Scientific Temper and Children's
एक प्रगतिशील समाज वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को भलीभांति जानता है। पर हमारे देश में दुर्भाग्यवश इसके विपरीत आचरण देखने को मिलता है। न सिर्फ अभिभावक, बल्कि अध्यापक और सरकारें भी अक्सर इसके विपरीत आचरण करते पाए जाते हैं। ऐसे में बच्चों के मध्यम वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकास एक गम्भीर चुनौती के समान है। क्या इस चुनौती को पार पाया जा सकता है? अगर हां तो कैसे, बता रहे हैं वरिष्ठ विज्ञान संचारक सुभाष चंद्र लखेड़ा।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण और बच्चे
-सुभाष चंद्र लखेड़ा
हमारे यहां जाने-अनजाने समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी अपने बच्चों को उसी अंधेरे में रखना चाहता है जिसमें वे स्वयं पले-बढ़े हैं। ऐसे संगठनों की भी अपने यहां कमी नहीं है जो चाहते हैं कि बच्चों की सोच को एक ऐसे सांचे में ढालना निहायत जरूरी है जो उनके एजेंडा को बढ़ाने में सहायक हो। विभिन्न धार्मिक संगठन इस दिशा में अपनी कोशिशें करते रहते हैं। बहरहाल, भारत जैसे देश में इस तरह के कार्यों पर अंकुश लगाना संभव नहीं है, किन्तु वैचारिक स्वतंत्रता में यकीन रखने वाले लोग और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के हिमायती अपनी तरफ से ऐसी कोशिशें कर सकते हैं जिससे भारत की नई पीढ़ी को उस सोच से बचाया जा सके जो व्यक्ति को मानसिक रूप से गुलाम और असहिष्णु बनाती है। प्रजातंत्र की मजबूती के लिए भी ऐसा करना बेहद जरूरी है। ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग चालीस प्रतिशत अध्यापक छात्रों को विज्ञान पढ़ाते समय गलतियां करते हैं। बच्चों के लिए विज्ञान संबंधी लेखन करते समय भी हमें सजग रहना चाहिए अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो सकता है। राह वही बताये जिसे स्वयं उस रास्ते के बारे में पूरी जानकारी हो। ऐसा न हो कि जो बच्चा आप से बुखार की दवा मांग रहा हो, आप उसे सरदर्द की दवा थमा रहे हों। अक्सर हमें यह सलाह सुनने को मिलती है कि बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने के लिए उनमें अपने आसपास की चीजों को समझने की प्रति जिज्ञासा पैदा करनी चाहिए जबकि जिज्ञासा मनुष्य के जन्मजात स्वभाव का अंग है। इतना जरूर है कि इस जिज्ञासा का परिमार्जन कर इसे बढाया जा सकता है बिलकुल वैसे ही जैसा खेलना बच्चों का जन्मजात गुण होता है और उसे सही खानपान और प्रशिक्षण से सही दिशा दी जा सकती है। खेद की बात तो यह है कि कुछ लोग विज्ञान का सही अर्थ नहीं समझ पाते हैं। वे सोचते हैं कि विज्ञान को समझने-बूझने के लिए मोटे-मोटे पोथे पढ़ना और विभिन्न तरह के उपकरणों से घिरे रहना बेहद जरूरी है। दरअसल, विज्ञान तो वह सरल ज्ञान है जिसे कोई भी समझदार व्यक्ति आसानी से समझ सकता है और उसका सही ढ़ंग से उपयोग कर सकता है।
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बच्चों को विज्ञान का लाभ तभी मिल सकता है जब हम अभिभावक और अध्यापक इस ओर ध्यान देंगे। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हम बच्चों को सरल ढ़ंग से विज्ञान समझाएं। अगर हमारा ध्यान इस ओर होगा तो उसका दोहरा लाभ होगा। हमारे बच्चे स्वस्थ होंगे और वे अपने जीवन को वैज्ञानिक ढ़ंग से जीने की कला में माहिर होते जायेंगे। बच्चों को ऐसी बातें ठीक तरह से तभी समझ आयेंगी जब हमारा स्वयं का जीवन दर्शन वैसा होगा। केवल सैद्धांतिक ज्ञान देने से बात नहीं बनेगी. हमें उस ज्ञान को प्रयोग में भी लाना होगा। यदि हमारे बच्चे वैज्ञानिक ढ़ंग से जीना सीख गए तो इस बात में कोई संदेह नहीं कि इसका लाभ केवल हमारे को ही नहीं, सारी दुनिया को मिलेगा। दरअसल, आज दुनिया जिन समस्याओं का सामना कर रही है, उसका कारण सिर्फ यह है कि दुनिया के लोगों ने अपने बच्चों को और सब कुछ दिया किन्तु यह नहीं बताया कि जीने की वैज्ञानिक कला क्या है और उससे हम अपने और दूसरों के जीवन को कैसे बेहतर बना सकते हैं ?
