहौल में
एक सार्थक आलेख देखना अतिसुखद लग रहा है !
शुक्रिया ज़ाकिर भाई !
भुखमरी !!! यहां जर्मन टी वी पर मेरे बच्चो ने एक प्रोगराम देखा, जिस मै दिखाया गया कि भारत से बहुत अच्छी किस्म का गेहूं यहां भेजा जाता है, ओर भारत के लोग घाटिया किस्म का गेहूं खाते है, ओर जो गेहूं यहां (जर्मन) मै आता है उसे बस यह लोग जानवरो को डालते है, किसी ने पुछा कि भारत यह गेहूं अपने लोगो को क्यो नही देता.... तो जबाब था पेसा, जब की भारत मै भुख से कई मोते भी होती है.
जवाब देंहटाएंयह है एक सचाई, ओर मै इस खबर को नेट पर ढ्ढ रहा हुं, अगर मिल गई तो जरुर इस पर एल लेख भी लिखू गा.
आप ने बहुत सही लिखा है.
धन्यवाद
शमीम भाई आपका सुझाव अच्छा है, क्यों न आप भी कलम चलाएं। आपके लेख ब्लॉग पर पब्लिश कर मुझे प्रसन्नता होगी।
जवाब देंहटाएंडा0 भारती जी आपकी बात सही है, वास्तव में लेखक का नाम शुरूआत में ही होना चाहिए। संशोधन कर दिया गया है। हॉं, शीर्षक के नीचे से प्रस्तुतकर्ता का नाम नहीं हटाया जा सकता, क्योंकि वह डिफाल्ट सेटिंग हैं।
भाटिया जी सूचना के लिए आभार। अगर वह लेख मिले, तो उसका लिंक अवश्य दीजिएगा।
शिरीष जी, अमर उजाला में आपकी पोस्ट को स्थान मिलने पर हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंइस उपलब्धि के लिए 'तस्लीम' परिवार को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंजाकिर भाई, आप बड़े लेखक हैं. आप और इस ब्लॉग पर लिखने वाले दूसरे विद्वजनों के सामने मैं उन लोगों में होऊँगा जो कलम पकड़ना भी नहीं जानते. मैं इस काबिल नहीं हूँ.
जवाब देंहटाएंसटीक चिंतन के लिये साधुवाद स्वीकारें
जवाब देंहटाएंLekhak aur tasliim dono ko Badhayi.
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने बाकी एक बात और कि इस भूखमरी के लिए जिम्मेदार कौन हैं। और रही सही कसर अब निकल रही है मंदी के नाम पर लोगों को बेरोजगार करके
जवाब देंहटाएंजिन दोस्तों ने इस लेख को पढ़कर राय दी उनका शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंमैंने सोचा नहीं था कि इस लेख पर इतनी बढ़िया और इस तादाद में मत रखे जायेंगे.
हम इस तरह से जुड़े रहेगे
ऐसी उम्मीद है.