आज दुनिया के सभी देश जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उनमें भूख और बीमारी का प्रमुख स्थान है। यदि हम अपने बच्चों को बचपन से ही सही जानकारी देंगे तो इन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। तीन-चार वर्ष की आयु से ही बच्चों को यह जानकारी देना शुरू कर देना चाहिए कि भोजन का मानव के लिए क्या महत्व है और हमें उसे बर्बाद क्यों नहीं करना चाहिए। बढ़ती उम्र के साथ-साथ बच्चों को यह जानकारी भी देनी जरूरी है कि पौष्टिक आहार का क्या अर्थ है? खेद की बात तो यह है कि हम बच्चों को इस बारे में जानकारी देना तो दूर रहा, उन्हें "फास्ट फ़ूड" का आदी बना देते हैं। बाद में जब बच्चों को ऐसे आनन - फानन में तैयार होने वाले खाद्य पदार्थों की आदत पड़ जाती है तो हम लोगों से उनकी शिकायत करने लगते हैं। आज दुनिया में खाद्य पदार्थों की कमी का जो संकट है, उसका एक बड़ा कारण लोगों द्वारा भोजन की बर्बादी भी है। साथ ही कई बीमारियों का ताल्लुक हमारे द्वारा खाए जाने वाले उलटे-सीधे आहार से भी है। हम बच्चों में बचपन से ही अन्न की बर्बादी रोकने और संतुलित आहार खाने की आदत डाल कर इन समस्याओं के समाधान में अपना योगदान दे सकते हैं।
बीमारियों का संबंध साफ़-सफाई से भी संबंध रखता है। बच्चों के बारे में एक प्रसिद्ध नियम है कि "पेड़ वैसा ही आकर लेगा, जैसे उसका पौधा तैयार किया जाएगा।" हमें बच्चों को बचपन से ही साफ़-सफाई के बारे में बताना चाहिए। अक्सर लोग बच्चों के लिए महंगे कपड़े सिलवाकर और उन्हें वक़्त जरूरत खुद अथवा धोबी से इस्त्री करवा कर यह मान लेते हैं कि उनके बच्चे साफ़-सुथरे रहते हैं। व्यक्तिगत सफाई जरूरी है लेकिन उससे कहीं अधिक जरूरी उस वातावरण को साफ़ रखना है जिसमें हम लोग रहते हैं और विचरण करते हैं। हमें अपने बच्चों को यह सब समझाना चाहिए कि वे अपने घर, स्कूल तथा आसपास के स्थानों को कैसे साफ़-सुथरा रखने में मदद कर सकते हैं। यहां भी उपदेश देने से कहीं अधिक जरूरी है कि हम खुद भी ऐसे कार्य करें जिनसे बच्चे खुद ही यह समझ जाएँ कि उन्हें कहीं भी कोई ऐसा कार्य नहीं करना है जिससे गंदगी फैलती हो। आप को कई ऐसे वयस्क और बुजुर्ग मिल जायेंगे जो यहां-वहां थूकते रहते हैं। ऐसे लोगों से बच्चे कौन सा विज्ञान सीख सकते हैं, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
आज हम सभी प्रदूषण की बात करते हैं। हम बच्चों को बचपन से ही यह बता सकते हैं कि उनके कौन से काम प्रदूषण रोकने का काम कर सकते हैं। उन्हें यह समझाया जाना चाहिए कि जहां तक संभव हो वे पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों का तभी प्रयोग करें जब जरूरत हो। नजदीक के काम पैदल चलकर अथवा साइकिल का इस्तेमाल कर किए जा सकते हैं। पैदल चलना स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। बच्चों को यह भी बताना जरूरी है कि यदि हम बेमतलब बिजली का इस्तेमाल करते हैं तो उससे केवल हमारा बिजली का बिल ही नहीं बढ़ता बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। दरअसल, बचपन में पड़ा असर मनुष्य की जीने की कला को ही बदल देता है। बच्चों को मोबाइल देते समय उन्हें इससे जुड़े खतरे भी बताने चाहियें। बच्चों में आदत डालें कि वे जो भी काम करें, वैज्ञानिक सोच से करें। अगर आप का स्वयं का जीवन विज्ञान सम्मत है तो आपके बच्चे और आपके संपर्क में आने वाले बच्चे उससे अवश्य लाभान्वित होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।
हमारी वैज्ञानिक चेतना स्तर क्या है? इस सवाल का जवाब प्रतिदिन हमारे खबरिया टीवी चैनलों में देखने को मिलता है। दरअसल, अभी भी हमारी जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा अज्ञानता का बोझ ढ़ो रहा है और हमारे अधिकांश खबरिया चैनल दिन भर ऊल-जलूल खबरों पर अपनी रोटियां सेंकते रहते हैं। यदि समाज में गुंडागर्दी पर अंकुश नहीं लगता तो हम पुलिस को कोसते हैं। इस हिसाब से देखा जाये तो समाज में व्याप्त अंधविश्वासों पर अंकुश न लगने के लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिनके ऊपर पंडित जवाहर लाल नेहरु (Jawaharlal Nehru) ने वैज्ञानिक सोच विकसित करने की जिम्मेदारी डाली थी। मीडिया उनमें से एक है। हमारा मीडिया यदि यूं ही निष्क्रिय बना रहेगा तो हमारी जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा अज्ञानता से उपजे और नकली बाबाओं द्वारा टीवी के निजी चैनलों के माध्यम से फैलाये जा रहे अंधविश्वासों का बोझ ढ़ोती रहेगी।
हमारे देश में वैज्ञानिक वातावरण बने, इसके लिए जरूरी है कि लोगों तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे कार्यों की जानकारी पहुंचती रहे। इसके लिए देश में विभिन्न भाषाओँ में ऐसी पत्र-पत्रिकाएं होनी चाहियें जो विज्ञान और तकनीकी विषयों की जानकारी लोगों को पहुंचाती रहें। साथ ही आज हमारे पास लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के जो भी संसाधन उपलब्ध हैं, उनका इस कार्य में उपयोग होना चाहिए। प्रसिद्ध दार्शनिक लारी लोडान के शब्दों में "विज्ञान का उद्देश्य समस्याओं के समाधान के लिए अधिक प्रभावी सिध्दांतों की खोज करना है।" किन्तु हम अपनी समस्याओं के समाधान के लिए इन अधिक प्रभावी सिद्धांतों का उपयोग तभी कर सकते हैं जब हम अपनी भाषाओँ और संचार के सभी आधुनिक माध्यमों द्वारा से इन्हें जनता के सभी वर्गों तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे अन्यथा हमारा सारा विज्ञान यूं ही निष्क्रिय पड़ा रहेगा। (जनसत्ता से साभार)
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